11-24-2019, 12:37 PM,
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RE: non veg kahani एक नया संसार
प्रतिमा को जाने क्या सूझी कि वह धीरे से उठी और अपने जिस्म से साड़ी निकाल कर एक तरफ फेंक दी। इतना हीं नहीं उसने अपने ब्लाउज के हुक खोल कर उसे भी अपने जिस्म से निकाल दिया। ब्लाउज के हटते ही उसकी खरबूजे जैसी भारी चूचियाॅ उछल पड़ीं। इसके बाद उसने पेटीकोट को भी उतार दिया। अब प्रतिमा बिलकुल मादरजाद नंगी थी। उसका चेहरा हवस तथा वासना से लाल पड़ गया था।
अपने सारे कपड़े उतारने के बाद प्रतिमा फिर से चारपाई के पास घुटनों के बल बैठ गई। उसकी नज़र लुंगी से बाहर उसके ही द्वारा निकाले गए विजय सिंह के हलब्बी लंड पर पड़ी। अपना दाहिना हाॅथ बढ़ा कर उसने उसे आहिस्ता से पकड़ा और फिर आहिस्ता आहिस्ता ही सहलाने लगी। प्रतिमा उसको अपने मुह में भर कर चूसने के लिए पागल हुई जा रही थी, जिसका सबूत ये था कि प्रतिमा अपने एक हाथ से कभी अपनी बड़ी बड़ी चूचियों को मसलने लगती तो कभी अपनी चूॅत को। उसके अंदर वासना अपने चरम पर पहुॅच चुकी थी। उससे बरदास्त न हुआ और उसने एक झटके से नीचे झुक कर विजय के लंड को अपने मुह में भर लिया....और जैसे यहीं पर उससे बड़ी भारी ग़लती हो गई। उसने ये सब अपने आपे से बाहर होकर किया था। विजय का लंड जितना बड़ा था उतना ही मोटा भी था। प्रतिमा ने जैसे ही उसे झटके से अपने मुह में लिया तो उसके ऊपर के दाॅत तेज़ी से लंड में गड़ते चले गए और विजय के मुख से चीख निकल गई साथ ही वह हड़बड़ा कर तेज़ी से चारपाई पर उठ कर बैठ गया। अपने लंड को इस तरह प्रतिमा के मुख में देख वह भौचक्का सा रह गया किन्तु फिर तुरंत ही वह उसके मुह से अपना लंड निकाल कर तथा चारपाई से उतर कर दूर खड़ा हो गया। उसका चेहरा एक दम गुस्से और घ्रणा से भर गया। ये सब इतना जल्दी हुआ कि कुछ देर तक तो प्रतिमा को कुछ समझ ही न आया कि ये सब क्या और कैसे हो गया? होश तो तब आया जब विजय की गुस्से से भरी आवाज़ उसके कानों से टकराई।
"ये क्या बेहूदगी है?" विजय लुंगी को सही करके तथा गुस्से से दहाड़ते हुए कह रहा था__"अपनी हवस में तुम इतनी अंधी हो चुकी हो कि तुम्हें ये भी ख़याल नहीं रहा कि तुम किसके साथ ये नीच काम कर रही हो? अपने ही देवर से मुह काला कर रही हो तुम। अरे देवर तो बेटे के समान होता है ये ख़याल नहीं आया तुम्हें?"
प्रतिमा चूॅकि रॅगे हाॅथों ऐसा करते हुए पकड़ी गई थी उस दिन, इस लिए उसकी ज़ुबान में जैसे ताला सा लग गया था। उस दिन विजय का गुस्से से भरा वह खतरनाक रूप उसने पहली बार देखा था। वह गुस्से में जाने क्या क्या कहे जा रहा था मगर प्रतिमा सिर झुकाए वहीं चारपाई के नीचे बैठी रही उसी तरह मादरजात नंगी हालत में। उसे ख़याल ही नहीं रह गया था कि वह नंगी ही बैठी है। जबकि,,,
"आज तुमने ये सब करके बहुत बड़ा पाप किया है।" विजय कहे जा रहा था__"और मुझे भी पाप का भागीदार बना दिया। क्या समझता था मैं तुम्हें और तुम क्या निकली? एक ऐसी नीच और कुलटा औरत जो अपनी हवस में अंधी होकर अपने ही देवर से मुह काला करने लगी। तुम्हारी नीयत का तो पहले से ही आभास हो गया था मुझे इसी लिए तुमसे दूर रहा। मगर ये नहीं सोचा था कि तुम अपनी नीचता और हवस में इस हद तक भी गिर जाओगी। तुममें और बाज़ार की रंडियों में कोई फर्क नहीं रह गया अब। चली जाओ यहाॅ से...और दुबारा मुझे अपनी ये गंदी शकल मत दिखाना वर्ना मैं भूल जाऊॅगा कि तुम मेरे बड़े भाई की बीवी हो। आज से मेरा और तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं...अब जा यहाॅ से कुलटा औरत...देखो तो कैसे बेशर्मों की तरह नंगी बैठी है?"
विजय की बातों से ही प्रतिमा को ख़याल आया कि वह तो अभी नंगी ही बैठी हुई है तब से। उसने सीघ्रता से अपनी नग्नता को ढॅकने के लिए अपने कपड़ों की तरफ नज़रें घुमाई। पास में ही उसके कपड़े पड़े थे। उसने जल्दी से अपनी साड़ी ब्लाउज पेटीकोट को समेटा किन्तु फिर उसके मन में जाने क्या आया कि वह वहीं पर रुक गई।
विजय की बातों ने प्रतिमा के अंदर मानो ज़हर सा घोल दिया था। जो हमेशा उसे इज्ज़त और सम्मान देता था आज वही उसे आप की जगह तुम और तुम के बाद तू कहते हुए उसकी इज्ज़त की धज्जियाॅ उड़ाए जा रहा था। उसे बाजार की रंडी तक कह रहा था। प्रतिमा के दिल में आग सी धधकने लगी थी। उसे ये डर नहीं था कि विजय ये सब किसी से बता देगा तो उसका क्या होगा। बल्कि अब तो सब कुछ खुल ही गया था इस लिए उसने भी अब पीछे हटने का ख़याल छोंड़ दिया था।
उसने उसी हालत में खिसक कर विजय के पैर पकड़ लिए और फिर बोली__"तुम्हारे लिए मैं कुछ भी बनने को तैयार हूॅ विजय। मुझे इस तरह अब मत दुत्कारो। मैं तुम्हारी शरण में हूॅ, मुझे अपना लो विजय। मुझे अपनी दासी बना लो, मैं वही करूॅगी जो तुम कहोगे। मगर इस तरह मुझे मत दुत्कारो...देख लो मैंने ये सब तुम्हारा प्रेम पाने के लिए किया है। माना कि मैंने ग़लत तरीके से तुम्हारे प्रेम को पाने की कोशिश की लेकिन मैं क्या करती विजय? मुझे और कुछ सूझ ही नहीं रहा था। पहले भी मैंने तुम्हें ये सब जताने की कोशिश की थी लेकिन तुमने समझा ही नहीं इस लिए मैंने वही किया जो मुझे समझ में आया। अब तो सब कुछ जाहिर ही हो गया है,अब तो मुझे अपना लो विजय...मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए।"
"बंद करो अपनी ये बकवास।" विजय ने अपने पैरों को उसके चंगुल से एक झटके में छुड़ा कर तथा दहाड़ते हुए कहा__"तुझ जैसी गिरी हुई औरत के मैं मुह नहीं लगना चाहता। मुझे हैरत है कि बड़े भइया ने तुझ जैसी नीच और हवस की अंधी औरत से शादी कैसे की? ज़रूर तूने ही मेरे भाई को अपने जाल में फसाया होगा।"
"जो मर्ज़ी कह लो विजय।" प्रतिमा ने सहसा आखों में आॅसू लाते हुए कहा__"मगर मुझे अपने से दूर न करो। दिन रात तुम्हारी सेवा करूॅगी। मैं तुम्हें उस गौरी से भी ज्यादा प्यार करूॅगी विजय।"
"ख़ामोशशशश।" विजय इस तरह दहाड़ा था कि कमरे की दीवारें तक हिल गईं__"अपनी गंदी ज़ुबान से मेरी गौरी का नाम भी मत लेना वर्ना हलक से ज़ुबान खींचकर हाॅथ में दे दूॅगा। तू है क्या बदजात औरत...तेरी औकात आज पता चल गई है मुझे। तेरे जैसी रंडियाॅ कौड़ी के भाव में ऐरों गैरों को अपना जिस्म बेंचती हैं गली चौराहे में। और तू गौरी की बात करती है...अरे वो देवी है देवी...जिसकी मैं इबादत करता हूॅ। तू उसके पैरों की धूल भी नहीं है समझी?? अब जा यहाॅ से वर्ना धक्के मार कर इसी हालत में तुझे यहाॅ से बाहर फेंक दूॅगा।"
प्रतिमा समझ चुकी थी कि उसकी किसी भी बात का विजय पर अब कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं था। उल्टा उसकी बातों ने उसे और उसके अंतर्मन को बुरी तरह शोलों के हवाले कर दिया था। उसने जिस तरीके से उसे दुत्कार कर उसका अपमान किया था उससे प्रतिमा के अंदर भीषण आग लग चुकी थी और उसने मन ही मन एक फैंसला कर लिया था उसके और उसके परिवार के लिए।
"ठीक है विजय सिंह।" फिर उसने अपने कपड़े समेटते हुए ठण्डे स्वर में कहा था__"मैं तो जा रही हूं यहाॅ से मगर जिस तरह से तुमने मुझे दुत्कार कर मेरा अपमान किया है उसका परिणाम तुम्हारे लिए कतई अच्छा नहीं होगा। ईश्वर देखेगा कि एक औरत जब इस तरह अपमानित होकर रुष्ट होती है तो भविष्य में उसका क्या परिणाम निकलता है??"
प्रतिमा की बात का विजय सिंह ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि गुस्से से उबलती हुई ऑखों से उसे देख गर वहीं मानो हिकारत से थूॅका और फिर बाहर निकल गया। जबकि बुरी तरह ज़लील व अपमानित प्रतिमा ने अपने कपड़े पहने और हवेली जाने के लिए कमरे से बाहर निकल गई। उसके अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधक हुई उठी थी।
हवेली पहुॅच कर प्रतिमा ने अपने पति अजय सिंह से आज विजय सिंह से हुए कारनामे का सारा व्रत्तान्त मिर्च मशाला लगा कर सुनाया। उसकी सारी बातें सुन कर अजय सिंह सन्न रह गया था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि आज इतना बड़ा काण्ड हो गया है।
"मुझे उस हरामज़ादे से अपने अपमान का प्रतिशोध लेना है अजय।" प्रतिमा ने किसी ज़हरीली नागिन की भाॅति फुंकारते हुए कहा___"जब तक मैं उससे अपमान का बदला नहीं लूॅगी तब तक मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी।"
"ज़रूर डियर।" अजय सिंह ने सहसा कठोरता से कहा___"तुम्हारे इस अपमान का बदला ज़रूर उससे लिया जाएगा। आज के इस हादसे से ये तो साबित हो ही गया कि वो मजदूर हमारे झाॅसे में आने वाला नहीं है। सोचा था कि सब मिल बाॅट कर खाएॅगे और मज़ा करेंगे लेकिन नहीं उस मजदूर को तो कलियुग का हरिश्चन्द्र बनना है। इस लिए ऐसे इंसान का जीवित रहना हमारे लिए अच्छी बात नहीं है। उसके रहते हम अपनी हसरतों को पूरा नहीं कर पाएॅगे प्रतिमा। वो मजदूर हमारे रास्ते का सबसे बड़ा काॅटा है। इस काॅटे को अब जड़ से उखाड़ कर फेंकना ही पड़ेगा।"
"जो भी करना हो जल्दी करो अजय।" प्रतिमा ने कहा___"मैं उस कमीने की अब शकल भी नहीं देखना चाहती कभी। साला कुत्ता मुझे दुत्कारता है। कहता था कि मैं उसकी गौरी की पैरों की धूल भी नहीं हूॅ। मुझे रंडी बोलता है। मैं दिखाऊॅगी उसे कि मेरे सामने उसकी वो राॅड गौरी कुछ भी नहीं है। उसे सबके नीचे न लेटाया तो मेरा भी नाम प्रतिमा सिंह बघेल नहीं। उसे कोठे की नहीं बल्कि बीच चौराहे की रंडी बनाऊॅगी मैं।"
"शान्त हो जाओ प्रतिमा।" अजय सिंह ने उसे खुद से लगा लिया___"सब कुछ वैसा ही होगा जैसा तुम चाहती हो। लेकिन ज़रा तसल्ली से और सोच समझ कर बनाए गए प्लान के अनुसार। ताकि किसी को किसी बात का कोई शक न हो पाए।"
"ठीक है अजय।" प्रतिमा ने कहा___"लेकिन मैं ज्यादा दिनों तक उसे जीवित नहीं देखना चाहती। तुम जल्दी ही कुछ करो।"
"फिक्र मत करो मेरी जान।" अजय ने कुछ सोचते हुए कहा___"आज से और अभी से प्लान बी शुरू। अब चलो गुस्सा थूॅको और मेरे साथ प्यार की वादियों में खो जाओ।"
ये दोनो तो अपने प्यार और वासना में खो गए थे लेकिन उधर खेतों में विजय सिंह बोर बेल के पास बने एक बड़े से गड्ढे में था। उस गड्ढे में हमेशा बोर का पानी भरा रहता था। विजय सिंह उसी पानी से भरे गड्ढे में था। उसके ऊपर बोर का पानी गिर रहा था। वह एकदम किसी पुतले की भाॅति खड़ा था। उसका ज़हन उसके पास नहीं था। बोर का पानी निरंतर उसके सिर पर गिर रहा था।
विजय सिंह के की ऑखों के सामने बार बार वही मंज़र घूम रहा था। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे अभी भी उसका लंड प्रतिमा के मुह मे हो। इस मंज़र को देखते ही उसके जिस्म को झटका सा लगता और वह ख़यालों की दुनियाॅ से बाहर आ जाता। उसका मन आज बहुत ज्यादा दुखी हो गया था। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि उसकी सगी भाभी उसके साथ ऐसा घटिया काम कर सकती है। विजय सिंह के मन में सवाल उभरता कि क्या यहीं प्रेम था उसका?
विजय सिंह ये तो समझ गया था कि उसकी भाभी ज़रा खुले विचारों वाली औरत थी। शहर वाली थी इस लिए शहरों जैसा ही रहन सहन था उसका। कुछ दिन से उसकी हरकतें ऐसी थी जिससे साफ पता चलता था कि वह विजय से वास्तव में कैसा प्रेम करती है। किन्तु विजय सिंह को उससे इस हद तक गिर जाने की उम्मीद नहीं थी। विजय सिंह को सोच सोच कर ही उस पर घिन आ रही थी कि कितना घटिया काम कर रही थी वह।
उस दिन विजय सिंह सारा दिन उदास व दुखी रहा। उसका दिल कर रहा था कि वह कहीं बहुत दूर चला जाए। किसी को अपना मुह न दिखाए किन्तु हर बार गौरी और बच्चों का ख़याल आ जाता और फिर जैसे उसके पैरों पर ज़ंजीरें पड़ जातीं।किसी ने सच ही कहा है कि बीवी बच्चे किसी भी इंसान की सबसे बड़ी कमज़ोरी होते हैं। जब आप उनके बारे में दिल से सोचते हैं तो बस यही लगता है कि चाहे कुछ भी हो जाए पर इन पर किसी तरह की कोई पराशानी न हो।
विजय सिंह हमेशा की तरह ही देर से हवेली पहुॅचा। अन्य दिनों की अपेक्षा आज उसका मन किसी भी चीज़ में नहीं लग रहा था। उसने खुद को सामान्य रखने बड़ी कीशिश कर रहा था वो। अपने कमरे में जाकरवह फ्रेश हुआ और बेड पर आकर बैठ गया।
वर्तमान अब आगे________
इंस्पेक्टर रितू उस हास्पिटल में पहुॅची जहाॅ पर रेप पीड़िता विधी को एडमिट किया गया था। विधी की हालत पहले से काफी ठीक थी। रितू के पहुॅचने के पहले ही विधी के परिवार वाले उससे मिल कर गए थे। इस वक्त विधी के पास उसकी माॅ गायत्री थी। गायत्री अपनी बेटी की इस हालत से बेहद दुखी थी।
रितू जब उस कमरे में पहुॅची तो उसने विधी के पास ही एक कुर्सी पर गायत्री को बैठै पाया। रितू ने औपचारिक तौर पर उससे नमस्ते किया और उसे अपने बारे में बताया। रितू के बारे में जानकर गायत्री पहले तो चौंकी फिर सहसा उसके चेहरे पर अजीब से भाव आ गए।
"मेरी बेटी के साथ जो कुछ हुआ है वो तो वापस नहीं लौट सकता बेटी।" गायत्री ने अधीरता से कहा___"ऊपर से इस सबका केस बन जाने से हमारी समाज में बदनामी ही होगी। इस लिए मैं चाहती हूॅ कि तुम ये केस वेस का चक्कर बंद कर दो। मैं जानती हूॅ कि इस केस में आगे क्या क्या होगा? वो सब बड़े लोग हैं बेटी। वो बड़े से बड़ा वकील अपनी तरफ से खड़ा करेंगे और बड़ी आसानी से केस जीत जाएॅगे। वो कुछ भी कर सकते हैं, वो तो जज को भी खरीद सकते हैं। अदालत के कटघरे में खड़ी मेरी फूल जैसी बेटी से उनका वकील ऐसे ऐसे सवाल करेगा जिसका जवाब देना इसके बस का नहीं होगा। वो सबके सामने मेरी बेटी की इज्ज़त की धज्जियाॅ उड़ाएंगे। ये केस मेरी बेटी के साथ ही एक मज़ाक सा बन कर रह जाएगा। इस लिए मैं तुमसे विनती करती हूॅ बेटी कि ये केस वेस वाला चक्कर छोड़ दो। हमें कोई केस वेस नहीं करना।"
"आप जिस चीज़ की कल्पना कर रही हैं आॅटी जी।" रितू ने विनम्रता से कहा__"मैं उस सबके बारे में पहले ही सोच चुकी हूॅ। मैं जानती हूॅ कि आप जो कह रही हैं वो सोलह आने सच है। यकीनन ऐसा ही होगा मगर, आप चिन्ता मत कीजिए आॅटी। विधी अगर आपकी बेटी है तो ये मेरी भी दोस्त है अब। इसके साथ जो कुछ भी उन लोगों ने घिनौना कर्म किया है उसकी उन्हें ऐसी सज़ा मिलेगी कि हर जन्म में उन्हें ये सज़ा याद रहेगी और वो अपने किसी भी जन्म में किसी की बहन बेटियों के साथ ऐसा करने का सोचेंगे भी नहीं।"
"बात तो वही हुई बेटी।" गायत्री ने कहा__"तुम उन्हें कानूनन इसकी सज़ा दिलवाओगी जबकि मैं जानती हूॅ कि उन लोगों के बाप लोगों के हाॅथ तुम्हारे कानून से भी ज्यादा लम्बे हैं। तुम उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाओगी बेटी। उल्टा होगा ये कि इस सबके चक्कर में खुद तुम्हारी ही जान का खतरा पैदा हो जाएगा।"
"मुझे अपनी जान की कोई परवाह नहीं है आॅटी।" रितू ने सहसा मुस्कुराकर कहा__"और मेरी जान इतनी सस्ती भी नहीं है जो यूॅ ही किसी ऐरे गैरे के हाॅथों शिकार हो जाएगी। खैर, मै ये कहना चाहती हूॅ कि उन लोगों को कानूनन सज़ा दिलवाने का फैसला मैने बदल दिया है।"
"क्या मतलब??" गायत्री के साथ साथ बेड पर लेटी विधी भी चौंक पड़ी थी।
"ये तो मुझे भी पता है ऑटी कि वो लोग कितने बड़े खेत की पैदाइस हैं।" रितू ने अजीब भाव से कहा___"कहने का मतलब ये कि कानूनी तौर पर यकीनन मैं उन्हें वैसी सज़ा नहीं दिला सकती जैसी सज़ा के वो लोग हक़दार हैं। इस लिए अब सज़ा अलग तरीके से दी जाएगी उन्हें। बिलकुल वैसी ही सज़ा जैसी सज़ा ऐसे नीच लोगों को देनी चाहिये।"
"तुम क्या कह रही हो बेटी मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा।" गायत्री का दिमाग़ मानो जाम सा हो गया था।
"ये सब छोंड़िये ऑटी।" रितू ने कहा__"मैं बस आपसे ये कहना चाहती हूॅ कि अगर आपसे कोई इस बारे में कुछ भी पूछे तो आप यही कहियेगा कि हमने कोई केस वगैरा नहीं किया है। ये मत कहियेगा कि मैं आपसे या विधी से मिली थी। यही बात आप विधी के डैड को भी बता दीजिएगा। मेरी तरफ से उनसे कहना कि दिल पर कोई बोझ या मलाल रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। बहुत जल्द कुछ ऐसा उन्हें सुनने को मिलेगा जिससे उनकी आत्मा को असीम तृप्ति का एहसास होगा।"
"तुम क्या करने वाली हो बेटी?" गायत्री का दिल अनायास ही ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा था, बोली___"देखो कुछ भी ऐसा वैसा न करना जिससे पुनः मेरी बेटी पर कोई संकट आ जाए।"
"आप बेफिक्र रहिए ऑटी।" रितू ने गायत्री का हाथ पकड़ कर उसे हल्का सा दबाते हुए कहा___"मैं विधी पर अब किसी भी तरह का कोई संकट नहीं आने दूॅगी। मुझे भी उसकी फिक्र है।"
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11-24-2019, 12:38 PM,
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RE: non veg kahani एक नया संसार
वर्तमान अब आगे________
रितू विधी से मिलने के बाद शाम को अपने घर हवेली पहुॅची। विधी की कहानी और उसकी बातों ने उसे सच में अंदर तक हिला दिया था। वह प्यार मोहब्बत जैसी चीज़ों को बकवास ही मानती थी। किन्तु विधी से मिलने के बाद उसे इस प्यार मोहब्बत की अहमियत समझ आई थी। उसे समझ आया कि कैसे लोग किसी के प्यार में इस क़दर पागल से हो जाते हैं कि अपने महबूब की खुशी के लिए वो कोई भी काम किस हद से बाहर तक कर सकते हैं। विधी से मिलकर और उसके प्यार की सच्चाई व गहराई को जानकर उसे एहसास हुआ कि आज के युग में भी अभी ऐसे लोग हैं जो प्यार के लिए क्या नहीं कर डालते?
विधी की हालत और उसके प्यार की दास्तां ने रितू के अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया था। एक तेज़ तर्रार लड़की जो खुद को किसी भी मामले में लड़कों से कम नहीं समझती थी आज विधी की असलियत ने उसके दिल को छू लिया था। उसके हृदय में विधी के प्रति पीड़ा जाग गई थी और जिस पीड़ा ने उसकी ऑखों से ऑसू छलका दिये थे।
वह आज तक नहीं समझ पाई और ना ही कभी समझने की कोशिश की कि क्यों वह अपने चाचा चाची के लड़के विराज से नफ़रत करती थी? क्यों उसने कभी उससे बात करना ज़रूरी नहीं समझा? क्यों उसने हमेशा विराज को अपना भाई नहीं समझा? आख़िर क्या अपराध किया था उसने उसके साथ? जहाॅ तक उसे याद था जब कभी भी विराज उससे बात किया था तो बड़ी इज्ज़त से किया था। हमेशा उसे दीदी और आप कह कर संबोधित करता था।
विधी से मिलने के बाद रितू हवेली में जाकर सीधा अपने कमरे में बेड पर लेट गई थी। उसकी माॅ ने तथा उसकी छोटी बुआ नैना ने उससे बात करना चाहा था मगर उसने सबको ये कह कर अपने पास से वापस लौटा दिया था कि वह कुछ देर अकेले रहना चाहती है।
बेड पर पड़ी हुई रितू ऊपर छत के कुंडे पर लगे हुए पंखे को घूर रही थी अपलक। उसकी ऑखों के सामने विधी का वो रोता बिलखता हुआ चेहरा और उसकी वो करुण बातें घूम रही थी।
"मेरी आपसे एक विनती है दीदी।" फिर विधी ने अलग होकर तथा ऑसू भरी ऑखों से कहा।
"विनती क्यों करती है पागल?" रितू का गला भर आया___"तू बस बोल। क्या कहना है तुझे?"
"मु मुझे एक बार।" विधी की रुलाई फूट गई, लड़खड़ाती आवाज़ में कहा___"मुझे बस ए एक बार वि..विरा...ज से मिलवा दीजिए। मुझे मेरे महबूब से मिलवा दीजिए दीदी। मैं उसकी गुनहगार हूॅ। मुझे उससे अपने किये की माफ़ी माॅगनी है। मैं उसे बताना चाहती हूॅ कि मैं बेवफा नहीं हूॅ। मैं तो आज भी उससे टूट टूट कर प्यार करती हूॅ। उसे बुलवा दीजिए दीदी। मेरी ख़्वाहिश है कि मेरा अगर दम निकले तो उसकी ही बाहों में निकले। मेरे महबूब की बाॅहों में दीदी। आप बुलवाएॅगी न दीदी? मुझे एक बार देखना है उसे। अपनी ऑखों में उसकी तस्वीर बसा कर मरना चाहती हूॅ मैं। अपने महबूब की सुंदर व मासूम सी तस्वीर।"
"बस कर रे।" रितू का हृदय हाहाकार कर उठा___"मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि मैं तेरी ऐसी करुण बातें सुन सकूॅ। मैं तुझसे वादा करती हूॅ कि तेरे महबूब को मैं तेरे पास ज़रूर लाऊॅगी। मैं धरती आसमान एक कर दूॅगी विधि और उसे ढूॅढ़ कर तेरे सामने हाज़िर कर दूॅगी। मैं अभी से उसका पता लगाती हूॅ। तू बस मेरे आने का इंतज़ार करना।"
ये सब बातें रितू की ऑखों के सामने मानो किसी चलचित्र की तरह बार बार चलने लगती थी। जितनी बार ये दृष्य उसकी ऑखों के सामने से गुज़रता उतनी बार रितू के अंदर एक हूक सी उठती और उसके समूचे अस्तित्व को हिला कर रख देती।
"क्या सचमुच प्यार ऐसा होता है विधी?" रितू ने सहसा करवॅट बदल कर मन ही मन में कहा___"क्या सचमुच प्यार में लोग अपने महबूब की खुशी के लिए इस हद से बाहर तक गुज़र जाते हैं? तुम्हें देख कर और तुम्हारी बातें सुन कर तो ऐसा ही लगता है विधी। तुम सच में बहुत महान हो विधी। मेरे उस भाई से तुमने इस हद तक प्यार किया जिस भाई से मैं बात तक करना अपनी शान के खिलाफ़ समझती थी। और एक वो था कि हमेशा मुझे इज्ज़त देता था, मुझे दीदी कहते हुए उसका मुह नहीं थकता था। जब भी वो मुझसे बात करने की कोशिश करता तो हर बार मैं उसे दुत्कार देती थी। मुझे याद है विधी, जब मैं उसे दुत्कार कर भगा देती थी तब उसकी ऑखों में ऑसू होते थे। जिन्हें वह ऑखों से छलकते नहीं देता था बल्कि उन्हें ऑखों में ही जज़्ब कर लेता था। मैने तेरे विराज को बहुत दुख दिये हैं विधी। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।"
एकाएक ही रितू की ऑखों से ऑसू छलक कर उसके कपोलों को भिगोने लगे। सहसा जैसे उसे कुछ याद आया। वह तुरंत ही बेड से उठी और तेज़ी से बगल में दीवार से सटी हुई आलमारी के पास पहुॅची। उसने आलमारी का हैण्डल घुमाया लेकिन वो न घूमा। मतलब साफ था कि आलमारी लाॅक थी।
रितू दूसरी साइड रखे एक टेबल की तरफ बढ़ी और उसकी कबड को खोल कर उसमें से एक चाभी का गुच्छा निकाला। गुच्छा लेकर वह तुरंत आलमारी के पास वापस पहुॅची और गुच्छे से एक चाभी को चुन कर उसने आलमारी के की-होल पर डाल कर घुमाया। आलमारी एकदम से अनलाॅक हो गई। रितू ने हैण्डल पकड़ कर घुमाया और फिर आलमारी के दोनो फटकों को दोनो साइड खोल दिया।
आलमारी के अंदर कई सारे पार्ट्स थे जिनमें कुछ पर कपड़े व कुछ पर कुछ किताबें व फाइलें रखी हुई थी। किन्तु रितू की नज़र उन सब पर नहीं बल्कि आलमारी के अंदर मौजूद एक और लाॅकर पर थी। उसने एक दूसरी चाभी से उस लाकर को खोला। उसके अंदर भी कुछ काग़जात जैसे ही थे। एक प्लास्टिक का डिब्बा था। रितू ने उन काग़जातों को एक ही बार में सारा का सारा बाहर निकाल लिया।
उन सबको निकाल कर वह पलटी और बेड पर उन सभी काग़जातों को फैला दिया। उनमें कुछ रसीदें थी, कुछ एग्रीमेंट जैसे काग़जात थे और कुछ लिफाफे थे। रितू ने झट से एक लिफाफा उठा लिया। उसे खोल कर देखा तो उसमें कुछ फोटोग्राफ्स थे। रितू ने लिफाफे से सारे फोटोग्राफ्स निकाल लिये और फिर एक एक कर देखने लगी। पाॅच छः फोटोग्राफ्स को देखने के बाद रितू एक दम से रुक गई। एक फोटोग्राफ्स पर उसकी नज़र जैसे गड़ सी गई थी। कुछ देर देखने के बाद उसने बाॅकी सारे फोटोग्राफ्स को बेड पर गिरा दिया और बस एक फोटोग्राफ्स को लिए वह बेड पर एक साइड बैठ गई।
फोटोग्राफ्स में उसके माॅम डैड, नीलम, शिवा एवं वह खुद भी थी। किन्तु रितू की नज़र उन सबके पीछे कुछ दूरी पर खड़े विराज पर टिकी हुई थी। ये फोटोग्राफ्स कुछ साल पहले का था। हवेली में कोई कार्यक्रम था तब ही शहर से किसी फोटोग्राफर को बुलवाया गया था और ये तस्वीरें खींची गई थी। अन्य तस्वीरों में बाॅकी सबकी तस्वीरें थी लेकिन विजय सिंह गौरी व उनके बच्चों की कोई तस्वीरें नहीं थी। इस तस्वीर में भी ग़लती से ही विराज की फोटो आ गई थी। रितू को याद आया कि शिवा बार बार विराज से इस बात पर लड़ पड़ता था कि वो उसके साथ फोटो न खिंचवाए। मगर उत्सुकतावश वो आ ही जाता था।
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