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RE: Sex Hindi Kahani एक अनोखा बंधन
नमस्ते दोस्तों
आज बहुत समय बाद मैं आप सब से जुड़ रही हूँ| बहुत कुछ है जो मैं आप सब से साँझा करना चाहती हूँ| इन कुछ दिनों में बहुत कुछ हुआ...मेरे पिताजी की मृत्यु से ले के मेरे बड़े भाई साहब के अचानक प्रकट होने तक!
पिताजी की मृत्यु की खबर इन्हें (मेरे पति) को सबसे पहले मिली| माँ ने उन्हें फोन करके हिदायत दी की वे मुझे लेके गाँव ना आएं| उसका कारन भी उन्होंने स्पष्ट बताया की गर्भवती स्त्रियाँ और वो जिनकी नई-नई शादी होती हैं उन्हें ऐसे दुयखद प्रयोजनों से दूर रखा जाता है| इस "वाहियात" कारण को ना तो मैं ओर ना ही ये मानते हैं| हालाँकि मेरे सास-ससुर ने भी इन्हें रोक पर सब के खिलाफ जाते हुए इन्होने मुझे सारी बात बताई| एक पुत्री का पिता के प्रति जो लगाव जो प्यार होता है उसे आंकने नामुमकिन है| जब मुझे ये खबर इन्होने सुनाई तो मेरा रो-रो कर बुरा हाल था| मेरे कुछ कहने से पहले ही इन्होने मुझे कहा की; "सामान तैयार है, tickets बुक हैं हम अभी निकल रहे हैं|" एक पल के लिए मैं हैरान थी की इन्होने ये सब कैसे? हम घर से सीधा हवाईअड्डे पहुँचे और खचा-खच भरे हवाई जहाज से लखनऊ पहुँचे| सासु माँ और ससुर जी की टिकट नहीं हो पाई थी इसलिए वो और बच्चे रात की गाडी से आनेवाले थे| हवाई अड्डे से टैक्सी बुक की जिसने दो घंटे में हमें घर पहुँचाया| मुझे वहां देख माँ हैरान थी और दौड़ी-दौड़ी आई और मुझे अपने गले लगाया| हम बहुत रोये...बहुत ज्यादा... इतने में अनिल आया और वो आके इनके गले लगा और रोने लगा| इन्होने उसे ढांढस बंधाया और हमने अंदर प्रवेश किया और हमें वहाँ देख के एक भी व्यक्ति खुश नहीं हुआ... मेरी अपनी बहनें ..उन्हें तो मुझे देख के जैसे सांप ही सूँघ गया था! किसी ने हमसे बात नहीं की...यहाँ तक की चरण काका जो मेरे पिताजी के अच्छे दोस्त थे, उन्होंने तक हमसे कोई बात नहीं की| अनिल ने आगे बढ़ के पिताजी के मुख के अंतिम दर्शन कराये| पिताजी को देख मुझसे रुका नहीं गया और मैं जैसे तैसे उनके मृत शरीर के पास बैठ गई और बिलख-बिलख के रोने लगी| मुझे बचपन की वो सभी यादें अपनी आँखों के सामने दिखाई देने लगी...मेरा बचपन... वो पिताजी का हँसता हुआ चेहरा.... उनके चेहरे की ख़ुशी जो मेरी शादी पे थी...ये सब.... इन्होने मुझे किसी तरह संभाला| कुछ दिनों से उनकी तबियत नासाज़ थी.... मैं नसे मिलने आना चाहती थी अरन्तु पिताजी ने मुझे अपनी कसम से बाँध अखा था की आने वाले बच्चे को किसी प्रकार का कष्ट ना हो इसलिए तू ज्यादा भाग दौड़ी ना कर| शाम ढले उनकी तबियत ज्यादा खराब हो गई और डॉक्टर को बुलवाया गया| उसने "ड्रिप" चढ़ाया परन्तु आधी रात के समय पिताजी का दिल बेचैन होने लगा...शायद उन्हें आभास हो गया था| उन्होंने माँ से बात की....और अपनी अधूरी इच्छा प्रकट की…माँ उन्हें ढांढस बन्धात् रही...किसी तरह पिताजी सो गए| जो व्यक्ति रोज सुबह चार बजे उठ जाता था वो जब छः बजे तक नहीं उठा तो माँ को चिंता हुई और वो हाल खबर पूछने आईं तो उन्हें पिताजी का शरीर ठंडा मिला| माँ पर उस समय क्या बीती होगी ये मैं सोच भी नहीं सकती| सबसे पहला फोन उन्होंने इन्हें (मेरे पति) को किया और उसके बाद अनिल को|
हमें लगा की शायद कोई और भी आनेवाला है पर वहाँ तो केवल इनका (मेरे पति) का इन्तेजार किया जा रहा था| माँ ने इनका हाथ अपने हाथों मैं लिया और कहा; "बेटा इनकी (पिताजी) की आखरी इच्छा यही थी की उनकी चिता को अग्नि तुम दो|" इन्होने कोई सवाल नहीं किया बस हाँ में सर हिलाया और जब मैंने इनकी आँखों में झाँका तो मुझे इनकी आँखों में बस अश्रु ही दिखे| जब शव को कन्धा देने की बारी आई तो मुझे उस भीड़ में एक जाना-पहचाना चेहरा दिखाई दिया| ये मेरे बड़े भाई साहब थे जिन्हें मैंने कई सालों से नहीं देखा था| उनकी याद ेरे मन में बस उसी दिन की थी जिस दिन उन्होंने घर छोड़ा था| हाँ नींद में कई बार माँ उनका नाम बड़बड़ाया करती थी... बस सिर्फ उनका नाम ही मेरे मन में था और उनके प्रति मेरा स्नेह ख़त्म हो चूका था| जब उन्हें मैंने आज देखा तो एक बार को मन किया की जाके उन्हें अर्थी से दूर खीच लूँ और वापस जाने को कहूँ पर अब मुझ में जरा भी शक्ति नहीं थी| इसलिए उनके जाने के कुछ क्षण बाद ही मैं बेहोश हो गई उसके बाद जब मुझे होश आया तो मेरे सिरहाने मेरे पति बैठे थे और मेरे सर पर हाथ फेर रहे थे| जब मैं उठ के बैठी तो इनके मुंह से निकला; "Sorry"| किस लिए सॉरी बोला ये पूछने की मुझे जर्रूरत नहीं पड़ी क्योंकि इन्होने खुद ही सच बोल दिया| दरअसल काफी साल पहले जब मन किशोरावस्था में थी तब एक दुखद घटना के कारन मेरे बड़े भाईसाहब ने घर-बार छोड़ दिया था| उस दिन के बाद पिताजी ने कभी उनका नाम तक अपनी जुबान पर नहीं आने दिया| मैं भी उन्हें लघभग भूल ही चुकी थी| और आज जब माँ ने कहा के मुखाग्नि ये (मेरे पति) देंगे तो इन्होने उस समय तो कुछ नहीं कहा परन्तु शमशान पहुँच कर इन्होने मुख अग्नि देते समय सबसे पहला हाथ बड़े भाईसाहब और उसके बाद अनिल का हाथ लगवाया और अंत में अपने हाथ से स्वयं मुखाग्नि दी| ये सुनने के बाद मैं कुछ नहीं बोली... मेरे पास शब्द ही नहीं थे की क्या कहूँ? इन्होने जो किया वो सही किया पर मन में एक सवाल था की सब कुछ जानते हुए भी क्या इन्हें बड़े भाई साहब से मेरी तरह घृणा नहीं? मेरे इस सवाल का जवाब इन्होने कुछ इस तर दिया; "उस दिन जो ही हुआ उसमें सारसर गलती बड़े भाई साहब की थी| घर छोड़ने के बाद उनपर क्या बीती ये किसी ने जानने की कोशिश तक नहीं की? आज जब अनिल ने मुझे उनसे मिलवाया तो शमशान जाने के रास्ते भर मैं उनसे ये सब पूछ बैठा| उन्हें अपनी गलती का पछतावा है और आजीवन रहेगा| पिता की मृत्यु के बाद अदा भाई बाप सामान होता है, और उसी का हक़ होता है की वो पिता को मुखाग्नि दे परन्तु जब माँ ने मुझे बताया की उनकी आखरी इच्छा ये थी की मैं उन्हें मुखाग्नि दूँ तो मैं उनकी इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता था| परन्तु सब के सामने यदि मैं आगे बढ़ के मुखाग्नि देता तो ये गात होता..इसलिए मैंने पंडित जी के हाथों से अग्नि को स्वीकार नहीं किया और बड़े भाईसाहब को बुलाके उनके हाथों में पवित्र अग्नि को थमाया उसके पश्चात अनिल को हाथ लगाने को कहा और अंत में मैंने अनिल से पवित्र अग्नि को ले पिताजी को मुखाग्नि दी| मुझे नहीं पता की मैंने किसी रीति-रिवाज को तोडा है परन्तु जो मेरे मन को ठीक लगा मैंने वो किया| यदि आज पिताजी जिन्दा ओते तो भाईसाहब की सारी बात सुनके उन्हें माफ़ कर देते ..... खेर... मैंने पिताजी की अधूरी इच्छा पूरी की और उनके "तीनों पुत्रों" के हाथों उन्हें अग्नि भी नसीब हुई| अगर मैं गलत हूँ तो ईश्वर मुझे अवश्य दण्डित करेगा, पर कम से कम मेरी अंतर-आत्मा मुझे कभी झिंझोड़ेगी नहीं की मैंने पिताजी के बड़े बेटे के होते हुए उन्हें मुखाग्नि दी|"
आप ने कुछ भी गलत नहीं किया...हाँ अगर मैं आपकी जगह होती तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती थी...शायद मेरी बुद्धि इतनी विकसित नहीं हुई| पर आपने जो किया उसपर मुझे गर्व है| पिताजी को इससे अच्छी श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती थी|
हमारी बातें माँ ने सुन ली थी और वो बस आके इनके गले लग गईं और बोलीं; "जानती है बेटी, इन्ही खूबियों के कारन तेरे पिताजी ने मानु को कभी दामाद नहीं बल्कि अपना बेटा ही समझा था| इसने कई बार बिना कहे ही हमारे परिवार की मुश्किलों के समय में हमेशा आगे बढ़ के साथ दिया है| पर मुझे अफ़सोस इस बात जा है की मैं मानु को वो मान-सम्मान नहीं दिल सकती जो उसके लायक है|"
"माँ...मेरे लिए इतना ही काफी है की पिताजी ने मुझे इस काबिल समझा...इतना यार दिया..अनिल मेरे भाई जैसा ही है और आप एरी माँ जैसी..कभी लगा ही नहीं की आप लोग अलग हो| रही मान-सम्मान की बात तो यहाँ के लोगों की सोच ही इतनी घटिया है| हाँ मैं आसे क्षमा चाहता हूँ की मैंने आज जो किया वो........"
"बेटा तूने कुछ गलत नहीं किया.... बिलकुल सही किया| अब तुम दोनों बाहर चलो समधी जी, समधन जी और बच्चे आये हैं|"
जब हम बहार आये तो मेरा मन बच्चों को देख के प्रफुलित हो गया और मैंने उन्हें गले लगाने को बुलाया तो वो दौड़े-दौड़े आये और........ इनके गले लग गए| मैं हैरान देखने लगी और वहां खड़े अनिल, माँ, ससुर जी और सासु जी समेत सब हँसने लगे| चलो भगवन की यही लीला थी की सभी लोग थोड़ा मुस्कुराये तो सही| माँ बोली; "देख ले...तेरे बच्चे तुझसे ज्यादा मानु बेटे को प्यार करते हैं|" मैं बस मुस्कुरा के रह गई, क्योंकि जानती थी की बच्चे सच में मुझसे ज्यादा इनसे प्यार करते हैं और मुझे इस बात का फक्र है! नेहा जो की इनका खून नहीं, उसे ये आयुष से कहीं ज्यादा प्यार करते हैं और वो भी इन्हें इस कदर प्यार करती है की बिना इनके उसे रात को नींद नहीं आती| जब कभी इन्हें काम के कारन रात को बाहर रूकना पड़ता है मुझे नेहा की बात इनसे फोन पे करवानी पड़ती है, तब ये उनसे कहानी सुनेगी और तभी सोयेगी| केवल इनके हॉस्पिटल में रहने के दौरान ही ससुर जी इसे संभाला करते थे| आज चार दिन होने आये थे पर मेरी दोनों बहनें जानकी और शगुन, मुझसे बात नहीं कर रही थी और मैं अपने बड़े भाई साहब से बात नहीं कर रही थी| मेरा मन अब भी उन्हें माफ़ नहीं कर पाया था हाँ बस उनके प्रति मेरी घृणा मेरे इनके कारण खत्म हो चुकी थी|
शेष कल लिखूंगी...
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RE: Sex Hindi Kahani एक अनोखा बंधन
मैं सोफे पे बैठा था और आँखें बंद किये हुए उन शब्दों में छुपे दर्द को महसूस कर रहा था| अनदर ही अंदर ये चुभन मेरी जान ले रही थी और उस दिन का हर एक दृश्य मेरे सामने आने लगा| खून उबलने लगा... इस कदर गुस्सा बढ़ गया की मैं बड़े जोश से उठ खड़ा हुआ पर अगले ही पल मुझे एक जोरदार चक्कर आया और मैं जमीन पे गिर गया और उसके आगे मुझे होश नहीं की क्या हुआ|
जैसे ही ये गिरे मैं भागती हुई आई और इन्हें उठाया और माँ को पुकारा; "माँ..माँ..जल्दी आइए!!!" माँ उस समय अंदर के कमरे में थी| पिताजी बाहर किसी काम से गए थे| माँ ने जब इन्हें जमीन पे गिरा हुआ पाया तो वो भी घबरा गईं और मुझसे पूछने लगीं; "बहु...मानु को क्या हुआ बहु?" मैं खुद नहीं जानती थी की इन्हें क्या हुआ है? मैं बहुत ज्यादा घबरा रही थी और इनका गाल थप-थापा रही थी और माँ इनके हाथ घिसने लगी थी| इतने में नेहा भी आ गई; "नेहा जल्दी डॉक्टर सरिता को फ़ोन मिला और जल्दी यहाँ बुला, बोल पापा बेहोश हो गए हैं|" नेहा ने तुरंत फ़ोन मिलाया पर उसके चेहरे को देख के आगा की बात कुछ और है और ये देख मेरे दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं!
"माँ...डॉक्टर सरिता ने कहा की वो इस वक़्त क्लिनिक में नहीं हैं| उन्होंने कहा की हम पापा को हॉस्पिटल ले जाएं|"
मेरे कुछ कहने से पहले ही माँ बोल पड़ीं; " बेटा जल्दी से अपने दादा जी को फ़ोन मिला वो एम्बुलेंस ले के आ जायेंगे|"
नेहा ने ठीक वैसा ही किया और करीब पंद्रह मिनट में एम्बुलेंस आ गई, पिताजी नॉएडा में थे इसलिए अगर हम उनके आने का इन्तेजार करते तो काफी देर हो जाती, इसलिए उन्होंने फ़ोन कर के बताया की हम हॉस्पिटल पहुंचें और साथ ही साथ उन्होंने कुछ पड़ोसियों को भी फ़ोन मिलाया ताकि वो हमारी मदद करें| ..(दरअसल ये एक प्राइवेट एम्बुलेंस थी) सब ने मिलके इन्हें (मेरे पति) स्ट्रेचर पे लिटाया और चूँकि हमारा घर गली में पड़ता है तो हमें एम्बुलेंस तक इन्हें ले जाना पड़ा| मैं, माँ, आयुष और नेहा एम्बुलेंस में बैठ गए| सारे रास्ते मैं रोये जा रही थी और माँ मुझे ढांढस बंधा रही थी यह कह की; "बेटी कुछ नहीं होगा मानु को| तू चिंता मत कर ...सब ठीक हो जायेगा|" अगले बीस मिनट में हम हॉस्पिटल पहुँच गए| डॉक्टर सरिता ने हॉस्पिटल में अपने जानने वाले को पहले ही फ़ोन कर दिया और वो हमें गेट पर ही मिल गईं|सरिता जी ने इनकी केस हिस्ट्री डॉक्टर रूचि को पहले ही बता दी थी इसलिए तुरंत इन्हें admit कर के उपचार शुरू हो गया| करीब-करीब बीस मिनट बाद डॉक्टर सरिता भी आ गईं और वो सीधा प्राइवेट वार्ड में चली गईं जहाँ हम बैठे थे| अगले आधे घंटे में पिताजी भी आ गए और फिर सरिता जी ने माँ- और पिताजी को अपने साथ केबिन में बुलाया और मुझे वहीँ बैठे रहने को कहा| मैं स्टूल ले के इनके पास बैठ गई इस उम्मीद में की ये अब आँखें खोलेंगे ...अब आँखें खोलेंगे! दस मिनट बाद माँ अंदर आईं और मुझसे पूछने लगी; "बेटा...मानु ने दवाई खाई थी?" मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था, इसलिए मैं अवाक सी उन्हें देख रही थी और फिर मेरे मुँह से निकला; "पता नहीं माँ..." मेरा जवाब सुन के माँ को ये एहसास तो हो गया होगा की हमारे बीच में कुछ सही नहीं चल रहा था...पर उन्हें ये नहीं पता होगा की ये सब मेरी गलती थी! माँ पलट की जाने लगी तो अचानक से नेहा बोल पड़ी; दादीजी... पापा ने दवाई नहीं ली| मैंने कल रात को उन्हें याद दिलाया था पर उन्होंने कहा की मैं ठीक हूँ|" माँ ने उसके सर पे हाथ फेरा और वापस सरिता जी के केबिन में चली गईं| हैरानी की बात थी की नेहा को मुझसे ज्यादा उनकी फ़िक्र थी...शायद इलिये की ये उसे ज्यादा प्यार करते थे...मुझसे भी ज्यादा!
कुछ देर बाद माँ, पिताजी और सरिता जी कमरे में आये पर अभी तक मुझे इनकी तबियत के बारे में कुछ नहीं बताया गया| सब मुझसे छुपा रहे थे ... आखिर मैंने ही डॉक्टर सरिता से पूछा; "सरिता जी आखिर इन्हें हुआ क्या है?" पर उनके कुछ कहने से पहले ही पिताजी बोल पड़े; "बेटा मानु को थोड़ी देर में होश आ जायेगा, तू चिंता मत कर|" वो मेरे पिता सामान थे इसलिए मैं कुछ नहीं बोली और ये सोच के खुद को संतुष्ट कर लिया की ये पूरी तरह ठीक हो जाएं ...बस यही काफी है मेरे लिए|
चूँकि हमें एक प्राइवेट रूम allot किया गया था तो पिताजी को बाकी formalities पूरी करने के लिए जाना पड़ा| पंद्रह मिनट बाद पिताजी वापस आये और बोले; "बेटा ...मेरा डेबिट कार्ड का बैलेंस खत्म हो गया है और पैसे अब भी कम पड़ रहे हैं| तेरे पास तेरा डेबिट कार्ड है?" जल्दी-जल्दी में मैं अपना पर्स नहीं लाइ थी; "पिताजी वो मेरे पर्स में है.." पिताजी कुछ सोचने लगे और फिर बोले; "ऐसा करते हैं की हम सब वापस चलते हैं और पैसे ले के मैं वापस आ जाऊँगा| तुम दोनों शाम को आ जाना?" पर मेरा मन वहां से हिलने को नहीं कर रहा था इसलिए मैंने कहा; "पिताजी मैं यहीं रूकती हूँ आप बच्चों को और माँ को ले जाइए|" पिताजी कुछ सोचने लगे और आखिर में उन्होंने बच्चों ओ साथ चलने को कहा पर बहोन ने भी जाने से मन कर दिए और हार कर पिताजी को और माँ को जाना पड़ा| माँ भी जाना नहीं चाहती थी पर चूँकि ज्यादा देर बैठने से उनके पाँव में सूजन बढ़ने लगती है तो मेरे कहने पे माँ चली गईं| उन दिनों घर में पैसों को लेके कुछ परेशानी चल रही थी| पिताजी ने हॉस्पिटल में पैसे जमा करा दिए थे पर उन्हें आगे के बारे में भी सोचना था| पैसे जमा कर के पिताजी वापस आये और मुझे बोले; "बेटा...मैंने पैसे जमा करा दिए हैं| तुम्हें तो पता ही है की हमारी पेमेंट अभी फंसीहुई है| मैं अभी कुछ लोगों से मिल के आता हूँ शायद कोई पेमेंट कर दे! तो तुम और बच्चे यहीं रहो..और अगर डॉक्टर कुछ कहे तो मुझे फोन कर देना| मैं शाम तक तुम्हारी माँ के साथ आ जाऊँगा और तब तक मानु को भी होश आ जायेगा|" मैंने हाँ में सर हिलाया और पिताजी बच्चों को कह गए की अपने मम्मी-पापा का ध्यान रखना|
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