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RE: Nangi Sex Kahani जवानी की दहलीज
फिर उसने मुझे नहलाया, तौलिए से पौंछा और मुझे गोदी में उठा कर बिस्तर पर लिटा कर एक चादर से ढक दिया।
"एक मिनट रुकना... मैं अभी आता हूँ।" कहकर वह वापस गुसलखाने में चला गया और मुझे उसके नहाने की आवाजें आने लगीं।
मैं सोच रही थी कि उसने मुझ से अपने आप को क्यों नहीं नहलवाया... ना ही मेरे साथ कोई और खिलवाड़ की... जब वह मेरी योनि चाट रहा था मैं सोच रही थी भोंपू ज़रूर मुझसे अपना लिंग मुँह में लेने को बोलेगा... मुझे यह सोच सोच कर ही उबकाई सी आ रही थी। हालाँकि उसकी योनि-पूजा से मुझे बहुत ज़्यादा मज़ा आया था फिर भी मुझे लिंग मुँह में लेना रास नहीं आ रहा था। कुछ तो गंदगी का अहसास हो रहा था और कुछ यह डर था कहीं मेरे मुँह में उसका सुसू ना निकल जाये।
मैं अपने विचारों में खोई हुई थी कि भोंपू अपने आप को तौलिए से पोंछता हुआ आया। उसने बिना किसी चेतावनी के मेरी चादर खींच कर अलग कर दी और धम्म से मेरे ऊपर आ गिरा। गिरते ही उसने मेरे ऊपर पुच्चियों की बौछार शुरू कर दी... उसके दोनों हाथ मेरे पूरे शरीर पर चलने लगे और उसकी दोनों टांगें मेरे निचले बदन पर मचलने लगीं।
अपने पेट पर मैं उसका मुरझाया हुआ पप्पू महसूस कर सकती थी। बिल्कुल नादान, असहाय और भोला-भाला लग रहा था... जैसे इसने कभी कोई अकड़न देखी ही ना हो। पर मैंने तो इसका विराट रूप देखा हुआ था। फिर भी उसका मुलायम, गुलगुला सा स्पर्श मेरे पेट को अच्छा लग रहा था।
भोंपू ने अपने पेट को मेरे पेट पर गोल गोल पर मसलना शुरू किया... उसकी जांघें मेरी जाँघों पर थीं और वह घुटनों से घुमा कर अपनी टांगें मेरी टांगों पर चला रहा था। उसके पांव के पंजे कभी मेरे तलवों पर खुरचन करते तो कभी वह अपना एक घुटना मेरी योनि पर दबा कर उसे घुमाता। हम दोनों के नहाये हुए ठण्डे बदनों में वह गरमाइश उजागर कर रहा था। अब उसने मेरे मुँह में अपनी जीभ ज़बरदस्ती डाल दी और उसे मेरे मुँह के बहुत अंदर तक गाढ़ दिया। मेरा दम सा घुटा और मैं खांसने लगी। उसने जीभ बाहर निकाल ली और मेरे स्तनों पर आक्रमण किया।
वह बेतहाशा मुझे सब जगह चूम रहा था... उस पर वासना का भूत चढ़ रहा था... जिसका प्रमाण मेरे पेट को उसके अंगड़ाई लेते हुए लिंग ने भी दिया। वह भोला सा लुल्लू अब मांसल हो गया था और धीरे धीरे अपने पूरे विकृत रूप में आ रहा था। मुझे उसके लिंग में आती हुई तंदुरुस्ती अच्छी लगी... उसका स्पर्श मेरे पेट को मर्दाना लगने लगा... मेरी योनि की पिपासा तीव्र होने लगी... मेरी टांगें अपने आप खुल कर उसकी टांगों के बाहर हो गईं... मेरे घुटने स्वयं मुड़ कर मेरे पैरों को कूल्हों के पास ले आये... मेरे हाथ उसके कन्धों पर आकर उसे हल्का सा नीचे की ओर धकलेने लगे। यूं समझो कि बस मेरी जुबां चुप थी... बाकी मेरा पूरा बदन भोंपू को मेरे में समाने के लिए मानो चिल्ला सा रहा था।
भोंपू एक शादीशुदा तजुर्बेकार खिलाड़ी था। उसे मेरी हर हरकत समझ आ रही होगी पर फिर भी वह अनजान बन रहा था। शायद मुझे चिढ़ाने और तड़पाने में उसे मज़ा आ रहा था।
मेरी योनि न केवल द्रवित हो चुकी थी... उसमें से लगता था एक धारा सी बह रही होगी। मैं अपनी व्याकुलता और अधीरता से लज्जित तो महसूस कर रही थी पर अपने ऊपर संयम पाने में असफल थी।
जब भोंपू ने कोई पहल नहीं की तो मुझे ही मजबूरन कुछ करना पड़ा। मैंने अपनी एड़ियों पर अपना वज़न लेते हुए अपने आप को सिरहाने की तरफ इस तरह सरकाया जिससे उसका लिंग मेरी टांगों के बीच चला गया। मैंने पाया कि उसका लिंग पूरा लंड बन चुका था ... तन्नाया हुआ, करीब 45 डिग्री के कोण पर अपने स्वाभिमान का परिचय दे रहा था। मैंने अपने आप को थोड़ा उचका कर नीचे किया तो उसके मूसल का मध्य भाग और टट्टे मेरी योनि को लगे... उसका सुपारा नखरे दिखा रहा था।
भोंपू को यह खेल पसंद आ रहा था।... उसने भी शायद अपनी तरफ से कुछ ना करने की ठान ली थी। गेंद मेरे पाले में थी पर मेरी समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ। मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था... शायद वह अपनी जगह से हट कर मेरी योनि में बस गया था। मुझे बस योनि की लपलपाहट महसूस हो रही थी... वह भोंपू के लंड को निगलने के लिए आतुर थी। मेरे तन-बदन में एक गहरी आकांक्षा पनप चुकी थी जो कि सिर्फ लंड-ग्रहण से ही तृप्त हो सकती थी।
जब मुझसे और रहा ना गया, मैंने अपने दोनों हाथ भोंपू के चूतड़ों पर रखे और उसको नीचे की ओर दबाते हुए अपने कूल्हों को ऊपर किया। उसके सुपारे के स्पर्श को सूझते हुए मैंने अपनी कमर को ऐसे व्यवस्थित किया कि आखिर उसके लंड की इकलौती आँख को मेरा योनि द्वार दिख ही गया। जैसे ही उसका सुपारा योनि द्वार को छुआ मेरी सतर्क योनि ने मानो अपना मुँह खोला और उसको झट से निगल गई... उसका सुपारा अब मेरी योनि की पकड़ में था।
इच्छा शक्ति और वासना अपनी जगह है और योनि की काबलियत अपनी जगह। जहाँ मेरा मन उसके पूरे लंड को अंदर लेने के लिए बेचैन था, वहीं मेरी योनि अभी इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं थी। होती भी कैसे?... अभी उसे अनुभव ही कितना था? सिर्फ कौमार्य ही तो भंग हुआ था...। अर्थात, मेरी तंग योनि में लंड ठुसाने के लिए मरदानी ताक़त और निश्चय की ज़रूरत थी। मैंने अपनी तरफ से कोशिश की पर उसका उल्टा ही परिणाम हुआ। उसका सुपारा फिसल कर बाहर आ गया।
अचानक मुझे भोंपू के हाथ मेरे चूतड़ों के नीचे जाते महसूस हुए। मुझे राहत मिली... शायद भोंपू में भी वासना की ज्वाला पूरी तरह लग चुकी थी... उसका लंड भी कितनी देर आँख-मिचोली खेलता... वह भी अपने आप को कितनी देर रोकता...। भोंपू ने सम्भोग की बागडोर अपने हाथों में ली... मेरी अपेक्षा परवान चढ़ने लगी... मेरा मन पुलकित और तन उसके होने वाले प्रहार से संकुचित होने लगा।
मैंने अपने आप को एक मीठे पर कठोर दर्द के लिए तैयार कर लिया। जब उसने सुपारा अपने लक्ष्य पर टिकाया तो मुझे कल का अनुभव याद आ गया... कितना दर्द हुआ था... मेरी जांघें कस गईं... मेरी एक कलाई ने मेरी आँखों को ढक दिया और मेरे दांत भिंच गए। वह किसी भी क्षण अंदर धक्का लगाने वाला था... मैं तैयार थी। उसने धक्का लगाने के बजाय अपने सुपारे को योनि कटाव में ऊपर-नीचे किया... लगता था वह गुफा का दरवाज़ा ढूंढ रहा हो। उसके अनुभवी सुपारे को कुछ दिक्कत हो रही थी... वह गलत निशाना लगा कर अपना प्रहार व्यर्थ नहीं करना चाहता था... मेरा हाथ स्वतः मार्ग-दर्शन के लिए नीचे पहुंचा और उसके लंड को पकड़ कर सही रास्ता दिखा दिया।
भोंपू ने मेरे बाएं स्तन को मुँह में लेकर मेरा शुक्रिया सा अदा किया और उसके स्तनाग्र को जीभ और दांतों के बीच लेकर मसलने लगा। मेरी नाज़ुक चूची पर दांत लगने से मुझे दर्द हुआ और मेरी हल्की सी चीख निकल गई। उसने दांत हटाकर अपनी जीभ से मरहम सा लगाया और धीरे धीरे लंड से योनि पर दबाव बनाने लगा।
अगर किसी अंग में पीड़ा कम करनी हो तो किसी और अंग में ज़्यादा पीड़ा कर देनी चाहिए। भोंपू को शायद यह फॉर्मूला आता था... उसने चूची से मेरा ध्यान चूत पर आकर्षित किया। उसके वहाँ बढ़ते दबाव से मैं चूची का दर्द भूल गई और अब मुझे चूत का दर्द सताने लगा। भोंपू ने मेरा दूसरा चूचक अपने मुँह में ले लिया और अब उसे मर्दाने लगा। मेरे शरीर में पीड़ा इधर से उधर जा रही थी... भोंपू एक मंजे हुए साजिन्दे की तरह मेरे बदन के तार झनझना रहा था... मेरे बदन को कभी सितार तो कभी बांसुरी बना कर मेरे में से नए नए स्वर निकलवा रहा था।
मैं कभी दर्द में तो कभी हर्ष में आवाजें निकाल रही थी। रह रह कर वह नीचे का दबाव बढ़ाता जा रहा था। जैसे कोई दरवाज़ा खोल कर अंदर आने का प्रयत्न कर रहा हो पर कोई उसे अंदर ना आने देना चाहता हो... कुछ इस प्रकार का द्वंद्व लंड और योनि में हो रहा था। जब भी पीड़ा से मेरी आह निकलती भोंपू दबाव कम कर देता और किसी ऐसे मार्मिक अंग को होटों से चूम लेता कि मेरा दर्द काफूर हो जाता...
नाभि, पेट, बगल, स्तनों के नीचे का हिस्सा, गर्दन, कान, आँखें इत्यादि सभी को उसकी चुम्मा-चाटी का अनुभव हुआ। मेरे प्रति उसकी इस संवेदनशीलता का मुझ पर बहुत प्रभाव हो रहा था। मैंने अपना सिर झुका कर उसके होटों को चूमकर कृतज्ञता का इज़हार किया। वह शायद ऐसे ही मौके की प्रतीक्षा कर रहा था... जब हमारे होंट मिलकर कुछ आगे करने की सोच रहे थे, उसने एक ज़ोर का झटका लगाया और लंड को आधे से ज़्यादा अंदर ठूंस दिया। मेरी दर्द से ज़ोरदार आअआहाह निकल गई जो कि मेरे मुँह से होकर उसके मुँह में चली गई। उसने मेरे सिर के बालों में उँगलियाँ फेरते हुए मुझे साहस दिया। योनि में लंड फंसा हुआ सा लग रहा था... योनि द्रवित होने के बावजूद तंग थी...मुझे भरा भरा सा महसूस हो रहा था... एक ऐसा अहसास जो मुझे असीम आनंद दे रहा था।
kramashah.....................
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RE: Nangi Sex Kahani जवानी की दहलीज
जवानी की दहलीज-8
भोंपू ने और अंदर पहुँचने के लिए लंड से दबाव लगाया पर लगता था योनि की दीवारें आपस में चिपकी हुई हैं। उसने थोड़ा पीछे करके लंड से धक्का लगाने की कोशिश की पर ज़्यादा सफलता नहीं मिली। कल के मुकाबले वह आज कम ज़ोर लगा रहा था। या तो वह मुझे दर्द नहीं देना चाहता था या सोचता होगा कि जब योनि की सील ही टूट गई है तो फिर लंड आसानी से घुस जाना चाहिए। पर उसका अनुमान गलत था।
कल जो कुछ हुआ उससे में अनजान थी... मुझे पता नहीं था क्या होगा, कैसे होगा, दर्द कितना होगा... पर आज मेरा शरीर और दिमाग दोनों अनजान नहीं थे। शायद इसीलिए, दर्द के पूर्वाभास से मैं अपनी योनि को सकोड़ रही थी... जानबूझ कर नहीं... अनजाने में... एक तरह से मेरे शरीर की आत्म-रक्षा की प्रतिक्रिया थी। मुझे जब यह आभास हुआ तो मैंने अपने बदन को ढीला छोड़ने की कोशिश की और साथ ही भोंपू के कूल्हे पर एक हल्की सी चपत लगा कर उसे उकसाया... जैसे एक घुड़सवार एड़ी लगाकर घोड़े को तेज़ चलने के लिए प्रेरित करता है। फर्क इतना था कि यहाँ घोड़ी अपने सवार को उकसा रही थी !
भोंपू ने मेरा संकेत भांपते हुए मेरे स्तनों के बीच अपनी नाक घुसा कर मुझे गुदगुदी की और लंड को सुपारे तक बाहर निकाल लिया। मैं उसके प्रहार के प्रति चौकन्नी हुई और मेरा तन फिर से सहमने लगा तो मैंने अपने आप का ढांढस बढ़ाते हुए अपने शरीर, खास तौर से योनि, को ढीला छोड़ने का प्रयास किया।
तभी भोंपू ने ज़ोरदार मर्दानी ताकत के साथ लंड का प्रहार किया और मेरी दबी हुई चीख के साथ उसका लंड मूठ तक मेरी योनि में समा गया। मुझे लगा मेरी चूत ज़रूर फट गई होगी... दर्द काफ़ी पैना और गहरा लग रहा था... मेरी आँख में दर्द से आंसू आ गए थे। उसका भरा-पूरा लंड चूत में ऐसे ठंसा हुआ था कि मुझे सांस मेने में दुविधा हो रही थी... मेरा शरीर उसके शरीर के साथ ऐसे जुड़ गया था मानो दो लकड़ी की परतों को कील ठोक कर जोड़ दिया हो... यह सच भी था... एक तरह से उसने अपनी कील मुझ में ठोक ही दी थी। पर अब मुझे उसका ठुंसा हुआ लंड अपने बदन में अच्छा लग रहा था... मैं कल से भी ज़्यादा भरी हुई लग रही थी... मानो उसका लंड एक दिन में और बड़ा हो गया था या मेरी मुन्नी और संकरी हो गई थी।
उसने चुदाई शुरू करने के लिए लंड बाहर निकालना चाहा तो उसे आसान नहीं लगा। चूत की दीवारों ने लंड को कस कर अपने शिकंजे में पकड़ा हुआ था। भोंपू के अंतरमन से संतुष्टी और आनंद की एक गहरी सांस निकली और उसने मेरी गर्दन को चूम लिया... शायद उसे भी मेरी तंग चूत में ठसे हुए लंड की अनुभूति मज़ा दे रही थी। उसने मेरी टांगों को थोड़ा चौड़ा किया और धीरे धीरे लंड थोड़ा बाहर निकाला और ज़ोर से पूरा अंदर डाल दिया... इसी तरह धीरे धीरे बाहर और जल्दी से अंदर करने लगा... हर बार उसका लंड थोड़ा और ज़्यादा बाहर आता... अंततः लंड सुपारे तक बाहर आने लगा।
मेरा दर्द कम था पर अब भी उसके हर प्रहार से मैं हल्का सा उचक रही थी और मेरी हल्की हल्की चीख निकल रही थी। भोंपू को मेरी चीख और भी उत्तेजित कर रही थी और वह नए जोश के साथ मुझे चोदने लगा। जोश में उसका लंड पूरा ही बाहर आ गया और जब वह अंदर डालने लगा तो मेरे योनि द्वार मानो स्प्रिंग से बंद हो गए।उसे फिर से सुपारे को चूत के छेद पर रख कर धक्का मारना पड़ा। इस बार भी लंड पूरा अंदर नहीं गया और एक दो झटकों के बाद ही पूरा अंदर-बाहर होने लगा। भोंपू को ये चुदाई बहुत अच्छी लग रही थी... वह रह रह कर मेरा नाम ले रहा था... उसके अंदर से आह ... ऊऊह की आवाजें आने लगीं थीं। मैं भी चुदाई का आनंद ले रही थी और मेरे कूल्हे भोंपू की चुदाई की लय के साथ स्वतः ऊपर-नीचे होने लगे थे जिससे उसका लंड हर बार पूरी गहराई तक अंदर-बाहर हो रहा था। अंदर जाता तो मूठ तक और बाहर आता तो सुपारे तक। हम दोनों को घर्षण का पूरा आनंद मिल रहा था।
कुछ देर में उसका लंड मेरी गीली चूत में सरपट चलने लगा... जब भी वह ज़ोर लगा कर लंड पूरा अंदर ठूंसता मेरे अंदर से ह्म्म्म ... हम्म्म्म की आवाजें आतीं और कभी कभी हल्की सी चीख भी निकल जाती। उसका जोश बढ़ रहा था... उसकी रफ़्तार तेज़ होने लगी थी... हम दोनों की साँसें तेज़ हो रहीं थीं... मेरी चूचियां अकड़ कर खड़ी हो रहीं थीं... उसकी आँखों की पुतलियाँ बड़ी हो गईं थीं... उसकी नथुनियाँ भी बड़ी लग रहीं थीं... मुझे लगा उसका लंड और भी मोटा हो गया था... मेरी चूत में कसमसाहट बढ़ने लगी ... मेरे अंदर आनंद का ज्वारभाटा आने लगा... मैं कूल्हे उचका उचका कर उसके धक्कों का सामना करने लगी जिससे उसका लंड और भी अंदर जाने लगा...
मैं उन्मादित हो गई थी... अचानक मेरे बदन में एक बिजली की लहर सी दौड़ गई और मैं छटपटाने लगी ... मैंने अपनी जांघें कस लीं, सांस रोक ली और दोनों हाथों से भोंपू को कस कर पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया जिससे उसका लंड जड़ तक मेरे अंदर आ गया। मैंने भोंपू को अपने अंदर लेकर रोक दिया और मेरा बदन हिचकोले खाने लगा... मुझे लगा मेरी योनि सिलसिलेवार ढंग से लंड का जकड़ और छोड़ रही है... मेरा पूरा बदन संवेदनशील हो गया था।
भोंपू ने फिर से चुदाई करने की कोशिश की तो मेरे मार्मिक अंगों से सहन नहीं हुआ और मुझे उसे रोकना पड़ा। थोड़ी देर में मेरा भूचाल शांत हो गया और मैं निढाल सी पड़ गई। भोंपू ने फिर से चुदाई शुरू करने की कोशिश की तो मैंने फिर से उसे रोक दिया... कुछ देर रुकने के बाद जब मुझे होश आया, मैंने भोंपू की पीठ पर अपनी टांगें लपेट कर उसे शुरू होने का संकेत दिया। उसका लंड थोड़ा ढीला हो गया था सो चुदाई चालू करने पर मुझे वैसा बड़ा नहीं लगा...पर चुदाई करते करते वह धीरे धीरे बड़ा होने लगा और कुछ ही देर में फिर से मुझ पर कहर ढाने लगा। मेरी फिर से ह्म्म्म ह्म्म्म आवाजें आने लगीं... भोंपू की भी हूँ... हांह शुरू हो गई... पर थोड़ी ही देर में उसने एक हूंकार सी लगाई और अपना लंड बाहर निकाल कर कल की तरह मेरे बदन पर अपने रस की वर्षा करने लगा।
अचानक खाली हुई चूत कुछ देर खुली रही और फिर लंड के ना आने से मायूस हो कर धीरे धीरे बंद हो गई। कोई 4-5 बार अपना दूध फेंकने के बाद भोंपू का लंड शिथिल हो गया और उसमें से वीर्य की बूँदें कुछ कुछ देर में टपक रही थी। उसने अपने मुरझाये लिंग को निचोड़ते हुए मर्दाने दूध की आखिरी बूँद मेरे पेट पर गिराई और बिस्तर से उठा गया। एक तौलिए से उसने मेरे बदन से अपना वीर्य पौंछा और मेरे ऊपरी अंगों को एक एक पुच्ची कर दी और लड़खड़ाता सा बाथरूम चला गया।
कोई 4-5 बार अपना दूध फेंकने के बाद भोंपू का लंड शिथिल हो गया और उसमें से वीर्य की बूँदें कुछ कुछ देर में टपक रही थी। उसने अपने मुरझाये लिंग को निचोड़ते हुए मर्दाने दूध की आखिरी बूँद मेरे पेट पर गिराई और बिस्तर से उठ गया। एक तौलिए से उसने मेरे बदन से अपना वीर्य पौंछा और मेरे ऊपरी अंगों को एक एक पुच्ची कर दी और लड़खड़ाता सा बाथरूम चला गया।
हालाँकि उसने मेरे पेट को तौलिये से पौंछ दिया था फिर भी वह चिपचिपा हो रहा था। मैं भी उठ कर गुसलखाने चली गई। भोंपू अपने लिंग को धो रहा था। मैंने अपने पेट को धोया और जाने लगी तो उसने मुझे बाहों में ले लिया और प्यार करने लगा। अब तक जब भी उसने मुझे अपने आलिंगन में भरा था उसके लिंग का उभार मुझे हमेशा महसूस हुआ था... भले ही हम नंगे थे या नहीं... पर इस बार उसका लिंग लटका हुआ था। मुझे अजीब सा लगा... शायद अब मैं उसे आकर्षक नहीं लग रही थी।
मुझे कुछ मायूसी हुई... मैं नहीं जानती थी कि सम्भोग के बाद लंड का लुप्त होना सामान्य होता है। बाद में मुझे इस बात का पता चला... अच्छा हुआ प्रकृति ने इस तरह की पाबंदी लगा दी है वर्ना मर्द तो लड़कियों की जान ही निकाल देते। भोंपू ने मुझे प्यार करके मेरे कन्धों पर हाथ रखा और नीचे की ओर ज़ोर डाल कर मुझे घुटनों के बल बैठाने का प्रयत्न करने लगा। मुझे उसका कयास समझ नहीं आया पर उसके निरंतर ज़ोर देने से मैं अपने घुटनों पर बैठ गई।
अब उसने मेरे नज़दीक खड़े हो कर अपना लटका हुआ लिंग मेरे मुँह के सामने कर दिया और अपना एक हाथ मेरे सिर के पीछे रख कर मेरे सिर को लिंग के करीब लाने लगा। अब मुझे उसकी इच्छा का आभास हुआ। अपने जिस अंग को मैं गन्दा समझती थी उसे तो उसने चाट-पुचकार कर मुझे सातवें आसमान पर पहुँचा दिया था... अब मेरी बारी थी।
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07-07-2018, 01:21 PM,
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RE: Nangi Sex Kahani जवानी की दहलीज
जवानी की दहलीज-10
"पता है, गांड मारने में सबसे ज्यादा मज़ा मुझे कब आता है?" उसने पूछा।
"मुझे क्या मालूम !"
"जब लंड गांड में डालना होता है !!"
"अच्छा ! तो इसीलिए बार बार आसन बदल रहे हो !"
"तुम्हारे आराम का ख्याल भी तो रखता हूँ..."
"मुझे भी लंड घुसवाने में अब मज़ा आने लगा है ! तुम जितनी बार चाहो निकाल कर घुसेड़ सकते हो !" मैंने शर्म त्यागते हुए कहा।
"वाह !... तो यह लो !!" कहते हुए उसने लंड बाहर निकाल लिया और एक बार फिर उसी यत्न से अंदर डाल दिया। हर बार लंड अंदर जाते वक्त मेरी गांड को अपने विशाल आकार का अहसास ज़रूर करवा देता था। ऐसा नहीं था कि लंड आसानी से अंदर घुप जाए और पता ना चले... पर इस मीठे दर्द में भी एक अनुपम आनन्द था।
अब भोंपू वेग और ताक़त के साथ मेरी गांड मार रहा था। कभी लंबे तो कभी छोटे वार कर रहा था। मुझे लगा अब उसके चरमोत्कर्ष का समय नजदीक आ रहा है। अब तक तीन बार मैं उसका फुव्वारा देख चुकी थी सो अब मुझे थोड़ा बहुत पता चल गया था कि वह कब छूटने वाला होता है।
मेरे हिसाब से वह आने वाला ही था। मेरा अनुमान ठीक ही निकला... उसके वार तेज़ होने लगे, साँसें तेज़ हो गईं, उसका पसीना छूटने लगा और वह भी मेरा नाम ले ले कर बडबडाने लगा। अंततः उसका नियंत्रण टूटा और वह एक आखिरी ज़ोरदार वार के साथ मेरे ऊपर गिर गया...
उसका लंड पूरी तरह मेरी गांड में ठंसा हुआ हिचकियाँ भर रहा था और उसका बदन भी हिचकोले खा रहा था। कुछ देर के विराम के बाद उसने एक-दो छोटे वार किये और फिर मेरे ऊपर लेट गया। वह पूरी तरह क्षीण और शक्तिहीन हो चला था। कुछ ही देर में उसका सिकुड़ा, लचीला और नपुंसक सा लिंग मेरी गांड में से अपने आप बाहर आ गया और शर्मीला सा लटक गया।
भोंपू बिस्तर से उठकर गुसलखाने की तरफ जा ही रहा था कि अचानक दरवाज़े पर जोर से खटखटाने की आवाज़ आई। हम दोनों चौंक गए और एक दूसरे की तरफ घबराई हुई नज़रों से देखने लगे।
इस समय कौन हो सकता है? कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया?
हम दोनों का यौन-सुरूर काफूर हो गया और हम जल्दी जल्दी कपड़े पहनने लगे।
दरवाज़े पर खटखटाना अब तेज़ और बेसब्र सा होने लगा था... मानो कोई जल्दी में था या फिर गुस्से में। जैसे तैसे मैंने कपड़े पहन कर, अपने बिखरे बाल ठीक करके और भोंपू को गुसलखाने में रहने का इशारा करते हुए दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खोलते ही मेरे होश उड़ गए...
दरवाज़े पर महेश, रामाराव जी का बड़ा बेटा, अपने तीन गुंडे साथियों के साथ गुस्से में खड़ा था।
दरवाज़े पर महेश और उसके साथियों को देख कर मैं घबरा गई। वे पहले कभी मेरे घर नहीं आये थे। मैंने अपने होशोहवास पर काबू रखते हुए उन्हें नमस्ते की और सहजता से पूछा- आप यहाँ?
महेश की नज़रें आधे खुले दरवाज़े और मेरे पार कुछ ढूंढ रही थीं। मैं वहीं खड़ी रही और बोली- बापू घर पर नहीं हैं।
" हमें पता है।" महेश ने रूखे स्वर में कहा- हम देखने आये हैं कि तुम क्या कर रही हो?
मेरा गला अचानक सूख गया। मैं हक्की-बक्की सी मूर्तिवत खड़ी रह गई।
"मतलब?" मैंने धीरे से पूछा।
"ऐसी भोली मत बनो... भोंपू कहाँ है?"
यह सुनते ही मेरे पांव-तले ज़मीन खिसक गई। मेरे माथे पर पसीने की अनेकों बूँदें उभर आईं, मैं कांपने सी लगी।
महेश ने पीछे मुड़ कर अपने साथियों को इशारा किया और उनमें से दो आगे बढ़े और मेरी अवहेलना करते हुए घर का दरवाज़ा पूरा खोल कर अंदर जाने लगे।
"यह क्या कर रहे हो? ...कहाँ जा रहे हो?" मैंने उन्हें रोकने की कोशिश की पर वे मुझे एक तरफ धक्का देकर अंदर घुस गए और घर की तलाशी लेने लगे।
"आजकल बड़ी रंगरेलियाँ मनाई जा रही हैं !" महेश ने मेरी तरफ धूर्तता से देखते हुए कहा।
मैं सकपकाई सी नीचे देख रही थी... मेरी उँगलियाँ मेरी चुनरी के किनारे को बेतहाशा बुन रही थीं।
मुझे महसूस हुआ कि महेश मुझे लालसा और वासना की नज़र से देख रहा था। उसकी ललचाई आँखें मेरे वक्षस्थल पर टिकी हुई थीं और वह कभी कभी मेरे पेट और जाँघों को घूर रहा था।
तभी अंदर से भगदड़ और शोर सुनाई दिया। महेश के साथी भोंपू को घसीटते हुए ला रहे थे।
"बाथरूम में छिपा था !" महेश के एक साथी ने कहा।
" क्यों बे ? यहाँ क्या कर रहा था?" महेश ने भोंपू से पूछा।
" यहाँ कौन सी गाड़ी चला रहा था... बोल?" महेश ने और गुस्से में पूछा।
भोंपू चुप्पी साधे महेश के पांव की तरफ देख रहा था।
" अच्छा तो छोरी को गाड़ी चलाना सिखा रहा था... या उसका भी भोंपू ही बजा रहा था...?" महेश ने मेरे मम्मों की तरफ दखते हुए व्यंग्य किया।
" मादरचोद ! अब क्यों चुप है। पिछले तीन दिनों से हम देख रहे हैं... तू यहाँ रोज आता है और घंटों रहता है... बस तू और ये रंडी... अकेले अकेले क्या करते रहते हो?" महेश सवाल करता जा रहा था।
" तुझे मालूम है यह शादीशुदा है?" महेश ने मेरी तरफ देखकर सवाल किया।
" तुझे पक्का मालूम है... तूने तो इसकी शादी देखी है... यहीं हुई थी... हमने कराई थी !" महेश ने खुद ही उत्तर देते हुए कहा।
" तुझे और कोई नहीं मिला जो एक शादीशुदा से गांड मरवाने चली !" महेश मुझे दुतकारता हुआ बोला।
" और तू ! तुझे यहाँ काम पर इसलिए रखा है कि तू हवेली की लड़कियाँ चोदता फिरे...? हैं?" महेश ने भोंपू को चांटा मारते हुए पूछा।
" साला पेड़ लगाएँ हम और फल खाए तू... हम यहाँ क्या गांड मराने आये हैं?" महेश का क्रोध बढ़ता जा रहा था और वह भोंपू को थप्पड़ और घूंसे मारे जा रहा था।
" साली... हरामजादी... तुझे हम नहीं दिखाई दिए जो इस दो कौड़ी के नौकर से मुँह काला करवाने लगी?" महेश ने मेरी तरफ एक कदम बढ़ाते हुए पूछा।
मैं रोने लगी...
" अब क्या रोती है... जब तेरे बाप और घरवालों को पता चलेगा कि तू उनके पीछे क्या गुल खिला रही है... तब देखना... " महेश के इस कथन से मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैं यौन दरिया में इस वेग से बह चली थी कि इसके परिणाम का ख्याल तक नहीं किया। मैं अब अपने आप को कोसने लगी और मुझे अपने आप पर ग्लानि होने लगी।
मैंने महेश के सामने हाथ जोड़े और रोते रोते माफ़ी मांगी।
" हमें माफ कर दो... गलती हो गई... अबसे हम कभी नहीं मिलेंगे..." मैंने रुआंसे स्वर में कहा।
" माफ कर दो... गलती हो गई..." महेश ने मेरी नकल उतारते हुए दोहराया और फिर बोला," ऐसे कैसे माफ कर दें... गलती की सज़ा तो ज़रूर मिलेगी !"
" या तो तू प्रायश्चित कर ले या हम तेरे बाप को सब कुछ बता देंगे !" महेश ने सुझाव दिया।
" मैं प्रायश्चित कर लूंगी... आप जो कहोगे करने को तैयार हूँ !" मैंने दृढ़ता से कहा। भोंपू ने पहली बार मेरी तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि डाली... मानो मुझे सचेत कर रहा हो। पर मुझे अपने घर वालों की इज्ज़त के आगे कुछ और नहीं सूझ रहा था। मैंने भोंपू को नज़रंदाज़ करते हुए कहा," पर आप मेरे घरवालों को मत बताना.. मैं विनती करती हूँ...!"
" ठीक है... जैसा मैं चाहता हूँ तुम अगर वैसा करोगी तो हम किसी को नहीं बताएँगे... भोंपू कि बीवी को भी नहीं... मंज़ूर है?" महेश ने पूछा।
"मंज़ूर है।" मैंने बिना समय गंवाए जवाब दे दिया।
"तो ठीक है !" महेश ने कहा और भोंपू को एक और तमाचा रसीद करते हुए बोला," और तू भी किसी को नहीं बताएगा साले... नहीं तो देख लेना तेरा क्या हाल करते हैं... समझा?"
" जी नहीं बताऊँगा।" भोंपू बुदबुदाया।
" तो अब भाग यहाँ से... इस घर के आस-पास भी दिखाई दिया तो हड्डी-पसली एक कर देंगे।" महेश ने भोंपू को लात मारते हुए वहाँ से भगाया। जब भोंपू चला गया तो महेश ने मुझे ऊपर से नीचे देखा और जैसे किसी मेमने को देख कर भेडिये के मुंह में पानी आता है वैसे मुझे निहारने लगा। अपने हाथ मसल कर वह सोचने लगा कि मुझसे किस तरह का प्रायश्चित करवा सकता है।
आखिर कुछ सोचने के बाद उसने निश्चय कर लिया और अपना गला साफ़ करते हुए मुझसे बोला," मैं बताता हूँ तुम्हें क्या करना होगा... तैयार हो?"
" जी, बताइए।"
" कल रात मेरे घर में पार्टी है... कुछ दोस्त लोग आ रहे हैं... वहाँ तुम्हें नाचना होगा... !"
महेश की फरमाइश सुनकर मेरी सांस में सांस आई। मैंने तो न जाने क्या क्या सोच रखा था... मुझे लगा वह मुझे चोदने का इरादा तो ज़रूर करेगा... पर उसकी इस आसान शर्त से मुझे राहत मिली।
" जी ठीक है।"
" नंगी !!" उसने कुछ देर के बाद अपना वाक्य पूरा करते हुए कहा और मेरी तरफ देखने लगा।
" नंगी?" मैंने पूछा।
" हाँ... बिल्कुल नंगी !!!"
मैं निस्तब्ध रह गई... कुछ बोल नहीं सकी।
" पानी के शावर के नीचे... " महेश अब मज़े ले लेकर धीरे धीरे अपनी शर्तें परोस रहा था।
" मेरे और मेरे दोस्तों के साथ... !!!" महेश चटकारे लेते हुए बोला।
" मुझसे नहीं होगा।" मैंने धीमे से कहा।
" होगा कैसे नहीं, साली !" उसने मेरे गाल पर जोर से चांटा मारते हुए कहा। फिर मेरी चोटी पीछे खींचते हुए मेरा सिर ऊपर किया और मेरी आँखों में अपनी बड़ी बड़ी आँखें डालते हुए बोला।
" मैं तेरी राय नहीं ले रहा हरामखोर... तुझे बता रहा हूँ... मुझे ना सुनने की आदत नहीं है... और हाँ... अब तो तुझे चुदाई का स्वाद लग गया होगा... तो अगर मैं या मेरे दोस्त तेरे साथ... "
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RE: Nangi Sex Kahani जवानी की दहलीज
" नहीं... " महेश अपना वाक्य पूरा करता उसके पहले ही मैं चिल्लाई। महेश ने मेरी चुटिया जोर से खींची जिससे मेरी चीख निकल गई और मुझे तारे नज़र आने लगे और मैं अपने पांव पर लड़खड़ाने लगी।
" इधर देख !" महेश ने मेरी ठोड़ी अपनी तरफ करते हुए कहा " तेरी जैसी सैंकड़ों छोरियां मेरे घर में रोज नंगी नाचती हैं... हमें खुश करना अपना सौभाग्य समझती हैं... तू कहाँ की महारानी आई है?"
" वैसे भी... अब तेरे बदन में रह ही क्या गया है जिसे तू छुपाना चाहती है?... भोंपू ने कुछ नहीं किया क्या?"
कुछ देर बाद महेश ने मेरी चुटिया छोड़ी और मुझे समझाने के लहजे में अपनी आवाज़ नीची करके, सहानुभूति के अंदाज़ में कहने लगा " देखो, अब तुम्हारे पास कोई चारा नहीं है... हमें खुश रखो... हम तुम्हारा ध्यान रखेंगे... अगर तुम नखरे दिखाओगी तो हम तुम्हारी गांड भी बजायेंगे और शहर में ढिंडोरा भी पीटेंगे... सोच लो?"
मैं चुप रही ! क्या कहती?
महेश ने मेरी चुप्पी को स्वीकृति समझते हुए निर्देश देने शुरू किये..
" तो फिर पार्टी कल रात देर से शुरू होगी... मेरे आदमी तुम्हें 9 बजे लेने आयेंगे... तैयार रहना... अपने भाई-बहन को खाना खिला कर सुला देना। तुम्हारा खाना हमारे साथ ही होगा... कपड़ों की चिंता मत करना... वहाँ तुम्हें बहुत सारे मिल जायेंगे... वैसे भी तुम्हें कपड़ों की ज्यादा ज़रूरत नहीं पड़ेगी... " महेश मेरी दशा पर मज़ा लूटते हुए बोले जा रहा था।
मैं अवाक सी खड़ी रही।
" रात के ठीक 9 बजे !" महेश मुझे याद दिलाते हुए और चेतावनी देते हुए अपने साथियों के साथ चला गया।
मेरी दुनिया एक ही पल में क्या से क्या हो गई थी। जहाँ एक तरफ मैं अपने भौतिक जीवन के सबसे मजेदार पड़ाव का आनन्द ले रही थी वहीं मेरे जीवन की सबसे डरावनी और चिंताजनक घड़ी मेरे सामने आ गई थी। अचानक मैं भय, चिंता, ग्लानि, पश्चाताप और क्रोध की मिश्रित भावनाओं से जूझ रही थी। मेरा गला सूख गया था और मेरे सिर में हल्का सा दर्द शुरू हो गया था। अगर घर वालों को पता चल गया तो क्या होगा? शीलू और गुंटू, जो मुझे माँ सामान समझते हैं, मेरे बारे में क्या सोचेंगे... बापू तो शर्म से कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जायेंगे... शायद वे आत्महत्या कर लें... और भोंपू की बीवी, जो शादी के समय मुझसे मिल चुकी थी और जिसके साथ मैंने बहुत मसखरी की थी, मुझे सौत के रूप में देखेगी... मुझे कितना कोसेगी कि मैंने उसके घर संसार को उजाड़ दिया...
मैं अपने किये पर सोच सोच कर पछताती जा रही थी... जैसे जैसे मुझे अपनी करतूत के परिणाम महसूस होने लगे, मुझे लगने लगा कि इस घटना को गोपनीय रखने में ही मेरी और मेरे घरवालों की भलाई है। मेरा मन पक्का होने लगा और मैंने इरादा किया कि महेश की बात मान लेने में ही समझदारी है। एक बार महेश मेरा नाजायज़ फ़ायदा उठा लेगा तो वह खुद मुझे बचाने के लिए बाध्य होगा वर्ना उसकी इज्ज़त भी मिटटी में मिल सकती है और वह रामाराव जी की नज़रों और नीचे गिर सकता है। हो सकता है वे गुस्से में उसको अपनी जागीर से बेदखल भी कर दें।
महेश को यह अंदेशा बहुत पहले से था और वह अपने पिता को और अधिक निराश करने का जोखिम नहीं उठा सकता था। ऐसी हालत में मेरा महेश को सहयोग देना मेरे लिए फायदेमंद होगा। धीरे धीरे मेरा दिमाग ठीक से काम करने लगा। कुछ देर पहले की कश्मकश और उधेड़बुन जाती रही और अब मैं ठीक से सोचने लगी थी। सबसे पहले मैंने अपने आप को सामान्य करने की ज़रूरत समझी जिससे घर में किसी को किसी तरह की शंका ना हो... फिर सोचने लगी कि कल रात के लिए शीलू-गुंटू को क्या बताना है जिससे वे साथ आने की जिद ना करें...
कुछ देर बाद शीलू-गुंटू स्कूल से वापस आ गए। हमने खाना खाया... उन्होंने भोंपू के बारे में पूछा तो मैंने यह कह कर टाल दिया कि उसे किसी ज़रूरी काम से अपने घर जाना पड़ा है। फिर मैंने कल रात की तैयारी के लिए भूमिका बनानी शुरू कर दी। रात को सोते वक्त मैंने शीलू-गुंटू के बिस्तर पर जाकर उनसे बातचीत शुरू की...
" कल रात हवेली में एक पूजा समारोह है जिसमें बच्चे नहीं जाते और सिर्फ शादी-लायक कुंवारी लड़कियाँ ही जाती हैं !" मैंने शीलू-गुंटू को बताया।
"तो मैं भी जा सकती हूँ?" शीलू ने उत्साह के साथ कहा।
"चल हट ! तू कोई शादी के लायक थोड़े ही है... पहले बड़ी तो हो जा !" मैंने उसकी बात काटते हुए कहा।
" वैसे उस पूजा में मेरा जाने का बहुत मन है पर तुम दोनों को घर में अकेले छोड़ कर कैसे जा सकती हूँ?"
" किस समय है?" शीलू ने पूछा।
" रात नौ बजे शुरू होगी !"
" और खत्म कब होगी?"
" पता नहीं !"
" ठीक है... तो तुम बाहर से ताला लगाकर चली जाना हम खाना खाकर सो जायेंगे।" शीलू ने स्वाभाविक रूप से समाधान बताया।
" तुम्हें डर तो नहीं लगेगा?" मैंने चिंता जताई।
" हम अकेले थोड़े ही हैं... और जब बाहर से ताला होगा तो कोई अंदर कैसे आएगा?"
" ठीक है... अगर तुम कहते हो तो मैं चली जाऊंगी।" मैंने उन पर इस निर्णय का भार डालते हुए कहा।
मुझे तसल्ली हुई कि एक समस्या तो टली। अब बस मुझे कल रात की अपेक्षित घटनाओं का डर सता रहा था... ना जाने क्या होने वाला था... महेश और उसके दोस्त मेरे साथ क्या क्या करने वाले हैं... मैं अपने मन में डर, कौतूहल, चिंता और भ्रम की उधेड़बुन में ना जाने कब सो गई...
अगले दिन मैं पूरे समय चिंतित और घबराई हुई सी रही। अपने आप को ज्यादा से ज्यादा काम में व्यस्त करने की चेष्टा में लगी रही पर रह रह कर मुझे आने वाली रात का डर घेरे जा रहा था। शीलू-गुंटू को भी मेरा व्यवहार अजीब लग रहा था पर जैसे-तैसे मैंने उन्हें सिर-दर्द का बहाना बनाकर टाल दिया। रात के आठ बजे मैंने दोनों को खाना दिया और वे स्कूल का काम करने और फिर सोने चले गए। इधर मैंने स्नान करके सादा कपड़े पहने और बलि के बकरे की भांति नौ बजे का इंतज़ार करने लगी।
नौ बजे से कुछ पहले मैंने देखा कि दोनों बच्चे सो गए हैं। मैंने राहत की सांस ली क्योंकि मैं उनके सामने महेश के आदमियों के साथ जाना नहीं चाहती थी। मैंने समय से पहले ही घर को ताला लगाया और बाहर इंतज़ार करने लगी। ठीक नौ बजे महेश के दो आदमी मुझे लेने आ गए। मुझे बाहर तैयार खड़ा देख उन दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा।
" लौंडिया तेज़ है बॉस ! इससे रुका नहीं जा रहा !!" एक ने अभद्र तरीके से हँसते हुए कहा।
" माल अच्छा है... काश मैं भी ज़मींदार का बेटा होता !" दूसरे ने हाथ मलते हुए कहा और मुझे घूरने लगा।
" अबे अपने घोड़े पर काबू रख... बॉस को पता चल गया तो तेरी लुल्ली अपने तोते को खिला देगा... तू बॉस को जानता है ना?"
" जानता हूँ यार... राजा गिद्ध की तरह शिकार पर पहली चौंच वह खुद मारता है... फिर उसके नज़दीकी दोस्त और बाद में हम जैसों के लिए बचा-कुचा माल छोड़ देता है !"
उन्होंने मुझसे कुछ कहे बिना हवेली की तरफ चलना शुरू कर दिया... मैं परछाईं की तरह उनके पीछे पीछे हो ली। उनकी बातें सुनकर मेरा डर और बढ़ गया। थोड़े देर में वे मुझे हवेली के एक गुप्त द्वार से अंदर ले गए और वहां एक अधेड़ उम्र की औरत के हवाले कर दिया।
" इसको जल्दी तैयार कर दो चाची... बॉस इंतज़ार कर रहे हैं !" कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए।
" अंदर जाकर मुँह-हाथ धो ले... कुल्ला कर लेना और नीचे से भी धो लेना... मैं कपड़े लाती हूँ।" चाची ने बिना किसी प्रस्तावना के मुझे निर्देश देते हुए गुसलखाने का दरवाज़ा दिखाया।
" जल्दी कर...!" जब मैं नहीं हिली तो उसने कठोरता से कहा और अलमारी खोलने लगी। अलमारी में तरह तरह के जनाना कपड़े सजे हुए थे। मैं चाची को और कपड़ों को देखती देखती गुसलखाने में चली गई।
वाह... कितना बड़ा गुसलखाना था... बड़े बड़े शीशे, बड़ा सा टब, तरह तरह के नल और शावर, सैंकड़ों तौलिए और हजारों सौंदर्य प्रसाधन। मैं भौंचक्की सी चीज़ें देख रही थी कि चाची की 'जल्दी करती है कि मैं अंदर आऊँ?' की आवाज़ से मैं होश में आई।
मैंने चाची के कहे अनुसार मुंह-हाथ धोए, कुल्ला किया और बाहर आ गई।
चाची ने जैसे ही मुझे देखा हुक्म दे दिया,"सारे कपड़े उतार दे !"
मैं हिचकिचाई तो चाची झल्लाई और बोली,"उफ़ ! यहाँ शरमा रही है और वहाँ नंगा नाचेगी... अब नाटक बंद कर और ये कपड़े पहन ले... जल्दी कर !"
उसने मेरे लिए मेहंदी और हरे रंग का लहरिया घाघरा और हलके पीले रंग की चुस्त चोली निकाली हुई थी। नीचे पहनने के लिए किसी मुलायम कपड़े की बलुआ रंग की ब्रा और चड्डी थी... दोनों ही अत्यंत छोटी थीं और दोनों को बाँधने के लिए डोरियाँ थीं - कोई बटन, हुक या नाड़ा नहीं था। मैंने धीरे धीरे अपने कपड़े उतारने शुरू किये तो चाची आई और जल्दी जल्दी मेरे बदन से कपड़े उखाड़ने लगी। मैंने उसे दूर किया और खुद ही जल्दी से उतारने लगी।
"इनको भी...!" चाची ने मेरी चड्डी और ब्रा की तरफ उंगली उठाते हुए निर्देश दिया।
मैंने उसका हुक्म मानने में ही भलाई समझी और उसके सामने नंगी खड़ी हो गई। चाची ने मेरे पास आकर मेरा निरीक्षण किया... मेरे बाल, मम्मे, बगलें और यहाँ तक कि मेरी टांगें खुलवा कर मेरी योनि और चूतड़ों को पाट कर मेरी गांड भी देखी और सूंघी।
"नीचे नहीं धोया?" उसने मुझे अस्वीकार सा करते हुए कहा और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे घसीटती हुई गुसलखाने में ले गई। वहाँ उसने बिना किसी उपक्रम के मुझे एक जगह खड़ा किया, मेरी टांगें खोलीं और हाथ में एक लचीला शावर लेकर मेरे सिर के बाल छोड़कर मुझे पूरी तरह नहला दिया। मेरी योनि और गांड में भी हाथ और उँगलियों से सफाई कर दी। फिर एक साफ़ तौलिया लेकर मुझे झट से पौंछ दिया और करीब दो मिनट के अंदर ये सब करके मुझे बाहर ले आई।
" सब कुछ मुझे ही करना पड़ता है... आजकल की छोरियाँ... बस भगवान बचाए !!" चाची बड़बड़ा रही थी।
" ये पहन ले... जल्दी कर... तुझे लेने आते ही होंगे !" चाची ने मुझे चेताया।
kramashah.....................
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RE: Nangi Sex Kahani जवानी की दहलीज
जवानी की दहलीज-11
मैंने वे कपड़े पहन लिए। इतने महँगे कपड़े मैंने पहले नहीं पहने थे... मुलायम कपड़ा, बढ़िया सिलाई, शानदार रंग और बनावट। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।
चाची ने मेरे बालों में कंघी की, गजरा लगाया, हाथ, गले और कानों में आभूषण डाले और अंत में एक इत्तर की शीशी खोल कर मेरे कपड़ों पर और कपड़ों के नीचे मेरी गर्दन, कान, स्तन, पेट और योनि के आस-पास इतर लगा दिया। मेरे बदन से जूही की भीनी भीनी सुगंध आने लगी। मुझे दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था... लाज़मी है मेरे साथ सुहागरात मनाई जाएगी। मुझे मेरा कल लिया गया निश्चय याद आ गया और मैं आने वाली हर चुनौती के लिए अपने को तैयार करने लगी। जो होगा सो देखा जायेगा... मुझे महेश को अपना दुश्मन नहीं बनाना था।
दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी।
" लो... तुम्हें लेने आ गए..." चाची ने कहा और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दरवाज़े तक ले गई और मुझे विधिवत महेश के दूतों के हवाले कर दिया।
मैंने वे कपड़े पहन लिए। इतने महँगे कपड़े मैंने पहले नहीं पहने थे... मुलायम कपड़ा, बढ़िया सिलाई, शानदार रंग और बनावट। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।
चाची ने मेरे बालों में कंघी की, गजरा लगाया, हाथ, गले और कानों में आभूषण डाले और अंत में एक इत्तर की शीशी खोल कर मेरे कपड़ों पर और कपड़ों के नीचे मेरी गर्दन, कान, स्तन, पेट और योनि के आस-पास इतर लगा दिया। मेरे बदन से जूही की भीनी भीनी सुगंध आने लगी। मुझे दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था... लाज़मी है मेरे साथ सुहागरात मनाई जाएगी। मुझे मेरा कल लिया गया निश्चय याद आ गया और मैं आने वाली हर चुनौती के लिए अपने को तैयार करने लगी। जो होगा सो देखा जायेगा... मुझे महेश को अपना दुश्मन नहीं बनाना था।
दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी।
" लो... तुम्हें लेने आ गए..." चाची ने कहा और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दरवाज़े तक ले गई और मुझे विधिवत महेश के दूतों के हवाले कर दिया।
वे मुझे एक सुरंगी रास्ते से ले गए जहाँ एक मोटा, लोहे और लकड़ी का मज़बूत दरवाज़ा था जिस पर दो लठैत मुश्टण्डों का पहरा था। मेरे पहुँचते ही उन्होंने दरवाज़ा खोल दिया... दरवाज़ा खुलते ही ऊंची आवाजों और संगीत का शोर और चकाचौंध करने वाला उजाला बाहर आ गया। मैंने अकस्मात आँखें मूँद लीं और कान पर हाथ रख लिए पर उन लोगों ने मेरे हाथ नीचे करते हुए मुझे अंदर धकेल दिया और दरवाज़ा बंद कर दिया।
मुझे देखते ही अंदर एक ठहाका सा सुनाई दिया और कुछ आदमियों ने सीटियाँ बजानी शुरू कर दीं... संगीत बंद हो गया और कमरे में शांति हो गई। मैंने अपनी चुन्धयाई हुई आँखें धीरे धीरे खोलीं और देखा कि मैं एक बड़े स्टेज पर खड़ी हूँ जिसे बहुत तेज रोशनी से उजागर किया हुआ था।
कमरा ज्यादा बड़ा नहीं था... करीब 8-10 लोग ही होंगे... एक किनारे में एक बार लगा हुआ था दूसरी तरफ खाने का इंतजाम था। दो-चार अर्ध-नग्न लड़कियाँ मेहमानों की देखभाल में लगी हुईं थीं। लगभग सभी महमान 25-30 साल के मर्द होंगे... पर मुझे एक करीब 60 साल का नेता और करीब 45 साल का थानेदार भी दिखाई दिया, जो अपनी वर्दी में था। सभी के हाथों में शराब थी और लगता था वे एक-दो पेग टिका चुके थे। मैं स्थिति का जायज़ा ले ही रही थी कि महेश ताली बजाता हुआ स्टेज पर आया और मेरे पास खड़े होकर अपने मेहमानों को संबोधित करने लगा...
" चौधरी जी (नेता की तरफ देखते हुए), थानेदार साहब और दोस्तों ! मुझे खुशी है आप सब मेरा जन्मदिन मनाने यहाँ आये। धन्यवाद। हर साल की तरह इस साल भी आपके मनोरंजन का खास प्रबंध किया गया है। आप सब दिल खोल कर मज़ा लूटें पर आपसे विनती है कि इस प्रोग्राम के बारे में किसी को कानो-कान खबर ना हो... वर्ना हमें यह सालाना जश्न मजबूरन बंद करना पड़ेगा।"
लोगों ने सीटी मार के और शोर करके महेश का अभिवादन किया।
" दोस्तो, आज के प्रोग्राम का विशेष आकर्षण पेश करते हुए मुझे खुशी हो रही है... हमारे ही खेत की मूली... ना ना मूली नहीं... गाजर है... जिसे हम प्यार से भोली बुलाते हैं... आज आपका खुल कर मनोरंजन करेगी... भोली का साथ देने के लिए... हमेशा की तरह हमारी चार लड़कियों की टोली... आपके बीच पहले से ही हाज़िर है। तो दोस्तों... मज़े लूटो और मेरी लंबी उम्र की कामना करो !!"
कहते हुए महेश ने तालियाँ बजाना शुरू कीं और सभी लोगों ने सीटियों और तालियों से उसका स्वागत किया।
इस शोरगुल में महेश ने मेरा हाथ कस कर पकड़ कर मेरे कान में अपनी चेतावनी फुसफुसा दी। उसके नशीले लहजे में क्रूरता और शिष्टता का अनुपम मिश्रण था। मुझे अपना कर्तव्य याद दिला कर महेश मेरा हाथ पकड़ कर अपने हर महमान से मिलाने ले गया। सभी मुझे एक कामुक वस्तु की तरह परख रहे थे और अपनी भूखी, ललचाई आँखों से मेरा चीर-हरण सा कर रहे थे।
नेताजी ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मेरी पीठ पर हाथ रख दिया और धीरे से सरका कर मेरे नितंब तक ले गए। बाकी लोगों ने भी मेरा हाथ मिलाने के बहाने मेरा हाथ देर तक पकड़े रखा और एक दो ने तो मेरी तरफ देखते हुए मेरी हथेली में अपनी उंगली भी घुमाई। मैं सब सहन करती हुई कृत्रिम मुस्कान के साथ सबका अभिनन्दन करती रही। महेश मेरा व्यवहार देख कर खुश लग रहा था। वैसे भी मैं सभी को बहुत सुन्दर दिख रही थी।
सब मेहमानों से मुलाक़ात के बाद महेश ने मुझे वहाँ मौजूद चारों लड़कियों से मिलवाया... उन सबके चेहरों पर वही दर्दभरी औपचारिक मुस्कान थी जिसे हम लड़कियाँ समझ सकती थीं। अब महेश ने एक लड़की को इशारा किया और उसने मुझे स्टेज पर लाकर छोड़ दिया।
महेश ने एक बार फिर अपने दोस्तों का आह्वान किया," दोस्तो ! अब प्रोग्राम शुरू होता है... आपके सामने भोली स्टेज पर है ... उसने कपड़े और गहने मिलाकर कुल 9 चीज़ें पहनी हुई हैं... अब म्यूज़िक के बजने से भोली स्टेज पर नाचना शुरू करेगी... म्यूज़िक बंद होने पर उन 9 चीज़ों में से कोई एक चीज़, तरतीबवार, कोई एक मेहमान उसके बदन से उतारेगा... फिर म्यूज़िक शुरू होने पर उसका नाचना जारी रहेगा। अगर भोली कुछ उतारने में आनाकानी करती है तो आप अपनी मन-मर्ज़ी से ज़बरदस्ती कर सकते हैं। म्यूज़िक 9 बार रुकेगा... उसके बाद कोई भी स्टेज पर जाकर भोली के साथ नाच सकता है..."
महेश का सन्देश सुनकर उसके दोस्तों ने हर्षोल्लास किया और तालियाँ बजाईं।
मैं सकपकाई सी खड़ी रही और महेश के इशारे से गाना बजना शुरू हो गया... "मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए... " कमरे में गूंजने लगा।
महेश ने मेरी तरफ देखा और मैंने इधर-उधर हाथ-पैर चलाने शुरू कर दिए... मुझे ठीक से नाचना नहीं आता था... पर वहाँ कौन मेरा नाच देखने आया था।
कुछ ही देर में गाना रुका और महेश के एक साथी ने एक पर्ची खोलते हुए ऐलान किया " गजरा... भीमा "
महेश के दोस्तों में से भीमा झट से स्टेज पर आया और मेरे बालों से गजरा निकाल दिया और मेरी तरफ आँख मार कर वापस चला गया।
म्यूज़िक फिर से बजने लगा और कुछ ही सेकंड में रुक गया...
"कान की बालियाँ... अशोक !"
अशोक जल्दी से आया और मेरे कान की बालियाँ उतारने लगा... उसकी कोहनियाँ जानबूझ कर मेरे स्तनों को छू रही थीं... उसने भी आँख मारी और चला गया।
अगली बार जब गाना रुका तो किसी ने मुझे इधर-उधर छूते हुए मेरे हाथ से चूड़ियाँ उतार दीं... जाते जाते मेरे गाल पर पप्पी करता गया।
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Re: जवानी की दहलीज
Post by 007 » 09 Nov 2014 15:05
गाना कुछ देर बजता और ज्यादा देर रुकता क्योंकि लोगों को गाने से ज्यादा मेरा वस्त्र-हरण मज़ा दे रहा था। गहनों के बाद क्रमशः मेरा दुपट्टा उतारा गया। अब तक 5 बार गाना रोका जा चुका था !
माहौल गरमा रहा था और धीरे धीरे हर आने वाला मेरे साथ निरंतर बढ़ती आज़ादी लेने लगा था... मैं घाघरा-चोली में नाच रही थी कि संगीत थमा और " चोली... थानेदार साब " का उदघोष हुआ।
थानेदार साब ने अपनी गोदी से एक लड़की को उतारा, शराब का ग्लास मेज़ पर रखा और शराब से ज्यादा अपने ओहदे से उन्मत्त, झूमते हुए स्टेज पर आ गए।
" वाह भोली... क्या लग रही हो !!" मुझे आलिंगनबद्ध करते हुए कहने लगे और फिर पीछे हट कर मुझे गौर से निहारने लगे।
" भाइयो ! देखते हैं कि चोली के पीछे क्या है !!" उन्होंने मेरे वक्ष-स्थल पर हाथ रखते हुए कहा।
मर्दों के अभद्र शोर और सीटियों ने थानेदार साब का हौसला बढ़ाया और उन्होंने ने मेरे मम्मों को हलके से मसलते हुए मेरी चोली को खोलना शुरू किया। कमरे में शोर ऊंचा हो गया और लोग तरह तरह की फब्तियां कसने लगे... थानेदार साब ने मेरी पीठ और पेट पर हाथ फिराते हुए मेरी चोली खोल दी और उसको सूंघने के बाद हाथ ऊपर करके आसमान में घुमाने लगे... और फिर उसे स्टेज के नीचे मर्दों के झुण्ड में फ़ेंक दिया।
लोगों ने ऊपर उचक उचक कर उसे लूटने की होड़ लगाईं और जिस के हाथ वह चोली आई उसने उसे चूमते हुए अपने सीने और लिंग पर रगड़ा और अपनी जेब में ठूंस लिया।
म्यूज़िक फिर शुरू हो गया और लोग उसके रुकने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगे। आखिर स्टेज गरम हो गया था... शराब, दौलत, संगीत और पर-स्त्री के चीर-हरण से मर्दों की मदहोशी बुलंदी पर पहुँच रही थी। आखिर संगीत रुका और "चौधरी साब... घाघरा" की घोषणा से कमरा गूँज गया।
60 वर्षीय चौधरी साब महेश की बगल से उठे और दो लड़कियों के हाथ के सहारे सीढ़ियाँ चढ़ते हुए स्टेज पर आ गए। मैंने अकस्मात झुक कर उनके पांव छू लिए... आखिर वे मेरे पिताजी से भी ज्यादा उम्र के थे... वे तनिक ठिठके और फिर मुझे झुक कर उठाने लगे... उठाते वक्त उन्होंने मुझे मेरी कमर से पकड़ा और जैसे जैसे मैं खड़ी होती गई उनके फैले हुए हाथ मेरी कमर से रेंगते हुए मेरी बगल, पेट-पीठ को सहलाते हुए मेरे गालों पर आकर रुक गए। मेरा माथा चूमते हुए मुझे गले लगा लिया और "तुम्हारी जगह मेरे पैरों में नहीं... मेरी गोदी में है !" कहकर अपना राक्षसी रूप दिखा दिया।
मुझे उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी... पर मैं भी कितनी भोली थी... अगर नेताजी ऐसे नहीं होते तो यहाँ क्यों आते? फिर उन्होंने मेरी एक परिक्रमा करके मेरा मुआयना किया... उनकी नज़रें पतली सी ब्रा में क़ैद मेरे खरबूजों पर रुकीं और उनकी आँखें चमक उठीं।
" भई महेश... तुम्हारा भी जवाब नहीं ... क्या चीज़ लाये हो !" फिर वे घाघरे का नाड़ा ढूँढने के बहाने मेरे पेट पर हाथ फिराने लगे और अपनी उँगलियाँ पेट और घाघरे के बीच घुसा दीं।
स्टेज के नीचे हुड़दंग होने लगा... लोग बेताब हो रहे थे... पर नेताजी को कोई जल्दी नहीं थी। बड़ी तसल्ली से मुझे हर जगह छूने के बाद उन्होंने घाघरे का नाड़ा खोल ही दिया और उसको पैरों की तरफ गिराने की बजाय मेरे हाथ ऊपर करवा कर मेरे सिर के ऊपर से ऐसे निकला जिससे उन्हें मेरे स्तनों को छूने और दबाने का अच्छा अवसर मिले। लोग उत्तेजित हो रहे थे... उनकी भाषा और इशारे धीरे धीरे अश्लील होते जा रहे थे।
मैं ब्रा और चड्डी में खड़ी थी... नेताजी ने घाघरे को भी चोली की तरह घुमा कर स्टेज के नीचे फ़ेंक दिया और किसी किस्मत वाले ने उसे लूट लिया। नेताजी के वापस जाने से गाना फिर शुरू हो गया... मैं ब्रा-चड्डी में नाचने लगी... लोगों की सीटियाँ तेज़ हो गईं !
जल्दी ही संगीत रुका और जैसा मेरा अनुमान था "ब्रा और चड्डी... महेश जी" सुनकर लोगों ने खुशी से महेश का स्वागत किया। सभी उत्सुक थे और महेश को जल्दी जल्दी स्टेज पर जाने को उकसा रहे थे। वे मुझे पूरी तरह निर्वस्त्र देखने के लिए कौरवों से भी ज्यादा आतुर हो रहे थे।
अब मुझे अपनी अवस्था पर अचरज होने लगा था। मैं इतने सारे पराये मर्दों के सामने पूरी नंगी होने जा रही थी पर मेरे दिल-ओ-दिमाग पर कोई झिझक या शर्म नहीं थी। कदाचित स्टेज पर आने से लेकर अब तक मुझे इतनी बार जलील किया गया था कि मैं अपने आप को उनके सामने पहले से ही नंगी समझ रही थी... अब तो फक़त आखिरी कपड़े हटाने की देर थी। जैसे किसी बूचड़खाने में देर तक रहने से वहां की बू आनी बंद हो जाती है, मेरा अंतर्मन भी नग्नता की लज्जा से मुक्त सा हो गया था। अब कुछ बचा नहीं था जिसे मैं छुपाना चाहूँ...
मैं विमूढ़ सी वहां खड़ी खड़ी उन भेड़ीये स्वरूपी आदमियों का असली रूप भांप रही थी। कुछ ही समय में, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच, आज रात का हीरो और इन कुटिल गिद्धों का राजा-गिद्ध स्टेज पर एक विजयी और बहादुर योद्धा की तरह आ गया।
उसने स्टेज पर से अपने सभी दोस्तों का अभिवादन किया अपने हाथों से उन्हें धीरज रखने का संकेत किया। कुछ लोग शांत हुए तो कुछ और भी चिल्लाने लगे !
मदहोशी सर चढ़कर बोल रही थी..." थैंक यू... थैंक यू... तो क्या तुम सब तैयार हो?" महेश ने अब तक का सबसे व्यर्थ सवाल पूछा। सबने सर्वसम्मत आवाज़ से स्वीकृति और तत्परता का इज़हार किया।
अचानक उसके दोस्तों ने उसका नाम लेकर चिल्लाना शुरू किया " म... हेश... म... हेश... म... हेश..." मानो वह कोई बहुत बहादुरी का काम करने जा रहा था और उसे उनके प्रोत्साहन की ज़रूरत थी। महेश मेरे पास आया और अब तक के मेरे व्यवहार और सहयोग के लिए मुझे आँखों ही आँखों में प्रशंसा दर्शाई।
मुझे इस अवस्था में भी उसका अनुमोदन अच्छा लगा। फिर उसने अपनी तर्जनी उंगली मेरी पीठ पर रख कर इधर-उधर चलाया जैसे कि कोई शब्द लिख रहा हो... फिर वही उंगली चलता हुआ वह सामने आ गया और मेरे पेट और ब्रा के ऊपर अपने हस्ताक्षर से करने लगा। सच कहूँ तो मुझे गुदगुदी होने लगी थी और मुझे उसका यह खेल उत्सुक कर रहा था।फिर उसने अपनी उंगली हटाई और अपने होठों से मुझे जगह जगह चूमने लगा... नाभि से शुरू होते हुए पेट और फिर ब्रा में छुपे स्तनों को चूमने के बाद उसने मेरी गर्दन और होठों को चूमा और फिर घूम कर मेरी पीठ पर वृत्ताकार में पप्पियाँ देने लगा... उसकी जीभ रह रह कर किसी सर्प की भांति, बाहर आ कर मुझे छू कर लोप हो रही थी।
मैं गुदगुदी से कसमसाने लगी थी...
उधर लोगों का शोर बढ़ने लगा था। फिर उसने अचानक अपने दांतों में मेरी ब्रा की डोरी पकड़ ली और उसे धीरे धीरे खींचने लगा। जब मैं उसके खींचने के कारण उसकी तरफ आने लगी तो उसने मुझे अपने हाथों से थाम दिया। आखिर डोरी खुल गई और आगे से मेरी ब्रा नीचे को ढलक गई... मेरे हाथ स्वभावतः अपने स्तनों को ढकने के लिए उठ गए तो लोगों का जोर से प्रतिरोध में शोर हुआ। मैंने अपने हाथ नीचे कर लिए और मेरे खुशहाल मम्मे उन भूखे दरिंदों के सामने पहली बार प्रदर्शित हो गए। कमरे में एक ऐसी गूँज हुई मानो जीत के लिए किसी ने आखिरी गेंद पर छक्का जमा दिया हो !
मुझे यह जान कर स्वाभिमान हुआ कि मेरा शरीर इन लोगों को सुन्दर और मादक लग रहा था। इतने में महेश सामने आ गया और मुंह में ब्रा लिए लिए मेरे चेहरे और छाती पर अपना मुँह रगड़ने लगा। ऐसा करते करते न जाने कब उसने मुँह से ब्रा गिरा दी और मेरे स्तनों को चूमने-चाटने लगा। बाकी मर्दों पर इसका खूब प्रभाव पड़ रहा था और वे झूम रहे थे और ना जाने क्या क्या कह रहे थे।
मेरे वक्ष को सींचने के बाद महेश का मुँह मेरे पेट से होता हुआ नाभि और फिर उसके भी नीचे, चड्डी से सुरक्षित, मेरे योनि-टीले पर पहुँच गया। दरिंदों ने एक बार और अठ्ठहास लगा कर महेश का जयकारा किया। महेश मज़े ले रहा था और उसे अपने चेले-दोस्तों का चापलूसी-युक्त व्यवहार अच्छा लग रहा था। नेताजी, थानेदार साब, भीमा और अशोक एक एक लड़की के साथ चुम्मा-चाटी में लगे हुए थे तो कुछ बेशर्मी से पैन्ट के बाहर से ही अपना लिंग मसल रहे थे।
महेश ने मेरी नाभि में जीभ गड़ा कर गोल-गोल घुमाई और फिर चड्डी के ऊपर से मेरी योनि-फांक को चीरते हुए ऊपर से नीचे चला दी। मैं उचक सी गई... गुदगुदी तीव्र थी और शायद आनन्ददायक भी। मुझे डर था कहीं मेरी योनि गीली ना हो जाये।
महेश के करतब जारी रहे। एक निपुण चोद्दा (जो चोदने में माहिर हो) की तरह उसे स्त्री के हर अंग का अच्छा ज्ञान था... कहाँ दबाव कम तो कहाँ ज्यादा देना है... कहाँ काटना है और कहाँ पोला स्पर्श करना है... वह अपने मुँह से मेरे बदन की बांसुरी बजा रहा था... और इस बार तो दर्शकों के साथ मुझे भी आनन्द आ रहा था।
एकाएक उसने मेरी चड्डी के बाईं तरफ की डोरी मुँह से पकड़ कर खींच दी और झट से दाहिनी ओर आकर वहां की डोरी मुँह में पकड़ ली। बाईं तरफ से चड्डी गिर गई और उस दिशा से मैं नंगी दिखने लगी थी। स्टेज के नीचे भगधड़ सी मची और जो लोग गलत जगह खड़े थे दौड़ कर स्टेज के नजदीक आ गए। सभी मेरी योनि के दर्शन करना चाहते थे ... स्टेज के नीचे से ऊओऊह... वाह वाह... आहा... सीटियों और तालियों की आवाजें आने लगीं। तभी महेश ने दाहिनी डोर भी खींच दी और मेरा आखरी वस्त्र मेरे तन से हर लिया गया।
मैं पूर्णतया निर्वस्त्र स्टेज पर खड़ी थी... महेश ने एक हीरो की तरह स्टेज पर अपनी मर्दानगी की वाहवाही और शाबाशी स्वीकार की और स्टेज से नीचे आ गया।
उसके नीचे जाते ही म्यूज़िक फिर से बजने लगा और धीरे धीरे लोग स्टेज पर नाचने के लिए आने लगे। वे उन चारों लड़कियों को भी स्टेज पर ले आये और कुछ ने मिलकर उनका भी वस्त्र-हरण कर दिया। अब हम पांच नंगी लड़कियां उन 8-10 मर्दों के बीच फँसी हुई थीं। वे बिना किसी हिचक के किसी भी लड़की को कहीं भी छू रहे थे। बस महेश, नेताजी और थानेदार साब स्टेज पर नहीं आये थे।
kramashah.....................
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