Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
07-25-2018, 11:06 AM,
#1
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काँच की हवेली "kaanch ki haveli" 


लेखक-प्रेम प्यासा 

अंधकार अपना डेरा जमा चुका था. रात अपनी मन्थर गति से बीती जा रही थी. चारो और सन्नाटा पसरा हुआ था. हां कभी कभी सियारो के रोने और कुत्तो के भोकने की आवाज़ों से वातावरण में बिसरा सन्नाटा क्षण भर के लिए भंग हुआ जाता था.

इस वक़्त रात के 10 बजे थे. रायपुर के निवासी अपने अपने घरों में कुछ तो चादर ताने सो चुके थे कुच्छ सोने का प्रयत्न कर रहे थे. शर्मीली अपने घर के आँगन की चारपाई पर अपने पति सरजू के साथ लेटी हुई थी. उसकी आँखों से नींद गायब थी. वह एक और करवट लिए हुए थी. उसकी नज़रें उसके घर से थोड़े से फ़ासले पर स्थित उस भव्या काँच की हवेली पर टिकी हुई थी जिसे ठाकुर जगत सिंग ने अपनी धर्मपत्नी राधा देवी के मूह दिखाई के तौर पर बनवाया था. ठीक उसी तरह जैसे शाहजहाँ ने मुमताज़ के लिए ताजमहल बनवाया था. यहाँ फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि ठाकुर साहब ने ये काँच की हवेली अपनी पत्नी के जीवंत काल ही में बनवाई थी.

ठाकुर साहब राधा देवी से बहुत प्रेम करते थे. शादी की मूह दिखाई के दिन ही ठाकुर साहब ने राधा देवी को ये वचन दिया था कि वे उनके लिए एक ऐसी हवेली का निर्माण करेंगे जिसे लोग युगों युगों तक याद रखेंगे. और उन्होने ठीक ही कहा था. शादी के साल डेढ़ साल के भीतर ही ठाकुर साहब ने अपना वादा पूरा किया. और ये हवेली बतौर मूह दिखाई राधा देवी को भेंट की. जब ये हवेली बनकर तैयार हुई तो देखने वालों की आँखें चौंधिया गयी. जिसकी भी नज़र हवेली पर पड़ी राधा देवी की किस्मत पर रश्क़ कर उठा.

शर्मीली रोज़ ही हवेली को देखती और ठाकुर के दिल में राधा देवी के लिए बसे उस प्यार का अनुमान लगाती. अभी भी उसकी नज़रें हवेली पर ही टिकी हुई थी. स्याह रात में भी यह हवेली अपनी चमक बिखेरने में कामयाब थी. उसकी बाहरी रोशनी से हवेली की दीवारे झिलमिला रही थी. तथा हवेली के अंदर से छन कर निकलती रोशनी हवेली को इंद्रधनुषी रंग प्रदान कर रही थी.

शर्मीली ने पलट कर अपने पति सरजू को देखा जो एक और मूह किए लेटा हुआ था. उसने धीरे से सरजू को पुकारा. - "आप सो गये क्या?"

सरजू अभी हल्की नींद में था शर्मीली की आवाज़ से वह कुन्मुनाया. "क्या है?"

"एक बात पुच्छू तुमसे सच सच बताओगे?" शर्मीली ने प्रेमभव से अपने पति की ओर देखते हुए बोली. उसके दिल में इस वक़्त प्रेम का सागर हिलोरे मार रहा था.

लेकिन सरजू को उसके भाव से क्या लेना देना था. दिन भर का थका हारा अपनी नींद सोने का प्रयत्न कर रहा था. वह अंजान होकर बोला - "तुमसे झूठ बोलकर भी मेरा कौन सा भला हो जाएगा. सच ही बोलूँगा."

"तुम सीधे सीधे बात क्यों नही करते?" शर्मीली तुनक कर बोली. उसे इस वक़्त पति के मूह से ऐसे बोल की आशा ना थी.

"तो तुम सीधे सीधे पुछ क्यों ना लेती, जो पुच्छना चाहती हो? पुछो."

शर्मीली इस वक़्त झगड़े के मूड में नही थी. वह शांत स्वर में बोली - "मेरे मरने के बाद क्या तुम भी मेरी याद में कुच्छ बनवाओगे?" शर्मीली के ये शब्द प्रेम रस में डूबे हुए थे. उन शब्दो में लाखों अरमान छुपे हुए थे.

"हां....!" सरजू ने धीरे से कहा.

पति के मूह से हां सुनकर श्रमिली का दिल झूम उठा. मन प्रेम पखेरू बनकर उड़ने लगा. आज उसे इस हां में जितनी खुशी मिली थी कि उसका अनुमान लगाना मुश्किल था. आज सरजू अगर इस हां के बदले उसके प्राण भी माँग लेता तो वह खुशी खुशी अपने पति के लिए प्राण त्याग देती. वह सरजू से कसकर चिपट गयी और बोली - "क्या बनवाओगे?"

"मालिक से कुच्छ रुपये क़र्ज़ में लेकर तुम्हारे लिए बढ़िया सी कब्र बनवाउँगा. फिर जो पैसे बचेंगे उन पैसों से पूरे गाओं में मिठाइयाँ बाटुंगा."

शर्मीली का दिल भर आया. आँखों से आँसू बह निकले. अपने पति के दिल में अपने लिए ऐसे विचार जानकार उसकी आत्मा सिसक उठी. वह सिसकते हुए बोली - "क्या पंद्रह साल तुम्हारे साथ रहने का यही इनाम है मेरा. मैं समझती थी कि तुम मुझे अपनी अर्धांगिनी समझते हो...प्रेम करते हो मुझसे. आज पता चला तुम्हारे दिल में मेरे लिए कितना प्रेम है."

शर्मीली की बेमतलब की बातों से सरजू की नींद गायब हो चुकी थी. वह झल्लाकर बोला. - "ना तो मैं मालिक जैसा राईस हूँ और ना ही तुम मालकिन जैसी सुंदर हो. फिर क्यों मेरा मगज़ खा रही हो? "

सरजू की झिड़की से शर्मीली का दिल टूट गया. लेकिन वो अभी कुच्छ कहती उससे पहले ही रूह को कंपा देने वाली एक भयंकर नारी चीख रात के सन्नाटे में गूँज उठी. यह चीख हवेली से आई थी. शर्मीली के साथ साथ सरजू भी चिहुनक कर चारपाई से उठ बैठा.

"मालकिन...!" सरजू बड़बड़ाया और चारपाई से उतरा - "लगता है मालकिन को फिर से दौरा पड़ा है. मैं हवेली जा रहा हूँ." वह तेज़ी से अपनी धोती कसता हुआ बोला. फिर कुर्ता उठाया और हवेली के रास्ते भागता चला गया.

शर्मीली अभी भी जड़वत खड़ी हवेली की और ताक रही थी. उसकी दिल की धड़कने चढ़ि हुई थी. उसका शरीर भय से हौले हौले काँप रहा था. तभी फिर से वही दिल चीर देने वाली चीख उसके कानो से टकराई.

शर्मीली काँपते हुए चारपाई पर लेट गयी. हवेली से निकली चीख ने उसके अपने सारे दुख भुला दिए थे. अब उनकी जगह राधा देवी के दुख ने घर कर लिया था. वह राधा देवी के बारे में सोचने लगी.

राधा देवी - कैसा अज़ीब संयोग था. ठाकुर साहब ने राधा देवी की मूह दिखाई के लिए जिस हवेली का निर्माण करवाया उस हवेली का सुख उन्हे ना मिल सका. बेचारी जिस दिन इस हवेली में आई उसी रात ना जाने कौन सा हाद्सा पेश आया कि राधा देवी अपनी मानसिक संतुलन खो बैठी. तब से लेकर आज पूरे 20 बरस तक वो एक कमरे में बंद हैं. और इसी प्रकार के दौरे आते रहते हैं. उनके इस प्रकार के दौरे के बारे में सभी जानते हैं पर उनके साथ क्या हुआ? उस रात हवेली में कौन सी घटना घटी कि उन्हे पागल हो जाना पड़ा ये कोई नही जानता. ये एक रहस्य बना हुआ है.
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07-25-2018, 11:06 AM,
#2
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सरजू हान्फता हुआ हवेली में दाखिल हुआ और सीधा मालकिन के कमरे की तरफ बढ़ गया. मालकिन के कमरे के दरवाज़े तक पहुँच कर वह रुका. वहाँ हवेली के दूसरे नौकर भी खड़े भय से काँप रहे थे. उनमे से किसी में भी इतनी हिम्मत नही थी कि वो अंदर जाकर देखे कि क्या हो रहा है. सरजू कुच्छ देर खड़ा रहकर अपनी उखड़ चली सांसो को काबू करता रहा फिर धड़कते दिल से अंदर झाँका. अंदर का दृश्य देखकर उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी. मालकिन किसी हिंसक शेरनी की भाँति लाल लाल आँखों से ठाकुर साहब को घुरे जा रही थी. ठाकुर साहब एक और खड़े थर थर काँप रहे थे. मालकिन दाएँ बाएँ नज़र दौड़ाती और जो भी वस्तु उनके हाथ लगती उठाकर ठाकुर साहब पर फेंक मारती.

"राधा....होश में आओ राधा." मालिक भय से काँपते हुए धीरे से मालकिन की ओर बढ़े. "हमे पहचानो राधा...हम तुम्हारे पति जगत सिंग हैं."

"झूठ....." राधा देवी चीखी -"तू खूनी है.....अगर तू मेरे पास आया तो मैं तेरी जान ले लूँगी. मैं जानती हूँ तू मेरी बेटी को मारना चाहता है पर उससे पहले मैं तुम्हे मार डालूंगी." ये बोलकर वो फिर से कुच्छ ढूँढने लगी...जिससे कि वो ठाकुर साहब को फेंक कर मार सके. जब कुच्छ नही मिला तो वो डरते हुए पिछे हटी. उसके हाथो में कपड़े की बनाई हुई गुड़िया थी जिसे वो अपनी बेटी समझकर छाती से चिपका रखी थी. ठाकुर साहब को अपनी और बढ़ते देखकर उसकी आँखों में भय नाच उठा. राधा गुड़िया को अपनी सारी के आँचल में छिपाने लगी. और फिर किसी वस्तु की तलाश में इधर उधर नज़र दौड़ाने लगी. अचानक उसकी आँखें चमक उठी, उसे पानी का एक गिलास ज़मीन पर गिरा पड़ा दिखाई दिया. वह फुर्ती से गिलास उठाई और बिजली की गति से ठाकुर साहब को दे मारा. राधा देवी ने इतनी फुर्ती से गिलास फेंका था कि ठाकुर साहब अपना बचाव ना कर सके. गिलास उनके माथे से आ टकराया. वो चीखते हुए पिछे हटे. उनके माथे से खून की धार बह निकली. दरवाज़े के बाहर खड़ा सरजू लपक कर उन तक पहुँचा और ठाकुर साहब को खींच कर बाहर ले आया. दूसरे नौकरों ने जल्दी से अपनी मालकिन के कमरे का दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया.

सरजू ठाकुर साहब को हॉल में ले आया और उनके माथे से बहते खून को सॉफ करने लगा. दूसरे नौकर भी दवाई और पट्टियाँ लेकर ठाकुर साहब के पास खड़े हो गये. तभी दरवाज़े से दीवान जी दाखिल हुए. वो सीधे ठाकुर साहब के पास आकर बैठ गये. ठाकुर साहब की दशा देखी तो उनके होंठो से कराह निकल गयी.

"आप मालकिन के कमरे में गये ही क्यों थे सरकार?" दीवान जी उनके माथे पर लगे घाव को देखते हुए बोले.

"राधा को देखे एक महीना हो गया था दीवान जी. बड़ी इच्छा हो रही थी उसकी सूरत देखने की...मुझसे रहा नही गया." ठाकुर साहब दर्द से छटपटा कर बोले. उनका दर्द माथे पर लगी चोट की वजह से नही था. उनका दर्द उनके दिल में लगे उस चोट से था जिसे उन्होने खुद लगाया था. वो अपनी बर्बादी के खुद ही ज़िम्मेदार थे. आज उनकी पत्नी की जो हालत थी उसके ज़िम्मेदार वे खुद थे. ये बात ठाकुर साहब के अतिरिक्त दीवान जी भी जानते थे. और वो ये भी जानते थे कि ठाकुर साहब अपनी पत्नी राधा देवी से कितनी मोहब्बत करते हैं. इसलिए ठाकुर साहब के दुख का उन्हे जितना एहसास था शायद किसी और को न था. दीवान जी ठाकुर साहब की बातो से चुप हो गये. उनके पास कहने के लिए शब्द ही नही थे, बस सहानुभूति भरी नज़रों से उन्हे देखते रहे.

"दीवान जी...आपने बंबई के किसी काबिल डॉक्टर के बारे में बताया था उसका क्या हुआ? वो कब तक आएगा?" उन्होने अपने घाव की परवाह ना करते हुए दीवान जी से पूछा.

"आज ही उसका संदेश आया था. वो थोड़े दिनो में आ जाएगा." दीवान जी ने उन्हे आश्वासन दिया.

"पता नही इस डॉक्टर से भी कुच्छ हो पाएगा या नही. जो भी आता है सब पैसे खाने के लिए आते हैं. आजकल डॉक्टरी पेशे में भी ईमानदारी नही रही." ठाकुर साहब मायूसी में बोले.

"इसके तो काफ़ी चर्चे सुने हैं मैने. लोग कहते हैं इसने बहुत कम उमर में बहुत ज्ञान हासिल किया है. अनेको जटिल केस सुलझाए है. मालकिन जैसी कयि मरीजों को ठीक कर चुका है. मेरा दिल कहता है मालिक, अबकी मालकिन अच्छी हो जाएँगी. आप उपरवाले पर भरोसा रखें."

दीवान जी की बातों से ठाकुर साहब ने एक लंबी साँस छ्चोड़ी फिर बोले - "अब तो किसी चीज़ पर भरोसा नही रहा दीवान जी. अब तो ऐसा लगने लगा है हमारी राधा कभी ठीक नही होगी. हम जीवन भर ऐसे ही तड़प्ते रहेंगे. अब तो जीने की भी आश् नही रही....पता नही मेरे मरने के बाद राधा का क्या होगा?"

"बिस्वास से बड़ी कोई चीज़ नही मालिक. आप बिस्वास रखें मालकिन एक दिन ज़रूर ठीक होंगी. और मरने की बात तो सोचिए ही नही....आप यह क्यों भूल जाते हैं आपकी एक बेटी भी है."

ठाकुर साहब ने दीवान जी की तरफ देखा. दीवान जी की बातों ने जैसे मरहम का काम किया हो. बेटी की याद आते ही मुरझाया चेहरा खिल सा गया, वो दीवान जी से बोले - "कैसी है हमारी निक्की दीवान जी. मैं अभागा तो अपने पिता के कर्तव्य को भी ठीक से नही निभा पाया. वो कब आ रही है?"

"निक्की बिटिया परसो आ रही है. परसो शाम तक तो बिटिया आपके सामने होंगी." दीवान जी मुस्कुराए.

एक लंबे अरसे तक ठाकुर साहब ने निक्की का चेहरा नही देखा था. वो जब 6 साल की थी तभी उन्होने अपनी जान से प्यारी बेटी को बोर्डिंग भेज दिया था. यहाँ रहने से मा की बीमारी का प्रभाव उसपर पड़ सकता था. आज जब निक्की के आने की खबर दीवान जी ने दी तो उनका मन बेटी को देखने की चाह में व्यग्र हो उठा. पर एक ओर जहाँ उन्हे बेटी से मिलने की खुशी थी तो दूसरी और उन्हे इस बात की चिंता भी हो रही थी कि जब निक्की अपनी मा से मिलेगी तो उसके दिल पर क्या बीतेगी. "अब आप घर जाइए दीवान जी. रात बहुत हो चुकी है." ठाकुर साहब अब हल्का महसूस कर रहे थे. उन्होने दीवान जी को व्यर्थ में बिठाए रखना उचित नही समझा.

"जैसी आपकी आग्या सरकार." दीवान जी बोले और हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए. उनका घर भी हवेली के बाई ओर थोड़ा हटके था. कहने को वो घर था पर किसी छोटी हवेली से कम नही था. ये भी ठाकुर साहब की मेहरबानियों का नतीजा था. दीवान जी उनके बहुत पुराने आदमी थे. और उनका सारा काम वही देखते थे. ठाकुर साहब तो आँख मूंद कर उनपर भरोसा करते थे.

दीवान जी के जाने के बाद ठाकुर साहब उठे और अपने कमरे की तरफ बढ़ गये. नींद तो उनकी आँखों से कोसो दूर थी. रात जागते हुए गुजरने वाली थी. ये उनके लिए कोई नयी बात नही थी. उनकी ज़्यादातर रातें जागते ही गुजरती थी. उन्होने सिगार सुलगाई और खुद को आराम कुर्सी पर गिराया. फिर हल्के हल्के सिगार का कश लेने लगे. सिगार का कश भरते हुए ठाकुर सहाब अतीत की गहराइयों में उतरते चले गये. उनका अतीत ही उनके मन बहलाव का साधन था. वे अक्सर तन्हाइयों में अपने अतीत की सैर कर लिया करते थे.
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07-25-2018, 11:06 AM,
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3रायपुर के रेलवे स्टेशन पर निक्की पिच्छले 20 मिनिट से खड़ी थी. उसका गुस्से से बुरा हाल था. दीवान जी ने ड्राइवर को निक्की को लेने भेजा था पर उसका कोई पता नही था. निक्की गुस्से से भरी प्लॅटफॉर्म पर चहल कदमी कर रही थी.

इस वक़्त निक्की पिंक कलर की फ्रॉक पहने हुए थी. उसकी आँखों में धूप का चस्मा चढ़ा हुआ था और सर पर सन हॅट्स था. फ्रॉक इतनी छोटी थी कि आधी जंघे नुमाया हो रही थी. प्लॅटफॉर्म पर आते जाते लोग ललचाई नज़रों से उसकी खूबसूरत जाँघो और उभरी हुई छाती को घूरते जा रहे थे. अचानक ही किसी बाइक के आक्सेलेटर की तेज आवाज़ उसके कानो से टकराई. आवाज़ इतनी तेज थी कि निक्की का गुस्सा सातवे आसमान पर पहुँच गया. निक्की की दृष्टि घूमी. सामने ही एक खूबसूरत नौजवान अपनी बाइक पर बैठा बाइक के कान मरोड़ने में व्यस्त था. वो जब तक आक्स्लेटर लेता बाइक स्टार्ट रहती आक्स्लेटर छोड़ते ही बाइक भूय भूय करके बंद हो जाती. वो फिर से किक मारता...आक्स्लेटर लेता और बाइक स्टार्ट करने में लग जाता. वह पसीने से तर बतर हो चुका था. निक्क 5 मिनिट तक उसकी भानी भानी सुनती रही. अंत में उसका सब्र जवाब दे गया. वा गुस्से से उसकी ओर देखकर बोली - "आए मिसटर, अपनी इस खटारा को बंद करो या कहीं दूर ले जाकर स्टार्ट करो. इसकी बेसुरी आवाज़ से मेरे कान के पर्दे फट रहे हैं."

वह युवक बाइक ना स्टार्ट होने से वैसे ही परेशान था उसपर ऐसी झिड़की, उसकी बाइक का ऐसा अपमान...वह सह ना सका. गुस्से में पलटा पर जैसे ही उसकी नज़र निक्की पर पड़ी वह चौंक पड़ा. अपने सामने एक खूबसूरत हसीना को देखकर उसका गुस्सा क्षण भर के लिए गायब हुआ. फिर बोला - "आप मेरी बाइक को खटारा कह रही हैं? आपको अंदाज़ा नही है मैं इस बाइक पर बैठ कितनी रेस जीत चुका हूँ."

"रेस...? और वो भी इस बाइक से? ये चलती भी है, मुझे तो इसके स्टार्ट होने पर भी संदेह हो रहा है." वह व्यंग से मुस्कुराइ.

युवक को तेज गुस्सा आया पर मन मसोस कर रह गया. उसने बाइक को अज़ीब नज़रों से घूरा फिर एक ज़ोर दार किक मारा. इस बार भी बाइक स्टार्ट नही हुई. वह बार बार प्रयास करता रहा और आक्स्लेटर की आवाज़ से निक्की को परेशान करता रहा. कुच्छ ही देर में निक्की का ड्राइवर जीप लेकर पहुँचा. ड्राइवर जीप से उतर कर निक्की के पास आया.

"इतनी देर क्यों हुई आने में?" निक्की ड्राइवर को देखते ही बरसी.

"ग़लती हो गयी छोटी मालकिन...वो क्या है कि.....असल....में..." ड्राइवर हकलाया.

"शट अप." निक्की गुस्से में चीखी.

ड्राइवर सहम गया. उसकी नज़रें ज़मीन चाटने लगी.

"सामान उठाने के लिए कोई दूसरा आएगा? " निक्की उसे खड़ा देख फिर से भड़की. ड्राइवर तेज़ी से हरकत में आया और सामान उठाकर जीप में रखने लगा.

निक्की की नज़रें उस बाइक वाले युवक की ओर घूमी. वो इधर ही देख रहा था. उसे अपनी ओर देखते पाकर निक्की एक बार फिर व्यंग से मुस्कुराइ और अपनी जीप की ओर बढ़ गयी. अचानक ही वो हुआ जिसकी कल्पना निक्की ने नही की थी. उसकी बाइक स्टार्ट हो गयी. निक्की ने उस युवक को देखा. अब मुस्कुराने की बारी उस युवक की थी. वह बाइक पर बैठा और निक्की को देखते हुए एक अदा से सर को झटका दिया और सीटी बजाता हुआ बाइक को भगाता चला गया. निक्की जल-भुन कर रह गयी.

ड्राइवर सामान रख चुका था. निक्की लपक कर स्टियरिंग वाली सीट पर आई. चाभी को घुमाया गियर बदली और फुल स्पीड से जीप को छोड़ दिया.

"छोटी मालकिन....!" ड्राइवर चीखते हुए जीप के पिछे दौड़ा.

निक्की तेज़ी से पहाड़ी रास्तों पर जीप भगाती चली जा रही थी. कुच्छ ही दूर आगे उसे वही बाइक वाला युवक दिखाई दिया. उसने जीप की रफ़्तार बढ़ाई और कुच्छ ही पल में उसके बराबर पहुँच गयी. फिर उसकी ओर देखती हुई बोली - "हेलो मिस्टर ख़तरा"

युवक ने निक्की की ओर देखा, अभी वह कुच्छ कहने की सोच ही रहा था कि निक्की एक झटके में फ़र्राटे की गति से जीप को ले भागी. युवक गुस्से में निक्की को देखता ही रह गया. उसकी आँखें सुलग उठी उसने आक्स्लेटर पर हाथ जमाया और बाइक को फुल स्पीड पर छोड़ दिया. अभी वह कुच्छ ही दूर चला था कि सड़क पर कुच्छ लड़किया पार करती दिखाई दी. उसने जल्दी से ब्रेक मारा. उसकी रफ़्तार बहुत अधिक थी , बाइक फिसला और सीधे एक पत्थेर से जा टकराया. युवक उच्छल कर दूर जा गिरा. बाइक से बँधा उसका सूटकेस खुल गया और सारे कपड़े सड़क पर इधर उधर बिखर गये. वह लंगड़ाता हुआ उठा. तभी उसके कानो से किसी लड़की के हँसने की आवाज़ टकराई. उसने पलट कर देखा. एक ग्रामीण बाला सलवार कुर्ता पहने खिलखिलाकर हंस रही थी. उसके पिछे उसकी सहेलियाँ भी खड़ी खड़ी मुस्कुरा रही थी. उन सभी लड़कियों के हाथ में पुस्तकें थी जिस से युवक को समझते देर नही लगी कि ये लड़कियाँ पास के गाओं की रहने वाली हैं और इस वक़्त कॉलेज से लौट रही हैं.

"ये देखो, काठ का उल्लू" आगे वाली लड़की हँसते हुए सहेलियों से बोली.

युवक की नज़र उसपर ठहर गयी. वो बला की खूबसूरत थी. गर्मी की वजह से उसके चेहरे पर पसीना छलक आया था. पसीने से तर उसका गोरा मुखड़ा सुर्य की रोशनी में ऐसे चमक रहा था जैसे पूर्णिमा की रात में चाँद. उसका दुपट्टा उसके गले से लिपटकर पिछे पीठ की ओर झूल रहा था. सामने उसकी भरी हुई चूचियाँ किसी पर्वत शिखर की तरह तनी हुई उसे घूरा रही थी. पेट समतल था, कमर पतली थी लेकिन कूल्हे चौड़े और भारी गोलाकार लिए हुए थे. उसका नशीला गठिला बदन कपड़ों में छुपाये नही छुप रहा था. युवक कुच्छ पल के लिए उसकी सुंदरता में खो सा गया. वह ये भी भूल गया कि इस लड़की ने कुच्छ देर पहले उसे काठ का उल्ला कहा था. उसे ये भी ध्यान नही था कि उसकी बाइक सड़क पर गिरी पड़ी है और उसके कपड़े हवाओं के ज़ोर से सड़क पर इधर उधर घिसट रहे थे.

लेकिन लड़कियों को उसकी दशा का अनुमान था. उसकी हालत पर एक बार फिर लड़कियाँ खिलखिला कर हंस पड़ी. उसकी चेतना लौटी. उसने अपनी भौंहे चढ़ाई और उस लड़की को घूरा जिसने उसे काठ का उल्लू कहा था. "क्या कहा तुमने? ज़रा फिर से कहना."

"काठ का उल्लू." वह लड़की पुनः बोली और फिर हंस पड़ी.

"मैं तुम्हे काठ का उल्लू नज़र आता हूँ" युवक ने बिफर्कर बोला.

"और नही तो क्या....अपनी सूरत देखो पक्के काठ के उल्लू लगते हो." उसके साथ उसकी सहेलियाँ भी खिलखिलाकर हँसने लगी.

युवक अपमान से भर उठा, उसने कुच्छ कहने के लिए मूह खोला पर होठ चबाकर रह गया. उसे अपनी दशा का ज्ञान हुआ, वह उन लड़कियों से उलझकर अपनी और फ़ज़ीहत नही करवाना चाह रहा था. वह मुड़ा और अपने कपड़े समेटने लगा. लड़कियाँ हँसती हुई आगे बढ़ गयी.

*****

निक्की जैसे ही हवेली पहुँची ठाकुर साहब को बाहर ही इंतेज़ार करते पाया. उनके साथ में दीवान जी भी थे. वह जीप से उतरी तो दीवान जी लपक कर निक्की तक पहुँचे "आओ बेटा. मालिक कब से तुम्हारा इंतेज़ार कर रहे हैं."

निक्की ने ठाकुर साहब को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और फिर ठाकुर साहब से जाकर लिपट गयी. ठाकुर साहब ने उसे अपनी छाती से चिपका लिया. बरसों से सुलगते उनके दिल को आज ठंडक मिली थी. बेटी को छाती से लगाकर वे इस वक़्त अपने सारे दुखों को भुला बैठे थे. वह निक्की का माथा चूमते हुए बोले - "निक्की, तुम्हारा सफ़र कैसा रहा? कोई तकलीफ़ तो नही हुई यहाँ तक आने में?"

"ओह्ह पापा, मैं क्या बच्ची हूँ जो कोई भी मुझे तकलीफ़ दे देगा?" निक्की नथुने फुलाकर बोली.

उसकी बात से ठाकुर साहब और दीवान जी की ठहाके छूट पड़े.

"निक्की बेटा, तुम्हारे साथ ड्राइवर नही आया वो कहाँ रह गया?" दीवान जी निक्की को अकेला देखकर बोले.

"मैं उसे वही छोड़ आई. उसने मुझे पूरे 20 मिनिट वेट कराया. अब उसे कुच्छ तो पनिशमेंट मिलना चाहिए कि नही?" निक्की की बात से दीवान जी खिलखिलाकर हंस पड़े वहीं ठाकुर साहब बेटी की शरारत पर झेंप से गये.

कॉन्टिन्यू................................................
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07-25-2018, 11:07 AM,
#4
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ठाकुर साहब निक्की को लेकर हवेली के अंदर दाखिल हुए. घर के सभी नौकर उसे देखने के लिए उसके आदेश पालन के लिए उसके दाएँ बाएँ आकर खड़े हो गये.

ठाकुर साहब निक्की के साथ हॉल में बैठे. दीवान जी भी पास ही बैठ गये.

"तुम्हे आज अपने पास पाकर हमे बहुत खुशी हो रही है बेटी." ठाकुर साहब भावुकता में बोले.

"मुझे भी आपसे मिलने की बड़ी इच्छा होती थी पापा. अब मैं आपको छोड़ कर कहीं नही जाउन्गि." निक्की उनके कंधे पर सर रखते हुए बोली.

"हां बेटी, अब तुम्हे कहीं जाने की ज़रूरत नही है. अब तुम हमेशा हमारे साथ रहोगी."

ठाकुर साहब की बात अभी पूरी ही हुई थी कि हवेली के दरवाज़े से किसी अजनबी का प्रवेश हुआ. उसके हाथ में एक सूटकेस था. बाल बिखरे हुए थे और चेहरे पर लंबे सफ़र की थकान झलक रही थी.

निक्की की नज़र जैसे ही उस युवक पर पड़ी वह चौंक उठी. ये वही युवक था जिससे वो रेलवे स्टेशन पर उलझी थी. दीवान जी उसे देखते ही उठ खड़े हुए. युवक ने भीतर आते ही हाथ जोड़कर नमस्ते किया.

"आइए आइए डॉक्टर बाबू. आप ही का इंतेज़ार हो रहा था." दीवान जी उस युवक से हाथ मिलाते हुए बोले. फिर ठाकुर साहब की तरफ पलटे - "मालिक, ये रवि बाबू है. मैने इन्ही के बारे में आपको बताया था. बहुत शफ़ा है इनके हाथो में."

ठाकुर साहब ने जैसे ही जाना की ये डॉक्टर हैं अपने स्थान से उठ खड़े हुए. फिर उससे हाथ मिलते हुए बोले - "आपको कोई तकलीफ़ तो नही हुई यहाँ पहुँचने में?"

"कुच्छ खास नही ठाकुर साहब....." वह निक्की पर सरसरी निगाह डालता हुआ बोला.

"आप थक गये होंगे. जाकर पहले आराम कीजिए. हम शाम में मिलेंगे." ठाकुर साहब रवि से बोले.

"जी शुक्रिया...!" रवि बोला.

"आइए मैं आपको आपके रूम तक लिए चलता हूँ." दीवान जी रवि से बोले.

रवि ठाकुर साहब को फिर से नमस्ते कहकर दीवान जी के साथ अपने रूम की ओर बढ़ गया. उसका कमरा उपर के फ्लोर पर था. सीढ़िया चढ़ते ही लेफ्ट की ओर एक गॅलरी थी. उस ओर चार कमरे बने हुए थे. रवि के ठहरने के लिए पहला वाला रूम दिया गया था.

रवि दीवान जी के साथ अपने रूम में दाखिल हुआ. रूम की सजावट और काँच की नक्काशी देखकर रवि दंग रह गया. यूँ तो उसने जब से हवेली के भीतर कदम रखा था खुद को स्वर्ग्लोक में पहुँचा महसूस कर रहा था. हवेली की सुंदरता ने उसका मन मोह लिया था.

"आपको कभी भी किसी चीज़ की ज़रूरत हो बेझिझक कह दीजिएगा." अचानक दीवान जी की बातों से वह चौंका. उसने सहमति में सर हिलाया. दीवान जी कुच्छ और औपचारिक बाते करने के बाद वहाँ से निकले.

*****

हॉल में अभी भी निक्की अपने पिता ठाकुर जगत सिंग के साथ बैठी बाते कर रही थी. नौकर दाएँ बाएँ खड़े चाव से निक्की की बाते सुन रहे थे. निक्की की बातों से ठाकुर साहब के होठों से बार बार ठहाके छूट रहे थे.

"बस....बस....बस निक्की बेटा, बाकी के किस्से बाद में सुनाना. अभी जाकर आराम करो. तुम लंबे सफ़र से आई हो थक गयी होगी." ठाकुर साहब निक्की से बोले.

"ओके पापा, लेकिन किसी को बस्ती में भेजकर कंचन को बुलावा भेज दीजिए. उससे मिलने की बहुत इच्छा हो रही है." निक्की बोली और अपने कमरे की तरफ बढ़ गयी. उसका कमरा सीढ़िया चढ़कर दाईं ओर की गॅलरी में था. वह रूम में पहुँची. निक्की वास्तव में बहुत थकान महसूस कर रही थी उसने एक बाथ लेना ज़रूरी समझा. निक्की बाथरूम में घुस गयी. उसने अपने कपड़े उतारे और खुद को शावर के नीचे छोड़ दिया. शवर से गिरता ठंडा पानी जब उसके बदन से टकराया तो उसकी सारी थकान दूर हो गयी. वो काफ़ी देर तक खुद को रगड़ रगड़ कर शवर का आनंद लेती रही. फिर वह बाहर निकली और कपड़े पहन कर कंचन का इंतेज़ार करने लगी. कंचन उसकी बचपन की सहेली थी. निक्की का कंचन के सिवा कोई दोस्त नही थी. वैसे तो निक्की बचपन से ही बहुत घमंडी और ज़िद्दी थी. पर झोपडे में रहने वाली कंचन उसे जान से प्यारी थी. दोनो के स्वाभाव में ज़मीन आसमान का अंतर था. लेकिन दोनो में एक चीज़ की समानता थी. दोनो ही मा की ममता से वंचित थी शायद यही इनकी गहरी दोस्ती का राज़ था. कंचन को हवेली में किसी भी क्षण आने जाने की आज़ादी थी. कोई उसे टोक ले तो निक्की प्युरे हवेली को सर पर उठा लेती थी. ठाकुर साहब भी भूले से कभी कंचन का दिल नही दुखाते थे. इतने बरस कंचन से दूर रहने के बाद भी निक्की उसे भूली नही थी. निक्की शहर से कंचन के लिए ढेरो कपड़े लाई थी, निक्की उन कपड़ों के पॅकेट को निकाल कर कंचन का इंतेज़ार करने लगी.

*****

रवि पिच्छले 30 मिनिट से अपने रूम में बैठा उस नौकर की प्रतीक्षा कर रहा था जिसे उसने अपने कपड़े इस्त्री करने के लिए दिए थे. सड़क के हादसे में उसके कपड़ों की इस्त्री खराब हो गयी थी. अभी तक वो उन्ही कपड़ों में था जो हवेली में घुसते वक़्त पहन रखा था. वो कुर्सी पर बैठा उल्लुओ की तरह दरवाज़े की तरफ टकटकी लगाए घुरे जा रहा था.

*****

"ठक्क....ठक्क...!" अचानक दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी. निक्की उठी और दरवाज़े तक पहुँची. दरवाज़ा खुलते ही सामने एक खूबसूरत सी लड़की सलवार कमीज़ पहने खड़ी खड़ी मुस्कुरा रही थी. उसे देखते ही हिक्की के आँखों में चमक उभरी. वो कंचन थी. निक्की ने उसका हाथ पकड़ा और रूम के भीतर खींच लिया. फिर कस्के उससे लिपट गयी. दोनो का आलिंगन इतना गहरा था कि दोनो की चुचियाँ आपस में दब गयी. निक्की इस वक़्त ब्लू जीन्स और ग्रीन टीशर्ट में थी. कंचन ने उसे देखा तो देखती ही रह गयी. - "निक्की तुम कितनी बदल गयी हो. इन कपड़ों में तो तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो."

"मेरी जान...तू चिंता क्यों करती है. मैं तुम्हारे लिए भी ऐसे ही कयि ड्रेसस लाई हूँ. उन कपड़ों को पहनते ही तुम भी मेरी तरह हॉट लगने लगोगी." निक्की उसे पलंग पर बिठाती हुई बोली.

"मैं और ऐसे कपड़े? ना बाबा ना....! मैं ऐसे कपड़े नही पहन सकती." कंचन घबराकर बोली - "इन कपड़ों को पहन कर तो मैं पूरे गाओं में बदनाम हो जाउन्गि. और हो सके तो तू भी जब तक यहाँ है ऐसे कपड़े पहनना छोड़ दे."

"कोई कुच्छ नही बोलेगा, तू पहनकर तो देख. और तू मेरी चिंता छोड़...मैं तो अब हमेशा यहीं रहूंगी और ऐसे ही कपड़े पहनुँगी." निक्की चहकति हुई बोली.

"ना तो तू सदा यहाँ रह पाएगी और ना ही हमेशा ऐसे कपड़े पहन सकेगी." कंचन मुस्कुरा कर बोली - "मेरी बन्नो आख़िर तू एक लड़की है, एक दिन तुम्हे व्याह करके अपने साजन के घर जाना ही होगा. और तब तुम्हे उसके पसंद के कपड़े पहनने पड़ेंगे."

कंचन की बात सुनकर अचानक ही निक्की के आगे रवि का चेहरा घूम गया. वह बोली - "तुम्हे पता है आज रास्ते में आते समय एक दिलचस्प हादसा हो गया.?"

"हादसा? कैसा हादसा?" कंचन के मूह से घबराहट भरे स्वर निकले.

"स्टेशन पर एक बेवकूफ़ मिल गया. उसके पास एक ख़टरा बाइक थी. उसने मुझे पूरे 20 मिनिट अपनी ख़टरा बाइक की आवाज़ से परेशान किया." वह मुस्कुराइ.

"फिर...?" कंचन उत्सुकता से बोली.

"फिर क्या...! मैने भी उसे उसकी औकात बता दी. और अब वो बेवकूफ़ हमारे घर का मेहमान बना बैठा है. पापा कहते हैं वो डॉक्टर है. लेकिन मुझे तो वो पहले दर्जे का अनाड़ी लगता है." निक्की मूह टेढ़ा करके बोली.

"अभी कहाँ है?." कंचन ने पूछा.

"होगा अपने कमरे में. चलो उसे मज़ा चखाते हैं. वो अपने आप को बड़ा होशियार समझता है." निक्की उसका हाथ पकड़ कर खींचती हुई बोली.

"नही....नही...निक्की, ठाकुर चाचा बुरा मान जाएँगे." कंचन अपना हाथ छुड़ाती हुई बोली. लेकिन निक्की उसे खींचती हुई दरवाज़े से बाहर ले आई.

गॅलरी में आते ही उन्हे मंगलू घर का नौकर सीढ़ियाँ चढ़ता दिखाई दिया. उसके हाथ में रवि के वो कपड़े थे जो उसने इस्त्री करने को दिए थे. वह सीढ़ियाँ चढ़कर बाईं और मूड गया. उसके कदम रवि के कमरे की तरफ थे.

"आए सुनो...!" निक्की ने उसे पुकारा.

नौकर रुका और पलटकर निक्की के करीब आया. "जी छोटी मालकिन?"

"ये कपड़े किसके हैं?"

"डॉक्टर बाबू के....उन्होने इस्त्री करने को दिया था. अब उन्हे देने जा रहा हूँ." नौकर तोते की तरह एक ही साँस में सब बोल गया.

"इन कपड़ों को लेकर अंदर आ." निक्की ने उसे उंगली से इशारा किया.

नौकर ने ना समझने वाले अंदाज़ में निक्की को देखा फिर अनमने भाव से अंदर दाखिल हुआ.

"नाम क्या है तुम्हारा?" निक्की ने नौकर से पुछा.

"मंगलू...!" नौकर ने अपने दाँत दिखाए.

"मूह बंद कर...." निक्की ने डांता -"ये कपड़े यहाँ रख और जाकर इस्त्री ले आ."

"लेकिन इस्त्री तो हो चुकी है छोटी मालकिन?" नौकर ने अपना सर खुज़ाया.

"मैं जानती हूँ. तुम्हे एक बार फिर से इस्त्री करनी होगी. हमारे स्टाइल में." निक्की के होंठो में रहस्यमई मुस्कुराहट नाच उठी - "तुम जाकर इस्त्री ले आओ. और अबकी कोई सवाल पुछा ना तो पापा से बोलकर तुम्हारी छुट्टी करवा दूँगी. समझे?"

"जी...छोटी मालिकन." नौकर सहमा - "सब समझ गया. मैं अभी इस्त्री लाता हूँ." वा बोला और तेज़ी से रूम के बाहर निकल गया.

"तू करना क्या चाहती है?" कंचन हैरान होकर बोली.

"बस तू देखती जा." निक्की के होंठो में मुस्कुराहट थी और आँखों में शरारत के भाव, निक्की अपनी योजना कंचन को बताने लगी. उसकी बातें सुनकर कंचन की आँखो में आश्चर्य फैल गया.

तभी मंगलू दरवाज़े से अंदर आता दिखाई दिया. उसने इस्त्री निक्की के सामने रखी. निक्की ने उसे एलेकट्रिक्क पॉइंट से जोड़ा. कुच्छ देर में इस्त्री भट्टी की तरह गरम हो गयी. उसने एक कपड़ा उठाया उसे खोला और फिर जलती हुई इस्त्री उसके उपर रख दी. नौकर ने कपड़ों की ऐसी दुर्गति देखी तो चीखा. "छोटी मालकिन, मैं आपके पावं पड़ता हूँ. मेरी नौकरी पर रहम कीजिए. इन कपड़ों को देखकर तो डॉक्टर बाबू मालिक से मेरी शिकायत कर देंगे. और फिर मेरी....?"

"तू चुप बैठ." निक्की ने आँखें दिखाई. और एक एक करके सभी कपड़ों को गरम इस्त्री से जलाती चली गयी. फिर उसी तरह तह करके रखने लगी. सारे कपड़े वापस तह करने के बाद मंगलू से बोली - "अब इसे ले जाओ और उस घोनचू के कमरे में रख आओ."

"हरगिज़ नही." मंगलू चीखा. -"आप चाहें तो मुझे फाँसी पर लटका दीजिए. या मेरा सर कटवा दीजिए. मैं ये कपड़े लेकर रवि बाबू के कमरे में नही जाउन्गा." वा बोला और पलक झपकते ही रूम से गायब हो गया.

निक्की उसे आवाज़ देती रह गयी. मंगलू के जाने के बाद निक्की ने कंचन की तरफ देखा और मुस्कुराइ. उसकी मुस्कुराहट में शरारत थी.

"तू मेरी ओर इस तरह से क्यों देख रही है?" कंचन सहमति हुई बोली.

"वो इसलिए मेरी प्यारी सहेली की अब ये कपड़े उस अकड़ू के कमरे में तुम लेकर जाओगी."

"क.....क्या???" कंचन घबराई - " नही....नही निक्की, मैं ये काम नही करूँगी. किसी भी कीमत पर नही. तुम्हे उससे बदला लेना है तुम लो. मैं इस काम में तुम्हारी कोई मदद नही करूँगी."

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07-25-2018, 11:07 AM,
#5
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
"नही करेगी?" निक्की ने नथुने फुलाए.

"नही....!" कंचन उसी बिस्वास के साथ पुनः बोली.

"ठीक है तो फिर मैं पंखे से लटककर अभी अपनी जान दे देती हूँ. मैं तुम्हारे लिए सारी दुनियाँ से लड़ सकती हूँ और तुम मेरे लिए एक छोटा सा काम नही कर सकती." निक्की मगर्मछि आँसू बहाती हुई बोली - "तुम बदल गयी हो कंचन, अब तुम मेरी वो सहेली नही रही जो मेरी खुशी के लिए दिन रात मेरे साथ रहती थी. मेरे एक इशारे पर कुच्छ भी कर जाती थी. तूने मेरा दिल दुखाया है कंचन....अब मैं तुमसे और इस ज़ालिम दुनिया से हमेशा के लिए दूर जा रही हूँ. ज़रा अपना दुपट्टा देना."

"दुपट्टा...? दुपट्टा क्या करोगी?" कंचन ने धीरे से पुछा.

"गले में बाँध कर पंखे से लटकने के लिए. मेरे पास कोई रस्सी नही है ना."

"क....क्या?" कंचन घबराई. उसके पसीने छूट पड़े. वो जानती थी निक्की बहुत ज़िद्दी है. उसके इनकार करने पर निक्की अपनी जान तो नही देगी पर उसका दिल ज़रूर टूट जाएगा. उसके प्रति निक्की का मन मैला ज़रूर हो जाएगा. वह निक्की को खोना नही चाहती थी. उसकी समझ में नही आ रहा था कि वो करे तो क्या करे. उसे अपने बचाव का कोई रास्ता नज़र नही आ रहा था. अंत में वो हथियार डालते हुए बोली - "ठीक है निक्की, तू जो बोलेगी मैं करूँगी. लेकिन फिर कभी अपनी जान देने की बात मत करना."

"ओह्ह थॅंक यू कंचन" निक्की लपक कर कंचन के पास पहुँची. फिर उसे बाहों में जकड़कर उसके गालो को चूमने लगी - "तुम बहुत अच्छी हो, मुझे तुम्हारी दोस्ती पर नाज़ है. अब इस कपड़े को उठाओ और जाकर उस अकड़ू के कमरे में रख दो."

कंचन अनमने ढंग से आगे बढ़ी, फिर उन कपड़ों को हाथ में उठाकर कमरे से बाहर निकल गयी. उसका दिल जोरों से धड़क रहा था. माथे पर पसीना छलक आया था.

*****

रवि अपने कमरे में पूरी तरह भाननाया हुआ बैठा था. नौकर को गये लगभग एक घंटा होने को आया था. पर वह अभी तक उसके कपड़े लेकर नही लौटा था. उसने सोचा क्यों ना अब नहा ही लूँ. सुबह से नही नहाने के कारण उसके सर में दर्द होने लगा था. शरीर थकान से चूर थी. वह उठा और दरवाज़े की कुण्डी अंदर से खोल दिया. फिर टवल लेकर बाथरूम में घुस गया. उसने अपने कपड़े उतारे और शवर कर नीचे खड़ा हो गया. कुच्छ देर लगे उसे नहाने में फिर टवल से अपने गीले बदन को पोछ्ने लगा. स्नान करने के बाद वह बहुत हल्का महसूस कर रहा था. अचानक उसे दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनाई दी. उसे लगा नौकर होगा. इतनी देर से आने की वजह से वह उससे खफा था. उसे डाँट पिलाना ज़रूरी था. वह टवल लपेटकर बाहर निकला. जैसे ही वो बाथरूम से बाहर आया उसने कंचन को देखा. कंचन की पीठ उसकी ओर थी और वह कपड़े रखकर बाहर की ओर जा रही थी.

"सुनो लड़की...!" रवि की कर्कश आवाज़ उसके कानो से टकराई. उसके बढ़ते कदम रुके. उसकी दिल की धड़कने बढ़ चली. वह खड़ी रही लेकिन पलटी नही. वो रवि को अपना चेहरा नही दिखना चाहती थी.

"इतनी देर क्यों लगाई तुमने." रवि ने उसे नौकरानी समझकर डांटा.

"जी...वो....मैं....क्या...वो !" वा हक्लाई. उसके समझ में नही आया कि वह क्या उत्तर दे.

"मेरी तरफ मूह करके सॉफ सॉफ बोलो." रवि चीखा.

कंचन की सिट्टी पिटी गुम हो गयी. बचने का कोई रास्ता नही बचा था. निक्की की शरारत में वो बलि का बकरा बन गयी थी. उसके पैर काँप उठे. वो पलटी. उसकी नज़र जैसे ही रवि से टकराई वह चौंक पड़ी.

"तुम....!" जैसे ही रवि की नज़र कंचन के चेहरे से टकराई उसके मूह से बेसाखता निकला.

"जी....मैं..!" कंचन भी आश्चर्य से उसे देखती रह गयी. उसने भी नही सोचा था कि उसके साथ ऐसा संयोग हो सकता है.

"तुम वही लड़की हो ना? जिसने मुझे सड़क पर काठ का उल्लू कहा था?" रवि कंचन को घूरता हुआ बोला. कंचन को हवेली में देखकर वो बुरी तरह से चौंका था. उसे ये भी ध्यान नही रहा कि वो इस वक़्त किसी लड़की की सामने सिर्फ़ टवल पहने खड़ा है.

कंचन की स्थिति भी बहुत बुरी थी. अपनी ऐसी दुर्गति होते देख उसे रोना आ रहा था. वो कुच्छ कहने की बजाए वहाँ से भाग जाने में ही अपनी भलाई समझी. वो पलटी और तेज़ कदमो से भागती हुई कमरे से बाहर चली गयी. रवि खड़ा हक्का बक्का उसे देखता रह गया.

"ये लड़की यहाँ क्या कर रही है?. इसे तो मैने कुच्छ लड़कियों के साथ कॉलेज से पढ़ाई करके आते हुए देखा था. तो क्या ये लड़की हवेली में नौकरानी का काम करती है? लेकिन जो लड़की कॉलेज में पढ़ती हो वो भला किसी के घर नौकरानी का काम क्यों करेगी?" वो मूर्खों की तरह अपना सर पीटने लगा. कुच्छ देर बाद उसे अपनी स्थिति का ध्यान हुआ. वो अपने कपड़ों की ओर बढ़ा. उसने पहनने के लिए एक कपड़ा उठाया. पर जैसे ही उसने उसे खोला उसकी खोपड़ी भन्ना गयी. आँखों में खून खौल उठा. उस कपड़े में इस्त्री के साइज़ जितना सुराख हुआ पड़ा था. उसने दूसरा कपड़ा उठाया. उसकी हालत उससे भी बदतर थी. फिर तीसरा कपड़ा उठाया, फिर चौथा, पाँचवाँ, छटा उसके सभी भी कपड़े बीच में से जले हुए थे. अपने कपड़ों की ऐसी दुर्गति देखकर उसका दिमाग़ चकरा गया. गुस्से से उसके नथुने फूल गये. उत्तेजना से उसका चेहरा बिगड़ने पिचकने लगा. आँखें सुलग उठी. वह मुठिया भींच उठा. उसे उस लड़की (कंचन) पर इतना गुस्सा आया कि अगर वो इस वक्त उसके सामने होती तो वो उसका गला दबा देता. लेकिन अफ़सोस वो इस वक़्त यहाँ नही थी. रवि खून का घुट पीकर रह गया. अब उसके सामने एक बड़ी समस्या खड़ी हो गयी थी, वो इस वक़्त पहने तो क्या पहने. उसके पास मात्र एक टवल के कुच्छ भी पहनने लायक नही रहा था. उसका वो कपड़ा भी जिसे वो पहनकर आया था. बाथरूम में गीले पानी और साबुन के छींटे पड़ गये थे. वह अपना सर पकड़ कर बैठ गया.

*****

शाम के 5 बजे थे. हॉल में ठाकुर साहब, निक्की और दीवान जी बैठे बाते कर रहे थे. कंचन निक्की को कल आने का वादा करके अपने घर जा चुकी थी. वे सभी रवि के नीचे आने का इंतेज़ार कर रहे थे. काफ़ी देर तक प्रतीक्षा करने के बाद ठाकुर साहब दीवान जी से बोले - "दीवान जी अब तक तो उन्हे नीचे आ जाना चाहिए. आख़िर हमे कब तक इंतेज़ार करना होगा?"

"मैं स्वयं जाकर देखता हूँ मालिक." दीवान जी बोले और उठ खड़े हुए. वो सीढ़िया चढ़ते हुए रवि के कमरे की ओर बढ़ गये. थोड़ी देर बाद दीवान जी ने उपर से किसी नौकर को आवाज़ लगाया. नौकर दौड़ता हुआ उपर पहुँचा. फिर दूसरे ही मिनिट वो भागता हुआ नीचे आया और हवेली से बाहर जाने लगा. ठाकुर साहब ने उसे हवेली के बाहर जाते देखा तो उन्होने टोका - "अरे मंटू कहाँ भागे जा रहे हो?"

"मालिक, दीवान के घर जा रहा हूँ. उन्होने अपने घर से कुच्छ कपड़े मँगवाए हैं." वो बोला और ठाकुर साहब की इज़ाज़त की प्रतीक्षा करने लगा.

"ठीक है तुम जाओ." ठाकुर साहब ने नौकर को जाने को बोले. और सोचों में गुम हो गये. उनके समझ में कुच्छ भी नही आ रहा था. दीवान जी भी उपर जाकर वही अटक गये थे.

कुच्छ देर बाद मंटू कुच्छ कपड़े लेकर हवेली में वापस आया और रवि के कमरे की ओर बढ़ गया. उसके उपर जाने के कुच्छ देर बाद ही दीवान जी भी नीचे आ गये. उनके नीचे आते ही ठाकुर साहब बोले - "सब कुशल तो है दीवान जी? आपने मंटू को अपने घर कपड़े लाने क्यों भेजा?"

"डॉक्टर बाबू के सामने एक समस्या आ खड़ी हुई है मालिक" दीवान जी अपना माथा सहलाते हुए बोले - "उनके पास पहनने के लिए कपड़े नही हैं."

"क्या....? ठाकुर साहब हैरान होते हुए बोले - "पहनने के लिए कपड़े नही हैं. तो क्या महाशय घर से नंगे पुँगे ही आए हैं?

"जी...नही." ये आवाज़ सीढ़ियों की ओर से आई थी. ठाकुर साहब के साथ सबकी नज़रें उस ओर घूमी. रवि सीढ़ियाँ उतरता हुआ दिखाई दिया. उसके बदन पर दीवान जी के कपड़े थे. उनके कपड़ों में रवि किसी कार्टून की तरह लग रहा था. उसे देखकर एक बार निक्की के मूह से भी हँसी छूट पड़ी. वहीं ठाकुर साहब अपनी बातों पर झेंप से गये. उन्हे बिल्कुल भी अंदाज़ा नही था कि उनकी बातें रवि के कानो तक जा सकती है.
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07-25-2018, 11:07 AM,
#6
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
अपडेट 6


"माफ़ कीजिएगा डॉक्टर....असल में हम काफ़ी देर से आपका इंतेज़ार कर रहे थे. आपके नीचे ना आने की वजह से हम परेशान हो रहे थे." ठाकुर साहब अपनी झेंप मिटाते हुए बोले -"वैसे आपके कपड़ों को क्या हुआ? दीवान जी कह रहे थे कि आपके पास कपड़े नही हैं."

"दर-असल रास्ते में आते वक़्त मेरे साथ एक दुर्घटना घट गयी." रवि ठाकुर साहब को देखता हुआ बोला -"मुझसे रास्ते में एक जंगली बिल्ली टकरा गयी. उसी के कारण मैं अपना संतुलन खो बैठा और मेरी गाड़ी एक पत्थेर से टकरा गयी. मेरा सूटकेस खुलकर सड़क पर बिखर गया और मेरे सारे कपड़े खराब हो गये. यहाँ आने के बाद मैने एक महाशय को कपड़े इस्त्री करने को दिया तो वो साहब कपड़े लेकर गायब हो गये. लगभग एक घंटे बाद कोई नौकरानी मेरे कपड़ों को लेकर आई. जब मैने कपड़े पहनने के लिए उठाया तो देखा मेरे सारे कपड़े जले हुए हैं." रवि ने अपनी बात पूरी की.

"किसी नौकरानी ने आपके कपड़े जलाए हैं?" ठाकुर साहब आश्चर्य से बोले - "लेकिन हवेली में तो एक ही नौकरानी है. और वो बहुत सालो से हमारे यहाँ काम कर रही है. वो ऐसा नही कर सकती. खैर जो भी हो हम पता लगाएँगे. फिलहाल आपको जो कष्ट हुआ उसके लिए हम माफी चाहते हैं." ठाकुर साहब नम्र स्वर में बोले.

"आप मुझसे बड़े हैं ठाकुर साहब," रवि ठाकुर साहब से बोला फिर अपनी दृष्टि निक्की पर डाली - "आपको मुझसे माफी माँगने की ज़रूरत नही. जिसने मेरे साथ ये मज़ाक किया है उससे मैं खुद निपट लूँगा."

उसकी बातों से निक्की का चेहरा सख़्त हो उठा. वो लाल लाल आँखों से रवि को घूर्ने लगी. लेकिन रवि उसकी परवाह किए बिना ठाकुर साहब से मुखातिब हुआ - "मैं आपकी पत्नी राधा देवी को देखना चाहता हूँ. मुझे उनका कमरा दिखाइए."

"आइए." ठाकुर साहब बोले. और रवि को लेकर राधा देवी के कमरे की ओर बढ़ गये. उनके पिछे निक्की और दीवान जी भी थे.

ठाकुर साहब राधा देवी के कमरे के बाहर रुके. दरवाज़े पर लॉक लगा हुआ था. उनका कमरा हमेशा बंद ही रहता था. उनका कमरा दिन में एक बार उन्हे खाना पहुँचाने हेतु खोला जाता था. और ये काम घर की एकमात्र नौकरानी धनिया के ज़िम्मे था. उसके अतिरिक्त किसी को भी इस कमरे में आने की इज़ाज़त नही थी. वही उनके लिए खाना और कपड़ा पहुँचाया करती थी. हवेली में वही एक ऐसी सदस्य थी जिसे देखकर राधा देवी को दौरे नही पड़ते थे. वो पागलो जैसी हरकत नही करती थी. वो बिल्कुल सामान्य रहती थी. धनिया ना केवल उन्हे खाना खिलाती थी बल्कि उन्हे बहला फुसलाकर नहलाती भी थी उसके कपड़े भी बदलती थी. हालाँकि इसके लिए उसे काफ़ी मेहनत करनी पड़ती थी.

नौकर दरवाज़े का ताला खोल चुका था. रवि ठाकुर साहब से बोला - "आप लोग बाहर ही रुकिये. जब मैं बोलू तभी आप लोग अंदर आईएगा."

ठाकुर साहब ने सहमति में सर हिलाया. निक्की के दिल की धड़कने बढ़ी हुई थी. उसे अपनी मा को देखे हुए एक अरसा बीत गया था. उसे तो अब उनकी सूरत तक याद नही थी. वो अपनी मा को देखने के लिए बहुत बेचैन थी.

रवि अंदर पहुँचा. उसकी दिल की धड़कने बढ़ी हुई थी. किंतु चेहरा शांत था. दिमाग़ पूरी तरह खाली था. उसने राधा देवी की तलाश में अपनी नज़रें दौड़ाई. राधा देवी अपने बिस्तर पर एक ओर करवट लिए लेटी हुई नज़र आईं. उनकी पीठ रवि की तरफ थी. कहना मुश्किल था कि वो जाग रही थी या सो रही थी.

रवि ने धड़कते दिल के साथ उनकी ओर अपने कदम बढ़ाया. उसके कदमों की आहट से राधा पलटी. उसकी गोद में वही कपड़े की गुड़िया थी. रवि को देखते ही राधा देवी झट से उठ खड़ी हुई. राधा देवी अपनी बड़ी बड़ी आँखों से रवि को घूर्ने लगी. अगले ही पल उनकी आँखों में भय उतरा. राधा देवी ने अपने हाथ में थमी गुड़िया को अपनी छाते से भींचा. रवि शांत था वो उनकी हर गतिविधि को बड़े ही ध्यान से देख रहा था. वह समझ चुका था कि उसे देखकर राधा देवी डर गयी है. वह अपने हाथ जोड़ते हुए उनके आगे झुका. उसका अंदाज़ ठीक वैसा ही था जैसे राजा महाराजा के सामने लोग झुक कर सलाम करते हैं - "नमस्ते मा जी."

राधा की आँखें सिकुड़ी. उन्होने आश्चर्य और भय के मिले जुले भाव से रवि को देखा. फिर उनके हाथ भी नमस्ते करने के अंदाज़ में जुड़ गये - "नमस्ते" वह सहमी सी बोली. उनकी आवाज़ में कंपन था - "कौन हैं आप? क्या आप मुझे जानते हैं?"

"हां." वा शांत स्वर में बोला - "मेरा नाम डॉक्टर. रवि भटनागर है. मुझे आपकी बेटी निक्की ने यहाँ भेजा है. आपसे अपनी शादी की बात करने के लिए."

"निक्की....कौन निक्की?" वह चौंकी. फिर अपनी गुड़िया को देखते हुए बोली - "मेरी बेटी का नाम निक्की नही....रानी है. और ये तो अभी बहुत छ्होटी है."

रवि धीरे से मुस्कुराया और दो कदम आगे बढ़ा. - "आपके हाथ में निक्की की गुड़िया है. निक्की तो बाहर खड़ी है. और वो बहुत बड़ी हो गयी है."

राधा देवी ने गर्दन उठाकर दरवाज़े से बाहर देखा. वहाँ कोई नज़र नही आया. उनकी दृष्टि रवि की ओर घूमी. रवि उनके चेहरे पर बदलते भाव को तेज़ी से पढ़ रहा था. उनकी आँखों में अब डर की जगह आश्चर्य और परेशानी ने ले ली थी. - "क्या आप निक्की से मिलना चाहेंगी?"

राधा देवी ने धीरे से हां में सर हिलाया. रवि मुस्कुराया और निक्की को आवाज़ दिया. - "निक्की....अंदर आ जाओ."

राधा देवी की नज़रें दरवाज़े की तरफ ठहर गयी. तभी निक्की दरवाज़े में नज़र आई. वो धीरे धीरे चलती हुई रवि के पास आकर खड़ी हो गयी. उसने बोझिल नज़रों से अपनी मा को देखा. दिल में एक हुक सी उठी, मन किया आगे बढ़कर वो उनसे लिपट जाए. लेकिन वो रवि के आदेश के बिना कुच्छ भी ऐसा वैसा नही करना चाहती थी जिससे कि बना बनाया काम बिगड़ जाए.

राधा भी बहुत ध्यान से निक्की को देख रही थी, उसके माथे पर सिलवटें पड़ गयी थी. वो निक्की को पहचानने की कोशिश कर रही थी. - "मुझे कुच्छ भी याद नही आ रहा है. मैने तुम्हे पहले कभी नही देखा. क्या तुम सच में मेरी बेटी निक्की हो?"

"मा !" निक्की की रुलाई फुट पड़ी. ममता की प्यासी निक्की खुद को रोक ना सकी वह आगे बढ़ी और राधा से लिपट गयी.

"अरे क्या हुआ इसे? ये क्यों रो रही है?" राधा घबराते हुए बोली.

"बहुत दिनो तक आपसे दूर रही थी ना, आज मिली है तो बहुत भावुक हो गयी है." रवि राधा देवी से बोला.

राधा निक्की को दिलासा देने लगी. वह अपने कमज़ोर हाथों को उसके पीठ पर फेरने लगी. दूसरे हाथ से निक्की के गालों में बहते आँसू पोच्छने लगी. - "मत रो बेटी, लेकिन तू मुझसे इतने दिन तक दूर क्यों रही. अगर मेरी इतनी ही याद आती थी तो पहले ही मिलने क्यों नही आई?"

"मैं शहर में पढ़ाई कर रही थी मा. इसलिए आपसे मिलने नही आ सकी." निक्की खुद को संयत करते हुए बोली.

"क्या तुम दोनो साथ ही में पढ़ते हो?" राधा निक्की का चेहरा उठाकर बोली.

"पढ़ते थे." रवि बोला - "अब हमारी पढ़ाई पूरी हो चुकी है. अब हम आपका आशीर्वाद लेकर शादी करना चाहते हैं. क्या आप निक्की का हाथ मेरे हाथ में देंगी?"

"हां...हां क्यों नही, आख़िर तुम दोनो एक दूसरे से प्यार करते हो. मैं तो तुम्हारे जैसा ही दूल्हा अपनी बेटी के लिए चाहती थी. लेकिन बेटा शादी की बात करने के लिए तुम्हारे घर से कोई बड़ा नही आया. क्या तुम्हारे घर में कोई नही है?" राधा देवी ने रवि से पुछा. वो अब पूरी तरह से नॉर्मल होकर बात कर रही थी. निक्की अभी भी उनसे चिपकी हुई थी.

रवि आगे बढ़ा. और राधा से बोला - "मेरी मा है मा जी, लेकिन उनकी तबीयत कुच्छ ठीक नही थी इसीलिए वो नही आ सकी. कुच्छ ही दिनो में मा भी आ जाएँगी."

"ठीक है कुच्छ दिन इंतेज़ार कर लूँगी. मैं भी जल्दी से निक्की का विवाह करके छुट्टी पाना चाहती हूँ."

"तो अब हमें इज़ाज़त दीजिए." रवि बोला - "हम फिर आपसे मिलने आएँगे. आप आराम कीजिए. हम लोग दूसरे कमरे में हैं. आपको कभी भी हमारी ज़रूरत हो बुला लीजिएगा."

"हां...हां जाओ आराम करो. तुम लोग भी दूर शहर से आए हो थक गये होगे." राधा बोली और निक्की के सर पर हाथ फेरने लगी.

रवि उन्हे फिर से नमस्ते बोलकर निक्की के साथ बाहर आ गया.
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07-25-2018, 11:08 AM,
#7
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
अपडेट 7

रवि और निक्की, राधा देवी के कमरे से बाहर निकले.

बाहर ठाकुर साहब के साथ साथ सभी लोग छुप छुप कर कमरे के अंदर का द्रिश्य देख रहे थे. ठाकुर साहब तो इतने भावुक हो गये थे कि बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई रोक पाए थे.

रवि के बाहर आते ही ठाकुर साहब बोले - "डॉक्टर रवि, आपको क्या लगता है हमारी राधा ठीक तो हो जाएगी ना?. पिच्छले 20 सालो में ऐसा पहली बार हुआ है जब हमारी राधा ने इतनी देर तक किसी से बात की हो. आपको देखकर मेरी उम्मीदे बढ़ चली है. बताइए डॉक्टर....राधा कब तक ठीक हो पाएगी."

"धीरज रखिए ठाकुर साहब. ईश्वर ने चाहा तो 1 महीने में या ज़्यादा से आयादा 3 महीने, राधा जी बिल्कुल ठीक हो जाएँगी."

"धीरज कैसे रखू डॉक्टर? 20 साल से मैं जिस यातना को झेल रहा हूँ, वो सिर्फ़ मैं जानता हूँ. मेरी पत्नी 20 साल से कमरे के अंदर क़ैदी की तरह बंद है. इतना धन दौलत होने के बावजूद हमारी राधा को कष्ट से जीना पड़ रहा है. ना उसे खाने की सूध है ना पहनने का, उससे अच्छी ज़िंदगी तो हमारे घर के नौकर जी रहे हैं. 20 सालों से वो पागलों की ज़िंदगी जी रही है. मुझसे उसका दुख देखा नही जाता डॉक्टर." ठाकुर साहब अपनी बात पूरी करते करते बच्चों की तरह फफक पड़े.

"संभालिए ठाकुर साहब.....खुद को संभालिए." रवि उनके कंधो को पकड़कर बोला - "मैं आपसे वादा करता हूँ कि मैं उन्हे जब तक पूरी तरह से ठीक नही कर दूँगा. मैं यहाँ से नही जाउन्गा." रवि बिस्वास से भरे शब्दों में कहा.

"मुझे आप पर भरोसा है डॉक्टर. मुझे बिस्वास हो चला है कि आप मेरी राधा को ज़रूर ठीक कर देंगे."

रवि मुस्कुराया. फिर दीवान जी से मुखातिब हुआ - "दीवान जी मैं कुच्छ दवाइयाँ और इंजेक्षन लिख देता हूँ, आप उन्हे शहर से मंगवा दीजिए. और मेरे घर से मेरे कपड़े भी मंगवा दीजिएगा."

"मैं अभी किसी को शहर भेज देता हू डॉक्टर बाबू, 2 दिन में आपके कपड़े और दवाइयाँ आ जाएँगी."

"एक बात और आप सब से कहना चाहूँगा" रवि दीवान जी को टोकते हुए बोला - "आज के बाद आप लोग मुझे सिर्फ़ रवि कहकर बुलाएँगे. डॉक्टर रवि या कुच्छ और कहकर नही."

ठाकुर साहब मुस्कुराए. "ठीक है रवि. हम आपको ऐसे ही बुलाया करेंगे.

कुच्छ देर बाद नौकर सभी के लिए चाय नाश्ता ले आया. कुच्छ देर रवि सबके साथ बैठा बाते करता रहा. फिर ठाकुर साहब से इज़ाज़त लेकर अपने रूम में आ गया.

अपनी मा राधा देवी से मिलने के बाद निक्की के मन में जो कड़वाहट रवि के लिए थी वो अब दूर हो चुकी थी. वह अब उसे आदर भाव से देखने लगी थी.

2 दिन बीत गये. रवि के कपड़े भी शहर से आ गये थे. इन दो दिनो में रवि का अधिकांश समय उसके कमरे में ही गुजरा था. वो सिर्फ़ राधा देवी को देखने के लिए ही अपने रूम से बाहर आता था. उसे दीवान जी के कपड़ों में दूसरों के सामने आने में संकोच होता था. अब जब उसके कपड़े आ गये थे तो उसने रायपुर घूमने का निश्चय किया. 2 दिनो से हवेली के भीतर बंद रहने से उसका मन उब सा गया था.

वह कपड़े पहनकर बाहर निकला. इस वक़्त 5 बजे थे. उसने नौकर से अपनी बाइक सॉफ करने को कहा. रायपुर आने से कुच्छ दिन पहले ही वो अपनी बाइक को ट्रांसपोर्ट के ज़रिए रायपुर भिजवा दिया था. और जब वो रायपुर स्टेशन में उतरा तो मालघर से अपनी बाइक को ले लिया था.

आज उसने बाइक से ही रायपुर की सैर करने का विचार किया. नौकर उसकी बाइक सॉफ कर चुका था. रवि बाइक पर बैठा और हवेली की चार दीवारी से बाहर निकला. हवेली की सीमा से निकलते ही रवि को दो रास्ते दिखाई दिए. उनमे से एक रास्ता स्टेशन की ओर जाता था. तथा दूसरा रास्ता बस्ती. उसने बाइक बस्ती की ओर मोडी. वो रास्ता काफ़ी ढलान लिए हुए था. बस्ती के मुक़ाबले हवेली काफ़ी उँचाई में स्थित थी. हवेली की छत से पूरा रायपुर देखा जा सकता था.

कुच्छ दूर चलने के बाद वो रास्ता भी दो रास्तों में बदल गया था. रवि ने बाइक रोकी और खड़े खड़े अपनी नज़रें दोनो रास्तों पर दौड़ाई. बाईं और का रास्ता बस्ती को जाता था. बस्ती ज़्यादा दूर नही थी. लेकिन काफ़ी बड़ी आबादी लिए हुए थी. बस्ती का अंत जहाँ पर होता था उसके आगे खेत और जंगल का भाग शुरू होता था. दूसरा रास्ता पहड़ियों की ओर जाता था. उस ओर उँचे उँचे पहाड़ और गहरी घटियाँ थी. रवि ने दाई और के रास्ते पर बाइक मोड़ दी.

कुच्छ ही देर में रवि को झरनो से गिरते पानी का संगीत सुनाई देने लगा. कुच्छ दूर और आगे जाने पर उसे एक बहती नदी दिखाई पड़ी. उसमे कुच्छ लड़कियाँ आधे अधूरे कपड़ों में लिपटी नदी में तैरती दिखाई दी. उसने बाइक रोकी और दूर से ही उन रंग बिरंगी तितलियों को देखने लगा. अचानक उसकी आँखें चमकी, उन लड़कियों के साथ उसे वो लड़की भी दिखाई दी जिसने हवेली में उसके कपड़े जलाए थे. लेकिन इतनी दूर से उसे पहचानने में धोका भी हो सकता था. उसने उसे नज़दीक से देखना उचित समझा. वह बाइक से उतरा और पैदल ही नदी की तरफ बढ़ गया.

नदी के किनारे पहुँचकर वह ठितका. उसने खुद को झाड़ियों की औट में छिपाया. यहाँ से वो उन लड़कियों को सॉफ सॉफ देख सकता था. उसने हवेली वाली लड़की को सॉफ पहचान लिया. वो पीले रंग की पेटिकोट में थी. उसकी आधी छाया स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी. उसका पानी से भीगा गोरा बदन सूर्य की रोशनी से चमक रहा था. रवि की नज़रें उस लड़की की सुंदरता में चिपक सी गयी. वो खड़े खड़े उन अर्धनग्न लड़कियों के सौन्दर्य का रस्पान करता रहा.

अचानक किसी की आवाज़ से वह चौंका. रवि आवाज़ की दिशा में पलटा. सामने एक बच्चा हैरानी से उसे देख रहा था. वो बच्चा ही सही पर इस तरह अपनी चोरी पकड़े जाने पर एक पल के लिए रवि काँप सा गया. फिर खुद को संभालते हुए बच्चे से बोला - "क्या नाम है तुम्हारा?"

"चिंटू" बच्चे ने उँची आवाज़ में बोला - "और तुम्हारा क्या नाम है?"

उसकी तेज आवाज़ से रवि बोखलाया. उसने झट से अपना पर्स निकाला और उसमे से 10 का नोट निकालकर चिंटू को पकड़ा दिया. नोट हाथ में आते ही चिंटू हंसा.

"क्या तुम मुझसे और पैसे लेना चाहते हो?" रवि ने घुटनो के बल बैठते हुए कहा.

"हां...!" बच्चे ने सहमति में सर हिलाया.

"तो फिर मैं तुमसे जो कुच्छ भी पुछुन्गा, क्या तुम मुझे सच सच बताओगे?" उसने वापस अपना पर्स निकालते हुए बच्चे से कहा.

चिंटू ने रवि का पर्स देखा और फिर अपने होठों पर जीभ घुमाई. - "हां."

"ठीक है तो फिर उस लड़की को देखो जो पीले रंग की पेटिकोट पहनी हुई है." रवि ने अपनी उंगली का इशारा कंचन की और किया - "क्या तुम उसे जानते हो?"

"हां." बच्चे ने गर्दन हिलाई.

"क्या नाम है उसका?" रवि ने पुछा.

"पहले पैसे दो. फिर बताउन्गा." बच्चा शातिर था. रवि ने 10 का नोट उसकी और बढ़ाया.

"वो मेरी कंचन दीदी है." बच्चा 10 का नोट अपनी जेब में रखता हुआ बोला.

"तुम्हारी कंचन दीदी?" रवि उसके शब्दों को दोहराया.

"हां. लेकिन तुम उनका नाम क्यों पुच्छ रहे थे?" बच्चे ने उल्टा प्रश्न किया.

"बस ऐसे ही, मॅन में आया तो पुच्छ लिया. जैसे तुमने पुछा."

चिंटू ने अजीब सी नज़रों से उसे देखा.

"अच्छा चिंटू, अब एक काम और करोगे?"

"पैसे मिलेंगे?" चिंटू ने वापस अपने होठों पर जीभ घुमाई.

रवि ने वापस 10 का नोट उसे थमाया. - "तुम अपनी दीदी के कपड़े मुझे लाकर दे सकते हो?"

"दीदी के कपड़े, नही.....दीदी मारेगी." चिंटू डरते हुए बोला.

"तो फिर मेरे सारे पैसे वापस करो." रवि ने अपनी आँखें दिखाई.

चिंटू कुच्छ देर अपनी मुट्ठी में बँधे नोट को देखता रहा और सोचता रहा. फिर बोला - "तुम दीदी के कपड़ों का क्या करोगे?"

"कुच्छ नही....बस हाथ में लेकर देखना चाहता हूँ कि तुम्हारी दीदी के कपड़े कैसे हैं."

चिंटू कुच्छ देर खड़ा रहा. उसके मन में एक तरफ रुपयों का लालच था तो दूसरी तरफ दीदी की डाँट का ख्याल. आख़िरकार उसने रुपयों को जेब में रखा और कपड़ों की तरफ बढ़ा. दूसरे मिनिट में वो कंचन के कपड़े लेकर वापस आया. रवि ने उसके हाथ से कपड़े लिए और बोला - "चिंटू महाराज, अब अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारी दीदी तुम्हारी पिटाई ना करे, तो फिर यहाँ से खिस्को."

चिंटू सहमा. उसने भय से काँपते हुए रवि को देखा. - "अब तुम दीदी के कपड़े वापस दो."

"मैं ये कपड़े तुम्हारी दीदी के ही हाथों में दूँगा."

"लेकिन दीदी मुझे मारेगी." वह डरते हुए बोला. उसका चेहरा डर से पीला पड़ गया था.

"तुम्हारी दीदी को बताएगा कौन कि तुमने उसके कपड़े मुझे दिए हैं." रवि ने उसका भय दूर किया - "जब तुम यहाँ रहोगे ही नही तो वो तुम्हे मारेगी कैसे?"

"लेकिन तुम दीदी को मत बताना कि मैने उनके कपड़े तुम्हे दिए हैं."

"नही बताउन्गा. प्रॉमिस." रवि अपना गला छू कर बोला.

अगले ही पल चिंटू नौ दो ग्यारह हो गया. रवि कंचन के कपड़े हाथों में लिए पास की झाड़ियों में जा छुपा और कंचन के बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगा.

क्रमशः.................
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07-25-2018, 11:08 AM,
#8
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
अपडेट 8

रवि झाड़ियों में छिप गया. उसके मन में बदले की भवना थी. इसी लड़की के कारण उसे हवेली में मज़ाक का पात्र बनना पड़ा था. उसने कंचन को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया था. वो ये कैसे भूल सकता था कि बिना वजह इस लड़की ने उसके कपड़े जलाए थे. इसी की वजह से वो दो दिन तक जोकर बना हवेली में फिरता रहा. इन्ही विचारों के साथ वो झाड़ियों में छिपा रहा और कंचन के बाहर आने की राह देखता रहा.

कुच्छ देर बाद एक एक करके लड़कियाँ बाहर आती गयीं और अपने अपने कपड़े पहन कर अपने अपने घर को जाने लगी. रवि 1 घंटे से झाड़ियों की औट से ये सब देख रहा था. अब सूर्य भी अपने क्षितिज पर डूब चुका था. चारो तरफ सांझ की लालिमा फैल चुकी थी. अब नदी में केवल 2 ही लड़कियाँ रह गयी थी. उनमें एक कंचन थी दूसरी उसकी कोई सहेली. कुच्छ देर बाद उसकी सहेली भी नदी से बाहर निकली और अपने कपड़े पहनने लगी. अचानक उसे ये एहसास हुआ कि यहाँ कंचन के कपड़े नही हैं. उसने उसके कपड़ों की तलाश में इधर उधर नज़र दौड़ाई, पर कपड़े कहीं भी दिखाई नही दिए. उसने कंचन को पुकारा. - "कंचन, तुमने अपने कपड़े कहाँ रखे थे? यहाँ दिखाई नही दे रहे हैं."

"वहीं तो थे. शायद हवा से इधर उधर हो गये हों. मैं आकर देखती हूँ" कंचन बोली और पानी से बाहर निकली. वह उस स्थान पर आई जहाँ पर उसने अपने कपड़े रखे थे. वहाँ पर सिर्फ़ उसकी ब्रा और पैंटी थी. बाकी के कपड़े नदारद थे. वह अपने कपड़ों की तलाश में इधर उधर नज़र दौड़ने लगी. वो कभी झाड़ियों में ढूँढती तो कभी पत्थरों की औट पर. लेकिन कपड़े उसे कहीं भी दिखाई नही दिए. अब कंचन की चिंता बढ़ी. वो परेशानी में इधर उधर घूमती रही, फिर अपनी सहेली के पास गयी. "लता कपड़े सच मच में नही हैं."

"तो क्या मैं झूठ बोल रही थी." लता मुस्कुराइ.

"अब मैं घर कैसे जाउन्गि?."

"थोड़ी देर और रुक जा. उजाला ख़त्म होते ही घर को चली जाना. अंधेरे में तुम्हे कोई नही पहचान पाएगा."

"तू मेरे घर से कपड़े लेकर आ सकती है?" कंचन ने सवाल किया.

"मैं....! ना बाबा ना." लता ने इनकार किया - "तू तो जानती ही है मेरी मा मुझे आने नही देगी. फिर क्यों मुझे आने को कह रही है?"

"लता, तो फिर तू भी कुच्छ देर रुक जा. दोनो साथ चलेंगे. यहाँ अकेले में मैं नही रह सकूँगी." कंचन ने खुशामद की.

"कंचन, मैं अगर रुक सकती तो रुक ना जाती. ज़रा सी देर हो गयी तो मेरी सौतेली मा मेरी जान ले लेगी."

कंचन खामोश हो गयी. वो अच्छी तरह से जानती थी, लता की सौतेली मा उसे बात बात पर मारती है. एक काम को 10 बार करवाती है. वो तो अक्सर इसी ताक में रहती है कि लता कोई ग़लती करे और वो इस बेचारी की पिटाई करे. उसका बूढ़ा बाप भी अपनी बीवी के गुस्से से दूर ही रहता था.

"क्यों चिंता कर रही है मेरी सखी. मेरी माँ तो तू ऐसे ही मेरे साथ घर चल." लता ने उसे सुझाव दिया.

"ऐसी हालत में कोई देखेगा तो क्या कहेगा?" कंचन चिंतित स्वर में बोली.

"कोई कुच्छ नही कहेगा. उल्टे लोग तुम्हारी इस कंचन काया की प्रशंसा ही करेंगे." लता उसके पास आकर उसके कंधो पर हाथ रख कर बोली - "सच कहती हूँ, गाओं के सारे मजनू तुम्हे ऐसी दशा में देखकर जी भर कर सच्चे दिल से दुआएँ देंगे."

"लता तुम्हे मस्ती चढ़ि है और यहाँ मेरी जान निकली जा रही है." कंचन गंभीर स्वर में बोली.

"तुम्हारे पास और कोई चारा है?" लता उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली - "या तो तू ऐसे ही मेरे साथ घर चल...या फिर कुच्छ देर रुक कर अंधेरा होने का इंतेज़ार कर. लेकिन मुझे इज़ाज़त दे. मैं चली." ये कहकर लता अपने रास्ते चल पड़ी. कंचन उसे जाते हुए देखती रही.

रवि झाड़ियों में छिपा ये सब देख रहा था. लता के जाते ही वो बाहर निकला. और धीमे कदमो से चलता हुआ कंचन की और बढ़ा. कंचन उसकी ओर पीठ किए खड़ी थी. रवि उसके निकट जाकर खड़ा हो गया और उसे देखने लगा. किसी नारी को इस अवस्था में देखने का ये उसका पहला अवसर था. कंचन गीले पेटिकोट में खड़ी थी. उसका गीला पेटिकोट उसके नितंबो से चिपक गया था. पेटिकोट गीला होने की वजह से पूरा पारदर्शी हो गया था. हल्की रोशनी में भी उसके भारी गोलाकार नितंब रवि को सॉफ दिखाई दे रहे थे. दोनो नितंबो के बीच की दरार में पेटिकोट फस सा गया था. वह विस्मित अवस्था में उसके लाजवाब हुश्न का दीदार करता रहा. अचानक से कंचन को ऐसा लगा कि उसके पिछे कोई है. वह तेज़ी से घूमी. जैसे ही वो पलटी चीखती हुई चार कदम पिछे हटी. वो आश्चर्य से रवि को देखने लगी. रवि ने उसकी चीख की परवाह ना करते हुए उसे उपर से नीचे तक घूरा. उसकी अर्धनग्न चूचियाँ रवि की आँखों में अनोखी चमक भरती चली गयी. उसकी नज़रें उन पहाड़ जैसे सख़्त चुचियों में जम गयी. गीले पेटिकोट में उसके तने हुए बूब्स और उसकी घुंडिया स्पस्ट दिखाई दे रही थी. रवि ने अपने होठों पर जीभ फेरी.

कंचन की हालत पतली थी. ऐसी हालत में अपने सामने किसी अजनबी मर्द को पाकर उसका दिल धाड़ धाड़ बज रहा था. सीना तेज़ी से उपर नीचे हो रहा था. उसे अपने बदन पर रवि के चुभती नज़रों का एहसास हुआ तो उसने अपने हाथों को कैंची का आकर देकर अपनी छाती को ढकने का प्रयास करने लगी. वो लाज की गठरी बनी सहमी से खड़ी रही. फिर साहस करके बोली - "आप यहाँ इस वक़्त....आपको इस तरह किसी लड़की को घूरते लज्जा नही आती?"

उत्तर में रवि मुस्कुराया. फिर व्यंग भरे शब्दों में बोला - "ये तो वही बात हो गयी. कृष्ण करे तो लीला. हम करे तो रासलीला."

"मैं समझी नही." कंचन रूखे स्वर में बोली.

रवि ने अपने हाथ आगे किए और उसके कपड़े दिखाए. कंचन रवि के हाथो में अपने कपड़े देखकर पहले तो चौंकी फिर आँखें चढ़ाकर बोली -"ओह्ह...तो आपने मेरे कपड़े चुराए थे. मुझे नही पता था आप शहरी लोग लड़कियों के कपड़े चुराने के भी आदि होते हैं. लेकिन ये बड़ी नीचता का काम है. लाइए मेरे कपड़े मुझे दीजिए."

रवि व्यंग से मुस्कुराया. -"मुझे भी नही पता था कि गाओं के सीधे साधे से दिखने वाले लोग, अपने घर आए मेहमान का स्वागत उसके कपड़े जलाकर करते हैं. क्या ये नीचता नही है."सहसा उसकी आवाज़ में कठोरता उभरी - "अब क्यों ना मैं अपने उस अपमान का बदला तुमसे लूँ. क्यों ना तुम्हारे बदन से ये आख़िरी कपड़ा भी नोच डालूं."

कंचन सकपकाई. उसकी आँखों से मारे डर के आँसू बह निकले. वो सहमी सी आवाज़ में बोली - "मैने आपके कपड़े नही जलाए थे साहेब. वो तो...वो तो...." कंचन कहते कहते रुकी. वह खुद तो लज्जित हो चुकी थी अब निक्की को शर्मसार करना ठीक नही समझा.

"वो तो क्या? कह दो कि वो काम किसी और ने किए थे. जो लड़की मेरे रूम में मेरे जले हुए कपड़े रख के गयी थी वो तुम नही कोई और थी."

"साहेब....मैं सच कहती हूँ, मैने आपके कपड़े नही जलाए."

"तुम्हारा कोई भी झूठ तुम्हारे किए पर परदा नही डाल सकता. तुम्हारे इस गोरे शरीर के अंदर का जो काला दिल है उसे मैं देख चुका हूँ."

कंचन रुआन्सि हो उठी, रवि के ताने उसके दिल को भेदते जा रहे थे. उसने सहायता हेतु चारो तरफ नज़र दौड़ाई पर उसे ऐसा कोई भी दिखाई नही दिया. जिससे वो मदद माँग सके. उसने उस पल निक्की को जी भर कोसा. काश कि वो उसकी बातों में ना आई होती. उसने एक बार फिर रवि के तरफ गर्दन उठाई और बोली - "साहेब, मेरे कपड़े दे दो. मेरे घर में सब परेशान होंगे." उसकी आवाज़ में करुणा थी और आँखें आँसुओं से डबडबा गयी थी. वो अब बस रोने ही वाली थी.

क्रमशः....................................
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07-25-2018, 11:08 AM,
#9
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अपडेट 9



रवि ने उसके चेहरे को ध्यान से देखा. उसका चेहरा शर्म और भय से पीला पड़ गया था. उसकी खूबसूरत आँखों में आँसू की मोटी मोटी बूंदे चमक उठी थी. उसके होंठ कांप कंपा रहे थे. वो लाचारी से अपने सूखे होठों पर जीभ फ़ीरा रही थी. उसे उसकी हालत पर दया आ गयी. उसने अपने हाथ में पकड़ा कपड़ा उसकी ओर फेंका और बोला - "ये लो अपने कपड़े, पहनो और घर जाओ. मैं उन लोगों में से नही हूँ जो किसी की विवशता का फ़ायदा उठाने में अपनी शान समझते हों. लेकिन घर जाने के बाद अगर फ़ुर्सत मिले तो अपने मन के अंदर झाँकना और सोचना कि मैने तुम्हारे साथ जो किया वो क्यों किया. अब तो शायद तुम्हे ये समझ में आ गया होगा कि किसी के मन को ठेस पहुँचाने से सामने वाले के दिल पर क्या गुजरती है." रवि जाने के लिए मुड़ा, फिर रुका और पलटकर कंचन से बोला -"एक बात और.....अगर तुम किसी के दिल में अपने लिए प्यार ना भर सको तो कोशिश करना कि कोई तुमसे नफ़रत भी ना करे." ये कहकर रवि मुड़ा और अपनी बाइक की तरफ बढ़ गया.

कंचन उसे जाते हुए देखती रही. उसकी आँखों में अभी भी आँसू भरे हुए थे. उसके कानो में रवि के कहे अंतिम शब्द गूँज रहे थे.

"मुझे माफ़ कर दो साहेब." वह बड़बड़ाई - "मैं जानती हूँ मेरी वजह से आपका दिल टूटा है, भूलवश मैने आपके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाई है. पर मुझसे नफ़रत मत करना साहेब....मैं बुरी लड़की नही हूँ....मैं बुरी लड़की नही हूँ साहेब."

कंचन भारी कदमो से झाड़ियों की ओर बढ़ी और अपने कपड़े पहनने लगी. कपड़े पहन लेने के बाद वो अपने घर के रास्ते चल पड़ी. पूरे रास्ते वो रवि के बारे में सोचती रही. कुच्छ देर बाद वो अपने घर पहुँची. कंचन ने जैसे ही अपने घर के आँगन में कदम रखा बुआ ने पुछा - "कंचन इतनी देर कैसे हो गयी आने में? कितनी बार तुझे समझाया. सांझ ढले बाहर मत रहा करो. तुम्हे अपनी कोई फिक़र रहती है कि नही?"

कंचन ने बुआ पर द्रष्टी डाली, बुआ इस वक़्त आँगन के चूल्‍हे में रोटियाँ बना रही थी. चूल्‍हे से थोड़ी दूर चारपाई पर उसका बाप सुगना बैठा हुआ था. कंचन उसे बाबा कहती थी. - "आज देर हो गयी बुआ, आगे से नही होगी." कंचन बुआ से बोली और अपने कमरे की ओर बढ़ गयी. उसके मिट्टी और खप्रेल के घर में केवल दो कमरे थे. एक कमरे में कंचन सोती थी, दूसरे में उसकी बुआ शांता, सुगना की चारपाई बरामदे में लगती थी. चिंटू के लिए अलग से चारपाई नही बिछती थी. उसकी मर्ज़ी जिसके साथ होती उसके साथ सो जाता. पर ज़्यादातर वो कंचन के साथ ही सोता था. कंचन अपने रूम के अंदर पहुँची. अंदर चिंटू पढ़ाई कर रहा था. कंचन को देखते ही वह घबराया. और किताब समेटकर बाहर जाने लगा.

"कहाँ जा रहा है?" कंचन ने उसे टोका.

"क....कहीं नही, बाहर मा....मामा के पास." वह हकलाया.

"मा के पास या मामा के पास?" कंचन ने घूरा - "और तू इतना हकला क्यों रहा है?"

चिंटू सकपकाया. उसके माथे पर पसीना छलक आया. चेहरा डर से पीला पड़ गया, उसने बोलने के लिए मूह खोला पर आवाज़ बाहर ना निकली.

कंचन के माथे पर बाल पड़ गये. वा उसे ध्यान से देखने लगी. "कुच्छ तो बात है?" कंचन मन में बोली - "इसकी घबराहट अकारण नही है."

चिंटू कंचन को ख्यालो में डूबा देख दबे कदमो से वहाँ से निकल लिया. कंचन सोचती रही. सहसा उसकी आँखें चमकी. जब वो नदी में स्नान कर रही थी तब उसने चिंटू की आवाज़ सुनी थी. पर देख नही पाई थी. -"कहीं ऐसा तो नही इसी ने मेरे कपड़े चुराकर साहेब को दिए हों." वह बड़बड़ाई - "ऐसा ही हुआ होगा. वरना साहेब को क्या मालूम मेरे कपड़े कौन से हैं?"

बात उसके समझ में आ चुकी थी. कंचन दाँत पीसती कमरे से बाहर निकली. चिंटू उसके बाबा की गोद में बैठा बाते कर रहा था. कंचन को गुस्से में अपनी ओर आते देख उसके होश उड़ गये. पर इससे पहले कि वो कुच्छ कर पाता, कंचन उसके सर पर सवार थी. कंचन ने उसका हाथ पकड़ा और खींचते हुए कमरे के अंदर ले गयी. कमरे में पहुँचकर कंचन ने चिंटू को चारपाई पर बिठाया और अंदर से दरवाज़े की कुण्डी लगाने लगी. चिंटू ये देखकर भय से काँप उठा. उसे समझते देर नही लगी कि आज उसकी पिटाई निश्चिंत है. उसने उस पल को कोसा जब पैसे के लालच में आकर उसने शहरी बाबू की बात मानी थी.

कंचन दरवाज़े की कुण्डी लगाकर उसके पास आकर खड़ी हो गयी. -"क्यूँ रे...तू मुझसे भागता क्यों फिर रहा है?"

"दीदी, क्या तुम सच-मुच मुझे मरोगी?" चिंटू ने डरते डरते पुछा.

कंचन ने चिंटू के पीले चेहरे को देखा तो उसका सारा क्रोध गायब हो गया. वह मुस्कुराइ, फिर उसके साथ चारपाई में बैठकर उसके गालो को चूमकर बोली -" नही रे, मैं भला तुम्हे मार सकती हूँ, पर तूने ही मेरे कपड़े साहेब को दिए थे ना? सच सच बता, नही तो अबकी ज़रूर मारूँगी"

चिंटू मुस्कुराया. उसने कंचन को देखा और शरमाते हुए बोला - "हां !"

"क्यों दिए थे?" कंचन फिर से उसके गालो को चूमते हुए बोली.

"नही बताउन्गा, तुम मारोगी." चिंटू हंसा.

"नही बतायेगा तो मारूँगी," कंचन ने आँखें दिखाई - "बता ना क्यों दिए थे मेरे कपड़े?"

"उसने मुझे पैसे दिए और बोला क़ि वो जो कहेगा अगर मैं करूँगा तो वो मुझे और पैसे देगा." चिंटू ने कंचन को नदी का पूरा वृतांत सुना दिया.

"पैसे कहाँ है?" कंचन ने सब सुनने के बाद पुछा.

चिंटू ने अपने जेब से पैसे निकालकर कंचन को दिखाया फिर बोला -"दीदी मुझे लगा आप मुझे मरोगी. आज के बाद मैं फिर कभी ऐसा नही करूँगा...सच्ची.!"

कंचन मुस्कुराइ और उसे अपनी छाती से भींचती हुई मन में बोली - "तू नही जानता, तेरी वजह से आज मुझे क्या मिला है." अगले ही पल उसके मन में सवाल उभरा. "लेकिन ऐसा क्या मिला है मुझे जो मैं इतनी खुश हो रही हूँ? साहेब ने तो मुझसे कोई अच्छी बात भी नही की, उन्होने तो मेरा अपमान ही किया है. फिर क्यों मेरा मन मयूर बना हुआ है?"

"नही साहेब ने मेरा अपमान नही किया, उन्होने जो भी कहा मेरे भले के लिए कहा, वे तो अच्छे इंसान हैं, आज अगर वो चाहते तो मेरे साथ क्या नही कर सकते थे. लेकिन उन्होने कुच्छ नही किया. वे सच में अच्छे इंसान हैं."

"चलो मान लिया वे अच्छे इंसान हैं. लेकिन मैं क्यों उनके बारे में सोच रही हूँ. मुझे क्या अधिकार है उनके बारे में सोचने का. कहीं ऐसा तो नही कि मैं उनसे प्यार करने लगी हूँ."

"अगर मैं करती भी हूँ तो क्या बुरा है, प्यार करना कोई बुरा तो नही. प्यार तो एक ना एक दिन सभी को होता है, मुझे भी हो जाने दो."

कंचन का दिल धड़का. उसके सीने में मीठी मीठी कसक सी हुई. वह अपनी छाती को मसल्ने लगी. "ये क्या हो रहा है मुझे, मैं क्यों उनके बारे में इतना सोच रही हूँ. कुच्छ तो हुआ है मुझे, क्या सच में मुझे प्यार हो गया है?

कंचन के मन में प्रेम का अंकुर फुट चुका था. और उसकी वृधि बड़ी तेज़ी से हो रही थी. रवि से नदी में मुलाक़ात उसपर बहुत भारी पड़ी थी. उसे ना तो उगलते बन रहा था ना निगलते. वह पल प्रतिपल रवि के ख्यालो में डूबती जा रही थी. वो चाहकर भी उस विचार से पिछा नही छुड़ा पा रही थी.
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07-25-2018, 11:09 AM,
#10
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
अपडेट 10

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चिंटू अपनी दीदी को खोया देख सोच में पड़ गया. कंचन विचारों में थी, कभी उसके होठ मुस्कुरा उठते, तो कभी सख़्त हो जाते. नन्हे चिंटू की समझ में कुच्छ भी नही आ रहा था. - "क्या हुआ दीदी, तुम चुप क्यों हो गयी?"

चिंटू की बातों से कंचन जागी, उसने चिंटू को देखा जो हैरानी से उसकी ओर ताक रहा था. - "बोलो दीदी, तुम क्यों मुस्कुरा रही थी?" चिंटू ने फिर से पुछा.

"तुम्हे क्या बताऊ चिंटू? मुझे तो खुद नही पता मुझे क्या हुआ है? क्या होता जा रहा है? क्यों मुझे हर चीज़ अच्छी लगने लगी है. वही तुम हो वही ये घर है वही आँगन है, फिर क्यों मुझे हर चीज़ नयी नयी सी लग रही है? काश कोई मेरे इन सवालों का जवाब बता दे." कंचन खोई खोई सी बोली, उसकी आवाज़ कहीं दूर से आती प्रतीत हुई.

चिंटू ने पलके झपकाई. उसकी समझ में अब भी कुच्छ ना आया - "मैं जाके मामा को बताऊ?" वो कंचन की गोद से उठता हुआ बोला.

कंचन सकपकाई. उसने झट से चिंटू का हाथ खींचा और उसे लिए बिस्तर पर फैल गयी. उसे बाहों में भर कर उसके गालो पर ताबड़तोड़ चुंबन धरती चली गयी. -"दीदी छ्चोड़ो मुझे." चिंटू छूटने के लिए मचला, पर कंचन की गिरफ़्त मजबूत थी -"मेरा गाल गीला करोगी तो मैं फिर कभी तुम्हारे पास नही आउन्गा."

"तो किसके गाल गीला करूँ...बता?" कंचन उसे लगातार चूमती हुई बोली.

"जाके उस शहरी बाबू के गाल गीले करो, जिसने तुम्हारे कपड़े ले लिए थे." चिंटू फिर से मचला.

"पर दिए तो तूने ही थे." कंचन उसे गुदगुदाते हुए बोली.

कुच्छ देर चिंटू को लाल पीला करने के बाद कंचन ने उसे छोड़ा. चिंटू उसके हाथ से निकलते ही बाहर भागा. कंचन बिस्तर पर गिरकर रवि के बारे में सोचने लगी. रवि के कहे अंतिम शब्द फिर से उसके कानो में गूँज उठे -"अगर तुम किसी के दिल में अपने लिए प्यार ना भर सको तो कोशिश करना की कोई तुमसे नफ़रत भी ना करे."

"साहेब, मैं आपके दिल में अपने लिए प्यार भर कर रहूंगी." वह बड़बड़ाई. -"एक दिन आएगा साहेब, जब आप इसी कंचन को अपनी बाहों में भर कर झुमोगे. मुझे प्यार करोगे. मैं आपके दिल में अपने लिए इतना प्यार भर दूँगी कि सात जन्म तक आप उस प्यार को निकाल नही पाओगे." कंचन के होंठ मुस्कुराए. वह तकिये में सर छुपाकर सपनो की दुनिया में खोती चली गयी.


*****

इस वक़्त रात के 12 बजने को हैं. निक्की अपने बिस्तर पर लेटी हुई है. पर उसकी आँखों से नींद गायब है. उसके ख्यालो में भी रवि बसा हुआ है. आप लोग शायद ये सोच रहे होंगे कि वो भी कंचन ही की तरह रवि से प्यार करने लगी है. लेकिन ऐसा नही है, उसके विचारों का आधार कुच्छ और है, निक्की को तो प्यार मोहब्बत से नफ़रत है, वो प्यार व्यार को बेवकूफ़ लोगो का विचार भर समझती है. उसका मानना है कि प्यार में इंसान की अक़ल कम हो जाती है. प्यार सिर्फ़ तनाव देता है और कुच्छ नही. प्यार करने के बाद इंसान अपनी आज़ादी खो देता है. इंसान दूसरे का दास बनकर रह जाता है. निक्की के दिल में सिर्फ़ दो लोगों के लिए प्यार था. एक उसके पिता ठाकुर जगत सिंग, दूजा - कंचन उसकी सहेली. इनके अतिरिक्त उसने किसी को भी अपने दिल में उतरने नही दिया. हां मा के लिए उसका दिल अभी भी खाली है. उसके विचारों में रवि के आने का कारण था कि वो अपने उस जीवन को याद कर रही थी जो उसने शहर में बीताए थे. उसे वहाँ हर चीज़ की आज़ादी थी कोई रोकने वाला नही कोई टोकने वाला नही. चाहें किसी के साथ घुमो, देर रात तक बाहर रहो, दोस्तो के साथ कुच्छ भी करो, कोई बंदिश नही थी. लेकिन यहाँ ठीक उसके उलटा था. यहाँ निक्की को वो सब आज़ादी नही मिलने वाली थी. उसने कॉलेज में बहुत मज़े किए थे. अनगिनत लड़कों के साथ शारीरिक संबंध बनाए थे. वो उन लड़कियों में से थी जो कपड़े कम, बिस्तर ज़्यादा बदलती हैं. उसके लिए पुरुषो से दोस्ती केवल शारीरिक संतुष्टि होती थी और कुच्छ नही. वह अपने शहरी जीवन में सेक्स की इतनी आदि हो चुकी थी कि, वो किसी के साथ भी सेक्स करने से नही हिचकिचाती थी. लेकिन उसने कभी भी अपने उपर किसी को हावी नही होने दिया. उसने कभी दूसरी नशीली चीज़ों को हाथ नही लगाया. शराब सिग्गरेट की वो कभी आदि नही हुई.

उसे शहर से आए 4 दिन हो चुके थे. पिच्छले 6 दिनो से वो शारीरिक सुख से वंचित थी. यहाँ आने के तीसरे दिन तक तो उसका मन उस ओर नही गया. लेकिन अब वो उसकी कमी महसूस करने लगी थी. आज बिस्तर में लेटे लेटे उसे वो पल याद आ रहे थे जो उसने आनंद के झूले में बीताए थे. उन पॅलो को याद करके उसका शरीर तप उठा था. शरीर में वासना की लहर तैर रही थी. उसे इस वक़्त सिर्फ़ एक ही चेहरा दिखाई दे रहा था जो उसकी काम वासना को शांत कर सकता था. और वो था रवि. लेकिन वो एक दुविधा में भी थी, वैसे तो वह काई लोगों से सेक्स कर चुकी थी, पर रवि उसे कुच्छ अलग किस्म का इंसान लगा था. उसे भय था कि कहीं रवि उसके प्रस्ताव को ठुकरा ना दें. लेकिन लाख चाहने पर भी वो अपने अंदर उठती काम वासना को नही दबा पा रही थी. मन पर शरीर का भूख हावी होती जा रही थी. वह उठी और आईने के सामने खड़ी हो गयी. उसके बदन पर इस वक़्त बेहद पारदर्शी नाइटी थी. वह आईने में खुद को देखने लगी. - "क्या मेरा ये हुश्न रवि को पिघला सकेगा?" उसने अपने तने हुए बूब्स को देखा. वो सर उठाए किसी भी चुनौती के लिए तैयार खड़े थे. निक्की अपने दोनो हाथों को दोनो बूब्स के उपर रखकर धीरे से सहलाई. ठीक ऐसे जैसे उन्हे शाबाशी दे रही हो. हाथ का स्पर्श पाकर उसके बूब्स और भी कड़क हो उठे. निक्की मुस्कुराइ. साथ ही उसका दाहिना हाथ नीचे फिसला और सीधे कमर तक पहुँच गया. कमर से होते हुए उसका हाथ उसकी पैंटी तक पहुँचा. उसने उंगली को पैंटी के एलास्टिक पर फसाया फिर धीरे से पैंटी को नीचे खिसकाती चली गयी. पैंटी जाँघो तक पहुँच गयी तो उसने अपने हाथ हटा लिए. उसके बाद आईने में अपनी नग्न सुंदरता को देखने लगी. कुच्छ देर अपनी ही आँखों से अपनी क़यामत ढाती सुंदरता का रस्पान करने के बाद निक्की ने पैंटी उपर कर ली. फिर पलट कर बिस्तर तक आई. कुछ देर बिस्तर पर बैठ कर सोचती रही कि उसे रवि के पास जाना चाहिए या नही. अंत में उसने रवि के पास जाने का निश्चय किया. निक्की नेसिरहाने में रखी चादर उठाई और अपने बदन से लपेट ली. फिर उसने घड़ी पर नज़र डाली 12:30 होने को थे. वह धीरे से कमरे से बाहर निकली. गॅलरी में आकर उसने नज़र दौड़ाई. गॅलरी सुनसान थी. वो अपने कमरे का दरवाज़ा भिड़ाया और दबे कदमों से रवि के रूम की तरफ बढ़ गयी. उसे पूरी उम्मीद थी कि रवि इस वक़्त जाग रहा होगा. उसने अपने बढ़ते कदम रवि के कमरे के बाहर रोके. फिर धीरे से दरवाज़े पर दस्तक दी. कुच्छ देर बाद अंदर से रवि की आवाज़ आई - "कौन है?"

"मैं हूँ निक्की....दरवाज़ा खोलो." निक्की धीरे से बोली.

कुच्छ देर बाद रवि ने दरवाज़ा खोला और हैरानी से निक्की को देखा - "तुम...मेरा मतलब आप.... इस वक़्त?"

"अंदर आने के लिए नही कहेंगे." निक्की मुस्कुराते हुए बोली.

"आइए." रवि दरवाज़े से एक ओर हट-ते हुए बोला.

निक्की कमरे के अंदर दाखिल हुई और सोफे पर जाकर बैठ गयी. रवि उसके सामने जाकर खड़ा हो गया और सवालिया नज़रों से निक्की की ओर देखने लगा. उसने अपने दिमाग़ की सारी खिड़कियाँ खोल दी और ये सोचने में लगा कि आख़िर निक्की इतनी रात गये उसके कमरे में ऐसा रूप धर कर क्यों आई है?. लेकिन लाख दिमागी घोड़े दौड़ाने के बाद भी उसके समझ में कुच्छ ना आया उसने निक्की को देखा. निक्की उसे ही देख रही थी, रवि को अपनी ओर आश्चर्य से देखते पाकर निक्की मुस्कुराते हुए बोली - "दरवाज़ा बंद कर लीजिए."

"आप ने गर्मी की रात में चादर क्यों ओढ़ रखी हैं?" रवि निक्की की बात को अनसुना करते हुए उससे पुछा.

"असल में मैने अंदर पारदर्शी नाइटी पहन रखी है. और उन कपड़ों में मेरा आपके पास आना शायद आपको अच्छा नही लगता. इसलिए मैं ये चादर ओढकर रखी है." ये कहकर निक्की मुस्कुराइ और रवि को देखने लगी.

"ऐसी क्या बात थी कि आपको ऐसी हालत में इस वक़्त आना पड़ा?" रवि ने आश्चर्य से पुछा. उसका चेहरा शांत था. हालाँकि निक्की के मूह से ये सुनकर की उसने पारदर्शी कपड़े पहन रखे हैं, वह अचंभीत था. उसके अंदर का युवा दिल ज़ोरों से धड़का था. पर उसने निक्की के सामने अपने भाव प्रकट नही होने दिए.

"कुच्छ खास नही, बस मुझे नींद नही आ रही थी तो सोचा थोड़ी देर आपसे बाते कर लूँ." निक्की धीरे से मुस्कुराकर बोली -"मुझे पता था कि आप भी जाग रहे होंगे."

"मैं जाग रहा हूँ ये आप कैसे जानती थी?" रवी ने सवाल किया.

"मेरा इस घर में जन्म हुआ है, बचपन भी यहीं बीता है, सभी लोग मुझे जानते हैं, मैं सबको पहचानती हूँ, फिर भी मेरा मन यहाँ नही लग रहा है. खुद को अकेली सी महसूस करती हूँ. दिन तो कैसे भी कट जाता है, पर रात मुश्किल हो जाती है, पूरी रात जागते में गुजरती है." वह कुच्छ देर के लिए रुकी, फिर मुस्कुराते हुए बोली -"जब मेरी ऐसी हालत है तो फिर आप तो यहाँ पर अजनबी हैं. आपको भला कैसे नींद आ सकती है."
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