Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
07-25-2018, 11:09 AM,
#11
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
अपडेट 11


"मेरे जागने का कारण कुच्छ और है निक्की जी." रवि घंभीर स्वर में बोला - "मैं आपकी माताजी के बारे में सोच रहा था."

"ओह्ह...!" मा के बारे में सुनकर निक्की का चेहरा लटक गया - "तो फिर शायद मैं आपको डिस्टर्ब कर रही हूँ."

"नही ऐसा भी नही है." रवि झेन्प्ते हुए बोला. और निक्की की ओर देखने लगा. उसकी समझ में नही आ रहा था कि वो निक्की से क्या कहे. उसका इस वक़्त उसके कमरे में होने से उसे बहुत घबराहट हो रही थी. वो एक शभ्य इंसान था, उसे अपना मान सम्मान बहुत प्यारा था. वो नही चाहता था कि कोई निक्की को इस वक़्त उसके कमरे में देखे और खा-मखा उसकी इज़्ज़त की धज्जिया उड़े. पर वो सीधे मूह निक्की को जाने के लिए भी नही कह सकता था. ऐसा करना आचरण के खिलाफ था.

निक्की सर झुकाए अपनी सोचों में गुम थी. उसे भी समझ में नही आ रहा था कि वो रवि से असली बात कैसे कहे. वैसे तो वो बहुत खुले स्वाभाव की थी, किसी को कुच्छ कहने में ज़रा भी नही हिचकिचाती थी. पर यहाँ बात और थी. एक तो वो रवि की शालीनता से डर रही थी, दूसरी ये कि वो इस वक़्त अपने ही घर में थी. उसकी एक ग़लती उसे उसी के घर में अपमानित कर सकती थी.

"आपके घर में कौन कौन हैं?" निक्की को कुच्छ ना सूझा तो उसके परिवार के बारे में पुच्छ बैठी.

"मेरी मा और मैं." रवि हौले से मुस्कुराया.

"और आपकी बीवी?" निक्की अपनी नज़रें उसके चेहरे पर गढ़ाती हुई बोली.

"बीवी अभी तक आई नही. अर्थात मैने अभी तक शादी नही की"

"ह्म्म्म....तो महाशय अभी तक गर्लफ्रेंड से ही काम चला रहे हैं." निक्की छेड़खानी वाले अंदाज़ में बोली, लेकिन उसकी बातों में कामुकता का मिश्रण था.

रवि निक्की की स्पास्टवदिता से चौंक उठा. उसे अंदाज़ा नही था कि निक्की इतनी फ्रॅंक बात कर सकती है. वो झेप्ते हुए बोला - "मेरी कोई गर्लफ्रेंड नही है."

"क...क्या?" निक्की का मूह भाड़ सा खुला. हालाँकि ये जानकार उसके मन में हज़ारों लड्डू फूटे थे. पर चौंकने का नाटक करती हुई बोली - "मैं नही मानती. आप इतने खूबसूरत है, आपकी कोई ना कोई गेर्ल फ्रेंड तो ज़रूर होगी. हां....आप मुझे ना बताना चाहें तो बात और है."

"भला आपसे झूठ बोलकर मुझे क्या मिलेगा?" रवि ने जवाब दिया.

"हो सकता है, आप इसी बहाने मुझसे बचना चाहते हों." निक्की असली विषय पर आती हुई बोली.

"म....मैं कुच्छ समझा नही." रवि हकलाया. - "मैं भला आप से क्योन्कर बचना चाहूँगा? और फिर...किस लिए?"

"तो आप मुझसे बचना नही चाहते?" निक्की उसकी आँखों में देखती हुई बोली -"तो फिर इतनी दूर क्यों खड़े हैं? यहाँ मेरे पास आकर बैठिए."

रवि का दिमाग़ चकरा गया. उसे कुच्छ भी जवाब देते नही बना. - "निक्की जी आप क्या बोल रही हैं मेरे समझ में कुच्छ भी नही आ रहा है. आप जो भी कहना चाहती हैं साफ साफ कहिए."

"इतने भोले मत बनिये रवि जी." निक्की खड़ी होती हुई बोली - "क्या आप इतना भी नही समझ सकते कि मैं इस वक़्त यहाँ क्यों आई हूँ? लेकिन अगर आप साफ साफ ही सुनना चाहते हैं तो सुनिए." निक्की ये बोलते हुए अपने तन पे लिपटी चादर एक झटके में उतार कर फेंकी दी - "मैं आपके साथ सेक्स करना चाहती हूँ."

रवि अवाक ! वो फटी फटी आँखों से निक्की को देखता रहा. उसने सपने में भी नही सोचा था कि ये लड़की इतनी बेशर्मी के साथ उसके साथ सेक्स करने की बात कर सकती है. उसकी नज़रें उसके चेहरे से फिसल कर नीचे उतरी. उसकी नज़रें निक्की के बूब्स पर पड़ी तो उसके बदन पर चींतियाँ सी रेंग उठी. निक्की के पारदर्शी लिबास में कुच्छ भी नही छीप रहा था. उपर का सारा हिस्सा स्पस्ट दिखाई दे रहा था. उसने अंदर ब्रा भी नही पहनी थी. उसके तने हुए बूब्स और उसके उपर भूरे रंग के चुचक सॉफ दिखाई दे रहे थे. नाइटी इतनी छोटी थी कि सिर्फ़ कमर को ढँक पा रही थी, पर वो ढँकना ना ढँकना एक जैसा ही था. उसकी पैंटी नाइटी के अंदर से भी सॉफ दिखाई दे रही थी. रवि की निगाहें उसकी फूली हुई चूत पर पड़ी तो मूह से "आहह" निकलते निकलते बची. उसकी भारी भारी जांघे रवि के अंदर छुपी उसकी युवा भावनाओ को हवा दे रही थी. उसने अपने अंदर कुच्छ पिघलता सा महसूस किया. उसके कानो की धमनियों से गरम धुआ सा निकलने लगा. उसे अपने पावं की शक्ति कम होती महसूस हुई. इससे पहले कि वो चक्कर खाकर गिर पड़े. उसने अपना चेहरा घुमा लिया. और धीरे से चलते हुए अपने बिस्तर तक पहुँचा और धम्म से बैठ गया.

"क्या हुआ रवि जी? निक्की उसके पास आकर बोली.

निक्की की आवाज़ से रवि ने गर्दन उठाई, उसकी नज़रें निक्की के नज़रों से मिली. उसकी आँखें नशे की खुमारी से भरी हुई थी. निक्की उसे देखती हुई अपने एक हाथ से अपनी जाँघो को सहलाने लगी तो दूसरी हाथ को अपने बूब्स पर फिराने लगी.

रवि के माथे से पसीना छूट पड़ा. उसका लंड पाजामे के अंदर से ही फुफ्करे मारने लगा. उसने अपनी निगाहें झुका ली.

"क्या हुआ रवि? क्यों मुझसे नज़रें चुरा रहे हो? क्या मैं अच्छी नही लगती आपको? आप ध्यान से देखो रवि, मेरे अंग अंग में हुश्न भरा हुआ है. मेरे बूब्स को देखो, ये कितने कड़क हैं. इन्हे छूकर हाथ लगाकर इसकी कठोरता को महसूस करो रवि." निक्की बोली और रवि का हाथ पकड़कर अपने बूब्स पर रखना चाही. पर रवि ने अपना हाथ झटक लिया.

"तुम यहाँ से जाओ निक्की. तुम इस वक़्त होश में नही हो. हम सुबह बात करेंगे." रवि उसकी ओर से मूह फेर्कर बोला.

निक्की को उसकी बेरूख़ी पर तेज गुस्सा आया पर वो अपने गुस्से को पी गयी. वो आगे बढ़ी और उसके पीठ से लिपट गयी. - "रवि मुझसे मूह ना मोडो, एक लड़की अपनी लोक लाज उतार कर जब किसी मर्द के पास आती है तब वो बहुत मजबूर होकर आती है. ऐसी दशा में उस मर्द के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि वो उसके भावनाओ की लाज रखे. क्या तुम मेरा प्रेम परस्ताव को ठुकराकर मेरा अपमान करना चाहते हो?"

"ये प्रेम नही वासना है." रवि एक झटके से अलग होता हुआ बोला -"तुम जिसे प्रेम कह रही हो वो प्रेम नही, प्रेम और वासना में बहुत अंतर है."

निक्की का पारा चढ़ा, वो बिफर कर बोली - "क्या अंतर है?"

"प्रेम और वासना में ये अंतर है कि प्रेम त्याग चाहता है और वासना पूर्ति." रवि ने जवाब दिया. "प्रेम दो शरीरों के मिलन के बिना भी पूरा होता है, लेकिन वासना दो शरीरों के मिलन के बाद पूरी होती है. पर शायद तुम इस फ़र्क को नही समझ सकोगी. लेकिन मैं इस फ़र्क को समझता हूँ. इसलिए मैं कोई भी ऐसा काम नही करूँगा. जिससे कि बाद में मुझे खुद से शर्मसार होना पड़े."

रवि की बातें निक्की को अपने दिल में शूल की तरह चुभती महसूस हुई. रवि के बातें उसके रोम रोम को सुलगाती चली गयी. उसका ऐसा अपमान आज तक किसी ने नही किया था. अपमान तो बहुत दूर की बात है, आज तक किसी में निक्की को इनकार करने की भी हिम्मत नही हुई थी.

निक्की कुच्छ ना बोली, रवि ने उसे कुच्छ भी बोलने लायक छोड़ा ही नही था. वो बस खड़ी खड़ी कुच्छ देर रवि को जलती आँखों से घुरती रही, फिर एकदम से पलटी और दरवाज़े से बाहर निकल गयी. उसने ज़मीन पर पड़ी अपनी चादर भी नही उठाई. उसे ऐसी हालत में बाहर निकलते देख रवि सकपकाया. पर वो कुच्छ कहता उससे पहले ही निक्की उसके कमरे से बाहर जा चुकी थी. वो उसी हालत में बेधड़क गलियारे से गुजरती हुई अपने रूम में पहुँची. रूम में घुसते ही वो बिस्तर पर गिरी और फुट फुट कर रोने लगी. उसका रोना भी लाजिमी था. उसने अपने जीवन में कभी भी हार नही देखी थी. लेकिन आज वह हारी थी. आज वो पहली बार अपनी मर्यादा से गिरकर किसी के आगे दामन फैलाई थी. पर उसे निराशा और अपमान के सिवा कुच्छ ना मिला था. वो अपमानित हुई थी. रवि ने उसके अंदर की औरत का अपमान किया था. वासना में जलती औरत का जब कोई निरादर करता है तो वो औरत घायल शेरनी से भी अधिक ख़तरनाक हो जाती है. वो उस साँप की तरह होती है जिसकी पूंच्छ पर किसी आदमी का पावं पड़ गया हो. वो जब तक अपनी पून्छ पर पावं धरने वाले को डस नही लेती उसे सुकून नही मिलता. ऐसी औरत बदले की भावना में जितना दूसरे का नुकसान करती है उससे कहीं ज़्यादा अपना नुकसान कर लेती है.

निक्की कुच्छ देर बिस्तर पर मूह छिपाये रोती रही. फिर अपना गम हल्का करने के बाद उठी और आईने के सामने जाकर खड़ी हो गयी. उसने आईने में खुद को देखा. सब कुच्छ वैसा ही था. वही सुंदर शरीर, पहाड़ की तरह सर उठाए उसके उन्नत शिखर, वही समतल चिकना पेट, वही हज़ारो दिलों को पर बिजलियाँ गिराने वाली कमर, वही पैंटी में फूली हुई चूत, वही गोरी गोरी सुडोल जांघे. पर इस वक़्त उसे उसकी सुंदरता, उसके एक एक अंग सब उसे मूह चिढ़ाती नज़र आई. उसकी आँखों से फिर से शोले बुलंद होने लगे. रवि की बातें फिर से उसकी कानो में ज़हर घोलने लगी. वह मुत्ठियाँ भिचती हुई अपने आप में बड़बड़ाई - "मिस्टर रवि, अगर मैने तुम्हे अपने कदमो में नही झुकाया तो मैं ठाकुर की बेटी नही. मैं तुम्हे इतना मजबूर कर दूँगी कि तुम खुद चलकर मेरी पनाह में आओगे. ये निक्की की ज़िद है. तुम्हे झुकना ही होगा." उसके इरादे फौलाद की तरह मजबूत थे. वह घूमी और बिस्तर पर पसर गयी. और चादर ओढकर सोने का प्रयास करने लगी.
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निक्की के जाने के बाद रवि ने दरवाज़ा बंद किया और बिस्तर में घुस गया. फिर अपनी आँखें बंद करके सोने का प्रयास करने लगा. आँखें बंद होते ही आँखों के सामने निक्की का शोले बरसाता शरीर नाच उठा. उसके शरीर के अंगो से निकलती यौवन चिंगारियों की तपिश उसे फिर से झुलसाने लगी. उसके धमनियों में बहता लहू फिर से गरम होने लगा. रवि ने बेशक निक्की का परस्ताव ठुकरा दिया था पर वो उसकी सुंदरता के सम्मोहन से नही बच पाया था. वो मजबूत इरादो वाला व्यक्ति था. पर ये भी सच था कि आज उसने जो कुच्छ देखा था वो उसके लिए बिल्कुल नया था. रवि ने अपने पूरे जीवन में कामवासना में जलती ऐसी लड़की नही देखी थी. क्या वास्तव में आज की लड़कियाँ ऐसी ही होती है. जो माता पिता की परवाह किए बिना किसी के भी सामने अपने कपड़े उतारने में उतावली रहती हैं. वैसे तो रवि मनोचिकित्सक था पर लड़कियों के प्रति उसका ज्ञान कोरा था.
वजह थी उसका शर्मीला स्वाभाव....और मा की कड़ी नशिहत! उसकी मा की इच्छा थी कि वो डॉक्टर बने, वो एक साधारण परिवार का होने के बावज़ूद भी उसकी मा ने उसकी पढ़ाई में कोई कमी नही होने दी थी. उसके पिता....जब वो 5 साल का था तभी काम के सिलसिले में बेवतन हुए थे जो अभी तक लौटकर घर नही आए थे. ईश्वर जाने उसके पिता अब ज़िंदा भी हैं या नही. उसकी मा ने खुद लाख दुख उठाकर उसे किसी चीज़ की कमी नही होने दी थी. उसने भी बचपन से ही यह तय कर लिया था कि वो अपनी मा का सपना पूरा करेगा. यही वजह थी कि जब कभी उसके पास से कोई लड़की गुजरती तो वह अपनी आँखें फेर लेता था, कॉलेज की सेक्सी और दिलफेंक लड़कियों को देखकर अपनी निगाहें नीचे कर लेता था. किशोरवस्था तक पहुँचते पहुँचते वह इतना दब्बु स्वाभाव का हो गया था कि अगर कोई लड़की उसे पुकार लेती तो उसके पसीने छूट पड़ते थे. हाथ पावं ऐसे फूल जाते थे जैसे उसे किसी योद्धा ने युद्ध के लिए ललकारा हो. उसके इस स्वाभाव के कारण उसके दोस्त उसे बहुत चिढ़ाते थे, अपने प्रेम के रस भरे किस्से सुना सुना कर उसे छेड़ते थे. रवि जब अपने दोस्तों के मूह से उनके प्रेम के किस्से सुनता तो उसका मॅन भी किसी हसीन लड़की को अपना बना लेने का करता, तब उसका मॅन भी मचल कर उससे कहता कि तू भी कोई गर्लफ्रेंड बना ले. उस स्थिति में उसकी मा की बाते उसके पावं की बेड़िया बन जाती. वह अपने सीने में उठते अरमानो को अपनी मा के दुखों का ख्याल करके उनपर अंकुश लगा देता. वो किताबी कीड़ा था अपनी तन्हाई को किताबों से दूर करता वही उसकी महबूबा थी. उसने प्यार मोहब्बत के किस्से बहुत पढ़े थे, सेक्स और वासना के किस्से भी दोस्तों से सुन रखे थे. पर निक्की जैसी लड़की के बारे में ना तो उसने कहीं पढ़ा था और ना ही किसी दोस्त ने उसे बताया था. वो अलग थी.....सबसे अलग !

रवि अपने जीवन में कभी भी विचलित नही हुआ था, उसका दिमाग़ बहुत मजबूत था, पर आज निक्की ने उसे विचलित कर दिया था. अब उसके दिमाग़ में एक ही प्रश्न घूम रहा था. -"अब उसे क्या करना चाहिए? निक्की जैसी लड़की शांति से बैठने वाली लड़की नही है, वो फिर प्रयास करेगी, या फिर अपने अपमान का बदला उसे अपमानित करके लेगी. ऐसी स्थिति में उसके बचाव के दो ही विकल्प रह गये थे, या तो वो सारा सच ठाकुर को बता दे ये फिर वो चुप चाप यहाँ से काम छोड़ कर चला जाए. पहला विकल्प उसे घृणित जान पड़ा, निक्की की असलियत बताकर वो ठाकुर साहब को जीतेज़ी मारना नही चाहता था, वैसे भी राधा देवी के गम में वे आधे मर चुके थे, अब निक्की की करतूतों को जानकार तो उस भले इंसान का दम ही निकल जाएगा. अब दूसरा विकल्प था हवेली छोड़ कर जाने का. लेकिन यहाँ से जाने का अर्थ था अपनी डॉक्टरी पेशे का अपमान करना, उसने ठाकुर साहब को वचन दिया था कि वो उनकी पत्नी राधा को ठीक किए बिना यहाँ से नही जाएगा. ठाकुर साहब पिच्छले 20 वर्षो से इसी आस में जी रहे थे कि कोई डॉक्टर उनकी पत्नी को ठीक कर दे, कितने डॉक्टर्स आए और पैसे खाकर चले गये, वो अपनी गिनती उन डॉक्टर्स में नही करना चाहता था. ठाकुर साहब रवि पर बहुत आस लगाए बैठे थे. अब जो भी हो वो यहीं रहेगा, सिर्फ़ एक लड़की उसकी ज़िंदगी का फ़ैसला नही कर सकती, वो भी एक चरित्रहीन लड़की. हरगिज़ नही!वो हवेली छोड़ कर नही जाएगा, रही बात निक्की की तो चाहें वो अपने हुश्न की लाखो बिजलियाँ गिरा ले, चाहें वो निर्वस्त्र ही उसके सामने क्यों ना बिच्छ जाए, वो नही हिलेगा. उसने अपने इरादों को मजबूत किया और चादर तानकर सोने का असफल प्रयत्न करने लगा.

****

अगली सुबह रवि अपने नियमित टाइम पर सोकर उठा, वो नहाने के बाद लगभग 10 बजे राधा देवी के कमरे में जूस और दवाइयाँ लेकर गया. ये उसका रोज़ का काम था, उसे दिन में दो बार राधा देवी को दवाइयाँ और जूस देना रहता था, एक 10 बजे सुबह और दूसरी दफ़ा रात को 9 बजे. इस वक़्त निक्की भी उसके साथ होती थी. आज भी रवि और निक्की राधा देवी के कमरे में गये, पर दोनो इस बार एक दूसरे से दूर दूर ही रहे, हां राधा देवी के सामने रवि निक्की को अपने पास आने से नही रोक सका. वहाँ वह जब तक रहा निक्की उसके साथ चिपकी रही. राधा देवी के कमरे में निक्की कभी अपना सर रवि के कंधे पर रख देती तो कभी अपने बूब्स रवि की बाहों से रगड़ने लगती, तो कभी हस्ते हुए उसकी आँखों में ऐसी भूखी नज़रों से देखती कि रवि की रोंगटे खड़े हो जाते. किसी तरह से वह काम निपटा और रवि अपने कमरे में आया. उसका दिमाग़ भन्ना गया था. दिन भर अपने रूम में पड़ा पड़ा निक्की के बारे में ही सोचता रहा. पर वो जितना निक्की के बारे में सोचता उसका दिमाग़ और खराब होने लगता. लगभग 3 बजे वो हवेली से बाहर निकला. उस वक़्त धूप बहुत तेज़ थी, लेकिन रवि हवेली से बाहर रहकर निक्की के ख्यालों से पिछा छुड़ाना चाहता था. उसने अपनी बाइक संभाली और पहाड़ियों की ओर निकल गया. घाटियों में पहुँचकर उसने अपनी बाइक रोकी और पैदल ही झरने की तरफ बढ़ गया. कुच्छ ही मिनिट में वो एक विशाल झरने के निकट खड़ा था. वो खड़े खड़े झील में गिरते झरने को देखने लगा. उसने सोचा यहाँ इतना अधिक शोर होकर भी कितनी शांति है. और हवेली में कोई शोर ना होकर भी मॅन को शांति नही. वो थोडा और आगे बढ़ा, उसका इरादा झील में गिरते पानी को देखने का था. क्योंकि वो जिस जगह खड़ा था वहाँ से झील की सतह नही दिख रही थी. उसने अपने कदम बढ़ाए. अभी वो दो कदम ही चला था कि उसके दाहिने और उसे किसी के होने का एहसाह हुआ. उसने अपनी गर्दन घुमाई तो उसे एक लड़की पत्थर पर बैठी दिखाई दी. लड़की का आधा शरीर पत्थरों की ओट में छिपा हुआ था. लड़की का सिर्फ़ बायां कंधा ही बाहर था. लेकिन तेज़ हवाओं के झोके से उसके लंबे बाल बार-बार उड़कर वहाँ पर किसी लड़की के होने का प्रमाण दे रहे थे. रवि उस लड़की को देखने की चाह लिए थोड़ा और आगे बढ़ा. अब वो उस लड़की से सिर्फ़ दस कदम पिछे खड़ा था. वहाँ से वो उसे सॉफ सॉफ देख सकता था. ना केवल देख सकता था बल्कि अब तो रवि ने उसे पहचान भी लिया था. ये कंचन थी. वो आज भी उसी लिबास में थी जिसे रवि ने उसे सबक सिखाने के लिए, उसके भाई की मदद से चुरा लिए थे. वो कुच्छ देर उसे देखता रहा, उसे अंदेशा था कि वो उसे पलटकर देखेगी, लेकिन नही, वो किसी गहरी सोच में लग रही थी उसकी आँखें गिरते झरने पर टिकी हुई थी. सहसा रवि का माथा ठनका. कहीं ऐसा तो नही ये लड़की आत्महत्या करने आई हो. जिस तरह शहरों में बस और ट्रेन के नीचे लेटकर जान देने का रिवाज़ है, उसी तरह गाओं में पहाड़ों से छलाँग मारकर और कुएँ में कूद कर जान देने का चलन भी है. अगले ही पल उसके दिमाग़ में सवाल उभरा -"लेकिन ये मरना क्यों चाहती है? इस उमर में ऐसा क्या हो गया कि ये जान देने को तैयार हो गयी. कहीं ऐसा तो नही कि मैने कल जो इसको बुरा भला कहा था उसी से दुखी होकर अपनी जान दे रही हो? होने को कुच्छ भी हो सकता है? ये गाओं के लोग बड़े ज़ज़्बाती होते हैं. इससे पहले कि वो लड़की गहरी झील में समा जाए उसने पुकारा -"आए लड़की, तू मरना क्यों चाहती है?"

रवि की आवाज़ जैसे ही उसके कानो से टकराई, वो चौंकते हुए पलटी. उसके चेहरे पर गहरे दुख की परत चढ़ि हुई थी, आँखे इस क़दर लाल थी मानो वो रात भर सोई ही ना हो. रवि आश्चर्य से उसके चेहरे को देखता रहा.

"आप.....!" कंचन आश्चर्य से रवि को देखती हुई बोली, फिर धीरे से मुस्कुराइ, उसकी मुस्कुराहट भी दम तोड़ते इंसान की तरह थी. जिनमे पीड़ा के अतिरिक्त और कुच्छ भी ना था. वो आगे बोली - "मैं क्यों मरूँगी? और आप क्यों चाहते हैं कि मैं मरूं? क्या आप मुझसे इतनी घृणा करते हैं कि मुझे जीवित देखना भी पसंद नही करते?"

कंचना की बातें व्यंग से भरी हुई थी. रवि तिलमिला गया. उसे तत्काल कोई उत्तर देते ना बना. वह हकलाते हुए बोला - "मेरा ये मतलब नही था, तुम झरने के इतनी निकट खड़ी थी कि मुझे ऐसा भ्रम हुआ कि तुम अपनी जान देना चाहती हो. आइ'म सॉरी." रवि झेन्प्ते हुए बोला.

"मैं इतनी कमजोर लड़की नही हूँ साहेब की किसी के तिरसकार से दुखी होकर अपनी जान दे दूं. मुझे अपनी ज़िंदगी से प्यार है." कंचन दुखी मन से बोली और वहाँ से जान लगी.

रवि को कंचन की बातों में एक दर्द का एहसास हुआ, उसे ऐसा लगा जैसे वो अंदर ही अंदर सिसक रही हो. वैसे तो रवि निर्दोष था, पर जाने क्यों उसे ऐसा लगा कि कंचन के दुखों का वही ज़िम्मेदार है. उसे कंचन की बाते अपने दिल में चुभती सी लगी. वो कुच्छ देर खामोशी से उसे जाते हुए देखता रहा फिर पीछे से आवाज़ दिया - "सुनो..."

कंचन उसकी आवाज़ से रुकी, फिर धीरे से पलटी. रवि धीरे से चलकर उसके करीब पहुँचा. -"क्या हुआ? तुम इतनी उदास क्यों हो?"

रवि ने इतनी आत्मीयता से पुछा की कंचन भावुकता से भर गयी, जब किसी दुखी मन को कोई प्यार से दुलारता है तो उसके अपनेपन से उसके स्नेह से वो मन और भी भावुक हो जाता है. कंचन को रवि का यूँ आत्मीयता से पुछ्ना उसे और भी भावुक कर गया. वो अपनी भावनाओ पर काबू ना पा सकी और उसकी आँखें भर आई. वो कुच्छ भी जवाब देने के बजाए बस गीली आँखों से रवि को देखती रही. वो कहती भी तो क्या? वो खुद भी तो नही जानती थी कि उसे क्या हुआ है. क्यों अचानक से उसकी दुनिया बदल गयी है, क्यों अब वो पहले की तरह हस्ती बोलती नही है, क्यों अब वो अकेले रहने में सुकून महसूस करने लगी है. क्यों उसका मन हरदम यही चाहता है कि वो कहीं अकेले में बैठकर सिर्फ़ अपने साहेब के बारे में सोचती रहे.

"अरे.....ये क्या?" रवि उसकी आँखों की कोरो पर चमक आए आँसू की बूँदो को देखकर बोला - "तुम रो रही हो? अगर कोई समस्या है तो मुझे बताओ. क्या किसी ने कुच्छ कहा है?"

"आप जाओ साहेब, आपको इससे क्या कि मैं रो रही हूँ कि हंस रही हूँ. मुझ ग़रीब के हँसने रोने से आपके सम्मान को कोई ठेस नही पहुँचने वाली." कंचन रुन्वासि होकर बोली.

"अगर तुम कल की बात को लेकर दुखी हो तो प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो. लेकिन तुम खुद ही सोचो उस दिन हवेली में मेरे कपड़ों के साथ जो हुआ-क्या वो ठीक था?"
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"अगर तुम कल की बात को लेकर दुखी हो तो मुझे माफ़ कर दो. लेकिन तुम खुद ही सोचो उस दिन हवेली में मेरे कपड़ों के साथ जो हुआ क्या वो ठीक था?"

कंचन कुच्छ ना बोली, बस भीगी पलकों से रवि को देखती रही और सोचती रही. - "साहेब मुझे ग़लत समझते हैं, उन्हे लगता है कि उनके कपड़े मैने जलाए हैं. मुझे अपराधिनी समझते हैं" कंचन के दिल में एक हुक सी उठी, इस एहसास से वो तड़प उठी, आख़िर कैसे बताए अपने साहेब को कि उस दिन हवेली में उसके कपड़े उसने नही जलाए थे. उसके कपड़ों को जलाने वाली निक्की थी, वो तो बस निक्की के दबाव में आकर उनके रूम में कपड़े रखने गयी थी. उसके होठ कुच्छ कहने के लिए हिले पर सिर्फ़ फड़फदा कर रह गये, बोल मूह से बाहर ना निकले.

"क्या तुम सच में इसी लिए दुखी हो कि कल नदी के किनारे मैने तुम्हे कुच्छ कड़वे बोल कहे थे?" रवि उसे खामोश देखकर फिर से पुछा.

"नही साहेब....उस दिन नदी में आपके मूह से निकले कड़वे बोल तो मुझे शहद से भी मीठे लगे थे, मैं तो इसलिए दुखी हूँ कि.....मैं....आप....से...!" वो इससे आगे ना बोल सकी, ये कहते कहते अचानक से उसके चेहरे का रंग तेज़ी से बदल गया था. जो चेहरा कुच्छ देर पहले दुख से पीला पड़ा हुआ था, वही चेहरा अब शर्म की लाली से लाल हो उठा था. वो फिर से ज़मीन ताकने लगी.

"मैं आप से क्या?" रवि थोड़ा हैरान परेशान सा पुछा.

कंचन ने, रवि के पुच्छे जाने पर अपनी नज़रें उठकर उसके चेहरे पर टिका दी. वो एकटक अपनी बड़ी बड़ी आँखों से रवि को देखती रही. एक बार मन किया कि वो कह दे - "साहेब मैं आपसे प्यार करती हूँ, आपसे शादी करना चाहती हूँ. क्या आप मुझे अपनी दुल्हन बनाओगे? मैं दिन रात आपकी सेवा करूँगी, कभी कोई शिकायत का मौक़ा नही दूँगी. जैसे रखोगे मैं वैसी रह लूँगी. कभी कोई चीज़ नही माँगूंगी. जो दोगे वो रख लूँगी, जो पहनओगे पहन लूँगी. बस आप मेरे हो जाओ और मुझे अपना बना लो." लेकिन वो कह ना सकी -"जाइए...मैं नही बताती, आप बड़े वो हो." कंचन मचलकर बोली और तेज़ी से अपने घर के रास्ते मूड गयी और सरपट भागती चली गयी.

रवि ठगा सा उसे जाते हुए देखता रहा. उसके समझ में अब भी कुच्छ ना आया था. वो कुच्छ देर यूँही खड़े खड़े उसकी कही बातों पर सोचता रहा. फिर अपना सर खुजाता हुआ अपनी बाइक की ओर बढ़ गया. उसके दिमाग़ में अब निक्की की जगह कंचन आ बसी थी.

कुच्छ देर में वो उस जगह पर आ गया जहाँ पर उसने अपनी बाइक खड़ी की थी, अभी वो बाइक से कुच्छ दूर ही था कि उसकी नज़र जैसे ही बाइक की ओर गयी उसके बढ़ते हुए कदम थम गये. उसके चेहरे पर उलझन की लकीरे खिंच गयी. उसकी बाइक पर एक देहाती आदमी बैठा हुआ था. उसके बदन पर काले रंग का कुर्ता था और कमर पर लूँगी लिपटी हुई थी. कद कोई 6 फीट के आस-पास होगा. छाती चौड़ी और बदन कसरती था, चेहरे पर बड़ी और घनी मूँछे थी. उसकी आयु कोई 32-33 साल के आस-पास रही होगी. वो बाइक पर बैठा हुआ था और उसकी नज़रें गाओं के रास्ते पर टिकी हुई थी जैसे किसी की राह देख रहा हो या फिर किसी को जाते हुए देख रहा हो. उसने मूह में पान दबा रखा था. वो रास्ते की ओर देखते हुए बार बार ज़मीन पर पिचकारी छोड़ रहा था. ये बिरजू था. गाओं का सबसे छटा हुआ बदमाश, पैसे लेकर किसी के हाथ पावं तोड़ना, कमज़ोरो को धमकना, उसका पेशा था. वैसे वो औरतों का रसिया था. 18 साल की उमर से ही वो गाओं की कुँवारी लड़कियों का रस चूस्ता आया था. गाओं की कितनी ही लड़कियों और औरतों को वो अपनी टाँगो के नीचे लिटा चुका था. किसी को सपने दिखाकर तो किसी को बल पूर्वक, तो किसी को इतना मजबूर कर देता था कि वो खुद ही उसकी झोली में आ गिरती थी. गाओं के लोग उससे दूर ही रहते थे, उसकी दोस्ती और दुश्मनी दोनो ही दूसरे लोगों के लिए नुकसानदेह थी. इसीलिए कोई उसके खिलाफ बोलने से कतराता था. और फिर उसके सर पर गाओं के मुखिया का हाथ भी था. बिरजू उसके लिए काम करता था. वैसे तो मुखिया जी बहुत अच्छे इंसान थे, गाओं में सभी से उनके मधुर संबंध थे, पर जाने क्यों वो बिरजू के खिलाफ कुच्छ भी सुनना पसंद नही करते थे. जब कभी वो बिरजू के खिलाफ गाओं के किसी भी इंसान से कुच्छ सुनते तो उसी पर बरस पड़ते. गाओं वाले अपना सा मूह लेकर रह जाते.

बिरजू पिछ्ले 15 सालों में अनगिनत लड़कियों और औरतों का भोग लगा चुका था. लेकिन कुच्छ सालो से उसकी नज़र एक ही लड़की पर टिकी हुई थी, वो थी कंचन...! जब कभी वो उसके भरे-पूरे शरीर को झटके लेकर अपने पास से गुज़रते देखता, उसके अंदर का जानवर जाग उठता. उस वक़्त उसके मन में बस एक ही विचार आता - किसी भी तरह एक बार वो कंचन की सवारी कर ले. एक बार उसका गदराया शरीर भी भोग लगाने को मिल जाए. लेकिन कंचन के सपने देखना जितना आसान था उसे हासिल करना उतना ही मुश्किल था. कंचन बहुत ही अच्छी लड़की थी, वो जानता था कि राज़ी खुशी से वो कभी भी कंचन की जवानी का रस नही चूस सकता, और ज़बरदस्ती करने का मतलब था अपनी मौत को दावत देना. उसका बाप सुगना अपने ज़माने में बिरजू से भी बड़ा गुंडा हुआ करता था. बिरजू ने तो अभी तक लोगों के सिर्फ़ हाथ पावं तोड़े थे, पर सुगना ना जाने कितनी लाशे गिरा चुका था. लेकिन बिरजू के लिए कंचन तक पहुचने के रास्ते में यही एक काँटा नही था. अगर वो किसी तरह सुगना को रास्ते से हटा भी देता तब भी उसका कंचन तक पहुँचना लगभग नामुमकिन था. वजह थी निक्की, निक्की की दोस्ती कंचन की ढाल थी. पूरे गाओं के औरत मर्द में एक कंचन ही अकेली ऐसी थी जिसे हवेली में हर तरह का अधिकार हासिल था. वो नौकरों को आदेश दे सकती थी, जब तक चाहे हवेली में रह सकती थी, ठाकुर साहब उसे अपनी बेटी जैसी ही समझते थे. बिरजू जानता था कि कंचन के उपर हाथ धरने का सीधा सा अर्थ है ठाकुर के गिरेबान पर हाथ डालना. और ठाकुर के गिरेबान पर हाथ डालने का मतलब था उसकी मौत ! यही कारण था कि वो कंचन को बस दूर से ही देखकर अपनी प्यास बुझा लेता था. और फिर वो ये भी नही चाहता था कि ठाकुर उसकी असलियत जाने. अभी तक उसकी शिकायत ठाकुर साहब तक नही पहुँची थी. बिरजू के सताए लोग ये सोचकर की ठाकुर साहब 20 वर्षो से खुद दुखों में जी रहे हैं, उन्हे अपने दुख सुनकर उनके दुखों को और बढ़ाना ठीक नही है वे लोग खामोश होकर घर में बैठ जाते.

बिरजू वो मगरमच्छ बन गया था जो धीरे धीरे पूरे गाँव को चाट करता जा रहा था. लेकिन जो बात कंचन में थी वो किसी में ना थी. वो हर रोज़ उसे हासिल करने का कोई ना कोई मंसूबा बनाता पर ठाकुर का विचार आते ही उसके सारे मंसूबे धरे के धरे रह जाते. आज जब उसने कंचन को अकेले इस तरह भटकते देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. कंचन कभी भी अकेले इस तरह नही घूमती थी. लेकिन जब उसकी नज़र रवि की बाइक पर पड़ी तो उसकी जिग्यासा और बढ़ गयी कि कंचन किसी से तो मिलने आई थी. वो वहीं बाइक पर बैठकर उस आदमी का इंतेज़ार करने लगा था. वो अभी भी उसी रास्ते की और देख रहा था जिस और से कंचन गयी थी.

जैसे ही उसकी गर्दन सीधी हुई उसकी दृष्टि रवि पर पड़ी. रवि को देखते ही वो अपने काले दाँत दिखा कर हंसा.

रवि लापरवाही से अपनी बाइक के पास पहुँचा. उसने एक सरसरी निगाह से बिरजू को उपर से नीचे तक देखा फिर बोला - "मैने आपको पहचाना नही. आपका परिचय?"

बिरजू अब भी उसकी बाइक पर बैठा रहा, उसने उतना ज़रूरी नही समझा. उसने रवि को देखा और पान की पिचकारी ज़मीन पर मारी, उसका अंदाज़ ऐसा था जैसे उसने रवि पर थुका हो. फिर बोला - "बाबू जी बिरजू नाम है मेरा." उसने मूच्छों को ताव दिया - "रायपुर का बच्चा बच्चा मुझे जानता है. तीन गाओं में मेरे जैसा कोई पहलवान नही."

"बहुत खुशी हुई आपसे मिलकर" रवि ने उत्तर दिया - "अब कृपया करके मेरी बाइक से उठेंगे?"

"जी बिल्कुल....ये लीजिए उठ गये." वह मुस्कुराकर बोला - "मैं तो आपकी बाइक की रखवाली कर रहा था."

"रखवाली?" रवि ने आश्चर्य से उसे देखा.

"इस गाओं में कुच्छ लुच्चे घूमते रहते हैं, मौक़ा मिलते ही दूसरो की चीज़ पर हाथ साफ कर देते हैं. आपको इस लिए बता रहा हूँ क्योंकि आप हवेली के मेहमान हो."

"आपको कैसे मालूम कि मैं हवेली का मेहमान हूँ?" रवि अपनी बाइक पर बैठते हुए बोला.

"क्या कहते हो बाबूजी, अरे इस गाओं में कौन है जो आपको नही जानता." उसकी बातों में हँसी थी. -"हवेली में कोई आदमी आए और लोगों को मालूम ना हो ऐसा कभी नही हुआ. इस गाओं का हर इंसान जानता है कि आप डॉक्टर हो और ठकुराइन का इलाज़ करने आए हो."

"ओह्ह्ह....!" रवि के मूह से निकला.

"पर एक बात समझ में नही आई बाबूजी." बिरजू ने रवि को चुभती नज़रों से घूरते हुए बोला - "आप हवेली में ठकुराइन का इलाज़ करने आए हो, पर यहाँ अकेले में हमारी गाओं की लड़की के साथ क्या कर रहे थे?"

रवि सकपकाया. उसकी समझ में नही आया कि वो क्या कहे, अचानक पुछे गये इस सवाल से उसके हाथ पावं फूल गये. -"देखिए मेरा कंचन से कोई वास्ता नही, मैं घूमने के लिए इधर आया हुआ था, सयोगवश मेरी उससे मुलाक़ात हो गयी."

"आपको कैसे मालूम कि उसका नाम कंचन है." बिरजू की आवाज़ में पैनापन था.

रवि हड़बड़ा गया. दार की एक चिंगारी उसके शरीर में फैल गयी. उसका डर इसलिए नही था कि वो बिरजू से डर गया था. वो इस बात से डर रहा था कि कहीं उसकी वजह से कंचन गाओं में बदनाम ना हो जाए. - "वह खुद बताई थी." रवि हकलाते हुए बोला.

"अरे साहेब आप ज़्यादा टेन्षन मत लो, मैं तो मज़ाक कर रहा था." बिरजू ने फिर से अपने गंदे दाँत दिखा दिए.

रवि भी उत्तर में मुस्कुराकर रह गया. फिर अपनी बाइक स्टार्ट करके हवेली के रास्ते मूड गया.

बिरजू उसे जाते हुए देखता रहा. उसे रवि पर संदेह सा हो रहा था. उसे इस बात की चिंता हो रही थी कि, जिस लड़की को हासिल करने के लिए वो सालो से तड़प रहा है, उसे एक परदेशी ना हासिल कर ले. इस एहसास ने उसके मन का सुकून छीन लिया था कि कुच्छ देर पहले कंचन इस सुनसान जगह में उस शहरी के साथ अकेली थी. उसका मन तरह तरह की कल्पनाएं करके उसे डराए जा रहा था. उस डॉक्टर ने कचन के साथ क्या क्या किया होगा, कहीं ऐसा तो नही की कंचन उसके झाँसे में आ गयी हो और अपना जिस्म उसे भोगने के लिए दे दिया हो. इन गाओं की भोली लड़कियों का भरोसा नही, शहर के चिकने लोगो को बहुत जल्दी अपना दिल दे देती है. अगर ऐसा हुआ होगा तो मैं उन दोनो को जान से मार डालूँगा, मेरे होते कंचन की जवानी का रस कोई दूसरा नही पी सकता. मुझे तत्काल कुच्छ करना होगा.

वह सोचता रहा. रवि के बारे में अभी वो कुच्छ नही कर सकता था. हो सकता है कि रवि ठीक कह रहा हो, बिना सबूत के वो रवि पर हाथ नही धर सकता था. वो कुच्छ देर सोचता रहा फिर तेज़ी से मुखिया के घर की तरफ बढ़ गया. उसने सोच लिया था कि उसे क्या करना है. अब चाहें कुच्छ भी हो जाए. वो कंचन को हासिल करके रहेगा.

कुच्छ ही देर में बिरजू मुखिया के घर में था. इस वक़्त घर में सिर्फ़ मुखिया धनपत राई की पत्नी सुंदरी थी. उसकी अमर 35 साल के आस-पास होगी. सुंदरी बेहद आकर्षक और खूबसूरत महिला थी. 35 की उमर में भी वो 30 से अधिक की नही लगती थी. बस शरीर थोड़ा भारी था. बिरजू को देखते ही उसकी आँखों की चमक बढ़ गयी. - "आओ राजा....आज पूरे चार दिन बाद आए हो, कहाँ कहाँ मूह मारते फिर रहे हो आजकल?"

बिरजू ने सुंदरी के करीब जाकर उसे अपने गोद में उठा लिया और सीधा बेडरूम में घुस गया. बिस्तर पर पटकते ही उसके बड़े बड़े बूब्स को मसलना शुरू कर दिया. -"क्या कर रहे हो ज़ालिम? क्या आज जान लेने के इरादे से आए हो?" सुंदरी कराह कर बोली.

पर बिरजू के मन में गुस्सा सवार था. उसे ऐसा लग रहा था कि उसके सामने सुंदरी ना होकर कंचन लेटी हुई है, और वो उसे इस बात की सज़ा दे रहा है कि उसने किसी शहरी को अपना यार क्यों बनाया.
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07-25-2018, 11:10 AM,
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वह तेज़ी से सुंदरी को नंगा करता चला गया. उसके बदन से एक एक कपड़ा नोचने के बाद बिरजू उसके बूब्स पर टूट पड़ा वो उसके बूब्स को बुरी तरह चूसने मसल्ने लगा. सुंदरी को शुरू शुरू में दर्द हुआ पर अब धीरे धीरे उसे अच्छा लगने लगा. उसे बिरजू की आक्रामकता आज एक अलग ही मज़ा दे रही थी. उसकी एक एक हरकत से वो चीख उठती थी. उसका बदन बड़ी तेज़ी से पिघलता जा रहा था. उसकी योनि पानी छोड़ने लगी थी. बिरजू उसके बूब्स को चूसना छोड़ उसकी जाँघो तक आया और उसकी जाँघ को चुम्मने चाटने लगा. सुंदरी के मूह से कामुक आहें निकलने लगी. - "उफ़फ्फ़....आहह क्या कर रहे हो बिरजू? क्या हो गया है तुम्हे?"

बिरजू कुच्छ ना बोला अब उसने अपनी जीभ उसकी रस बरसाती योनि पर रख दी, और उसकी मलाई चाटने लगा. सुंदरी का शरीर धू-धू करके जलने लगा. सुंदरी भी आज कुच्छ ज़्यादा ही कामुक सिसकारियाँ निकाल रही थी. बिरजू कुच्छ देर उसकी योनि चाट लेने के बाद खड़ा हुआ और अपने कपड़े उतारने लगा.

सुंदरी बिस्तर पर उठ बैठी, और बलिहारी हो जाने वाली नज़रों से बिरजू को देखती रही, उसका फौलादी शरीर देखकर वो हमेशा ऐसी ही मस्त हो जाया करती थी. बिरजू के कपड़े उतरते ही उसने उसका लंड पकड़ लिया और सहलाने लगी. नर्म गर्म हाथों का स्पर्श पाकर उसका मर्दाना अंग फड़कने लगा. बिरजू देर ना करते हुए सुंदरी को बिस्तर पर गिराया, फिर उसकी टांगे चौड़ी करके अपना अंग-प्रहरी उसकी योनि द्वार पर टिका कर एक तेज़ धक्के के साथ उसकी गहराइयों में उतार दिया.

"आअहह....." सुंदरी के मूह से दबी दबी सी चीख निकली.

बिरजू ने उसकी दोनो टाँगो को पकड़ा और अपनी कमर का तेज़ धक्का देना शुरू कर दिया. उसका हर धक्का इतना शक्तिशाली होता था कि सुंदरी उसके हर धक्के से उपर सरक जाती थी.

लगभग 15 मिनिट उसकी सवारी करने के बाद बिरजू हाफ्ता हुआ उसके उपर गिरा.

सुंदरी उसे अपनी बाहों में भिचकर चूमने लगी. यूँ तो उसका और बिरजू का 15 वर्षों का संबंध था. पर आज जो उसने मज़ा दिया था, ऐसा मज़ा उसे आज से पहले कभी नही मिला था. वो बिरजू के बालों पर हाथ फेरते हुए उन पलो में खो गयी, जब वो दुल्हन बनकर इस घर में आई थी. उस वक़्त वो 20 साल की थी.शादी से पहले ही वो अनेको मर्दो से जवानी के मज़े लूट चुकी थी.

धनपत जी की ये दूसरी शादी थी, उस वक़्त उनकी उमर 35 के आस-पास होगी, पहली पत्नी से उनको एक लड़की थी. जिसका नाम धनपत जी ने अनिता रखा था. तब वो 5 साल की थी.

धनपत जी के घर में आते ही पहली ही रात को सुंदरी को ये एहसास हो गया था कि उसके पति में वो दम नही है जिसकी वो आदि हो चुकी थी, कुच्छ दिन तक तो वो शांत रही फिर अपनी नज़रें इधक़र उधर दौड़ने लगी. और एक दिन बिरजू पर ठहर गयी. बिरजू उस वक़्त 18 साल का था. उसका कसरती बदन शुरू से ही महिलाओं को आकर्षित करता था. सुंदरी ने उसे देखा तो उसके उपर डोरे डालने लगी, और एक दिन अकेले अपने घर में पाकर उसपर चढ़ बैठी. बिरजू को तो जैसे मूह माँगी मुराद मिल गयी हो, उसने जमकर उसकी चुदाई की, उस एक चुदाई ने सुंदरी को बिरजू का गुलाम बना दिया. उस दिन के बाद ये सिलसिला चल पड़ा.

एक दिन इन दोनो को मुखिया ने रंगे हाथों पकड़ लिया. बिरजू तो डर गया , पर सुंदरी उल्टे मुखिया पर बरस पड़ी. उसे धमकी दी कि अगर उसने बिरजू को यहाँ आने से रोका तो वो पूर गाओं में हल्ला कर देगी कि वो नामार्द है. उसकी बाते सुनकर मुखिया के होश उड़ गये. उन्होने सोचा भी नही था कि जिस औरत को अपना मान सम्मान बनाकर अपने घर ले जा रहे हैं वही औरत एक दिन उनके साथ ऐसा भी कर सकती है. वो विवशता के आँसू पीकर रह गये. वो नारी स्वाभाव से परिचीत हो गये थे, वो जान गये थे कि ये औरत अपनी काम वासना शांत करने के लिए कुच्छ भी कर सकती है. कुच्छ लोगों को अपनी इज़्ज़त अपनी जान से प्यारी होती है, मुखिया भी उन्ही लोगों में से एक थे. उन्होने उस दिन से उसे उसके हाल पर छ्चोड़ दिया. तब से लेकर आज तक बिरजू उनकी पत्नी के साथ चिपका हुआ था. और सुंदरी के ज़रिए ना जाने कितनी औरतों को लूट चुका था.

सुंदरी कुच्छ देर बिरजू के बालों को सहलाती रही फिर बोली - "आज तुम्हे क्या हो गया था रे? एक दम जानवर बन गये थे."

बिरजू बिस्तर पर उठ बैठा और उसके चेहरे को दोनो हाथों से भरकर चूम लिया - "तुम्हे बुरा लगा क्या? अगर ऐसी बात है तो फिर ऐसा नही करूँगा."

सुंदरी को आश्चर्या हुआ. उसने कभी बिरजू को इतना मीठा बोलते नही सुना था. वो बिरजू को चूमती हुई बोली - "नही राजा मुझे बुरा नही लगा. बल्कि आज तो मुझे वो मज़ा मिला है जो आज से पहले कभी ना मिला था."

"तू चाहती है कि मैं तुम्हे रोज़ ऐसे ही मज़ा दूँ?" बिरजू उसके बूब्स सहलाता हुआ बोला.

"ये भी पुच्छने की बात है? मैं तो इस मज़े के लिए कुच्छ भी कर सकती हूँ."

"सच कह रही है?" बिरजू ने उसे टटोला. -"कहीं मुकर गयी तो?

"जान दे दूँगी, पर इनकार नही करूँगी, बोल के तो देख." सुंदरी मचल कर बोली.

"तो फिर सुन....मुझे कंचन को अपने नीचे लेना है, लेकिन वो प्यार से मानने वाली लड़की नही है, हमें चालाकी और धोखे से काम करना होगा. लेकिन इसके साथ एक और काम हमें करना पड़ेगा. कंचन की बुआ शांता को अपने झाँसे में लेना होगा. अगर वो हमारे हाथ लग गयी तो समझ लो मुझे कंचन मिल गयी. तुम्हे शांता को अपने झाँसे में लेना है.....कैसे ये तुम जानो. मैं सिर्फ़ इतना बता दूं इस काम के लिए तुम्हारे पास समय बहुत कम है."

"कंचन का ख्याल छोड़ दे बिरजू, वो तेरे हाथ आने वाली नही है."

"तू वो कर जो मैने कहा है" बिरजू गुस्से में बोला - "मैं उसे किसी भी कीमत में हासिल करके रहूँगा. मेरे होते कोई और उसका रस पीए....ये मुझे मंज़ूर नही. अगर वो मेरी ना हुई तो किसी की भी ना होगी."

"ठीक है राजा, मैं अपना काम कर दूँगी." वो मुस्कुराकर बोली. और बिरजू को अपने उपर खींचकर गिरा दी.

वे दोनो फिर से एक दूसरे में समाते चले गये.

*****

कंचन इस वक़्त अपने घर में चारपाई पर उकड़ू बैठी हुई है. वो उन लम्हो में डूबी है, जब झरने के पास रवि से मिली थी. उसकी मष्टिसक में रवि के आत्मीयता से कहे गये शब्द घूम रहे हैं, उन्ही बातों को याद करके कभी उसके होठ मुस्कुरा उठते तो कभो वो उदास हो जाती.

वो सोच रही थी - आज कितना अच्छा मौक़ा था....साहेब से अपने दिल की बात कहने का. पर मैं मूर्ख क्यों ना कही उनसे. कह देती तो क्या हो जाता. उफ्फ उन्होने पुछा भी था....पर मैं सोचती रह गयी...और जो बोला भी तो क्या "जाइए...मैं नही बताती, आप बड़े वो हो." मैं ऐसी मूर्खों जैसी बात क्यों कह गयी?. अब साहेब क्या सोच रहे होंगे मेरे बारे में?. क्या साहेब अब भी वहीं होंगे? क्यों ना मैं वापस जाकर देखूं....शायद साहेब मिल जाएँ. लेकिन जो मैं उनसे फिर मिली तो साहेब क्या सोचेंगे? चाहें साहेब जो भी सोचे, पर इसी तरह उनसे मिलूंगी तभी तो वो मेरा हाल जानेगे. जो ना मिली तो वो कैसे जान पाएँगे कि मेरे दिल में क्या है?

"आए कंचन क्या हुआ है तुम्हे?" अचानक कंचन के कानो से आवाज़ टकराई तो वो चिहुनक-कर पलटी. नज़रें उठी तो देखा सामने बुआ खड़ी थी. और आश्चर्य से उसे देखे जा रही थी.

"कब से खड़ी देख रही हूँ, तू अपने आप हंस रही है, कभी खुद से झुंझला रही है, मैं सामने खड़ी हूँ पर तेरा ध्यान ही नही है मुझपर, सब ठीक तो है?" बुआ ने सवाल किया.

"नही....हान्ं....मैं....मुझे कुच्छ नही हुआ है, मैं ठीक हूँ." कंचन हक्लाई.

"हां....नही....मैं." बुआ हैरानी से कंचन के शब्द दोहराई. फिर कंचन को घुरती हुई बोली - "क्या बोल रही है तू? सॉफ सॉफ बोल. तू इस तरह उदास सी क्यों बैठी थी? तुझे कुच्छ तो हुआ है."

"कुच्छ भी तो नही हुआ है बुआ. मैं ठीक तो हूँ." कंचन बोली और कमरे से बाहर जाने लगी.

"अब कहाँ जा रही है? अभी तो बाहर से आई है तू....फिर से बाहर क्या करने जा रही है?" शांता बुआ उसे बाहर जाते देख बोली - "और आज तू स्कूल क्यों नही गयी?"

"स्कूल जाने को मन नही किया, कल चली जाउन्गि, अभी हवेली जा रही हूँ." ये कहकर वो तेज़ी से बाहर निकल गयी.

कंचन तेज़ी से चलती हुई उसी झरने के पास पहुँची, जहाँ पर वो रवि को छोड़ कर गयी थी. उसे ये उम्मीद थी कि शायद रवि अब भी वहीं हो.

वो उस जगह पर पहुँच कर अपनी निगाहें चारो तरफ दौड़ाने लगी. पर रवि को कहीं ना पाकर उसका दिल बैठ गया. वह एक बार फिर से इधर-उधर . मार कर रवि को ढूँढने लगी, पर जो था ही नही वो मिलता कैसे. वह निराश होकर एक पत्थेर पर बैठ गयी. घर से कितनी उमंगे लेकर आई थी, पर रवि को ना पाकर उसका मॅन भारी हो गया. अचानक से वो उठी और हवेली के रास्ते अपने कदम बढ़ाती चली गयी.
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07-25-2018, 11:10 AM,
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RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
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निक्की इस वक़्त अकेली हॉल में बैठी हुई थी, उसके हाथ में कोई पुस्तक थी, लेकिन वो पढ़ नही रही थी-बस एक सरसरी सी निगाह डालकर पन्नो को पलट-ती जा रही थी. उसका मॅन बेचैन था और वह उस पुस्तक से बहलाने की कोशिश कर रही थी. पर वो पुस्तक उसका मॅन बहला पाने में नाकाम हो रही थी. निक्की ने अंत में पुस्तक सेंटर टेबल पर लापरवाही से फेंकी और उठ खड़ी हुई. वह अभी खड़ी होकर कुच्छ सोच ही रही थी कि हॉल में कंचन दाखिल हुई. उसे देखते ही उसका सारा तनाव छट गया. बेचैन मॅन को एक राहत सी महसूस हुई.उसका सबसे प्यारा खिलोना जो आ गयी थी, वो चहक कर उसकी और बढ़ी. दोनो सहेलियाँ एक दूसरे की बाहों में समा गयी. फिर निक्की अलग होती हुई उसकी आँखों में झाँक कर बोली - "इतने दिन बाद क्यों आई? क्या तू भूल गयी कि मैं आई हुई हूँ."

"मेरा जी ठीक नही था. आज तो मैं स्कूल भी नही गयी." कंचन ने अपनी सफाई दी.

"क्यों तुझे क्या हुआ?" निक्की परेशान होकर बोली - "चल रूम में बैठते हैं." ये कहकर निक्की उसका हाथ पकड़कर अपने रूम में आ गयी. फिर उसे बिस्तर पर बिठाती हुई बोली - "अब बता क्या हुआ है तुझे? तेरा ये फूल सा चेहरा क्यों मुरझा गया है?"

"क्या बताऊ? मुझे खुद नही पता मुझे क्या हुआ है? बस कुच्छ दिनो से बड़ी विचित्र सी हालत हो गयी है." कंचन खोई खोई सी बोली.

निक्की उसका चेहरा ध्यान से देखती रही. फिर आगे बढ़ी और बिस्तर में उसके बराबर बैठ गयी. फिर उसके गले में अपनी बाहें डालकर उसके गालो को चूम ली.

कंचन के लिए ये कोई नयी बात नही थी. जब कभी निक्की को उसकी कोई बात अच्छी लगती थी, या उसे उसपर प्यार आता था तो वो ऐसे ही उसके गालो को चूम लिया करती थी. लेकिन सिर्फ़ गालो पर होंठो पर नही.

निक्की ने अपनी बाहों का घेरा हटाया फिर कंचन का चेहरा अपनी ओर करके बोली - "कंचन, क्या तुम्हे पता है...प्यार क्या होता है?"

कंचन उसकी बात पर शर्मा गयी. उसके मानस पटल पर बड़ी तेज़ी से रवि का चेहरा घूम गया. फिर निक्की को देखती हुई बोली - "मैं ज़्यादा नही जानती, बस इतना जानती हूँ कि जब किसी से प्यार हो जाता है तो बड़ी बुरी हालत हो जाती है, कभी तो सब चीज़ें अच्छी और नही लगने लगती है तो कभी कुच्छ भी अच्छा नही लगता. दिन और रात एक समान हो जाती है, ना रात को नींद आती है और ना दिन को चैन मिलता है. ना खाने पीने की सुध रहती है, ना पढ़ाई लिखाई में मॅन लगता है. हर घड़ी प्रेमी का चेहरा आँखों में घूमता रहता है. और मॅन हर समय उसी के ख्यालो में डूबा रहता है. और भी बहुत कुच्छ होता है. जो मैं नही जानती कि क्या होता है."

निक्की मुस्कुराते हुए कंचन की बातें सुन रही थी. जब कंचन रुकी तो उसने झट से उसके गालो को फिर से चूम लिया. फिर बोली - "तुम तो कह रही थी प्यार के बारे में थोड़ा जानती हूँ. क्या ये थोड़ा है?. अब और जानने को क्या रह गया है? इतना ग्यान तुम्हे कहाँ से मिला?" निक्की उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली - "कहीं तुम्हे भी किसी से प्यार तो नही हो गया? देख...मैं तो प्यार के बारे में एक ही सच जानती हूँ....ये प्यार दर्द और दुख के सिवा आज तक किसी को कुच्छ नही दिया. और मैं अपनी प्यारी सखी को दुखी नही देखना चाहती. इसलिए मैं तो यही कहूँगी की इस प्यार-व्यार के चक्कर में मत पड़ना."

निक्की की बात से कंचन ने एक लंबी आह भरी फिर मॅन में बोली - "अब तो देर हो चुकी है निक्की, तूने बताने में बहुत देर कर दी. अब तो तेरी ये सखी प्यार में पड़ चुकी है, और दुखी भी है. पर ये दुख बड़ा मीठा है, तेरी इस सखी को तो इस दुख से भी प्यार हो गया है." कंचन के होठ मुस्कुरा उठे.

"अरे क्यूँ मुस्कुरा रही है? हुआ क्या है तुझे?" निक्की उसको मॅन ही मॅन मुस्कुराते देख बोली - "सच बता नही तो मारूँगी."

"मुझे कुच्छ नही हुआ है निक्की." कंचन असली बात छुपा गयी, वो अभी अपने दिल का हाल निक्की को नही बताना चाहती थी. उसे तो अभी ये भी नही मालूम था कि रवि के मन में क्या है, क्या पता वो उसे स्वीकार ही ना करें, ऐसी दशा में उसकी जगह हसी भी हो सकती थी. वो नही चाहती थी कि उसके साथ निक्की भी दुखी हो. वह आगे बोली - "मैं तो यूँही तेरी बात सुनकर मुस्कुरा उठी थी.

"चल अब खड़ी हो जा" निक्की, कंचन को शरारत से देखती हुई बोली - "और अपने कपड़े उतार."

"क्यों...?" कंचन कांपति आवाज़ में बोली.

निक्की मुस्कुराइ. उसे कंचन की इस हालत पर बहुत तेज़ हसी आ रही थी, पर खुद को रोके रखी, फिर बोली - "मेरी जान, ये कपड़े नही उतारेगी तो मेरे लाए कपड़े कैसे पहनेगी?"

"ना...! मैं वो कपड़े ना पहनुँगी." कंचन तपाक से बोली और बिस्तर से उठ खड़ी हुई. वह सोच रखी थी कि निक्की ज़िद करेगी तो वो तुरंत दरवाज़े से भाग जाएगी.

पर निक्की ने तो आज उसे अपने लाए कपड़े पहनाने का पूरा मॅन बना लिया था. वो पलक झपकते ही कंचन तक पहुँची और उसके कपड़े उतारने लगी.

कंचन उससे छूटने का प्रयास करती रही. लेकिन निक्की नही मानी और पहले उसने उसकी पाजामी का नाडा. खींच दिया, कंचन का हाथ अपनी पाजामी की ओर गया तो निक्की ने उसकी कुरती को उपर करती चली गयी. कंचन ने लाख कोशिशे की पर निक्की के आगे टिक ना सकी. कुच्छ ही देर में वो सिर्फ़ ब्रा और पैंटी पहने खड़ी थी. कंचन का बुरा हाल था, जीवन में पहली बार वो किसी के सामने इतनी नंगी हुई थी. निक्की लड़की ही सही पर फिर भी उसके सामने ऐसी हालत में होने से शर्म से गाड़ी जा रही थी. वो एक हाथ से अपनी छातियाँ और दूसरे हाथ से अपनी पैंटी को ढकने का असफल प्रयास कर रही थी.

निक्की ने चमकती आँखों से उसके मांसल और गदराए शरीर को उपर से नीचे तक देखा फिर अपने होठों को गोल करके एक खास अंदाज़ में सीटी बजाई. उसका अंदाज़ ठीक वैसा ही था जैसे राह चलती लड़कियों को देखकर आवारा किस्म के लोग सीटी बजाते हैं.

कंचन ने उसकी सीटी की आवाज़ से बड़ी मुश्किल से गर्दन उठाकर उसपर नज़र डाली. उसी क्षण निक्की ने अपनी एक आँख दबा दी. फिर कामुक आवाज़ में बोली - "हाई मेरी जान, क्या कातिल जवानी है तेरी, तेरे इस रूप को कोई मर्द देख ले तो खड़े खड़े ही उसकी....!" उसने आगे की बात अधूरी छोड़ दी. फिर बोली - "चल अपनी चूचियों से अपने हाथ हटा और अपने बूब्स दिखा."

"छ्ची....!" कंचन हल्के गुस्से में बोली - "तू बहुत बिगड़ गयी है निक्की, कितनी गंदी बाते करने लगी है. अगर तू ऐसी ही बाते करेगी तो मैं कसम से फिर हवेली नही आउन्गि."

निक्की इस बार गंभीर हुई. - "सॉरी कंचन, अब से नही करूँगी. पर अब मेरे लाए कपड़े पहन ले. और खबरदार जो फिर कभी हवेली ना आने की बात की तो......मारूँगी तुझे."

निक्की की बात से कंचन का गुस्सा भी गायब हो गया. और वो बारी बारी से उसके लाए कपड़े पहनती रही, कपड़े इतने फॅशनबल थे कि कंचन को बंद कमरे में भी पहनकर शर्म महसूस हो रही थी. पर निक्की प्यार से उसके लिए लाई थी इसलिए वो इनकार भी ना कर सकी.कंचन जो भी ड्रेस पहनती....पहनने के बाद उसे रवि का ख्याल आ जाता, और वो सोचती - अगर रवि उसे इन कपड़ों में देखेगा तो सच में उसपर लट्टु हो जाएगा.

कुच्छ देर यूँही कपड़े पहनने और पहनने का सिलसिला चलता रहा. निक्की, कंचन को इन कपड़ों में देखकर फूले नही समा रही थी, पर कंचन का ध्यान उसकी खुशी में कहाँ था? वो तो रवि के ख्यालो में थी, वो बार बार किसी ना किसी बहाने से रूम से बाहर आती और बिना कारण ही नौकरों को उँची आवाज़ में कुच्छ ना कुच्छ लाने को कहती....! उसे ना तो भूख थी और ना ही प्यास...पर फिर भी नौकरों से कभी पानी मांगती तो कभी चाय तो कभी कुच्छ खाने की चीज़ें. उसके ऐसा करने का मक़सद रवि के कानो तक अपनी आवाज़ पहुँचानी थी. एक घंटे में वो काई बार अंदर बाहर हो चुकी थी. पर रवि के कानो तक उसकी आवाज़ नही पहुँची और ना वो बाहर आया. अब कंचन के अंदर निराशा ने डेरा ज़माना शुरू कर दिया था. वो उदास होती चली गयी. वो यहाँ किस काम से आई थी और क्या करने लग गयी. उसे रवि से ऐसी बेरूख़ी की उम्मीद नही थी. बस एक झलक देखने के लिए उसकी नज़रें उसके दरवाज़े की ओर बार बार जा रही थी. पर उसे निराशा के सिवा कुच्छ भी नही मिल रहा था. उसका दिल भारी हो गया. आँख से आँसू छलकने को आए पर निक्की का ध्यान करके रोके रखी.

अचानक ही उसके दिल ने कहा - हो सकता है साहेब हवेली लौटे ही ना हो, हो सकता है साहेब अभी भी उधर ही घूम रहे हो....और ये भी हो सकता है कि शायद वो मेरी राह देख रहे हों. "आहह" शायद ऐसा ही हुआ होगा. मुझे यहाँ आना ही नही चाहिए था. तो फिर मैं निक्की को बोलकर वापस जाती हूँ. शायद साहेब मुझे मिल जाए.

'डूबते को तिनके का सहारा' यहाँ ये कहावत कंचन पर लागू होती है. उसका मॅन हर तरफ से टूट चुका था पर फिर भी हारा नही था, उसे अब भी ये बिस्वास था कि वो रवि से ज़रूर मिल सकेगी. और उसे अपने दिल का हाल बताएगी. यही सोचते हुए वो वापस निक्की के कमरे में लौटी और उससे घर जाने की बात कह कर हवेली से बाहर निकल आई. और दिल में अपने साहेब से मिलन की आस लिए उबड़ खाबड़ पथरीले रास्तों को छलांगती तेज़ी से घाटियों की ओर भागती चली गयी.
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07-25-2018, 11:11 AM,
#16
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
बिरजू ने जैसे ही मुखिया के घर के दरवाज़े के बाहर कदम रखा....उसे मुखिया धनपत राई आते दिखाई दिए. उनके साथ उनकी बेटी अनिता थी.

अनिता इसी साल 20 की हुई थी. तीखे नयन नक्श थे. लंबा कद और गठिला गोरा बदन था उसका. बाल काले और कमर तक झूलते हुए थे. वह अपने बालो में जुड़ा करने की आदि नही थी. हमेशा खुले रखती थी. उसके बूब्स पूरे उभार लिए हुए और ठोस थे. उन्हे देखकर कोई भी इंसान आहें भर सकता था. पेट समतल और कमर पतली थी. लेकिन उसके नितंब बेहद आकर्षक और उभरे हुए थे. वो हमेशा कुर्ता पाजामा ही पहनती थी. नितंबो के बीच की दरार इतनी गहरी थी कि अक्सर उसकी कुरती उन्ही दरारों में फसि रहती थी. कमर ऐसे बलखाती थी कि देखने वालों के मूह से अनायास ही गर्म आहें फुट पड़ती थी. कुल मिलकर ये कहा जाए कि उसमे जवानी छन्कर आई थी. बिरजू की भूखी निगाहें अक्सर उसकी जवानी को छुप छुप कर पिया करती थी. पर बिरजू के लिए अनिता वैसी ही थी जैसे अंडे देने वाली मुर्गी. वो जानता था कि अगर उसने इस मुर्गी को खाया तो आगे से उसे अंडे खाने के लाले पड़ जाएँगे. उसने ढेर सारे अंडे खाने के ग़र्ज़ से इस मुर्गी को बख़्श रखा था.

बिरजू पर नज़र पड़ते ही मुखियाँ के माथे पर बल पड़ गये. कुच्छ देर पहले बेटी के साथ होने से जो खुशी उनके चेहरे पर फैली हुई थी वो क्षण भर में गायब हो गयी. उन्होने घृणा से अपना मूह फेर लिया. पर बिरजू के लिए तो मुखिया का घृणा भी आशीर्वाद ही था. जैसे ही मुखिया जी पास आए उसने नमस्ते कहने के लिए हाथ जोड़ दिए. - "नमस्ते मुखिया जी." वो मक्कारी हँसी हंसा.

"तू....इधर क्या करने आया है?" मुखिया जी सब जानते हुए भी कि बिरजू क्यों आया है, अपनी बेटी की उपस्थिति का ध्यान कर गुस्से में भड़के.

उनका भड़कना दिखावा था. लेकिन उनका गुस्सा सच था. वो सच में बिरजू के साए से भी नफ़रत करते थे.

"सब कुच्छ जानते ही हैं मुखिया जी फिर भी पुच्छ रहे हैं." बिरजू ने अपने दाँत दिखाए - "बरसो से एक ही काम करने आता हूँ, और किस लिए आउन्गा." उसने अपनी बात पूरी करते हुए अनिता को उपर से नीचे तक घूरा.

अनिता ने बिरजू के इस तरह देखने पर ध्यान नही दिया. पर मुखिया जी से उसकी गंदी निगाहें छुपि ना रह सकी. अपने सामने अपनी बेटी को घूरते पाकर मुखिया जी की आँखों में बिरजू के लिए खून उतर आया. मन में आया अभी इसी वक़्त वो बिरजी की आँखें निकाल ले. पर वो केवल सोच सकते थे और सोचकर ही रह गये.

बिरजू मुखिया जी के गुस्से का अनुमान लगाकर एक धूर्त मुस्कान छोड़ता वहाँ से निकल गया.

****

रवि इस वक़्त हवेली में अपने कमरे में बिस्तर पर पसरा हुआ था. उसके ज़हन में भोली कंचन का चेहरा घूम रहा था. आज घाटियों में कंचन से संयोगवश हुई मुलाक़ात....एक सुंदर हादसे में बदल चुकी थी. वो ना चाहते हुए भी कंचन के बारे में सोचता जा रहा था. लाख कोशिशों के बावज़ूद भी वो कंचन की भीगे आँखें और उतरा हुआ चेहरा नही भुला पा रहा था. वह सोच रहा था - क्यों ये लड़की आज उदास थी, और मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि उसके दुख का मैं ही ज़िम्मेदार हूँ, लेकिन मैने तो उसके साथ कुच्छ नही किया, क्या नदी वाली बात उसे इतनी बुरी लगी. अगर वो इतनी ही कोमल है तो मेरे कपड़े जलाए ही क्यों? पर ये भी तो हो सकता है कि उसने किसी के दबाव में आकर मेरे कपड़े जलाएँ हो. लेकिन किसके....?" उसके मंन ने सरगोशी की, तभी उसके ज़हन में एक और चेहरा उभरा - निक्की, शायद निक्की ने उसे ऐसा करने पर मजबूर किया हो या फिर निक्की ने ही उसके कपड़े जलाए हों और कंचन के हाथो मुझ तक भिजवाई हो. निसंदेह ऐसा ही हुआ होगा. बेचारी कंचन.....शायद ये भी नही जानती होगी कि जो कपड़े वो मेरे पास लेकर आ रही है वो जले हुए हैं. मैं कितना बड़ा मूर्ख हूँ.....बिना सच जाने एक उस भोली कंचन का दिल दुखा दिया. शायद यही कारण है कि वो उदास थी. ऊफ्फ ये मैने क्या किया. मैने उसके बारे में कितना ग़लत सोचता था. और अब वो ना जाने मेरे बारे में क्या सोचती होगी. कितनी नफ़रत करती होगी मुझसे. लेकिन आज जब वो झरने के पास मिली तब तो उसकी आँखों में मेरे लिए नफ़रत नही थी, बल्कि उसकी आँखें एक उम्मीद एक आस लिए हुए थी....जैसे वो मुझसे कुच्छ चाहती हो. लेकिन क्या? वो मुझसे क्या चाहती है? कहीं ऐसा तो नही की वो मुझसे प्यार करने लगी है, लेकिन नही वो मुझसे प्यार करेगी? मैने उसका इतना अनादर किया उसे नदी में अपमान करना चाहा......ऐसे में तो वो मुझसे नफ़रत कर सकती है... प्यार नही. वो इतनी मूर्ख नही कि अपने दिल को दुखाने वाले से दिल लगाए.

रवि काफ़ी देर तक कंचन के बारे में सोचता रहा और फिर सोचते सोचते नींद की गहराइयों में खो गया. इस दरम्यान कंचन आई भी और चली भी गयी. लेकिन वो ना जान सका कि वो पगली उसके प्यार में भटकती उसे ढूँढती फिर रही है.
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07-25-2018, 11:11 AM,
#17
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
कंचन बेतहासा भागती हुई उसी झरने के निकट पहुँची. उसने अपनी प्यासी निगाहें चारो तफ़ दौड़ाई. पर रवि कहीं भी दिखाई नही दिया. एक बार उसका मन चाहा कि वो "साहेब" कहकर ज़ोर ज़ोर से पुकारे, अगर रवि यही कहीं होगा तो ज़रूर उसकी आवाज़ सुनकर बाहर निकल आएगा. लेकिन अगले ही पल इस विचार से कि किसी और ने उसे इस तरह पुकारते देखा तो उसकी बड़ी बदनामी होगी उसके होठ सील गये. वो अपने प्रीतम का नाम पुकार ना सकी. वो इधर उधर घूमती उसे ढूँढती रही. जहाँ कहीं भी उसके होने की संभावना होती वहाँ ढूँढने लगती. ज़रा सी भी कहीं किसी पत्ते की सरसराहट होती या छिप्कलियो के चलने से कोई आवाज़ आती वो ऐसे खुशी से पलट-ती जैसे उसके साहेब उसके पिछे खड़े उसे देख रहे हों. काफ़ी देर तक भटकने के बाद भी जब रवि ना मिला तो वो वहीं एक पत्थेर पर बैठ गयी. इस वक़्त उसका मन रोने को कर रहा था, दिल चाह रहा था कि वो फुट फुट कर रोए. कैसी बुरी हालत हो गयी थी उसकी, जो लड़की हमेशा हँसती मुस्कुराती रहती थी, आज उसके होंठो से वो मुस्कुराहट गायब हो चुकी थी. वो अपने आप को कोस रही थी कि क्यों उसने ऐसे इंसान से दिल्लगी की जिसे उसकी तनिक भी परवाह नही. वो मन में बोली - "तू मूर्ख है कंचन, जो तू उस निर्दयी का इंतेज़ार कर रही है. भूल जा उसे और जो तू उसे ना भूली तो फिर जीवन भर तू ऐसे ही तड़पति रहेगी, आख़िर तू एक साधारण सी गाओं की लड़की है और वो शहर का पढ़ा लिखा बहुत बड़ा डॉक्टर है. तेरे जैसी लड़की के लिए उसके दिल में कोई स्थान हो भी तो कैसे. उसके लिए एक से एक पढ़ी लिखी शहरी लड़की पड़ी होगी, फिर वो तुमसे क्योन्कर प्यार करेगा. तू उसके लायक नही है कंचन, तू उतना ही बड़ा ख्वाब देख जो तेरी औकात है. धरती और आकाश का मिलन ना कभी हुआ है और ना होगा. उससे दिल लगाके तुझे दुख के सिवा कुच्छ ना मिलेगा. अब भी वक़्त है लौट जा अपने रास्ते."

"तो क्या सच में मुझे साहेब कभी नही मिलेंगे, क्या सच में मेरे सचे प्रेम का कोई महत्‍व नही, क्या सच में साहेब मुझे अपनी पत्नी स्वीकार नही करेंगे. क्या वास्तव में दौलत ही सब कुच्छ है, मैं जो इतना टूटकर उन्हे चाहती हूँ इसका कोई मोल नही है."

कंचन ये सोचते हुए फफक कर रो पड़ी. वह अपने चेहरे को अपने हथेलियों में ढके हुए सिसक पड़ी. उसका दिल इस एहसास से दुखी हो उठा था कि वो ग़रीब है, और इसी ग़रीबी की वजह से रवि उसे नही अपनाएगा. वो मूह छिपाए रोती रही. कुच्छ देर बाद जब उसकी रुलाई रुकी तो वो अपने मन में बोली - "ठीक है साहेब, मैं जा रही हूँ, आज के बाद मैं कभी आपकी राह नही देखूँगी, मैं कभी आपके लिए अपना दिल नही जलाउन्गि. मेरी आँखें अब कभी आपकी याद से नम नही होंगी. मैं अब कभी आपसे प्यार नही करूँगी."

कंचन अपने आँसू पोछती हुई उठी और घर जाने के लिए पलटी. तभी वो ऐसे चौंकी जैसे उसने दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य देख लिया हो. उसकी आँखें हैरत से फैलती चली गयी. उसकी आँखें उसे जो कुच्छ दिखा रही थी उसपर उसे यकीन नही हो रहा था. उसके सामने रवि खड़ा था, और खड़े खड़े उसे एक टक्क देखे जा रहा था.
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07-25-2018, 11:11 AM,
#18
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
"आप...." कंचन के मूह से आश्चर्य और खुशी मिश्रित स्वर फूटे. रवि को अपने सामने पाकर उसे ऐसा लगा जैसे ईश्वर ने उसका रोना सुन लिया और उसके प्रेम देवता को उसके पास भेज दिया. उसकी आँखें जो कुच्छ देर पहले विरह से गीली हो गयी थी, अब खुशी से छलक पड़ी थी. उसके मोटी जैसे आँसू धूलक कर उसके गालो में फैल गयी थी. वो अपनी उन्ही गीली आँखों से रवि को देखती रही, जो मन कुच्छ देर पहले उससे दूर भागने की, उससे ना मिलने की, उससे कभी प्यार ना करने की बात कर रहा था अब उसकी और खिंचता जा रहा था. उसका दिल चाहा कि वो आगे बढ़े और रवि से लिपट जाए. पर वो ऐसा करने की साहस ना दिखा सकी. हां उसके चेहरे पर अब खुशी की जगह थोड़ी नाराज़गी उभर आई थी. वह अपनी गर्दन को झटकी और गुस्से से वहाँ से जाने लगी.

जैसे ही वो रवि के पास से होते हुए आगे बढ़ी रवि भी तेज़ी से पलटा. तभी रवि के पावं के नीचे पड़ा छोटा पत्थेर खिसक गया. पत्थेर खिसकते ही उसका पावं फिसला और वो लड़खड़ा कर गिरा. गिरते ही उसका शरीर तेज़ी से खाई की ओर फिसलता चला गया.

कंचन ने जैसे ही उसके गिरने की आवाज़ सुनी-तेज़ी से पलटी. रवि को खाई की ओर गिरते देख वो चीखी - "सा......साहेब."

रवि को बचाने के लिए वो खाई की और भागी, दूसरे ही पल वो खाई के किनारे खड़ी थी. उसने रवि पर नज़र डाली. रवि एक पत्थेर को थामे लटका हुआ था. उसका एक पावं किसी पत्थेर का सहारा लिए हुए था तो दूसरा पावं हवा में झूल रहा था. उसके ठीक नीचे गहरी खाई थी.

कंचन ने रवि को इस प्रकार मौत के झूले में झूलते देखी तो उसकी साँसे जहाँ की तहाँ अटक गयी. वो भय से थर थर काँप उठी. वह उसे बचाने के उपाय सोचने लगी. पहले तो उसने अपनी गर्दन उठाकर किसी आदमी की तलाश में चारो तरफ अपनी नज़रें दौड़ाई, लेकिन सांझ के वीराने में उसे कोई भी दूर तक दिखाई नही दिया. निराश होकर उसकी दृष्टि वापस रवि की तरफ घूमी. रवि अभी भी उठने का प्रयास कर रहा था.

अचानक ही कंचन को एक युक्ति सूझी, वो झट से अपने गले में लिपटे दुपट्टे को खींची और उसके आगे पिछे गाँठ बाँधकर रवि की ओर फेंक दी. -"इसे पाकड़ो साहेब."

"नही....!" रवि इनकार में गर्दन हिलाया. -"इस तरह तो तुम भी नीचे आ जाओगी."

"मुझपर भरोसा रखो साहेब, मैं आपको कुच्छ नही होने दूँगी." कंचन धृड़ता से बोली -"आप मेरे दुपट्टे को पकड़कर उपर उठने की कोशिश करो."

रवि ने वैसा ही किया एक हाथ से उसके दुपट्टे को थाम लिया और दूसरे हाथ से पत्थेर का सहारा लेते हुए धीरे धीरे उपर उठने लगा.

कंचन गाओं की मिट्टी खाकर पली थी. वो तनिक भी ना घबराई और अपनी पूरी शक्ति से रवि को उपर खींचती रही. कुच्छ ही देर में रवि उपर आ गया. वो हाफ्ता हुआ खड़ा हुआ. फिर उसने कंचन पर निगाह डाली. कंचन पसीने से लथपथ गुस्से से उसे घुरे जा रही थी. रवि कुच्छ कहने के लिए मूह खोला ही था कि कंचन गुस्से में बोली - "इतनी गहरी खाई के नज़दीक खड़े होने की क्या ज़रूरत थी? क्या सोचे थे आप कि ये खाई नही किसी खेत का मेड है......गिरे तो कुच्छ ना होगा. अगर आज मैं ना होती तो पता नही आपका क्या.....? दूसरों की ना सही कम से कम अपनी तो परवाह किया करो, अगर आपको कुच्छ हो जाता तो?"

रवि हक्का बक्का कंचन को देखता रहा, वो गुस्से से लाल पीली हो गयी थी. ऐसा लगता था जैसे अभी वो रवि की धुलाई कर देगी. वो उसे ऐसे डाँट पीला रही थी जैसे वो उसके घर का नौकर हो, और उसने कोई बहुत बड़ी नादानी कर दी हो. उसने कंचन का ऐसा रूप पहले कभी नही देखा था. हमेशा शांत और छुइ-मुई सी रहने वाली लड़की इस वक़्त शेरनी का रूप धारण कर चुकी थी. उसके मूह में जो भी आ रहा था रवि को सुनाती जा रही थी. गुस्से से उसका चेहरा लाल भभुका हो गया था, आँखें भट्टी की तरह सुलग उठी थी. साँसे इस क़दर तेज़ हो गयी थी जैसे वो मीलो पैदल चल आई हो. उसका सीना ज़ोर ज़ोर से उपर नीचे हो रहा था. रवि किसी अपराधी की तरह चुप चाप खड़ा उसकी झिड़की सुनता रहा.

कुच्छ देर बाद जब उसका गुस्सा शांत हुआ तो वह चुप हुई. रवि अभी भी हक्का बक्का उसे देखता जा रहा था. उसके हाथ में अभी भी कंचन का दुपट्टा था जिसे वो मसल्ते हुए अपनी घबराहट को दूर करने का प्रयास कर रहा था. कंचन की छातियाँ बिना दुपट्टे के उसके सामने तनी खड़ी थी. और गुस्से की अधिकता में उपर नीचे हो रही थी. रवि कुच्छ देर उसके पसीने से भीग चले चेहरे को देखता रहा फिर बोला - "तुम किस अधिकार से मुझे इस तरह डाँट रही हो? ये मेरी ज़िंदगी है....मैं चाहें जो करूँ......मेरी मर्ज़ी मैं चाहें कुएँ में कुदू या किसी पहाड़ की चोटी से छलाँग लगाऊ......तुम होती कौन हो मुझे नशिहत देने वाली?" रवि उसकी मनोदशा से परिचीत था. फिर भी उसका मन टटोलने के लिए झूठ मूठ का गुस्सा दिखाया.

कंचन के होंठ काँपे. वो कुच्छ बोलना चाही पर बोल ना सकी. उसने बोझील नज़रों से रवि को देखा. फिर अपनी नज़रें झुका ली.

"बोलो जवाब दो." रवि ने फिर से सवाल किया. - "तुम क्या समझकर मुझे इस तरह डाँट रही थी? मेरी इतनी फिक़र करने वाली तुम होती कौन हो?"

कंचन ने फिर से अपनी निगाहें उठाई और रवि के चेहरे पर डाली. उसके मन में आया कि कह दे कि वो उससे प्यार करती है, उसकी जीवन संगिनी बनना चाहती है, उसके बगैर वो जी नही सकेगी, उसे कुच्छ हुआ तो वो भी मर जाएगी. पर मन के अंदर उठती भावनाओ को वो बाहर ना ला सकी. चुप चाप अपनी गीली आँखों से रवि को देखती रही.

"क्या तुम मुझसे प्यार करती हो?" रवि उसकी खामोशी का अनुमान लगाकर बोला. -"क्या इसीलिए मेरी फिक़र करती हो कि मुझे कुच्छ हो गया तो तुम जी नही पाओगि? अगर ऐसा है तो मुझसे कहती क्यों नही कि तुम मुझसे प्यार करती हो."

"सा......साहेब....!" कंचन भर्राये गले से बस इतना ही बोल सकी और फफक कर रो पड़ी.

रवि ने अपने हाथ बढ़ाए और उसके चेहरे को दोनो हाथों से थाम लिया. फिर बोला - "क्यों छुप छुप कर रोती रहती हो? एक बार कहा क्यों नही कि तुम मुझसे प्यार करती हो?"

"साहेब......!" वो हिचकी लेकर बोली - "मा.....मैं आपसे बहुत प्यार करती हूँ साहेब. मैं आपके बगैर नही जी सकती साहेब. मुझे अपना लो साहेब, मैं आपकी हर बात मानूँगी साहेब, आप जो कहोगे मैं करूँगी. जैसे रखोगे रहूंगी. कम खाना खाउन्गि, घर के सारे काम करूँगी. मगर मुझे अपना लो साहेब." ये कहते हुए कंचन ने रवि के आगे अपने हाथ जोड़ दिए.

रवि ने उसके हाथों को पकड़कर चूम लिया. फिर बोला - "मुझे तुमने क्या पत्थेर का इंसान समझा है कंचन, क्या मेरे सीने में दिल नही है, जो तुम्हारे बेपनाह प्यार के बदले में तुमसे घर के काम करवाउँगा. तुम्हे कम खाना खिलाउँगा. नही कंचन.....मैं तो तुम्हे सदेव अपने दिल में बसाकर रखूँगा. सदेव अपने दिल में. क्योंकि मैं भी तुमसे प्यार करता हूँ. दुनिया की कोई ताक़त तुम्हे मेरे दिल से नही निकाल सकती."

"साहेब...!" कंचन इस खुशी को संभाल ना सकी और बेसाखता उसकी छाती से लिपट गयी.

रवि भी कस्के उसे अपनी बाहों में जाकड़ लिया. दो दिल एक हो गये. कंचन को रवि की बाहों में सिमटकर यूँ महसूस हुआ जैसे उसे सारी दुनिया मिल गयी हो. वो अपनी बाहों का घेरा और मजबूत करती चली गयी. उसे इस वक़्त जो खुशी महसूस हो रही थी, वो मैं शब्दो में बयान नही कर सकता. वो उस पक्षी की तरह थी जो रेगिस्तान में पानी की एक बूँद के लिए भटकता फिरता है पर उसे पानी नही मिलता. और जब मिलता है तो उसके प्यासे मन को जो खुशी मिलती है वही खुशी इस वक़्त कंचन महसूस कर रही थी. आज उसके प्यासे मन को पानी की एक बूँद नही बल्कि पूरा सागर मिल गया था. वो उस सागर की गहराइयों में खो जाना चाहती थी और खो भी गयी थी.
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07-25-2018, 11:12 AM,
#19
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
अपडेट 19

काफ़ी देर तक दोनो लता बेल की तरह एक दूसरे से लिपटे एक दूसरे के दिल की धड़कनो को सुनते रहे. कंचन तो जैसे इस वक़्त सारे संसार को भुला बैठी थी. उसे इस वक़्त जो सुख रवि की बाहों में होने से मिल रहा त्ता, वो उसने इससे पहले कभी महसूस नही किया था.

कुच्छ देर यूँही लिपटे रहने के बाद रवि ने धीरे से उसे पुकारा - "कंचन."

रवि ने बड़े प्यार से उसे पुकारा था. उसकी आवाज़ जब कंचन के कानो से टकराई तो उसने अपनी बंद पलकें खोली और रवि के चेहरे पर अपनी दृष्टि जमा दी. - "बोलो साहेब."

रवि ने उसके चेहरे को दोनो हाथों में भर लिया और गौर से देखने लगा. कंचन के गालों में बहे आँसू के गीले निशान अब भी मौजूद थे. उसने एक हाथ से उसके गालो में बहे आँसुओ को पोछा. फिर कंचन से बोला - "मुझे माफ़ कर दो. मैने तुम्हे अंजाने में बहुत कष्ट दिया है ना. मैं यहाँ काफ़ी देर से तुम्हारे पिछे खड़ा तुम्हारी बड़बड़ाहट और तुम्हारा रोना सुन रहा था. मुझे नही पता था कि तुम मुझसे इतना प्यार करती हो"

"सीसी....क्या?" "कंचन चौक्ते हुए बोली - "आप मेरे पिछे मेरी बाते सुन रहे थे. जाइए मैं आपसे बात नही करती." कंचन ने अपने मूह फूला लिया.

"ग़लती हो गयी, अब मुस्कुरा दो." रवि उसका चेरा अपनी ओर करके बोला.

कंचन उसकी बात पर धीरे से मुस्कुराइ.

"अब सदा ऐसे ही मुस्कुराती रहना. मैं अब इन आँखों में फिर से आँसू नही देखना चाहता." रवि मुस्कुराकर उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला.

"साहेब मुझे कभी छोड़ के तो नही जाओगे ना." कंचन गंभीर होकर बोली - "आप नही जानते साहेब, मैं आपके लिए कितना तदपि हूँ. रात-रात भर जागी हूँ, आठो पहर रोती रही हूँ."

"आहह.....ये तुमने क्या कह दिया कंचन." रवि तड़प कर बोला - "मैं संगदिल नही हूँ कंचन. मैं तुम्हे छोड़ कर कहीं नही जाउन्गा. मुझे तुम्हारी ज़रूरत है. बरसो से मैं भी इस सच्चे प्यार की तलाश में भटक रहा था. आज तुम्हारे रूप में मिला है तो भला कैसे छोड़ सकता हूँ. तुमसे ज़्यादा प्यार करने वाली तुमसे अधिक सुंदर मुझे और कहाँ मिलेगी. मैं आज ही मा को ये खबर दे देता हूँ की मैने उनके लिए बहू पसंद कर लिया है. वो जल्दी से आकर अपनी बहू को देख ले. आपकी बहू दुल्हन बनने के लिए बहुत उतावली हो रही"

रवि की बातों में अचानक आई शरारत से कंचन शरमा गयी. वो शरमाते हुए अपना मूह घुमा कर बोली - "धत्त...! मैं क्यों उतावली होंगी. मैं तो जन्म-जन्मान्तर तक अपने साहेब का इंतेज़ार कर सकती हूँ."

"ये तुम मुझे साहेब कहकर क्यों बुलाती हो." रवि ने आश्चर्य से पुछा. - "तुम्हारे मूह से साहेब सुनकर ऐसा लगता है जैसे मैं कोई मोटा ख़ूसट बुढ्ढा धनवान हूँ और तुम मेरी दासी."

"दासी ही तो हूँ." कंचन मुस्कुराइ - "सदा आपके चर्नो में रहने वाली दासी."

"खबरदार....!" रवि गरजा. -"जो फिर कभी तुमने अपने आपको मेरा दासी कहा. तुम मेरी होने वाली बीवी हो, तुम्हारा स्थान मेरे चर्नो में नही मेरे दिल में है. समझी." रवि कंचन को अपनी छाती से लगाते हुए बोला.

कंचन भावुकता में उसकी छाती में सिमट सी गयी. फिर उसकी छाती से लगी हुई बोली - "मा जी मुझे स्वीकार करेगी ना. कहीं ऐसा तो नही कि वो मुझे ग़रीब जानकार हमारे रिश्ते को इनकार कर दें."

"हरगिज़ नही." रवि उसके कपोल चूमते हुए बोला - "मेरी मा मेरी सबसे अच्छी दोस्त हैं, मेरी पसंद ही उनकी पसंद होगी."

कुच्छ देर यूँही एक दूसरे से लिपटे दोनो बाते और वादे करते रहे. फिर कुच्छ देर बाद कंचन बोली -"अच्छा साहेब अब मुझे इज़ाज़त दो, घर में बुआ और बाबा मेरी राह देख रहे होंगे." कंचन गहराते अंधेरे को देखकर चिन्तीत होकर बोली.

वो आज सुबह से ही इधर उधर भागती रही थी. तब उसके मन में रवि बसा था. परंतु अब जबकि रवि ने उसे अपना लिया था. तो उसका ध्यान अपने घर वालों की ओर गया.

"ठीक है." रवि उसे अपने से अलग करते हुए बोला - "फिर कब मिलोगि."

"कल शाम को यहीं इसी जगह 5 बजे." कंचन मुस्कुरकर बोली और रवि से दुपट्टा लेकर अपने गले में डाल ली.

"अरे....मेरा दूसरा जूता कहाँ गया." रवि चौंकते हुए बोला. वो जब फिसला था तब उसके पावं से एक जूता निकल गया था. किंतु खाई से उठने के बाद दोनो एक दूसरे में ऐसे खो गये थे कि ना तो रवि को अपने जूते का ध्यान रहा और ना ही कंचन को सांझ ढलने का.

"यहीं कहीं होनी चाहिए." कंचन बोली और जूते की तलाश में इधर उधर नज़रें दौड़ने लगी.

सूर्यास्त हो चुका था पर अंधेरा इतना भी गहरा नही था की ज़मीन पर पड़ी कोई वस्तु दिखाई ना दे.

कंचन जूते को ढूँढती हुई खाई के करीब पहुँची. उसे रवि का जूता एक पत्थेर की औट में दिखाई दे गया. उसने रवि से नज़रें बचाकर फुर्ती से उस जूते को उठाकर अपने दुपट्टे में छुपा लिया. -"साहेब, अब आपका जूता नही मिलेगा. अब रहने दो ज़्यादा मत ढुंढ़ो. दूसरे जूते खरीद लेना. मैं घर जा रही हूँ मुझे देरी हो रही है."

"अरे....रूको, कुच्छ देर देख लेते हैं. शायद मिल जाए." रवि कंचन की ओर पलटकर बोला. सहसा वह चौंका उसे ऐसा लगा जैसे कंचन कुच्छ छुपाने की कोशिश कर रही है. - "तुम्हारे हाथों में क्या है? तुम क्या छूपा रही हो?"

रवि को अपनी ओर बढ़ते देख कंचन तेज़ी से उपर भागी. कुच्छ दूर जाकर रुकी फिर रवि को उसका जूता दिखाती हुई बोली - "साहेब, आपका जूता मेरे पास है. पर मैं नही दूँगी. अपने लिए दूसरे जूते खरीद लेना." ये कहकर कंचन हंसते हुए अपने घर के रास्ते भागती चली गयी.

"अरे.....रूको तो, मेरा जूता देती जाओ." रवि ने पिछे से आवाज़ दिया. पर कंचन नही रुकी. भागती हुई उसकी नज़रों से ओझल हो गयी.

"अज़ीब लड़की है." रवि बड़बड़ाया. -"उस दिन मेरे कपड़े जला दिए और आज मेरा जूता ले भागी. भला इसे मेरे कपड़ों और जूतों से क्या दुश्मनी हो सकती है." रवि अपना सर खुजाते हुए सोचा. पर जवाब में ढाक के तीन पात.

वो एक पावं से चलता हुआ किसी तरह अपनी बाइक तक पहुँचा और फिर बाइक स्टार्ट कर हवेली की तरफ बढ़ गया.

*****

रात के 8 बजे हैं, निक्की इस वक़्त अपने रूम में सोफे पर पसरी हुई है. मन बिल्कुल अशांत है. जब से वो शहर में रहने लगी थी तब से वो हमेशा दोस्तों के बीच रहने की आदि हो गयी थी. शोर शराबा हल्ला गुल्ला, पार्टी, म्यूज़िक, डॅन्स फिर दोस्तों के साथ रात भर मज़े चाहें वो लड़का हो या लड़की, उसे कोई फ़र्क नही पड़ता था कि उसके कपड़े उतारने वाली लड़की है या लड़का, या वो जिसके कपड़े उतार रही है, वो लड़का है या लड़की. वो बस मज़ा चाहती थी, उसके लिए वो कोई भी कीमत चुका सकती थी.

लेकिन आज वो अकेली बिल्कुल अकेली हो गयी है, ना वो लोग हैं ना वो हुल्लड़ ना वो पार्टियाँ ना रात भर के मज़े. वो उस परीन्दे की तरह हो गयी थी जो हमेशा आकाश में अपनी रफ़्तार से उड़ता रहता है, अपनी मर्ज़ी से मंजिले तय करता रहता है. लेकिन जब वो पिंजरे में क़ैद हो जाता है तो सिर्फ़ फड़फड़ाकर रह जाता है. निक्की क़ैदी तो नही थी पर उसकी फड़फड़ाहट पिंजरे में बंद पक्षी की तरह ही थी.जब तक कंचन उसके साथ होती वो सब कुच्छ भूल जाती, लेकिन उसके जाते ही वो फिर से अकेली हो जाती. ठाकुर साहब भी उसके साथ सिर्फ़ खाने में ही मिलते थे या फिर दिन के वक़्त हॉल में कुच्छ देर साथ बैठ लिए, कुच्छ बाते कर लिए फिर अपने कमरे में बंद हो जाते.

निक्की का इस माहौल में दम घुटनो लगा था. उसने रवि से इसीलिए नज़दीकियाँ बढ़ानी चाही थी, पर उसने उसका निरादर करके उसे और भी बुरी तरह से तोड़ दिया था. वो अपने उस अपमान का बदला लेना चाहती थी. और हमेशा इसी प्रयास में रहती थी कि कब रवि की कोई कमज़ोरी उसके हाथ लगे और वो अपना शिकंजा उसपर कसे, फिर अपनी मर्ज़ी से उसे नचाए. पर अभी तक उसे निराशा ही हाथ लगी थी.

अचानक वो उठी और कपड़े चेंज करने लगी, शरीर पर मौजूद कपड़े को तन से अलग कर उसकी जगह सलवार कुर्ता पहन कर वो हॉल में आई. उसने सरजू से ये कहकर कि वो बस्ती जा रही है, कुच्छ देर में लौटेगी. फिर बाहर निकल गयी.

बाहर निकल कर अपनी जीप में बैठी और जीप को बस्ती की ओर भगाती चली गयी. जीप की रोशनी से अंधेरे को चीरती हुई वो कुच्छ ही देर में बस्ती के आरंभ के छोर तक पहुँच गयी. अभी वो लेफ्ट टर्न लेकर गोलाई घूम ही रही थी कि उसे अपनी दाईं और एक साया दिखाई दिया. उसने तेज़ी से ब्रेक मारा.

"छर्र्ररर...." की आवाज़ के साथ जीप एक झटके में रुकी.

जीप को रुकते देख साया भी अपने स्थान पर खड़ा हो गया. निक्की उस साए को ध्यान से देखने लगी. अंधेरे में उस काले साए को वो पहचान तो नही पाई पर उसके कद काठी का वो अनुमान लगा चुकी थी.
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07-25-2018, 11:12 AM,
#20
RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
अपडेट 20

जीप को रुकते देख साया भी अपने स्थान पर खड़ा हो गया. निक्की उस साए को ध्यान से देखने लगी. अंधेरे में उस काले साए को वो पहचान तो नही पाई पर उसके कद काठी का वो अनुमान लगा चुकी थी.

उसकी हाइट 6 फीट के आस-पास थी. निक्की उसे ध्यान से देखती हुई बोली - "कौन हो तुम? सामने आओ"

साया आगे बढ़ा. और जीप के करीब पहुँचा. निक्की ने उसे ध्यान से देखा तो उसकी सूरत कुच्छ जानी पहचानी सी लगी. - "तुम कल्लू हो ना?"

"जी हां निकिता जी, मैं कल्लू ही हूँ." वो सर झुकाकर उदास स्वर में बोला.

कल्लू, गाओं का सबसे काला कलूटा बदसूरत हबशी जैसा दिखने वाला युवक था. वो दिखने में जितना बदसूरत था, अंदर से उतना ही खूबसूरत था. वो मुखिया के खेतों में काम कर अपना और अपनी बूढ़ी मा का पेट भरता था.
वो जब 6 साल का था तभी उसके पिता का देहांत हो गया था. उसके पिता खेती के नाम पर थोड़ी सी ज़मीन छोड़ गये थे. जिसे बाद में उसकी मा ने खुद को और कल्लू को ज़िंदा रखने के लिए कब का बेच चुकी थी. अब उसके पास एक छोटा सा मिट्टी का झोपड़ा के अतिरिक्त कुच्छ भी ना था.
बचपन से लेकर जवानी तक कल्लू ने सिर्फ़ दुख ही देखे थे. अपनी बदसूरत चेहरे की वजह से वो बालपन से ही गाओं के दूसरों बचों से अपमानित होता आया था. बचपन में वो जिसकी तरफ भी दोस्ती के लिए हाथ बढ़ता वो घृणा से अपना हाथ पीछे खींच लेता. वो एक ऐसा अकेला पक्षी था कि जिस डाल पर बैठता सभी उसे तन्हा छ्चोड़कर उड़ जाते.
किशोर अवश्था में पहुँचने के बाद उसके दुख और बढ़ गये. गाओं में किसी भी लड़के को हंस के किसी लड़की के साथ बात करते देखता या किसी को किसी लड़की के साथ अकेले घूमते देखता तो उसकी आत्मा सिसका उठती. हर लड़के की तरह उसका भी मन करता कि कोई उसे भी प्यार करे, कहीं दूर खेत खलिहानो में कोई उसका भी इंतेज़ार करे. कभी वो भी किसी लड़की के साथ किसी झरने के निकट बैठकर उसके ज़ुल्फो से खेले. कोई उसके लिए भी रूठे और वो मनाए. पर उसके तक़दीर में ये सब नही था.
गाओं की सभी लड़कियाँ उससे दूर भागती थी. कोई भी लड़की उससे प्रेम करना तो दूर सीधे मूह उससे बात तक नही करती थी. भला कौन लड़की उस बदसूरत से दिल लगाती, हर लड़की की चाह होती है कि उसका होने वाला पति खूबसूरत हो, पढ़ा लिखा हो, उँचे कुल का और धनवान हो.
लेकिन उसके पास इनमें से कुच्छ भी नही था. ना तो उसके पास वो रूप जिसपे कोई कुँवारी मरती, और ना ही वो पढ़ा लिखा और धनवान था.
लेकिन गाओं की उन लड़कियों के बीच एक ऐसी भी लड़की थी, जिसे कल्लू बहुत पसंद करता था. वो थी कंचन.
पूरे गाओं में वही एक ऐसी लड़की थी जो कल्लू से हंस के बात करती थी, कभी उससे मूह नही चुराती थी. जब कभी वो मिल जाता तो उससे प्यार से हाल-चाल पुछ लेती थी.
कंचन की यही अच्छाई कल्लू को भा गयी थी और वो मन ही मन कंचन से प्यार करने लगा था. लेकिन वो अपने दिल की बात कभी कंचन से कह नही पाया. बस दूर से देखकर अपने दिल की प्यास बुझा लेता.
वो ये अच्छी तरह से जानता था, कि चाँद और चकोर का मिलन ना कभी हुआ है ना कभी होगा.
कंचन ग़रीब ही सही पर उससे लाख गुना अच्छी थी, वो सुंदर थी, पढ़ी लिखी थी. उसका और कंचन का कोई मेल नही था. उसे डर था की अगर उसने कंचन से अपने दिल की बात कही तो कहीं ऐसा ना हो कि वो बुरा मान जाए. और जो वो बुरा मान गयी तो फिर कभी उससे बात नही करेगी. जो अभी थोड़ी बहुत उससे बात चीत होती है कहीं वो भी ना बंद हो जाए...
वो कंचन को पाने से कहीं ज़्यादा खोने से डरता था. उसकी एक ग़लती उसे कंचन से सदा सदा के लिए दूर ना कर दे, यही सोचकर उसने अपने दिल में मचलती भावनाओ को कभी अपने होंठो तक आने नही दिया था.
वो दिन भर जानवरों की तरह खेतों में मेहनत करता और रात में कंचन को अपने ख्यालो में बसाकर अपने प्यासे मन को तृप्त करने का प्रयास करता. पर तन्हाई में कंचन की याद उसके प्यासे मन की प्यास को और बढ़ा देती. दर्द जब हद से बढ़ जाता तो बच्चो की तरह फुट फुट कर रो पड़ता. पर अपने दिल का दर्द किसी को नही बताता.
उसके इस दर्द को उसके सिवा कोई नही जानता था. किसी को उस अभागे इंसान से सरोकार हो भी कैसे सकता था.
उसके अकेलेपन के दर्द से अगर कोई परिचीत था तो सिर्फ़ उसकी मा थी. वो जब कभी कल्लू को उदास देखती तो उसे अपनी ममता के आँचल में लेकर उसे बहलाती. वो बदसूरत ही सही पर उस मा के दिल का टुकड़ा था. उसका सहारा था. लेकिन उसकी मा को भी इस बात की हरदम चिंता रहती थी कि उसके ग़रीब बदसूरत बेटे को कौन अपनी बेटी देगा? क्या उसका बेटा हमेशा अकेला ही रहेगा?
लेकिन वो अपनी चिंता कल्लू पर प्रकट नही करती.
दोनो मा बेटे जब भी एक दूसरे के सामने होते एक दूसरे से अपने अपने दुख छुपाकर एक दूसरे पर अपना प्यार लुटाते.

इस वक़्त वो सुगना के घर जा रहा था, बुखार से उसका बदन तप रहा था, और सर्दी से बदन थर-थर काँप रहा था. सर्दी से बचने के लिए उसने अपने बदन पर एक फटा पुराना शॉल ओढ़ रखा था. बुखार इतना तेज़ था कि उससे चला भी नही जा रहा था, पर सुगना के बुलावे पे वो इस हालत में भी मिलने जा रहा था.
बस्ती में दो लोग ऐसे थे जिनका कहा कल्लू कभी नही ठुकराता था. एक तो मुखिया धनपत राई, जो उसे मज़दूरी देता था. तो दूसरा सुगना, सुगना की बात वो इसलिए नही टालता था क्योंकि वो कंचन का पिता था.
आज जब सुगना ने उसे बुलाया तो ऐसी दशा में भी उसके घर जाने के लिए निकल पड़ा था.
उसका घर बस्ती के आखरी छ्होर पर था., अभी वो अपने घर से निकल कर सड़क तक पहुँचा भी नही था कि जीप के रुकने की आवाज़ से उसके बढ़ते कदम रुक गये थे. फिर निक्की के आवाज़ देने पर उसकी जीप के निकट जाकर खड़ा हो गया था.

"उफ्फ....तुमने तो मुझे डरा ही दिया था." निक्की लंबी साँस छोड़कर बोली - "ऐसा रूप धारकर कहाँ जा रहे हो?"

"जी....सुगना काका के घर जा रहा हूँ. उन्होने किसी काम से बुलाया है."

"ओह्ह्ह.....इस तरह शॉल ओढकर क्यों जा रहे हो?"

"मुझे थोड़ा बुखार है जी." कल्लू शॉल को संभालते हुए बोला - "ईसलिए शॉल ओढ़े रखा हूँ."

"तो आओ मेरी जीप में बैठ जाओ, मैं भी कंचन के घर ही जा रही हूँ." निक्की बोली और उसे सीट पर बैठने का इशारा किया.

"मैं ऐसे ही चला जाउन्गा निक्की जी. आप कष्ट ना करो"

"अरे...जब मैं उधर ही जा रही हूँ तो मेरे साथ चलने में क्या परेशानी है." निक्की भड़की. उसे कोई इनकार करे तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच जाता था. वो आगे बोली - "चुपचाप मेरे साथ गाड़ी में बैठो."

कल्लू इस बार इंकार नही कर सका. आगे बढ़कर जीप में उसके बराबर बैठ गया. आज उसने जीवन में पहली बार किसी चार पहिए वाली गाड़ी पर बैठा था.
निक्की ने उसके जीप में बैठते ही जीप को आगे बढ़ा दी.
कुच्छ ही देर बाद जीप कंचन के घर के सामने जाकर रुकी. पहले निक्की उतरी और आँगन के दरवाज़े को धकेल कर अंदर दाखिल हो गयी. कल्लू भी उसके पिछे पिछे आँगन में आया.
आँगन में शांता बुआ रोटी पका रही थी. पास की चारपाई पर सुगना बैठा हुक्का पी रहा था.
निक्की को देखते ही बुआ हैरत से भरकर सुगना से बोली - "भैया देखो तो सही कोई लड़की आई है."

शांता की बात सुनते ही सुगना ने दरवाज़े की तरफ गर्दन घुमाया. निक्की मुस्कुराती हुई उसकी ओर चली आ रही थी. उसपर नज़र पड़ते ही सुगना बोला - "अरे शांता ये तो निक्की है, क्या तुम इसे नही पहचान पाई?"

शांता ने आश्चर्य से सुगना को देखा. फिर अपनी निगाहें निक्की पर जमा दी. वो कुच्छ बोलती उससे पहले निक्की उनके करीब आकर बोली - "नमस्ते काका. नमस्ते बुआ." उसने हाथ जोड़कर दोनो को बारी बारी से नमस्ते किया. फिर झुक कर सुगना के पावं च्छू लिए.

"कितनी बड़ी हो गयी है तू निक्की." बुआ आश्चर्य से बोली - "कितनी छोटी थी जब तू यहाँ आई थी."

निक्की बुआ की बातों से मुस्कुरा उठी. - "कंचन कहाँ है बुआ?"

"दीदी यहाँ है." चिंटू की आवाज़ से निक्की की गर्दन घूमी, बरामदे में उसे चिंटू और कंचन खड़े दिखाई दिए. वे दोनो निक्की की आवाज़ सुनकर बाहर निकले थे.
निक्की को देखते ही कंचन उसकी ओर लपकी. फिर उसका हाथ पकड़कर बोली - "आज मेरे घर का रास्ता कैसे भूल गयी?"

"आ गयी, अकेले मेरा जी नही लग रहा था. सोचा तुमसे मिल आऊ" निक्की ने उत्तर दिया.

"दीदी मेरे लिए क्या लाई हो शहर से?" चिंटू निक्की की कुरती खींचता हुआ बोला.

निक्की उसे बताने लगी. निक्की के आने से सब के सब उसी के संग रंग गये थे. पास ही थोड़ा हट के बुखार से थर थर कांपता कल्लू खड़ा था पर उसकी ओर किसी का ध्यान नही जा रहा था.
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