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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
“नमस्ते बेटा। सदा खुश रहो।" वह अपने घर की ओर लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चल दिया। उसे प्रीति के घर काफी देर हो गई थी। प्रीति के घर से थोड़ी दर चलने पर ही उसे प्रीति के पिताजी दिखाई दिये थे। उसने नमस्ते की थी और आगे बढ़ गया। उन्होंने भी उसे नहीं रोका था। प्रीति के पिताजी घर पहुंचे तो सबसे पहले प्रीति की मां ने प्रीति के पिता को विनीत की नौकरी की बात बतायी थी। प्रीति की मां विनीत को बहुत पसंद करती थीं। वह विनीत की नौकरी के विषय में जानकर बहुत प्रसन्न हो गयी थीं।
विनीत घर पहुंचा तो चेहरे के भाव साफ थे। चेहरा चिन्तामुक्त था। अनीता को भइय्या का चेहरा देखकर सकून मिल गया। "भइय्या नमस्ते। आज तो अब कुछ ठीक नजर आ रहे हैं।"
"हां अनीता। आओ मां के पास चलते हैं। तुम्हें एक बात बताऊंगा।"
दोनों मां के कमरे में चले गये। "मां....अब कैसी हो?" विनीत ने मुस्कराकर कहा।
"ठीक हूं बेटा। अब तू बता....नौकरी का क्या रहा?"
"मां, आज मुझे एक कम्पनी के मैनेजर ने आश्वासन दिया है कि वे मुझे कल नौकरी दे देंगे। मुझे पूरी उम्मीद है कि मुझे बहां पर नौकरी मिल जायेगी।" विनीत के होठों पर एक हल्की मुस्कान उभरी।
अनीता भइय्या की बात सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हो गई। विनीत की मां ने विनीत को गले लगा लिया। "बेटा, तुम हमेशा कामयाब होते रहो। मेरे दिल को तो ये ही तमन्ना है।” उसकी मां विनीत पर निहाल हो रही थीं। थोड़ी देर बाद विनीत मां से बातें करने के पश्चात् अन्दर चला गया। अन्दर जाकर वह पलंग पर बैठकर जूते उतारने लगा। उसको घर आते-आते शाम हो गई थी। वह पलंग पर लेटकर आंखें मूंदे लेट गया। तभी सुधा उसके पास चाय लेकर आ गई। विनीत को आंखें बंद करे लेटा देख वह सोची शायद भइय्या सोने के लिये लेटे हैं मगर तभी विनीत को लगा शायद कोई आया है, उसने आंखें खोल दीं।
“भइय्या, चाय पी लीजिये।” सुधा ने कहा।
पास रखे स्टूल की ओर इशारा करते हुए विनीत ने कहा- रख दो सुधा, मैं पी लूंगा। तुम जाओ।" सुधा कप स्टूल पर रखकर वापस आ गई। थोड़ी देर तक विनीत लेटा रहा। तभी उसे याद आया, सुधा चाय रखकर गई है, वह उठकर बैठा और चाय का कप उठा लिया। चाय ठन्डी हो चुकी थी। उसने चाय का कप होठों से लगाया और एक ही बार में खाली कर रख दिया और फिर सोने के इरादे से लेट गया। आंखें बंद कर ली। उसे लगा जैसे बाहर प्रीति के पिता मांजी से बात कर रहे हों। यही सोचकर वह उठकर बाहर आया तो वास्तव में चाचा जी आये थे। वे मां से बातें कर रहे थे। वह उनको नमस्ते करने के पश्चात् वहीं खड़ा रहा। मां से तो उन्होंने अधिक देर तक बात नहीं की थी। परन्तु विनीत को दूसरे कमरे में ले जाकर बोले थे—"विनीत....."
“कहिये, चाचा जी।"
“मैंने सुना है जल्दी ही तुम्हारी नौकरी लगने वाली है।"
"उम्मीद तो है।"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"बेटे!" सहसा ही उनका स्वर स्नेह में डूब गया-"तुम अब बच्चे नहीं हो, समझदार हो। इस उम्र में मनुष्य को अपना बुरा-भला देखकर चलना चाहिये।"
“मैं आपका मतलब नहीं समझा चाचाजी.....” उसने हैरानी से कहा।
“बेटे, मैंने प्रीति की शादी की बात चला रखी है। ऐसी हालत में तुम्हारा उससे मिलना जुलना ठीक नहीं है।"
"चाचाजी....।" वह जैसे चीख उठा था। उसे लगा था जैसे किसी ने उसके कंठ में बर्फ ट्रंस दी हो। उसने आश्चर्य से उनकी ओर देखा।
"मेरी इज्जत का सवाल है विनीत ....."
उसने साहस करके पूछा था-"क्या प्रीति ने भी यही कहा है?"
"प्रीति अभी नासमझ है।" उन्होंने कहा था-"उसमें अभी बचपना है। दुनिया की बहुत सी बातें उससे छुपी हुई हैं। जिस दिन उसे अक्ल आ जायेगी, वह स्वयं ही तुम से मिलना छोड़ देगी। इससे पहले तुम्हें उससे मिलना छोड़ना पड़ेगा....."
उत्तर में वह कुछ भी न कह सका। और फिर उस समय उत्तर भी क्या देता वह? उसे अधिकार ही क्या था। फिर भी उसने कहा था—“पिजाजी अब दुनिया में नहीं हैं....शायद इसीलिये आप ऐसी बातें कर रहे हैं चाचा जी....!"
"नहीं...."
"बेकार झूठ बोल रहे हैं आप!" वह धीरे से मुस्कराया था।
"विनीत बेटे, हर इन्सान को अपनी इज्जत प्यारी होती है।" उन्होंने कहा—“जब तक मैंने प्रीति की शादी की कहीं बात नहीं चलायी थी, मैंने तुम्हारे आने-जाने को बिल्कुल भी मना नहीं किया था। अब भी मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि तुम मेरे घर पर आना ही छोड़ दो। भई, वर्षों के पुराने सम्बन्ध तो बने ही रहने चाहिये। मेरा मतलब केवल इतना है कि तुम प्रीति से मत मिलना। पता नहीं दूसरे लोग क्या समझ बैठे।"
उस समय उसके सीने में जैसे नश्तर उतर गया था—फिर भी वह चूंट-घूट करके उस पीड़ा को पी गया। उसने कहा-"चाचाजी, मेरा विचार है कि आप जो कुछ भी कह रहे हैं, केबल अपनी ओर से कह रहे हैं। प्रीति को इस विषय में कुछ भी पता नहीं है।"
“यह सच है विनीत।" उन्होंने सफाई से कहा था।
"यह झठ है! इसके अलावा भी बहुत सी बातें झूठ हैं। न तो प्रीति ऐसा चाहती है और न ही उसकी शादी कहीं हो रही है। सच क्या है, उसे मैं जानता हूं।"
"तुम क्या जानते हो?"
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"चाचाजी।” उसने कहा था—“जब तक पिताजी जिन्दा थे, आप इस घर के हमदर्द थे। उस समय आप इस परिवार को अपना समझते थे। परन्तु आज....चूंकि पिताजी मौजूद नहीं हैं इसलिये इस घराने से आपका कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता? पिताजी के सामने आपने स्वयं ही प्रीति की शादी की बात उनके सामने रखी थी और पिताजी इसके लिये तैयार हो गये थे। शायद तैयार न होते परन्तु एक दिन पिताजी ने मुझे और प्रीति को साथ-साथ देख लिया था। आज आपकी नजरों में हम लोगों की कोई इज्जत नहीं है। इसलिये कि हम....मेरा मतलब वक्त ने हमें काफी छोटा बना दिया है? आप आज भी बड़े हैं....बड़े और छोटे का साथ निभता ही नहीं, इसलिये आपका यह सब कहना गलत नहीं है। समय बदलने पर तो अपने भी बदल जाते हैं। भला परायों से क्या शिकायत। परन्तु एक बात है....!"
“वह क्या....?" उन्होंने पूछा था।
"मैं समझता हूं प्रीति मुझसे मिलना नहीं छोड़ सकती।"
"क्यों नहीं छोड़ सकती?" उन्होंने तुरन्त पूछा था।
“इस बात को प्रीति जानती है, मैं नहीं जानता।"
"इसका मतलब....तुमने उसे वहका रखा है?"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"जी नहीं।” उसने कहा था-"प्रीति पर मेरा इतना अधिकार कभी नहीं रहा जो कि मैं उसे वहका पाता। उसके मन की बात है....वह जाने।"
"लेकिन तुम्हें कैसे पता है....?"
"किस विषय में?"
"इस विषय में कि प्रीति तुमसे मिलना नहीं छोड़ सकती? क्या उसने तुमसे कभी ऐसी बात कही है....?"
"हां.....!" वह कहना तो नहीं चाहता था परन्तु उस समय उसके मुंह से जल्दी से निकल गया था। जिसे उसने बाद में महसूस किया था।
"क्या कहा था उसने...?" उनकी आवाज में क्रोध झलक रहा था।
“अब छोड़िये भी चाचा जी।" उसने बात को टाल देना ही उचित समझा था_“जब आप कह ही रहे हैं तो मैं प्रीति से मिलने आपके घर नहीं आऊंगा। इसके अलावा और कोई सेवा हो तो वह भी बता दीजिये, मैं कोशिश करूंगा।"
उन्हें उसके मुंह से ऐसे शब्दों की आशा न थी। शायद इसी से वे कुछ और सोचने पर मजबूर हो गये थे। उसने यह भी अनुमान लगाया था, बे अन्दर ही अन्दर उसे भला-बुरा कह रहे थे। परन्तु बिबश थे, बैसी कोई बात मुंह से निकाल नहीं सकते थे। लम्बी खामोशी के बाद उन्होंने कहा था-"विनीत , मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी।"
"कैसी...?"
“कि तुम मेरी इज्जत से भी खेलने का प्रयास करोगे।"
"चाचाजी....।” उसे बुरा लगा था। जैसे उन्होंने उसके मुंह पर करारा थप्पड़ मार दिया था।
"मैं इस घराने को अपना समझता था....तुम्हारे पिताजी मेरे जिगरी दोस्त थे....मैं तुम्हें अपने बेटे जैसा समझता था। आज तुम्हीं ने....!"
“मैंने क्या...?"
"तुमने प्रीति को फुसलाया...."
"चाचा जी!" वह जैसे चीख उठा था।
"तुमने एक नासमझ लड़की को गलत रास्ते पर चलाया....तुमने उसे गुमराह करने की कोशिश की। वह गुमराह हो भी चुकी है।"
"चाचा जी।" वह तिलमिला उठा था-"कहने से पहले आपको सोचना चाहिये कि आप कह क्या रहे हैं। आपके मुंह से ऐसी बातें....."
"शोभा नहीं देतीं।" उन्होंने उसके शब्दों को छीन लिया था "विनीत बेटे, सच्चाई होती ही ऐसी है कि वह हर आदमी को बुरी लगती है। लेकिन सच्चाई को मन में कैद भी नहीं करना चाहिये। जो मुझे कहना चाहिये था, मैंने वह बात कह दी है।"
"ठीक है....!" और क्या कहता वह।
"मेरी बातों को ध्यान रखना विनीत ....।" उन्होंने अंत में अपनी बात फिर दुहरायी थी और कुसी से उठकर खड़े हो गये थे।
"मुझे ध्यान रहेगा....परन्तु प्रीति से और कुछ पूछ लेना चाचा जी।”
"प्रीति से क्यों?"
"इसलिये कि वह नादान बच्ची नहीं है। उसके पास अपनी बुद्धि है। जो उसे उचित लगेगा, वह उस काम को करेगी। मैं अथवा आप उसे रोक नहीं पायेंगे।"
“मैं उसे रोक लूंगा।"
“मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा।"
चलते-चलते भी उन्होंने कहा था-"विनीत, यदि मेरे कानों में फिर ऐसी बात पड़ गयी तो सोच लेना, मुझसे बुरा कोई न होगा।"
"आपकी चेताबनी मुझे याद रहेगी।"
लम्बे-लम्बे डग भरते हुये बे कमरे से बाहर निकल गये थे।
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
लम्बे-लम्बे डग भरते हुये बे कमरे से बाहर निकल गये थे। उसके जाने के तुरन्त बाद ही मां ने कमरे में आकर कहा था "क्या बात है विनीत ?"
"बात....!"
“तूने श्याम जी लाल को कुछ कहा तो नहीं?"
"मतलब....?"
"बे बड़े गुस्से में लग रहे थे। मैंने पुकारा भी परन्तु नहीं रुके....."
हताशा में उसके मुंह से निकल गया था—"मां, चाचा जी बड़े आदमी हैं, बे तुम्हारे पुकारने से भला क्यों रुक सकते थे?"
"बड़े आदमी?" मां ने हैरानी की नजरों से उसकी ओर देखा था_खैर यह बात तो नहीं है। श्याम जी लाल ऐसा तो कभी नहीं सोच सकते। मेरा ख्याल है तूने ही उन्हें कुछ कह दिया
"भला मैं क्या कहता मां?" उसने झूठ बोला था।
“अब मुझे क्या पता।" मां ने कहा था-"तू जाने या वे, मुझे इससे क्या है?"
उसे बताना पड़ा था—“मां, श्याम जी लाल मुझे एक बात समझाने आये थे। उन्होंने बताया है कि इन्सान को हमेशा इन्सान बनकर ही रहना चाहिये।"
"तू इन्सान नहीं है क्या?"
"हो सकता है मां।" उसने कहा था-"हर इन्सान की परख अलग-अलग होती है। कोई किसी को क्या समझता है, इस विषय में कोई क्या कह सकता है। हकीकत यही है मां कि चाचा जी अब बड़े आदमी बन गये हैं। प्रीति के बारे में कह रहे थे....."
"क्या....?" मां ने पूछा था।
“कह रहे थे....तुम्हारा प्रीति से मिलना-जुलना अच्छा नहीं है। वे प्रीति की शादी कर रहे हैं....उनके लिये इज्जत का प्रश्न पैदा हो गया है।"
मां ने कुछ नहीं कहा था परन्तु उनकी मनोदशा उससे छुपी न रह सकी थी। बे केबल एक निःश्वास भरकर रह गयी थीं।। उस दिन शायद पहली बार उसने महसूस किया था कि किसी को अपना बनाकर उससे अलग होना कितना कष्टप्रद होता है। प्रीति से उसका कोई सम्बन्ध न होता अथवा वह स्वयं ही प्रीति को बचन न देता, तब शायद उसे ऐसा महसूस नहीं होता। परन्तु इस दशा में जब प्रीति को उससे अलग किया जा रहा था, उसे पीड़ा का अनुभव हुआ था। उस दिन वह सारी रात सो नहीं सका था। रात भर करवटें बदलता रहा था। सोचता रहा था.....आखिर ऐसा होता क्यों है? प्रेम की राहों में यह समाज दीवार बनकर खड़ा क्यों हो जाता है? क्यों वह दो हृदयों का संगम नहीं होने देता? उसमें यदि वह प्रीति का दोष निकालता तो अनुचित ही था। प्रीति तो उसे अपना सब कुछ मान चुकी थी....उसके लिये अपना सब कुछ छोड़ देने को तैयार थी। अंत में उसके विचार केबल बिवशता' शब्द पर आकर अटक गये थे। वह कह उठा था—काश! वह विवश न होता। अगले दिन भाग्य ने उसका साथ दिया था और उसी कम्पनी में दो हजार रुपये की नौकरी मिल गई थी। सुनकर मां ने अपने भगवान को लाख बार धन्यवाद दिया था। दोनों वहनों ने शांति की सांस ली थी और उसने अपने को एक बोझ से मुक्त समझ लिया था।
उस दिन वह दफ्तर से घर लौट रहा था। एक दुकान के सामने उसने प्रीति को खड़े देखा। देखकर उसका अन्तर्मन कसमसा उठा था। उसके चलते हुये कदम जड़ हो गये थे। विनीत ने चाहा कि वह प्रीति को पुकार ले। उससे कहे, प्रीति! मैं तुम्हारे बिना जिन्दा नहीं रह सकता। किसी प्रकार इस दीवार को तोड़ डालो प्रीति। इसके अलावा भी न जाने कितने भाव उसके अन्तर में उमड़ रहे थे और वह प्रीति से बहुत कुछ कह देना चाहता था। परन्तु चाचा जी, उन्होंने तो कहा था कि भविष्य में कभी भी प्रीति से मिलने की कोशिश मत करना। मन में एक द्वन्द्व-सा छिड़ गया। उसने अपने आपको समझाने की कोशिश की थी, परन्तु प्रीति ने तो कुछ भी नहीं कहा था। और यदि स्वयं बे भी यहीं कहीं हुए तथा उन्होंने उसे प्रीति से बातें करते देख लिया तो? उसे चल देना पड़ा था। विवशता एक बार फिर उसके सामने आकर खड़ी हो गयी थी। लेकिन शायद प्रीति ने उसे देख लिया था। उसके चलने पर प्रीति ने उसे पुकारा था और उसे रुक जाना पड़ा था।
"विनीत ....!" प्रीति ने उसके बिल्कुल निकट आकर कहा। उसके स्वर में पीड़ा थी और चेहरे पर गम्भीरता स्पष्ट झलक रही थी।
"प्रीति!” उसने मुस्कराने का प्रयत्न किया था। परन्तु असफल रहा था।
"क्या बात है?"
"कुछ नहीं।"
“तुम रुके क्यों नहीं थे?" प्रश्न था।
"नहीं तो।" उसने कहा था-"तुमने पुकारा और मैं रुक गया। मुझे तो इस बात का पता भी न था कि तुम....."
"झूठ भी बोल लेते हो...?"
"झूठ कैसा?" उसने आश्चर्य से प्रीति की ओर देखा था।
"मैं काफी देर से तुम्हें देख रही हूं विनीत ।” प्रीति ने कहा था-"तुम भी रुककर मुझे देख रहे थे। तुमने शायद मुझे पुकारना उचित न समझा था। यही बात थी न?"
जैसे कि उसकी चोरी पकड़ी गयी थी। वह कुछ भी न कह सका था और दूर शून्य में कुछ खोजने लगा था, कुछ सोचने लगा था।
"क्या यह सच है विनीत?" प्रीति ने फिर मौन तोड़ा।
"क्या?” उसने अपनी ग्रीवा को ऊपर उठाया था। "मुझे देखकर भी तुमने मुझसे मिलना उचित न समझा था?"
"हो....।” उसे कहना पड़ा था।
"मेरी कोई भूल....?"
"नहीं....."
“नाराजगी?"
"वह भी नहीं।"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
प्रीति खामोश हो गयी थी। लम्बी खामोशी के बाद प्रीति ने कहा था—“विनीत , क्या तुम मुझसे अलग होकर आराम से रह सकोगे?"
"शायद नहीं।" उसने अपनी बात कह दी थी।
"फिर तुम इतना डरकर क्यों भागना चाहते हो?"
"तो फिर और क्या करूं?"
“साहस से काम लो।" प्रीति ने कहा था—प्रेम की राहों में हमेशा से ही दीबारें खड़ी होती आई हैं, इसीलिये यह रास्ता कांटों से भरा होता है। जो सफल होना चाहते हैं, उन्हें दीवारों को तोड़ना ही पड़ेगा।"
"परन्तु किस प्रकार....?"
"तुम मुझसे मिलना नहीं छोड़ोगे। रही शादी की बात....तो उसका उत्तरदायित्व मुझ पर है। मैं कुछ भी करूं....कोई भी मुझे तुमसे अलग नहीं कर सकता। मैं हमेशा-हमेशा तक तुम्हारी, केबल तुम्हारी रहूंगी।"
"जिद्द करने से क्या लाभ प्रीति....।" उसने कहा था- "जब तुम्हारे पिताजी ऐसा नहीं चाहते तो तुम्हें उन्हीं की बातें माननी चाहिये। और फिर....."
"फिर क्या....?"
"अभी मेरी स्थिति सुधरने में पता नहीं कितना समय और लगे।"
"क्यों ....?"
"पिताजी मौजूद थे तो पहले मेरी शादी करना चाहते थे। परन्तु अब, जबकि घर का सारा बोझ मेरे सिर पर आ चुका है, मैं अनीता से पहले अपनी शादी नहीं कर सकता। यदि मैंने भी अपने साहस को बनाये रखा तो एक न एक दिन तुम्हारा साहस स्वयं ही टूट जायेगा। इसलिये कि तुम उतने समय तक मेरी प्रतीक्षा नहीं कर सकोगी।"
प्रीति ने कहा था-"विनीत, तुम्हारा निश्चय दृढ़ हो तो मैं जीवन भर भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर सकती हूं।"
"ये केबल कहने की बातें हैं प्रीति। तुम जानती हो कि कहने मात्र से कुछ नहीं होता। मेरी मानो....व्यर्थ ही अपनी जिन्दगीको बरबाद मत करो और उनकी बात मान लो।"
"तुम्हारा मतलब....उनके कहे अनुसार शादी कर लूं....?"
"हां....."
"अपनी खुशियों का गला घोंट दूं।"
"हां....।"
“अपने प्यार को मिटा दूं....?"
"मिटाना ही पड़ेगा प्रीति.....” उसे कहना पड़ा था।
सुनकर प्रीति जैसे चीख उठी थी—"विनीत ....."
मैंने कुछ गलत कहा प्रीति?"
"तुमने जो कुछ कहा है, वह एक दुश्मन भी अपने मुंह से नहीं कह सकता विनीत ! तुमने मेरे प्यार को इतनी नीची दृष्टि से देखा है, तुमने मेरे निश्चय को कुछ भी नहीं समझा।"
"मेरा मतलब यह नहीं प्रीति।"
"मैं कुछ नहीं जानती। अपने मतलब को अपने पास रखो विनीत।" प्रीति की मुद्रा पहले जैसी कठोर हो गई थी—“मेरा जो निश्चय है, मैं उसे हर हाल में पूरा करूंगी। भले ही मुझे कुआरी ही रहना पड़े। मैं किसी और से शादी नहीं करूंगी....विनीत....। मेरे जीवन में तुम्हारे सिवा और कोई नहीं आयेगा, कभी नहीं आयेगा। मेरे मन मन्दिर में कोई देवता तुम्हारे सिवा नहीं आ सकेगा....नहीं....आ....सकेगा।"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"प्रीति! तुम समझने की कोशिश करो। तुम मिडिल क्लास की फैमिली से सम्बन्ध रखती हो और मैं आज इस हालत में हं कि तुम्हें ये कहने में भी हिचकिचाहट होगी कि तुम ऐसे लड़के से प्रेम करती हो जो समाज की नजरों में नाकारा है। मैं तुम्हें कुछ भी तो नहीं दे सकता। ना दौलत मेरे पास है ना शौहरत, गरीबी ने मुझे नाकारा बना दिया है। मैं तुम्हें दुनिया की कोई खुशी नहीं दे सकता।" वह और भी बहुत कुछ कहना चाहता था मगर चुप हो गया।
"विनीत , मैं कुछ नहीं समझना चाहती, मैं सब समझती हूं...अन्जान, नासमझ बनने को तुम ही बहुत हो विनीत । तुम मेरे प्रेम को अच्छी तरह जानते हो, फिर भी ऐसी-ऐसी बातें कहते हो? कितना दिल दुःखता है मेरा, तुम नहीं जानते होंगे। मुझे कुछ नहीं चाहिये, दुनिया की कोई दौलत नहीं चाहिये! मुझे तुम्हारा प्यार, तुम्हारा साथ चाहिये विनीत । मैं भूखी, रूखी-सूखी खाकर गुजारा कर लूंगी, मैं कभी उफ तक नहीं करूंगी, मगर मुझे तुम ऐसे तन्हां मत छोड़ो....। मैं मर जाऊंगी। मैं मर जाऊंगी। तुम अगर न मिले तो ढूंढते रह जाओगे मुझे इस बेबफा दुनिया की भीड़ में....." प्रीति ने इसके बाद कुछ और कुछ नहीं कहा और उठकर लम्बे-लम्बे डग बढ़ाती हुई पार्क से बाहर चली गई।
विनीत ने भी उसे जान-बूझकर नहीं पुकारा था। प्रीति उसकी आंखों से ओझल न हो गई, तब तक वह उसे देखता रहा। काफी देर तक बैठा वह वहां प्रीति के विषय में ही सोचता रहा। उसका मन चक्कर काट रहा था। मन में अनेक प्रकार के भाव उत्पन्न हो रहे थे। उसे यह सोच-सोच कर ही अपने ऊपर गर्व हो रहा था कि—प्रीति उसे अपनी जान से भी अधिक प्रेम करती है। मगर फिर वह दुःख में डूब जाता कि मैं उसके प्रेम का बदला क्या दे रहा हूं। तभी उसके मन में ख्याल कौंधता—मैं नहीं, ये मेरे हालात हैं। मैं तो उसे वो हर खुशी देना चाहता हूं जिसे पाकर वह स्वयं को दुनिया की सबसे खुशनसीब पत्नी समझे। मगर क्या करूं? मजबूर हूं। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। वह मेरे दिल का टुकड़ा है, मैं कैसे दिल पे पत्थर रखकर स्वयं को संभाल रहा हूं....मैं तो बता भी नहीं सकता।” वह दुःखी मन से उठा और बोझल कदमों से घर की तरफ चल दिया। घर पहुंचने में आज फिर उसे काफी देर हो गई थी।
विनीत के जीवन में आने वाला एक तूफान अभी रुका हुआ ही था कि सहसा उसके जीवन में एक तूफान और आ गया। जिसने उसके जीवन की जड़ों तक को भी हिलाकर रख दिया। वह बेसहारा हो गया। उसकी बगिया में खिलने वाला एक फूल और टूटकर बिखर गया। वह अनाथ हो गया। उसकी मां की तबियत तो काफी दिनों से खराब चल ही रही थी। पिताजी की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने चारपाई पकड़ ली थी और अब तक नहीं उठी थीं। घर का काफी सामान बेच-बेचकर भी मां की दवा में लगा दिया था सारा पैसा। मगर मां की बीमारी ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी। उनको टी.बी. की बीमारी लग गई थी। डॉक्टर भी इलाज करके थक चुके थे। उन्होंने जवाब दे दिया था। विनीत के पास इतना पैसा न था जिससे वह अपनी मां का किसी अच्छे डॉक्टर से इलाज करवा लेता....। रोग धीरे-धीरे बढ़ता रहा और आज उसने अपना विकराल रूप ले लिया था। आज वह सबेरे ऑफिस गया था तो मां की तबियत थोड़ी बिगड़ी हुई सी थी। ऐसा अक्सर हो जाता था। कभी तबियत थोड़ी खराब तो कभी थोड़ी ठीक हो जाती थी। चिन्ता जैसी कोई बात न थी। वह दफ्तर चला गया था। परन्तु शाम को जब प्रीति से मिलकर बापस आया, घर में कदम रखते ही उसके पैरों की शक्ति जैसे जवाब दे चुकी थी। घर में कुहराम मचा हुआ था। मुहल्ले वाले आंगन में खड़े थे। विनीत ने देखा, कमरे में मां की लाश पड़ी थी। दोनों वहनें मृत मां से लिपट-लिपट कर रो रही थीं। विनीत को अन्दर आता देख अनीता चीखकर खड़ी हो गई।
"भइय्या! आप कहां रह गये थे....? मां हमें छोड़कर चली गईं....जाते-जाते आपको बहुत याद कर रही थीं।" वह विनीत से चिपट गई। विनीत भी दहाड़ें मारकर रोने लगा था। तभी सुधा भी भाई के पास आकर फूट-फूट कर रोने लगी। "आपको फोन मिलाया था भइय्या....मगर आप वहां भी नहीं मिले थे....मां तुम्हारी सूरत देखने को, तसल्ली देने को तरसती हुई इस दुनियां में हमको अकेला छोड़कर चली गई।" वह सुबक-सुबककर रोने लगी।
"चुप हो जाओ सुधा।” विनीत उसको प्यार से चुप कराने लगा।
मगर सुधा तो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अनीता का भी बुरा हाल था। मुहल्ले के लोग भी उन तीनों वहन-भाईयों को रोता देख ग़मगीन थे। कितना रोया था विनीत ! कितने आंसू बहाये थे उसने! आंखें सूख गई थीं उसकी। रोते-रोते बेहोश हो गया था।
उस समय के बाद वह जैसे बिल्कुल ट गया था। जीना तो था ही, परन्तु ऐसा लगता था जैसे जीवन उससे बहुत दूर चला गया हो। उसकी जिन्दगी में एक उसकी मां ही रह गई थी
और उसकी भी उसे चिता बनानी पड़ गई थी। उसकी जिन्दगी में उदासी और खामोशी ठहर गई थी। निराशा उसको खोखला बनाने पर तुली पड़ी थी। मन जैसे बिल्कुल मर गया था। जीने की लालसा खत्म हो गई थी। जिन्दा रखे थी तो उसकी वहनों की रक्षा करने की जिम्मेदारी था —बस यह सोचकर शायद वह जिन्दा था। अनीता और सुधा का उसके सिवा था ही कौन? अगर वह ऐसा कोई कदम उठा लेता तो उसकी वहनों का क्या होगा? यही सोचकर वह सिहर उठता था। "नहीं....नहीं....मैं ऐसा हरगिज नहीं करूंगा। मैं अनीता और सुधा को मां-बाप का प्यार दूंगा....उनकी शादी करूंगा।" यही सोचकर वह फिर से अपने काम में लग गया। दुःख-सुख तो जीवन के दो पहलू हैं। ये तो आते-जाते रहते हैं। मगर पेट तो हर समय, हर स्थिति में जीने को मांगता है। वह फिर से काम में लग गया। धीरे-धीरे सब उसका साथ छोड़ते जा रहे थे। मगर एक प्रीति ही ऐसी थी जिसने उसका साथ नहीं छोड़ा था। वह हर दुःख-दर्द में विनीत के साथ थी। प्रीति उससे बराबर मिलती रहती थी। हमेशा उसको तसल्ली देती थी। विनीत को समझाने की कोशिश करती थी। शायद प्रीति के समझाने का ही परिणाम था कि वह टूटकर भी जिन्दा था। प्रीति उससे बराबर मिलती रही थी क्योंकि विनीत ने उसके पिता की बात प्रीति से नहीं बतायी थी। प्रीति के पिता ने उसे प्रीति से मिलते हुए देखा हो अथवा नहीं, मगर वे दोबारा विनीत के पास नहीं आये थे।
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
धीरे-धीरे तुफान तो गुजर गया, परन्तु अपने निशानों को छोड़ गया था। घाब नासूर बन चुके थे। विनीत को जब भी मां की याद आ जाती थी, वह रो उठता था और घण्टों-घण्टों मां की याद में तड़पता रहता था। फिर भी जीवन अपनी उसी गति से चलता रहा। विनीत मां की मृत्यु होने के कारण बीमार पड़ गया था। वह कई दिनों तक ऑफिस भी नहीं जा पाया था। एक दिन वह घर पर ही लेटा था तो ऑफिस से उसका मैनेजर देखने आया। कम्पनीका मैनेजर किशोर अच्छा आदमी था। आयु में अधिक नहीं था। वह विनीत से पहले दिन से ही काफी अच्छे ब्यबहार से पेश आया था। वह बीमार हुआ था और आठ दिनों तक दफ्तर नहीं जा पाया था। उसी अबसर पर मैनेजर किशोर उसके घर आया था। बहू कमरे में लेटा था और मैनेजर को अपने घर आया देखकर चौंका था। "साहब! आप....."
“तुम बीमार थे....आज मैं इधर से गुजर रहा था। सोचा तुम्हारी बीमारी के विषय में ही पूछता चलूं। तुम कैसे हो अब....?"
“जी ठीक हूं....आपने तो व्यर्थ ही कष्ट किया। मैं तो कल स्वयं ही आपकी सेवा में उपस्थित हो जाता।"
"कोई बात नहीं....। रोज तुम आते थे, आज मैं चला आया। हां, घर में अकेले ही रहते हो क्या....?" किशोर ने कमरे से बाहर देखते हुए पूछा था।
“फिलहाल तो ऐसा ही समझ लीजिये साहब।" वह सहसा ही दुःखी हो गया था
- "पिताजी काफी पहले चल बसे थे। मां को भी गुजरे हुये तीन महीने बीत गये हैं। घर में दो वहनें हैं....."
"ओह....." तभी अनीता दवाई के लिये गर्म पानी लेकर अन्दर आयी थी। उसने पानी का गिलास लेकर कहा था-"अनीता, मैनेजर साहब हैं....इनके लिये कुछ....."
"नमस्ते।" अनीता ने अभिबादन के लिये हाथ जोड़े थे। उसके अभिवादन का उत्तर देने के बाद किशोर ने कहा था-"मिस्टर विनीत ....मैं इस समय चाय बगैरह कुछ नहीं लूंगा।"
"क्यों....?"
“मैं अभी-अभी खा-पीकर आ रहा हूं।"
"मैनेजर साहब, छोटे आदमियों को भी सेवा का अवसर मिलना चाहिये....। अनीता, तुम जाओ।" वह चली गयी। चाय पीने के बाद मैनेजर साहब चले गये थे। गोली लेने के बाद वह भी अपने विचारों में उलझ गया था। उस दिन के बाद मैनेजर का स्वभाव उसके प्रति और भी नरम हो गया था। बल्कि एक दिन तो उन्होंने कह भी दिया था-"मिस्टर विनीत, इन्सान का सबसे पहला गुण है इन्सानियत। उसे अपने चारों ओर के वातावरण में यह बात देखनी चाहिये कि कौन लोग ऐसे हैं जिन्हें उसकी सहायता की आवश्यकता है। बिना किसी स्वार्थ के उसे यथाशक्ति दूसरों की सहायता करनी चाहिये। मैं छोटे और बड़े बाली बात को भी नहीं मानता। जब सारे लोग ईश्वर की दृष्टि में एक हैं तो मानव की दृष्टि में भी सब समान होने चाहिये।"
“जी...."
"भविष्य में कभी मुझे मैनेजर मत समझना।"
“जी....?" वह चौंका था।
"मैं भी तुम्हारीही तरह एक इन्सान हं मिस्टर विनीत।" मैनेजर ने कहा था—“समय की बात है कि तुम क्लर्क बन गये और मैं मैनेजर। मैं समझता हूं,आपसी सम्बन्धों में यह पद बाली बात नहीं आनी चाहिये। मुझे तुम्हारे विषय में सब कुछ पता चल चुका है। और मुझे तुमसे पूरी सहानुभूति है। मेरे योग्य कोई सेवा हो तो निःसंकोच बता देना।"
"ओह....." वह मैनेजर के चेहरे की ओर देखता रह गया। उसकी समझ में नहीं आया था कि वह उनकी प्रशंसा में क्या कहे। उसने केवल इतना कहा था-"आप देवता हैं साहब।"
"देवता नहीं, इन्सान कहो।" विनीत पर किशोर ने सहानुभूति दिखाई थी। वह किशोर के विषय में सोचने लगा हमारे मैनेजर अपनी कम्पनी के नौकरों तक से कितना प्रेम करते हैं। विनीत की नजरों में किशोर की इज्जत बढ़ गई थी। कहां उसे नौकरी ढूंढने में इतनी ठोकरें खानी पड़ी थीं और एक मैनेजर ने तो इतने कटु शब्द कहकर उसको बेइज्जत कर दिया कि-"हम बी.ए. पास को चपरासी भी नहीं रखते....।
वह उस दिन कितना हताश हुआ था, बताया नहीं जा सकता। उस मैनेजर में और किशोर में बहुत अन्तर था। किशोर ने अपने व्यवहार से विनीत पर अपना पूरा अधिकार जमा लिया था। विनीत भी उसे अपना अच्छा दोस्तही मानने लगा था। उस दिन के बाद मैनेजर किशोर यदा-कदा उसके घर पर आ जाते थे। कुछ समय बाद आपस की जो दूरी थी, वह लगभग समाप्त ही हो गई थी। सम्बन्ध आपस में दोस्तों जैसा ही रह गया था। विनीत को इससे बेहद खुशी थी कि उसको किशोर जैसा मित्र मिल गया था। वैसे भी आज तक उसका कोई मित्र नहीं था। दोनों में सम्बन्ध दृढ़ हो गये। पारिवारिक ब ब्यबहारिक दोनों तरह के सम्बन्ध वह आपस में ठीक प्रकार से निभाते आ रहे थे। एक दिन विनीत तो दफ्तर चला गया था। तब किशोर ने विनीत के घर पर जाने का प्रोग्राम बनाया। उसको पता था कि घर में केवल अनीता ही होगी। विनीत तो दफ्तर में होगा और सुधा पढ़ने चली गई होगी। किशोर की आंखों में बही दिन घूम गया था जिस दिन उसने अनीता को पहली बार देखा था—जब वह पानी लेकर विनीत को दबाई देने आयी थी। किशोर वहीं बैठा था। अनीता को देखते ही किशोर के मस्तिष्क में खलबली मच गई थी। उसने उसी दिन से उसका फायदा उठाने की सोच ली थी। इसीलिये उसने विनीत से दोस्ताना व्यवहार अपनाया था। और आज शायद उसकी इस इन्तजार की हद खत्म होने का समय आ गया था। उसकी आंखों में वासना चमक उठी थी। किशोर जल्दी-जल्दी नहा-धोकर तैयार हुआ। उसने ब्लैक पैन्ट ब सफेद शर्ट पहनी, उस पर ब्लैक रंग की प्रिन्ट वाली टाई लगाई और बालों को सलीके से बनाकर एक बार स्वयं को शीशे के सामने खड़ा होकर ऊपर से नीचे तक देखा। देखने के पश्चात् वह स्वयं ही प्रसन्न हो उठा और सोचने लगा आज अनीता मुझे देखते ही इम्प्रेस हो जायेगी। वास्तव में वह आज अन्य दिनों की अपेक्षा ठीक ही लग रहा था। उसने कोबरा' का परफ्यूम उठाकर अपने । ऊपर लगाया और टाई को ठीक करता हुआ मन-ही-मन मुस्कराकर सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा।
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09-17-2020, 12:58 PM,
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
बिबश होकर अनीता को उसे अन्दर आने के लिये कहना ही पड़ा। "आइए.....अन्दर आइए..।" कुर्सी रखते हुए अनीता ने कहा, “बैठिये।"
किशोर अन्दर आकर कुर्सी पर बैठ गया। अनीता पानी लेने चली गई। जब थोड़ी देर पश्चात् वह वापस आयी तो उसके हाथ में एक खूबसूरत कांच की छोटी-सी ट्रे में कांच का पानी से भरा गिलास रखा था। अनीता ने ट्रे आगे की तो किशोर ने पानी का गिलास उठाया और गिलास हाथ में लेकर बैठ गया-थोड़ी देर में वह एक-एक बूंट पानी पीने लगा। शायद उसको प्यास नहीं लग रही थी, मगर वह पानी पीने की कोशिश कर रहा था। अनीता कुछ पल गिलास बापस लेने की प्रतीक्षा में खड़ी रही, फिर बहू अन्दर चली गई। ट्रे रखकर वापस आयी तो किशोर ने कहा- "अनीता, अब हम इतने बुरे भी नहीं हैं जो हमारे पास कुछ देर बैठना भी नहीं चाहतीं....। इतनी देर तक तो हमें दरवाजे पर ही खड़ा रखा —और अब यहा चुपचाप बिठाना है क्या?"
अनीता जबाब में चुप रही। फिर बोली-“ऐसी बात नहीं है....."
किशोर ने पानी का खाली गिलास अनीता के हाथ में देना चाहा, इसीलिये उसने खाली गिलास को हाथ में ही ले रखा था। वह गिलास अनीता की ओर बढ़ाता हुआ बोला “बैंक्यू।"
अनीताने गिलास लेने के लिये हाथ बढ़ाया तो किशोर ने अपना हाथ उसके हाथ से स्पर्श कर दिया। अनीता को बहुत गुस्सा आया और वह हाथ झटककर गिलास लेकर अन्दर चली गई। वह अब डर से कांप उठी। उसकी जरा भी हिम्मत नहीं हुई कि वह बाहर आ जाये। उसे किशोर पर अत्यधिक क्रोध आ रहा था। मगर वह मन-ही-मन सोच रही थी कि अगर किशोर अन्दर भी आ गया तो क्या होगा? उसने स्वयं ही जबाब दिया—अगर उसने कोई ओछी हरकत की तो वह फिर यह भूल जायेगी कि किशोर विनीत का मैनेजर है या मालिक! उसे वह सबक सिखायेगी कि याद रखेगा। जब काफी देर तक भी अनीता बापस नहीं आई तो किशोर आग बबूला हो गया। उसे अपनी बेइज्जती महसूस हुई। वह अनीता से बिना मिले वहां से वापस चला गया। मगर उसने सोच लिया कि वह अनीता पर डांट पड़वाकर ही दम लेगा। अनीता बापस बाहर आयी तो किशोर जा चुका था। यह देखकर उसने चैन की सांस ली और जल्दी से बाहर का दरवाजा बंद कर लिया। किशोर भिनभिनाता हुआ ऑफिस पहुंचा।
उसने विनीत को ऑफिस में बुलवाया। "मे आई कम इन सर।"
"यस, कम इन।" कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा-"विनीत, बैठो। मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।"
विनीत चौंका-"क्या सर, हमसे कोई गलती हो गई क्या...."
“नहीं, तुमसे तो नहीं पर अनीता से....."
किशोर की बात बीच में काटते हुए विनीत ने कहा-"क्या बात है सर? जल्दी बताइये।"
"बात दरअसल ऐसी है कि मैं आज उधर किसी काम से गया था, सोचा तुम्हारे घर भी होता चलूं....मगर अनीता ने मेरे साथ ऐसा बुरा व्यवहार किया कि मुझे स्वयं को बहुत बुरा लग रहा है।" किशोर ने बात बनाई।
"क्यों सर, ऐसा क्या किया उसने?" वह धीमे स्वर में बोला। उसे डर था कि किशोर उससे नाराज होकर नौकरी से न निकाल दे। अगर ऐसा हुआ तो क्या होगा....। विनीत इन्हीं विचारों में खामोश बैठा था कि किशोर ने उसको अपनी ओर आकर्षित किया।
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