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Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )
बेगुनाह हिन्दी नॉवेल चॅप्टर 1
मैं कनाट प्लेस में स्थित यूनिर्सल इनवेस्टिगेशन के अपने ऑफिस में अपने केबिन में बैठा था। बैठा मैंने इसलिए कहा क्योंकि जिस चीज पर मैं विराजमान था, वह एक कुर्सी थी, वरना मेरे पोज में बैठे होने वाली कोई बात नहीं थी। मेज के एक खुले दराज पर पांव पसारे अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर मैं लगभग लेटा हुआ था। मेरे होंठों में रेड एंड वाइट का एक ताजा सुलगाया सिगरेट लगा हुआ था और जेहन में पीटर स्कॉट की उस खुली बोतल का अक्स बार-बार उभर रहा था जो कि मेरी मेज के एक दराज में मौजूद थी और जिसके बारे में मैं यह निहायत मुश्किल फैसला नहीं कर पा रहा था कि मैं उसके मुंह से अभी मुंह जोड़ लें या थोड़ा और वक्त गुजर जाने दें।
अपने खादिम को आप भूल न गए हों इसलिए मैं अपना परिचय आपको दोबारा दे देता हूं । बंदे को राज कहते हैं। मैं प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धंधे से ताल्लुक रखता हूं जो हिंदुस्तान में अभी ढंग से जाना-पहचाना। नहीं जाता लेकिन फिर भी दिल्ली शहर में मेरी पूछ है। अपने दफ्तर में मेरी मौजूदगी हमेशा इस बात का सबूत होती है कि मुझे कोई काम-धाम नहीं, जैसा कि आज था । बाहर वाले कमरे में मेरी सैक्रेटरी डॉली बैठी थी और काम न होने की वजह से जरूर मेरी ही तरह बोर हो रही थी। स्टेनो के लिए दिये मेरे विज्ञापन के जवाब में जो दो दर्जन लड़कियां मेरे पास आई थीं, उनमें से डॉली को मैंने इसलिए चुना था क्योंकि वह सबसे ज्यादा खूबसूरत थी और सबसे ज्यादा जवान थी । उसकी टाइप और शॉर्टहैंड दोनों कमजोर थीं लेकिन उससे क्या होता था ! टाइप तो मैं खुद भी कर सकता था। बाद में डॉली का एक और भी नुक्स सामने आया था - शरीफ लड़की थी। नहीं जानती थी कि डिक्टेशन लेने का मुनासिब तरीका यह होता है कि स्टेनो सबसे पहले आकर साहब की गोद में बैठ जाये।
अब मेरा उससे मुलाहजे का ऐसा रिश्ता बन गया था कि उसके उस नुक्स की वजह से मैं उसे नौकरी से निकाल तो नहीं सकता था लेकिन इतनी उम्मीद मुझे जरूर थी कि देर-सबेर उसका वह नुक्स रफा करने में मैं कामयाब हो जाऊंगा।
"डॉली !" - मैं तनिक, सिर्फ इतने कि आवाज बाहरले केबिन में पहुंच जाये, उच्च स्वर में बोला ।
फरमाइए ?" - मुझे डॉली की खनकती हुई आवाज सुनाई दी।
"क्या कर रही हो?"
"वही जो आपकी मुलाजमत में करना मुमकिन है।”
"यानी ?"
"झक मार रही हूं।"
"यहां भीतर क्यों नहीं आ जाती हो ?"
"उससे क्या होगा ?"
"दोनों इकट्टे मिलकर मारेंगे।"
"नहीं मैं यहीं ठीक हूं।"
"क्यो ?"
"क्योंकि आपकी और मेरी झक में फर्क है ।"
"लेकिन.."
"और दफ्तर में मालिक और मुलाजिम का इकट्टे झक मारना एक गलत हरकत है। इससे दफ्तर का डैकोरम बिगड़ता है।"
"अरे, दफ्तर मेरा है, इसे मैं..."
"नहीं ।" - डॉली ने मेरे मुंह की बात छीनी - "आप इसे जैसे चाहें नहीं चला सकते । यह आपका घर नहीं, एक पब्लिक प्लेस है।"
"तो फिर मेरे घर चलो।"
“दफ्तर के वक्त वह भी मुमकिन नहीं ।”
"बाद में मुमकिन है ?"
"नहीं ।”
"फिर क्या फायदा हुआ ?"
"नुकसान भी नहीं हुआ ।"
"चलो, आज कहीं पिकनिक के लिए चलते हैं।"
“कहां ?"
"कहीं भी। बड़कल लेक । सूरज कुंड । डीयर पार्क ।”
"यह खर्चीला काम है।"
"तो क्या हुआ ?"
"यह हुआ कि पहले इसके लायक चार पैसे तो कमा लीजिये।"
"डॉली !" - मैं दांत पीसकर बोला ।
"फरमाइए ?"
"तुम एक नंबर की कमबख्त औरत हो ।”
"करेक्शन ! मैं एक नंबर की नहीं हूं। और औरत नहीं, लड़की हूं।"
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RE: Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )
"काम की बात बाद में" - मैं बोला - "पहले मेरी एक बात का जवाब दो ।”
पूछिए ।"
"कोई ऐसा तरीका है जिससे तुम मुझे हासिल हो सको ?"
"है" - वह विनोदपूर्ण स्वर में बोली - "बड़ा आसान तरीका है।"
"कौन सा ?" - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला।
मुझसे शादी कर लो।" ।
"ओह !" - मैंने आह-सी भरी ।
वह हंसी ।
"मैं एक बार शादी करके पछता चुका हूं, मार खा चुका हूं। दूध का जला छाछ फेंक-फूककर पीता है।"
"दैट इज यूअर प्रॉबलम ।" मैं खामोश रहा।
"अब बताइये, काम मिला ?"
"लगता है कि मिला । अब तुम भी अपनी तनखाह की हकदार बनकर दिखाओ ।”
"वो कैसे ?"
"डायरैक्ट्री में एक नंबर होता है जिस पर से पता बताकर वहां के टेलीफोन का और उसके मालिक का नंबर जाना जा सकता है।"
"बशर्ते कि उस पते पर फोन हो ।"
"फोन होगा। तुम ग्यारह नंबर छतरपुर के बारे में पूछकर देखो । यह कोई फार्म है और इसका मालिक कोई चावला हो सकता है। ऐसे बात न बने तो डायरैक्ट्री निकाल लेना और उसमें दर्ज हर चावला के नंबर पर फोन करके मालूम करना कि छतरपुर में किसका फार्म है।"
"कोई बताएगा ?"
"जैसे मुझे ईट मार के बात करती हो, वैसे पूछोगी तो कोई नहीं बताएगा । आवाज में जरा मिश्री, जरा सैक्स घोलकर पूछोगी तो सुनने वाला तुम्हें यह तक बताने से गुरेज नहीं करेगा कि वह कौन-सा आफ्टर-शेव लोशन इस्तेमाल करता है, विस्की सोडे के साथ पीता है या पानी के साथ, औरत..."
"बस बस । मैं मालूम करती हूं।" पांच मिनट बाद ही वह वापस लौटी।
"उस फार्म के मालिक का नाम अमर चावला है । गोल्फ लिंक में रिहायश है । कोठी नंबर पच्चीस ।”
"कैसे जाना ?"
"बहुत आसानी से । मैंने अपने एक बॉयफ्रेंड को फोन किया । वह दौड़कर छतरपुर गया और वहां से सब-कुछ पूछ
आया ।"
"इतनी जल्दी ?"
"फुर्तीला आदमी है। बहुत तेज दौड़ता है। आपकी तरह हर वक्त कुर्सी पर पसरा थोड़े ही रहता है..."
"वो शादी करने को भी तैयार होगा ?"
"हां ।"
"तो जाकर मरती क्यों नहीं उसके पास ?"
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03-24-2020, 08:57 AM,
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RE: Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )
"अभी कैसे मरू? अभी तो शहनाई बजाने वाले छुट्टी पर गए हुए हैं। उनके बिना शादी कैसे होगी ?"
“मुझे उस बॉयफ्रेंड का नाम बताओ।"
"क्यों ?"
"ताकि मैं अभी जाकर उसकी गर्दन मरोड़कर आऊं।"
"फांसी हो जाएगी ।" ।
"ऐसे जीने से तो फांसी पर चढ़ जाना कहीं अच्छा है।"
"अभी आपके पास वक्त भी तो नहीं । जो ताजा-ताजा काम मिला है, उसे तो किसी ठिकाने लगाइए ।"
"कैसे जाना तुमने अमर चावला के बारे में ? और अगर तुमने फिर अपने बॉयफ्रेंड का नाम लिया तो कच्चा चबा जाउन्गा।"
"आज मंगलवार है ।"
मैंने कहरभरी निगाहों से उसकी तरफ देखा ।।
"सब कुछ डायरैक्ट्री में लिखा है" - वह बदले स्वर में बोली - "उसके घर का पता । उसके फार्म का पता । उसके धंधे को पता । मैंने फोन करके तसदीक भी कर ली है कि वह ग्यारह छतरपुर वाला ही चावला है।"
"धधे का पता क्या है ?"
"चावला मोटर्स, मद्रास होटल, कनॉट प्लेस ।"
"यह वो चावला है ?"
"वो का क्या मतलब ? आप जानते हैं उसे ?"
"जानता नहीं लेकिन उसकी सूरत और शोहरत से वाकिफ हूं। चावला मोटर्स का बहुत नाम है दिल्ली शहर में । वह इंपोर्टेड कारों का सबसे बड़ा डीलर बताया जाता है।"
"और वह आपका क्लायंट बनना चाहता है !"
"वह नहीं । कोई मिसेज चावला, जो कि पता नहीं कि उसकी मां है, बीवी है, बेटी है या कुछ और है।"
"बेटी हुई तो चांदी है आपकी ।"
मैंने उत्तर न दिया। अब बहस का वक्त नहीं था। मुझे काम पर लगना था। शाम आठ बजे की मुलाकात के वक्त से पहले मैंने कथित मिसेज चावला की बैकग्राउंड जो टटोलनी थी। मद्रास होटल के पीछे वह एक बहुत बड़ा अहाता था, जिसमें दो कतारों में कोई दो दर्जन विलायती कारें खड़ी थीं। पिछवाड़े में एक ऑफिस था जिसका रास्ता कारों की कतारों के बीच में से होकर था।
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03-24-2020, 08:57 AM,
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RE: Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )
मैं सड़क के पार अपनी पुरानी-सी फिएट में बैठा था और अपना कोई अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश कर रहा था।
आते ही मैंने वहां के एक कर्मचारी से संपर्क करके अमर चावला के बारे में कुछ जानने की कोशिश की थी। लेकिन मेरी इसलिए दाल नहीं थी क्योंकि तभी अमर चावला वहां पहुंच गया था। उस क्षण वह भीतर ऑफिस में बैठा था और ऑफिस के शीशे की विशाल खिड़की में से मुझे दिखाई दे रहा था।
रेड एंड वाइट के कश लगाता मैं उसके वहां से टलने की प्रतीक्षा कर रहा था।
ऑफिस के दरवाजे पर वह मर्सिडीज कार खड़ी थी, जिस पर कि वह थोड़ी देर पहले वहां पहुंचा था । उसका वर्दिधारी ड्राइवर कार के साथ ही टेक लगाए खड़ा था, इससे मुझे लग रहा था कि वह जल्दी ही वहां से विदा होने वाला था।
दस मिनट बाद वह दो दादानुमा व्यक्तियों के साथ बाहर निकला । वे सब सैंडविच की सूरत में - पहले दादा फिर
चावला, फिर दादा - कार में सवार हो गए । ड्राइवर भी वापिस अपनी सीट पर जा बैठा। उसने कार का इंजन स्टार्ट किया। उस घड़ी किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर मैंने चावला का पीछा करने का फैसला किया। मर्सिडीज वहां से रवाना हुई तो मैंने अपनी फिएट उसके पीछे लगा दी।
चावला कोई पचास साल का ठिगना, मोटा, तंदरुस्त आदमी था । मुझे फोन करने वाली कथित मिसेज चावला से उसकी क्या रिश्तेदारी थी, इसका संकेत मुझे अभी भी हासिल नहीं था। मैं उसकी कल्पना अमर चावला से किसी रिश्तेदार के तौर पर महज इसलिए कर रहा था कि उसने जिस जगह पर मुझे मिलने को बुलाया था, उसका मालिक अमर चावला था । हकीकतन दोनों का एक जात का होना महज इत्तफाक हो सकता था और मुझे फार्म पर बुलाये जाने की वजह रिश्तेदारी की जगह यारी हो सकती थी। अगली कार राजेन्द्र प्लेस जाकर रूकी। चावला और उसके दोनों साथी कार से निकलकर एक बहुमंज़िली इमारत में दाखिल हुए । अपनी कार को पार्क करके जब मैंने उस इमारत में कदम रखा तो मैंने उन्हें लिफ्ट के सामने खड़े पाया। मेरे देखते-देखते लिफ्ट वहां पहुंची। उनके साथ ही मैं भी लिफ्ट में दाखिल हो गया। किसी की तवज्जो मेरी तरफ नहीं थी। लिफ्ट पांचवी मंजिल पर रूकी तो वे दोनों बाहर निकले । मैं भी बाहर निकला। लिफ्ट फ्लोर के मध्य में खुलती थी । वे बायीं तरफ चले तो मैं जानबूझकर विपरीत दिशा में चल पड़ा।
एक क्षण बाद मैंने गर्दन घुमाकर पीछे देखा तो मैंने उन्हें कोने का एक दरवाजा ठेलकर भीतर दाखिल होते देखा। वे दृष्टि से ओझल हो गए तो मैं वापिस लौटा। कोने के उस दरवाजे पर पीतल के चमचमाते अक्षरों में लिखा था - जॉन पी एलेग्जेंडर एंटरप्राइसिज ।
| मैं सकपकाया । तब मुझे पहली बार सूझा कि मैं कहां पहुंच गया था।
एलेग्जेंडर शहर का बहुत बड़ा दादा था और उसकी एंटरप्राइसिज जुआ, अवैध शराब, प्रोस्टिच्युशन, स्मगलिंग और ब्लैकमेलिंग वगैरह थीं ।
और चावला अपने दो दादाओं के साथ वहां आया था। मैं वहां से टलने ही वाला था कि एकाएक मेरे कान में एक आवाज पड़ी –
"क्या चाहिये ?"
मैंने चिहुंक कर पीछे देखा। मेरे पीछे एक दरवाजा निशब्द खुला था और उसकी चौखट पर उस वक्त चावला के दो। | दादाओं में से एक खड़ा मुझे अपलक देख रहा था।
वह कंजी आंखों और चेचक से चितकबरे हुए चेहरे वाला सूरत से ही निहायत कमीना लगने वाला आदमी था। प्रत्यक्षत: वह दरवाजा भी एलेग्जेंडर के ऑफिस का था।
"कुछ नहीं ।” - मैं सहज भाव से बोला।
"तो ?"
"मैं टॉयलेट तलाश कर रहा था ।"
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03-24-2020, 08:57 AM,
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RE: Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )
“कमाल है ! वहां कौन रहता है ?"
"वहां तो जूही चावला नाम की फैशन मॉडल रहती है।"
"सबरवाल वहां पहले रहते होंगे !"
"न । जूही चावला तो वहां बहुत अरसे से रहती है।"
"कमाल है ! ऐसी गडबड़ कैसे हो गई पते में !"
"कहीं तुमने नारायणा तो नहीं जाना ?" "नारायणा और नारायण विहार में फर्क है ?"
"हां ।"
"तो यही गड़बड़ हुई है। शायद मैंने नारायणा ही जाना था। बहरहाल तकलीफ का शुक्रिया ।”
वह मुस्कराई । मुस्कराई क्या, कहर ढाया उसने । - उसके कम्पाउंड से निकलकर मैं वापिस सड़क पर जा पहुंचा।
तभी मुझे एक सफेद एम्बैसडर गली में दिखाई दी - जो कि मेरे 71 नम्बर इमारत के कम्पाउंड में दाखिल होते समय
शर्तिया वहां नहीं थी। मैं तनिक सकपकाया-सा आगे बढ़ा । एम्बैसडर का अगला एक दरवाजा खुला और चितकबरे चेहरे वाले दादा ने बाहर कदम रखा। फिर कार का दूसरा ड्राइविंग सीट की ओर वाला, दरवाजा भी खुला और चितकबरे के जीड़ीदार ने बाहर कदम रखा।
मैं थमकर खड़ा हो गया।
आसार अच्छे नहीं लग रहे थे लेकिन वहां से भाग खड़ा होना भी मेरी गैरत गवारा नहीं कर रही थी। मैं मन ही मन हिसाब लगाने लगा कि क्या मैं उन दोनों का मुकाबला कर सकता था ? अगर चितकबरा रिवॉल्वर न निकाले तो - मेरे मन ने फैसला किया - कर सकता था।
दोनों मेरे करीब पहुंचे। सतर्कता की प्रतिमूर्ति बना मैं बारी-बारी उनकी सूरतें देखने लगा। चितकबरे के चेहरे पर एक विषैली मुस्कराहट उभरी । "पहचाना मुझे ?" - वह बोला ।
"हां ।" - मैं सहज भाव से बोला - "पहचाना ।"
"और इसे ?" - एकाएक उसके हाथ में एक लोहे का कोई डेढ़ फुट का डण्डा प्रकट हुआ। मैंने जवाब देने में वक्त जाया न किया, जो कि मेरी दानाई थी। मैंने एकाएक अपने दायें हाथ का प्रचण्ड घूसा उसके थोबड़े पर जमा दिया। वह पीछे को उलट गया। तभी उसके जोड़ीदार का घूसा मेरी कनपटी से टकराया। मेरे घुटने मुड़ गए । एक और घूसा मेरी खोपड़ी पर पड़ा । मैं मुंह के बल जमीन पर गिरा । बड़ी फुर्ती से गिरे-गिरे मैंने करवट बदली तो मैंने उसे अपने भारी जूते का प्रहार मेरी छाती पर करने को आमादा पाया । मैंने फिर कलाबाजी खाकर उसका वह वार बचाया और फिर लेटे-लेटे ही अपनी दोनों टांगें इकट्ठी करके एक दोलत्ती की सूरत में उन्हें उस पर चलाया। मेरी दोलती उसके पेट के निचले भाग पर पड़ी । वह तड़पकर दोहरा हो गया । तब तक चितकबरा उठकर अपने पैरों पर खड़ा हो चुका था और अपने शोल्डर होल्स्टर में से रिवॉल्वर निकाल रहा था। लेकिन उसका रिवॉल्वर वाला हाथ अभी होल्स्टर से अलग भी नहीं हो पाया था कि वह दोबारा धूल चाट रहा था। खुदाई मदद के तौर पर मेरा नौजवान सिख टैक्सी ड्राइवर वहां पहुंच गया था और उसके एक दोहत्थड़ ने चितकबरे को दोबारा धूल चटा दी थी।
मैं फुर्ती से उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ और उसके जोड़ीदार की तरफ आकर्षित हुआ जो कि मेरी दोलत्ती के वार से संभलने की कोशिश कर रहा था। मैंने उसे उसकी कोशिश में कामयाब न होने दिया। उसके सीधा हो पाने से पहले ही मैंने उसे घूसों पर धर लिया। तभी 71 नम्बर का दरवाजा खुला और जीनधारी युवती फिर बरामदे में प्रकट हुई । बाहर होती लड़ाई देखकर वह फौरन वापिस भीतर दाखिल हो गई।
"चलो ।" - मैं टैक्सी ड्राइवर से बोला - "यहां पुलिस आ सकती है।" | उन दोनों को सड़क पर छोड़कर हम सरपट टैक्सी की तरफ भागे ।
३ अगले ही क्षण हम दोनों को लेकर टैक्सी वहां से यूं भागी जैसे तोप से गोला छूटा हो ।
पुलिस वहां न भी पहुंचती तो भी चितकबरा गोलियां दागनी शुरू कर सकता था। इस बार मैं टैक्सी में पीछे नहीं, ड्राइवर की बगल में बैठा था। "बरखुरदार !" - मैं प्रशंसा और कृतज्ञता मिश्रित स्वर में बोला - "तू ता कमाल ई कर दित्ता ।"
"बाउजी" - वह तनिक शर्माया - "अब भला मैं अपनी आंखों से अपनी सवारी की दुर्गत होते कैसे देख सकता था ! ऊपर से तुसी निकले साडे पंजाबी भ्रा ।"
"लेकिन सरदार नहीं ।"
"फेर की होया !" - वह तरन्नुम में बोला - "भापा जी, असी दोवे इक देश दी धड़कन, मां दे पुत्तर सक्के भ्रा । क्यों भई रामचन्दा ?" "हां भई रामसिंगा।" - मैं भी तरन्नुम में बोला। वापिस राजेन्द्रा प्लेस पहुंचने तक हम दोनों ने दर्जनों बार वह एक लाइन का गाना आवाज में आवाज मिलाकर गाया
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