RE: Mastaram Kahani कत्ल की पहेली
“मैडम, आपका कहना है कि आपने पायल को उस रोज सुबह-सवेरे तब देखा था जबकि वो चुपचाप यहां से खिसक जाने की कोशिश कर रही थी ?”
“हां ।” - ज्योति बोली - “कितनी बार तो बता चुकी मैं ।”
“और आपने ये कहा था कि वो पहले से भी ज्यादा हसीन, पहले से भी ज्यादा दिलकश लगती थी, उसमें कोई तब्दीली नहीं आयी थी, उसके लिये जैसे वक्त ठहर गया था, वगैरह ?”
“हां ।”
“मिस्टर फिगुएरा, याद है आपको भी ?”
“हां” - फिगुएरा बोला - “याद है । ऐसा ही कहा था मैडम ने । लेकिन...”
“उनकी क्या गवाही दिलवा रहे हो ?” - ज्योति अप्रसन्न भाव से बोली - “मैं क्या मुकर रही हूं अपनी बात से ? मैं फिर कहती हूं, मैंने पायल को वैसा ही देखा था जैसा मैंने...”
“आपने वैसा नहीं देखा था ।” - राज एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला - “आपने कैसा भी नहीं देखा था । देखा ही नहीं था आपने पायल को । न ये घर छोड़कर जाने की कोशिश करते और न किसी और तरीके से । उस रोज पायल से हुई अपनी मुलाकात का जो मंजर आपने बयान किया था, वो फर्जी था । मनघड़न्त था । आपकी कल्पना की उपज था । पायल तब कैसी दिखती थी, वो क्या पहने थी, क्या बातें की थीं उसने आप से, ये सब आपका झूठ है, फरेब है, उस पर हाउसकीपर के कत्ल का इल्जाम थोपने की भूमिका है । आप वैसी पायल से इस मैंशन में कभी नहीं मिलीं ।”
“तुम पागल हो । तुम ये कहना चाहते हो कि पायल यहां आयी ही नहीं थी ? सतीश, तुम बताओ, क्या पायल ने अपने आगमन की खबर करने के लिये पायर से तुम्हें फोन नहीं किया था ?”
“किया था ।” - सतीश पुरजोर लहजे में बोला - “और इस बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती कि मैंने फोन पर पायल से ही बात की थी ।”
“जरूर की थी ।” - राज बोला - “लेकिन फोन पर । रूबरू नहीं । मिस्टर सतीश ने पायल से बात ही की थी, उसे देखा नहीं था ।”
“शशिबाला ने” - ज्योति बोली - “उसके कमरे पर जाकर उससे बात की थी ।”
“कमरे के बन्द दरवाजे के आरपार से ।” - राज बोला - “रूबरू नहीं । मिस्टर सतीश की तरह शशिबाला ने भी उसकी आवाज ही सुनी थी, उसकी सूरत नहीं देखी थी ।”
“आवाज उसकी थी ।” - शशिवाला बोली - “मैं उसकी आवाज लाखों में पहचान सकती हूं ।”
“आप करोड़ो में पहचान सकती होंगी लेकिन ये हकीकत अपनी जगह कायम है कि आपने पायल की सूरत नहीं देखी थी । ऐन इसी तरह फौजिया ने पायल को वसुन्धरा से झगड़ते, उसे डांटते, उस पर बरसते सुना था लेकिन उसकी सूरत नहीं देखी थी ।”
“वो हाउसकीपर से झगड़ रही थी” - फौजिया बोली - “तो हाउसकीपर ने तो देखी होगी उसकी सूरत ।”
“हाउसकीपर ने क्या देखा, इसकी तसदीक हाउसकीपर ही कर सकती थी जो कि परलोक सिधार चुकी है ।”
“लेकिन” - सतीश बोला - “जब तुम वे मानते हो कि जो आवाज इतने जनों ने सुनी थी, वो पायल की थी तो वे क्यों नहीं मानते कि पायल यहां थी !”
“मैंने ये नहीं कहां कि पायल यहां नहीं थी । मैंने सिर्फ ये कहा है कि जिस पायल का अलंकारिक जिक्र ज्योति ने किया है, उसका कोई अस्तित्व नहीं था । हसीन, दिलकश, दिलफरेब, फर के कीमती सफेद कोट में लिपटी, जगमग-जगमग करती पायल सिर्फ और सिर्फ ज्योति निगम की कल्पना की उपज है ।”
“लेकिन” - फिगुएम बोला - “ये तुम मानते हो कि पायल यहां थी ?”
“हां, मानता हूं । उसके यहां न हुए बिना इतने लोगों को उसकी घंटी-सी बजती आवाज से, उसकी खनकती हंसी से धोखा नहीं हो सकता था । जिस किसी का दावा है कि उसने पायल की आवाज सुनी थी, सच है । सच है कि मिस्टर सतीश ने फोन पर पायल से ही बात की थी । सच है कि शशिबाला ने उसके कमरे के बन्द दरवाजे के आर-पार से पायल से ही बात की थी । ये भी कबूल कि फोजिया ने पायल को ही हाउसकीपर पर गर्जते-बरसते सुना था । लेकिन ये सच नहीं कि ज्योति का जगमग-जगमग पायल से आमना-सामना हुआ था और वो इस मैंशन से चुपचाप खिसकी जा रही थी । इसलिये सब नहीं क्योंकि आज की पायल सात साल पहले की पायल की परछाई भी नहीं लगती थी । उसमें इतनी तब्दीलियां आ गयी थीं, वो इतना ज्यादा बदल गयी थी कि कोई उसका सगेवाला भी उसे नहीं पहचान सकता था ।”
“कमाल है !” - सतीश बोला ।
“लेकिन फिर भी किसी ने उसे पहचाना ।”
“किसने ?” - सोलंकी, जोकि अब तक भूल चुका था कि राज को अपनी बात कहने के लिये सिर्फ दो मिनट का वक्त दिया गया था, सस्पेंसभरे स्वर में बोला - “किसने पहचाना ?”
“इसने ।” - राज खंजर की तरह एक उंगली ज्योति की तरफ भौंकता हुआ बोला - “इसने पहचाना ।”
“हां, मैंने पहचाना ।” - ज्योति चिल्लाकर बोली - “इसमें झूठ क्या है ? वो ऐन वैसी ही थी जैसी...”
“वो ऐन क्या जरा भी वैसी नहीं थी जैसी कि वो सात साल पहले थी ।” - राज भी चिल्लाया - “और उसने अपने आप में जो इंकलाबी तब्दीलियां पैदा की थीं, वो जानबूझकर पैदा की थीं । इसलिये पैदा की थीं ताकि कोई उसे पहचान न पाये । अपनी सूरत, अपने बाल, अपना हेयर स्टाइल, अपनी फिगर, अपनी पोशाक, खूबसूरत सुनहरे बाल रूखे और डाई किये हुए । खूब कसके जूड़े की सूरत में बड़ी अम्माओं की तरह सिर के पीछे बांधे हुए । गाल फूले हुए, आंखें सिकुड़ी हुई, ऊपर से चेहरे को आधा कवर कर लेने वाला काले रंग का, मोटे फ्रेम और मोटी कमानियों जैसा चश्मा, बोरे जैसी पोशाक । फटे बांस जैसी ऐसी आवाज जैसे नाक में से निकल रही हो । वजन में कम से कम नहीं तो पैंतीस-छत्तीस किलो का इजाफा । अपनी शख्सियत की हर बात तब्दील कर ली उसने । न तब्दील कर सको तो सिर्फ एक बात । बादलों की गर्ज और बिजली की कड़क से वो आज भी पहले की ही तरह खौफ खाती थी । इसलिये उस शाम को जब एकाएक बिजली कड़की, बादल गर्जे तो न चाहते हुए भी वो हौलनाक चीख उसके मुह से निकल गयी जो कि सारे मैंशन में बिजली की कड़क से भी ऊंची सुनी गयी ।”
|