RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
लिव-इन
अवि के ब्लॉग-ड्राफ़्ट्स से
26 दिसंबर 2012
कैसी तो सुबह थी आज की- धुँध से भरी, ठंडी और तीखी हवाओं वाली। सुबह-सुबह नैना के फ़ोन ने जगाया था मुझे। इतनी झल्लाहट हुई थी कि पूछिए मत। दस मिनट में गेट पर मिलने को उसने कह दिया और मैंने सुन लिया! सुन ही नहीं लिया, नर्म रजाई और गर्म ब्लोअर छोड़कर चला भी गया उसके बुलावे पर! चला ही नहीं गया, ले भी आया उसे ऊपर। वो भी बोरिया-बिस्तर समेत!
नैना अचानक ही मेरी सोसाइटी के गेट पर आ गई अपने सामान के साथ। मेरे साथ रहने। मतलब लिव-इन रहने। कैन यू बीट दैट?
मेरे और नैना के बीच की ये सुबह एक ऐसी सुबह थी जिस सुबह मुझे ज़िंदगी में पहली बार दोधारी आरी पर अपने पैर मार आने का नतीजा महसूस हुआ है। मतलब प्यार-अफ़ेयर-रिलेशनशिप तक तो ठीक है। मगर लिव-इन?
नैना ने मेरे घर में लिव-इन रहने के लिए दिसंबर को छोड़ किसी और महीने में शिफ़्ट किया होता न तो शायद मैं इस रिश्ते को कई और महीनों तक झेल जाता। लेकिन ज़िद का… वो भी गर्लफ़्रेंड की ज़िद का… वो भी बीवी बनने के लिए तैयार गर्लफ़्रेंड की ज़िद का… वो भी बीवी बनने से पहले लिव-इन रहने के लिए तैयार गर्लफ़्रेंड की ज़िद का कोई सिर-पैर होता है जो नैना की ज़िद का हो?
समझ लो कि उल्टी गिनती शुरु हो गई है बस।
नैना की डायरी से
26 दिसंबर 2012
ख़्वाब है। ख़्वाब ही है कोई कि जी में आता है, आँखें बंद किए पड़ी रहूँ कहीं और मर जाऊँ यही ख़्वाब देखते-देखते। ‘तेरी बाँहों में मर जाएँ हम’ का जो बेतुका ख़्याल सिमरन को सरसों के खेत में राज की बाँहों में समाते हुए आया होगा न, वो यूँ ही नहीं आया होगा।
लेकिन ये ख़्वाब नहीं है, सच है।
मुझमें वाक़ई इतनी हिम्मत आ गई है कि मैंने अपने हॉस्टल का कमरा छोड़ दिया और अवि के साथ रहने आ गई? लिव-इन रहने? आई मस्ट बी स्मोकिंग समथिंग एल्स!
लेकिन लिव-इन न रहने आती तो और क्या करती? हम यूँ भी रात-दिन, दिन-रात साथ ही तो होते हैं- अपनी-अपनी दुनियाओं में होते हुए भी एक-दूसरे के साथ। तो फिर इस बेजाँ दूरी की ज़रूरत क्या थी?
अब मैं करवट लूँगी तो तुम्हारी पीठ पर हाथ रख सकूँगी अवि। मेरी उँगलियों को तुम्हारी हथेलियों से उलझने के लिए किसी मुक़र्रर वक़्त का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा अब। मुझे तुम्हारे लिए तुम्हारी पंसद की मटन करी चूल्हे पर धीमी आँच पर पकता छोड़ हॉस्टल आने की जल्दी नहीं होगी। तुम्हारे हाथ की कॉफ़ी अब सुबह-सुबह भी मिल जाया करेगी।
मुझसे कुछ और लिखा नहीं जा रहा।
तुम रहना साथ। तुम हमेशा साथ ही रहना, अवि।
अवि के ब्लॉग-ड्राफ़्ट्स से
30 दिसंबर, 2012
ऑफ़िस के काम के सिलसिले में जा रहा था लखनऊ, ट्रेन में एक लड़की मिली। एकदम ‘धर्मा प्रोडक्शनन्स’ स्टाइल में।
“कैन आई बॉरो योर पेन प्लीज़?” मेरी बग़ल में बैठी लड़की ने कहा तो जाकर उसकी तरफ़ ध्यान गया। ख़ूबसूरत लड़कियों की क़सम खाकर कह रहा हूँ, ख़ूबसूरत लड़कियों को नज़रअंदाज़ करने की फ़ितरत नहीं है मेरी। लेकिन उस दिन बग़ल की- अपनी बग़ल की सीट पर बैठी लड़की पर नज़र तब गई थी जब शताब्दी अलीगढ़ पहुँचने वाली थी! (हम ज़िंदगी के लंबे सफ़र में को-पैसेन्जर्स बननेवाले थे, शायद इसलिए।) वैसे उस दिन दो घंटे तक अपनी बग़ल की सीट पर बैठी लड़की को पूरी तरह इग्नोर करने की ग़लती का ठीकरा मैं एस.जे. वॉटसन नाम के शख़्स के माथे फोड़ना चाहता हूँ। थ्रिलर के आख़िर के नवासी पन्ने पढ़ने की जल्दी न होती तो दो घंटे इस तरह ज़ाया न होते।
“कैन आई बॉरो योर पेन प्लीज़?” पहली बार के सवाल ने मेरी किताब में खलल डाला था और दूसरी बार के सवाल ने मेरे ख़्याल में। हालाँकि जितनी देर में लड़की ने सवाल पूछे थे उतनी देर में मैंने उसकी आँखों से लेकर उसके दुपट्टे तक के रंग को अपने दिमाग़ की रैंडम एक्सेस मेमोरी में स्टोर कर लिया था। बादामी आँखें थीं। पलकों के ऊपर और नीचे गहरी भूरी लकीरें, जो बादामी आँखों के कान तक खिंचे होने का गुमाँ देती थीं। लड़की सुंदर थी। बहुत सुंदर।
“यू हैव वन पीपिंग आउट ऑफ योर पर्स।” उस सुंदर लड़की से बात बढ़ाने के इरादे से मैंने कहा।
“दिस वन डजन्ट वर्क। सिर्फ़ दिखने के लिए क्रॉस का पेन है। क्वायट यूज़लेस। कैन आई स्टिल बॉरो योर पेन?”
“इज़ दिस द न्यू पिक अप लाइन?” मैंने ऐसा कह तो दिया, लेकिन ज़ुबाँ से ग़लत बोल फूटते ही ख़ुद को सरे-ट्रेन दो थप्पड़ रसीद देने की इच्छा भी उतनी ही तेज़ी से फूटी। जाने उसने सुना नहीं या जानबूझकर अनसुना कर दिया, पेन लेकर वो अख़बार में क्रॉसवर्ड खेलने में लग गई।
उसकी हैंडराइटिंग उसकी आवाज़ की तरह ही सधी हुई थी- अख़बार के पन्ने पर बारिश की बूँदों की तरह हल्की-हल्की गिरती हुई। मैंने कनखियों से देखा था- दो नर्म उँगलियों के बीच कभी दाएँ-कभी बाएँ किसी गहरे ख़्याल में झूलता वो पेन मेरा ही था। अगर किसी की हैंडराइटिंग से उसकी शख़्सियत की पहचान होती है तो ये लड़की ज़रूरत से ज़्यादा सधी हुई थी। (और मैं बिना किसी पहचान के ही ठीक था!)
टुंडला तक पहुँचते-पहुँचते उसने पन्ने पर के सारे क्रॉसवर्ड्स, सुडोकू- सब हल कर लिए और मैं ‘बिफ़ोर आई गो टू स्लीप’ नाम का थ्रिलर उपन्यास चाट गया। टुंडला से इटावा तक आते-आते हमारी बातचीत पेन के माँगने-लौटाने से आगे बढ़कर नॉवल तक आ गई और कानपुर सेंट्रल तक पहुँचते-पहुँचते हम किताबों की दुनिया से आगे बढ़कर एक-दूसरे के काम-धाम के बारे में काफ़ी कुछ जान चुके थे। हाँ, उसका नाम ज़रूर लखनऊ पहुँचने से पचास किलोमीटर पहले मालूम चला था, लेकिन बादामी आँखों वाली इस लड़की का नाम नैना के अलावा कुछ हो भी नहीं सकता था।
लखनऊ में उतरकर उसने ‘इट वॉज़ नाइस मीटिंग यू’ कहकर हाथ बढ़ाया और मैंने अपनी हथेली और अपना पेन, दोनों उसका नंबर माँगने के लिए उसके आगे पसार दिया। उसने मेरी ही पेन से मेरी ही हथेली पर अपनी सधी हुई हैंडराइटिंग में मेरी ही ख़ातिर अपना नंबर लिख दिया और उस नंबर को कुली से टैक्सी में अपना सामान चढ़वाने तक मैं रट गया।
किसी से पहली मुलाक़ात उस पसंदीदा कविता की तरह होती है, जिसे हम बार-बार ऊँची आवाज़ में बोल-बोलकर, बहाने ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ना चाहते हैं। इस एक मुलाक़ात पर जब प्यार का, किसी रिश्ते का मुलम्मा चढ़ जाता है तो यही कविता चौथी क्लास में कंठस्थ याद करने के लिए ज़बर्दस्ती पकड़ाया गया होमवर्क हो जाती है। मेरे साथ भी यही होने लगा है, इसलिए मैं भूलने लगा हूँ कि उसके बाद मैं और नैना कब, कहाँ और कितनी दफ़ा मिले।
हालाँकि लखनऊ शताब्दी में हुई उस पहली मुलाक़ात और नैना के मेरे साथ लिव-इन रहने के लिए आ जाने के बीच गुज़रे साढ़े दस महीनों में मुझे कई बार ये ज़रूर लगा कि ये वाला प्यार फ़ाइनल है (लेकिन इतना फ़ाइनल कभी नहीं लगा कि साथ रहने की नौबत आ जाएगी, इसके बारे में सोचा जाए)।
प्यार के मामले में मैं इम्पलसिव हूँ, तो नैना मुझसे भी बढ़कर आवेगी है- अपनी सधी हुई हैडराइटिंग के ठीक उलट। उसका यही आवेग, यही मौजीपन मुझे उससे बाँधने लगा था। ज़िंदगी से लबरेज़ था उसका मौजीपन। हम लखनऊ में एक बार मिले और दिल्ली लौटकर कई बार। वैसे मेरी उम्र बहुत ज़्यादा नहीं, लेकिन तैंतीस और तेईस में दस साल का फ़र्क़ होता है। दस साल का ये फ़र्क़ नैना ने ख़ुद ही मिटा दिया था… अपनी तरफ़ से।
साथ रहकर अब हमारे बीच के कई फ़र्क़ दिखाई देंगे, नैना ये बात समझती क्यों नहीं?
नैना की डायरी से
1 जनवरी 2013
नए साल का पहला दिन है और अवि के घर में- हमारे घर में- मेरा छठा दिन। माँ रूममेट को हैप्पी न्यू ईयर बोलना चाहती थी। मैंने सोते हुए अवि के माथे पर हाथ फेरते हुए माँ से कह दिया कि रूममेट सो रही है।
नाराज़ है रूममेट। कहती है, मुझे इस तरह इम्पल्स में फ़ैसला नहीं लेना चाहिए। मुझे वाक़ई इम्पल्स में फ़ैसला नहीं लेना चाहिए। लेकिन अवि इम्पल्स नहीं है, सोची-समझी साज़िश है क़िस्मत की। वर्ना दस महीने में ऐसा क्या पागलपन कि सब छोड़-छाड़कर उसके ही घर में, उसकी ही मेज़ पर अपनी डायरी में उसके ही बारे में लिखती रहती हूँ हमेशा?
प्यार क्या होता है, नहीं जानती। लेकिन अगर प्यार यही हश्र करता है जो मेरा हुआ है तो बड़ी कमीनी चीज़ है ये प्यार। मेरे अंदर के कमीनेपन को भी बाहर ले आया है। आख़िर माँ के लिए झूठी-फ़रेबी तो बन ही गई मैं।
अवि के ब्लॉग-ड्राफ़्ट्स से
2 जनवरी, 2013
एक हफ़्ता भी नहीं हुआ नैना के साथ रहते-रहते और जी में आता है कि दिल्ली छोड़कर किसी बर्फ़ीले पहाड़ पर घर बना लूँ- अपना घर, अकेले का। या फिर नैना का हाथ थामकर चाँद के पास वाली किसी चोटी पर खींचकर ले जाऊँ उसको और कहूँ- कूदकर जान देने का यही लम्हा सही है जानाँ। मेरे लिए यहाँ से कूद सकोगी? वर्ना अगर दोनों बचे रह गए तो अपनी-अपनी ज़िंदगियों की जद्दोज़ेहद में एक-दूसरे को तबाह ही करेंगे बस।
मैं नैना को कैसे समझाऊँ कि इतना क़रीब रहते हुए निस्वार्थ प्यार नहीं किया जा सकता, ख़ुदग़र्ज़ समझौते किए जाते हैं। हम दूर होते हैं तो प्यास होती है और प्यास होती है तो एक-दूसरे के नमक को चखने का लालच बना रहता है। हम पास होते हैं तो नमक कम, एक-दूसरे के भीतर का ज़हर ज़्यादा चखते हैं, उसे कुरेद कर बाहर निकालते रहते हैं। मुझपर नैना को खो देने का डर इस क़दर तारी रहता है कि मैं उसको हमेशा के लिए खो देना चाहता हूँ। उससे दूर चला जाना चाहता हूँ।
और एक नैना है कि चली आई है मेरे जैसे आदमी के साथ रहने। अपने-अपने दफ़्तरों से लौटकर एक साथ शाम की कॉफ़ी पीने की आदत इस मोड़ तक आ पहुँचेगी, ये तो मैंने सोचा भी नहीं था।
जिस रात पहली बार नैना कॉफ़ी के बाद के डिनर और डिनर के बाद की लंबी वॉक के बाद अपने घर नहीं, मेरे घर मेरे साथ लौटकर आई थी, उस रात पहली बार उसके भीतर के पागलपन का सोता मुझे फूटता नज़र आया था।
अपनी रसोई में अपनी सिंक में अपनी प्लेट धोते हुए पूछा था मैंने उससे, “रूममेट को क्या कहोगी कि रात कहाँ रुकी?”
“उससे कुछ कहने की क्या ज़रूरत है?”
“घर में क्या कहोगी?”
“घर में भी कहने की क्या ज़रूरत है?”
“एक झूठ को छुपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ेंगे।”
“मैं सिर्फ़ एक सच जीना चाहती हूँ। उसके लिए सौ झूठ भी कम हैं।”
अपनी आवेगी फ़ितरत से लाचार नैना बहता हुआ नल और आधी धुली प्लेट से बेपरवाह मेरे वजूद पर बेरहम कालबैसाखी की तेज़ी से बरस गई थी और उसके आवेग में डूबता-उतराता मैं अपनी ही आँखों अपनी ही शुरुआती तबाही का मंज़र देखता रहा था।
अवि के ब्लॉग-ड्राफ़्ट्स से
12 जनवरी, 2013
असल में मुसीबत तो तब से शुरू हुई है जब से मैडम ट्रैक्स और सफ़ेद जॉगिंग शूज़ पहने मुझे हर सुबह रजाई से खींच-खींचकर बाहर निकालने पर आमादा होने लगी हैं। दिल्ली की जनवरी की सर्दी में कोई मॉर्निंग वॉक के लिए जाता है भला! लेकिन मैडम को जाना होता है। वो भी मेरे साथ जाना होता है। मैडम को मेरी तोंद, मेरी बढ़ी हुई दाढ़ी, मेरे सफ़ेद होते बाल, मेरे गंदे नाख़ून, मेरा गीला तैलिया, मेरी बदबूदार जुराबें- सब दिखने लगे हैं आजकल।
नैना की क़सम, आज कल दिन-रात दिमाग़ में ‘ब्रेकककककअपपपपप’ चिल्लाता रहता हूँ मैं। ज़िंदगी को बर्बाद कर देना हो तो प्यार से बेरहम कोई वजह नहीं होती।
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