non veg kahani एक नया संसार
11-24-2019, 12:35 PM,
RE: non veg kahani एक नया संसार
प्रतिमा जब खेतों पर पहुॅची तो वहाॅ का माहौल देख कर उसके सारे अरमानों पर पानी फिर गया। दरअसल आज पिछले दिनों के विपरीत विजय सिंह खेतों पर अकेला नहीं था। बल्कि उसके साथ कई मजदूर भी खेतों पर आज नज़र आ रहे थे। कदाचित विजय सिंह को अंदेशा था कि प्रतिमा आज भी उसके लिए टिफिन लेकर आएगी और फिर यहाॅ पर वह फिर से अपने प्रेम का बेकार ही राग अलापने लगेगी। इस लिए विजय सिंह ने कुछ मजदूरों को कल ही बोल दिया था कि वो अपने लिए दोपहर का खाना घर से ही ले आएॅगे और यहीं पर खाएॅगे। विजय सिंह के कहे अनुसार कई मजदूर आज यहीं पर थे।

प्रतिमा ये सब देख कर अंदर ही अंदर जल भुन गई थी। उसे विजय सिंह से ऐसी उम्मीद हर्गिज़ नहीं थी। वह तो उसे निहायत ही शान्त और भोला समझती थी। किन्तु आज उसे भोले भाले विजय ने अपना दिमाग़ चला दिया था जिसका असर ये हुआ था कि प्रतिमा अब कुछ नहीं कर सकती थी।

प्रतिमा जैसे ही मकान के पास पहुॅची तो एक मजदूर उसके पास आया और बड़े अदब से बोला___"मालकिन, मॅझले मालिक हमका बोले कि आपसे उनके खाने का टिफिनवा ले आऊॅ। काह है ना मालकिन आज मॅझले मालिक हम मजदूरों के साथ ही खाना खाय चाहत हैं। ई हमरे लिए बहुतै सौभाग्य की बात है। दीजिए मालकिन या टिफिनवा हम ले जात हैं।"

प्रतिमा भला क्या कह सकती थी। वह तो अंदर ही अंदर जल कर खाक़ हुई जा रही थी। उसने आए हुए मजदूर को टिफिन पकड़ाया और पैर पटकते हुए मकान के अंदर चली गई और कमरे में जाकर चारपाई पर पसर गई। गुस्से से उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया था।

"ये तुमने अच्छा नहीं किया विजय।" प्रतिमा खुद से ही बड़बड़ा रही थी___"तुम जिस चीज़ को अपनी समझदारी या होशियारी समझ रहे हो वो दरअसल मेरा अपमान है। तुम दिखाना चाहते हो कि तुम्हारी नज़र में मेरी कोई अहमियत ही नहीं है। कितना अपने प्रेम का मैने तुमसे कल रोना रोया था किन्तु तुमने उसे ठुकरा दिया ये कह कर कि ये ग़लत है। अरे सही ग़लत आज के युग में कौन देखता है विजय? चार दिन का जीवन है उसे हॅस खुशी और आनंद के साथ जियो। मगर तुम तो सच्चे प्रेम का राग अलापे जा रहे हो। क्या है इस सच्चे प्रेम में? बताओ विजय क्या हासिल कर लोगे इस सच्चे प्रेम में? अरे एक ही औरत के पल्लू में बॅधे हो तुम। ये कैसा प्रेम है जिसने तुम्हें बाॅध कर रखा हुआ है?"

जाने कितनी ही देर तक प्रतिमा यूॅ ही बड़बड़ाती रही और ऐसे ही सो गई वह। फिर जब उसकी नीद खुली तो हड़बड़ा कर चारपाई से उठी वह। अभी वह उठ कर कमरे से बाहर ही जाने वाली थी कि तभी विजय किसी काम से कमरे में आ गया।

कमरे में अपनी भाभी को देख कर विजय सिंह हैरान रह गया। उसने तो सोचा था कि प्रतिमा उसी समय वापस चली गई होगी किन्तु यहाॅ तो वह अभी भी है। प्रतिमा को देखकर विजय हैरान हुआ फिर जल्द बाहर जाने के लिए पलटा।

"रुक जाओ विजय।" प्रतिमा ने सहसा ठंडे स्वर में कहा___"क्या समझते हो तुम अपने आपको? क्या सोच कर तुमने यहाॅ मजदूरों को बुलाया हुआ था बताओ?"

"क कुछ भी तो नहीं भाभी।" विजय सिंह हड़बड़ा गया था___"मैंने उन्हें नये फलों की फसल के बुलाया था। ताकि खेतों को उनके लिए तैयार किया जा सके।"

"झूठ मत बोलो विजय।" प्रतिमा ने आवेश मेः कहा___"मुझे अच्छी तरह पता है कि तुमने मजदूरों को यहाॅ दोपहर में क्यों बुलाया था? तुम समझते थे कि तुम्हें हर दिन की तरह यहाॅ अकेले देख कर मैं फिर से अपने प्रेम की बातें तुमसे करूॅगी। इसी सबसे बचने के लिए तुमने ये सब किया है ना?"

"आप बेवजह बातें बना रही हैं भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"जबकि सच्चाई यही है कि मैने फलों की फसल के लिए ही मजदूरों को यहाॅ बुलाया है।"
"झूठ, सरासर झूठ है ये।" प्रतिमा एक झटके से चारपाई से उठ कर विजय के पास आ गई, फिर बोली___"जो इंसान हमेशा सच बोलता है वो अगर कभी किसी वजह से झूठ बोले तो उसका वह झूठ तुरंत ही पकड़ में आ जाता है विजय। मैं कोई अनपढ़ गवार नहीं हूॅ बल्कि कानून की पढ़ाई की है मैने। मनोविज्ञान का बारीकी से अध्ययन किया है मैने। मैं पल में बता सकती हूॅ कि कौन ब्यक्ति कब झूठ बोल रहा है?"

"चलिये मान लिया कि यही सच है।" विजय सिंह ने कहा___"यानी मैने आपसे बचने के लिए ही मजदूरों को यहाॅ बुलाया था। तब भी क्या ग़लत किया मैने? मैने तो वही किया जो ऐसी परिस्थिति में किसी समझदार आदमी को करना चाहिए। मैं वो नहीं सुनना चाहता और ना ही होने देना चाहता जो आप कहना या करना चाहती हैं। मैने कल भी आपसे कहा था कि ये ग़लत है और हमेशा यही कहता भी रहूॅगा। मैं ख़ैर अनपढ़ ही हूॅ लेकिन आप तो पढ़ी लिखी हैं न? आपको तो रिश्तों के बीच के संबंधों का अच्छी तरह पता होगा कि किन रिश्तों के बीच किन रिश्तों को देश समाज सही ग़लत अथवा जायज़ नाजायज़ ठहराता है? अगर पता है तो फिर ये सब सोचने व करने का क्या मतलब हो सकता है? आपको तो पता है कि आपके दिल में मेरे प्रति क्या है तो क्यों नहीं उसे निकाल देती आप? क्यों रिश्तों के बीच इस पाप को थोपना चाहती हैं आप?"

"किस युग में तुम जी रहे हो विजय किस युग में?" प्रतिमा ने कहा___"आज के युग के अनुसार जीना सीखो। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। तुम भी प्रकृति के नियमों के अनुसार खुद को बदलो। जो समय के साथ नहीं बदलता उसे वक्त बहुत पीचे छोंड़ देता है।"

"अगर परिवर्तन इसी चीज़ के लिए होता है तो माफ़ करना भाभी।" विजय ने कहा__"मुझे आज के इस युग के अनुसार खुद को बदलना गवारा नहीं है। वक्त मुझे पीछे छोंड़ कर कहाॅ चला जाएगा मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं है। मेरी आत्मा तथा मेरा ज़मीर जिस चीज़ को स्वीकार नहीं कर रहा उस चीज़ को मैं किसी भी कीमत पर अपना नहीं सकता। अब आप जा सकती हैं, क्योंकि इससे ज्यादा मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता।"

इतना कह कर विजय बाहर की तरफ जाने ही लगा था कि प्रतिमा झट से उसके पीछे से चिपक गई और फिर दुखी होने का नाटक करते हुए बोली___"ऐसे मुझे छोंड़ कर मत जाओ विजय। मैं खुद को समझाऊॅगी इसके लिए। शायद मेरे दिल से तुम्हारा प्रेम मिट जाए। लेकिन तब तक तो हम कम से कम पहले जैसे हॅस बोल सकते है ना?"

"अब ये संभव नहीं है भाभी।" विजय ने तुरंत ही खुद को उससे अलग करके कहा__"अब हालात बदल चुके हैं। आप मुझे किसी बात के लिए मुजबूर मत कीजिए। मैं नहीं चाहता कि ये बात हमारे बीच से निकल कर घर वालों तक पहुॅच जाए।"

विजय सिंह के अंतिम वाक्यों में धमकी साफ तौर पर महसूस की जा सकती थी। प्रतिमा जैसी शातिर औरत को समझते देर न लगी कि अब इससे आगे कुछ भी करना उसके हित में नहीं होगा। इस लिए वह बिना कुछ बोले कमरे से टिफिन उठा कर हवेली के लिए निकल गई।

गर्मी में बच्चों के स्कूल की छुट्टियाॅ खत्म होने में कुछ ही दिन शेष रह गए थे। विजय सिंह शाम को हवेली आ जाता था। एक दिन ऐसे ही प्रतिमा विजय के कमरे में पहुॅच गई। उस वक्त गौरी किचेन में करुणा के साथ खाना बना रही थी। जबकि नैना सभी बच्चों को अजय सिंह वाले हिस्से में ऊपर अपने कमरें में पढ़ा रही थी। माॅ जी हमेशा की तरह अपने कमरे में थी और बाबू जी गाॅव तरफ कहीं गए हुए थे। अभय सिंह भी हवेली में नहीं था।

अपने कमरे में विजय सिंह लुंगी बनियान पहने हुए ऑख बंद किये लेटा था। तभी उसने किसी की आहट से अपने ऑखें खोली। नज़र प्रतिमा पर पड़ी तो वह बुरी तरह चौंका। एक झटके से वह बेड पर उठ कर बैठ गया। ये पहली बार था कि उसके कमरे में प्रतिमा आई थी वो भी इस तरह जबकि कमरे में वह अकेला ही था। उसे समझ न आया कि प्रतिमा यहाॅ किस लिए आई है? उसके दिल की धड़कन रेल के इंजन की तरह दौड़ रही थी। उसे डर था कि कहीं उसकी पत्नी गौरी न आ जाए। हलाॅकि इसमें इतना डरने या घबराने की बात नहीं किन्तु उनके बीच हालात ऐसे थे कि हर बात से डर लग रहा था उसे।

"क्या कर रहे हो विजय?" प्रतिमा ने मुस्कुरा कर कहा___"मैने सोचा एक बार तुम्हारा दीदार कर लूॅ तो दिल को सुकून मिल जाए थोड़ा। कई दिन से देखा नहीं था तुम्हें तो दिल बड़ा बेचैन था। अब तो तुम्हारे लिए गौरी ही टिफिन लेकर जाती है। पता नहीं क्यों तुम मुझसे कटे कटे से रहते हो। अपनी एक झलक भी देखने नहीं देते मुझे। सच कहती हूॅ विजय, तुमको तो ज़रा भी मेरी चिन्ता नहीं है।"

"ऐसी बातें करते हुए आपको शर्म नहीं आती भाभी?" विजय सिंह को जाने क्यों आज पहली बार उस पर गुस्सा आया था, उसी गुस्से वाले लहजे में बोला___"अपनी ऊम्र का कुछ तो लिहाज कीजिए। तीन तीन बच्चों की माॅ हैं आप और इसके बाद भी मन में ऐसी फालतू बातें लिए फिरती हैं आप।"

"इश्क़ की न कोई जात होती है विजय और ना ही कोई ऊम्र होती है।" प्रतिमा ने दार्शनिकों वाले अंदाज़ में कहा___"इश्क़ तो कभी भी किसी से भी किसी भी ऊम्र में हो सकता है। मुझे एक बार फिर से इस ऊम्र में तुमसे हो गया तो क्या करूॅ मैं? ये तो मेरे दिल की ख़ता है विजय, इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है।"

"देखिये भाभी।" विजय ने कहा___"मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करता हूॅ। और मैं चाहता हूॅ कि मेरे दिल में आपके लिए ये इज़्ज़त ऐसी ही बनी रहे। इस लिए बेहतर होगा कि आप खुद भी अपने मान सम्मान की बात सोचें। अब आप जाइये यहाॅ से।"
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