non veg kahani एक नया संसार
11-24-2019, 12:32 PM,
#92
RE: non veg kahani एक नया संसार
इस बीच मैंने महसूस किया था कि बड़े भइया और बड़ी दीदी इन दोनो का ब्यौहार सबसे अलग था। बड़े भइया विजय जी से ज्यादा बात नहीं करते थे। उसी तरह प्रतिमा दीदी मुझसे ज्यादा बात नहीं करती थी। हलाॅकि वो उस समय शहर में ही रहते थे। पर जब भी वो दोनो आते तो उनका ब्यौहार ऐसा ही होता हम दोनो से।

ऐसे ही चलता रहा। हम सब खुश थे किन्तु ये सच था कि बड़े भइया और दीदी विजय जी और मुझसे हमेशा से ही उखड़े से रहते। मैने अक्सर देखा था कि बड़े भइया किसी न किसी बात पर विजय जी को उल्टा सीधा बोलते रहते थे। ये अलग बात थी कि विजय जी उनकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते थे और ना ही पलट कर कोई जवाब देते थे।

एक दिन की बात है मैं अपने कमरे में नहाने के बाद कपड़े पहन रही थी, मुझे ऐसा लगा जैसे छिप कर कोई मुझे कपड़े पहनते हुए देख रहा है। मैंने पलट कर देखा तो कहीं कोई नहीं था। मैंने इसे अपना वहम समझ कर फिर से कपड़े पहनने लगी। तभी कमरे के बाहर से मेरी बड़ी ननद सौम्या की आवाज़ आई। वो कह रही थी "बड़े भइया आप यहाँ, भाभी के कमरे के दरवाजे के पास छिप कर क्यों खड़े हैं?" सौम्या की इस बात को सुन कर मैं सन्न रह गई। ये जान कर मेरे पैरों तले से ज़मीन निकल गई कि जेठ जी छिप कर मुझे कपड़े पहनते हुए देख रहे थे। मुझे ध्यान ही नहीं था कि मेरे कमरे का दरवाजा खुला हुआ है। मेरी हालत ऐसी हो गई जैसे काटो तो एक बूद भी खून न निकले। फिर जब मुझे होश आया तो अनायास ही जाने किस भावना के तहत मुझे रोना आ गया। सौम्या जब मेरे कमरे में आई तो उसने मुझे रोता पाया। वह मुझे रोते देख हैरान रह गई। उसे किसी अनिष्ट की आशंका हुई। उसने तो देखा ही था कि उसका बड़ा भाई मेरे कमरे के बाहर दरवाजे के पास छिप कर खड़ा था। उसे समझते देर न लगी कि कुछ तो हुआ है। उसने तुरंत ही मुझे शान्त करने की कोशिश की और पूछने लगी क्या हुआ है? मैंने रोते हुए यही कहा कि मुझे तो कुछ पता ही नहीं था कि कौन दरवाजे के पास छिपकर मुझे कपड़े पहनते देख रहा है, वो तो तब पता चला जब तुमने बाहर जेठ जी से वो सब कहा था। मेरी बातें सुन कर सौम्या भी स्तब्ध रह गई। फिर उसने कहा कि ये बात मैं किसी से न कहूँ क्यों कि घर में हंगामा हो जाएगा। इस लिए इस बात को भूल जाऊॅ लेकिन आइंदा से ये ख़याल ज़रूर रखूॅ कि दरवाजा खुला न रहे।

उस दिन के बाद जेठ जी का मुझे देखने का नज़रिया बदल चुका था। वो किसी न किसी बहाने मुझे देख ही लेते। मैं पन्द्रह साल की नासमझ ही थी। मुझे सिर पर साड़ी द्वारा घूॅघट करने का भूल जाता था। जेठ जी मुझे देखते और जब मेरी नज़र उन पर पड़ती तो वो बस मुस्कुरा देते। मुझे ये सब बड़ा अजीब लगता और मैं इस सबसे डर भी जाती।

उधर विजय जी खेतों में दिन रात मेहनत करते और ज्यादा से ज्यादा मात्रा में फसल उगाते। शहर में बेंच कर जो भी मुनाफा होता वो उस सारे पैसों को बाबू जी के हाँथ में पकड़ा देते। उन पर तो जैसे पागलपन सवार था खेतों में दिन रात मेहनत करने का। उनकी मेहनत व लगन से अच्छा खासा मुनाफा भी होता। मैं अक्सर उनके पास खेतों में उन्हें खाना देने के बहाने चली जाती। मुझे उनके साथ रहना अच्छा लगता था फिर चाहे वो किसी भी जगह हों। हम दोनो खेतों में नये नये पौधे लगाते और खूब सारी बातें करते।

समय गुज़रता रहा। समय के साथ साथ उनका स्वभाव जो पहले से ही बदला हुआ था वो और ज्यादा बदल गया था। जेठ जी जब भी बड़ी दीदी के साथ शहर से आते तो उनका बस एक ही काम होता था...मुझे ज्यादा से ज्यादा देखना। घर में अगर कोई न होता तो वो मुझसे बातें करने की कोशिश भी करते। किन्तु मैं उनकी किसी बात को कोई जवाब न देती बल्कि अपने कमरे में आकर दरवाजा अंदर से लगा लेती। जैसा की गाॅवों में होता है कि जेठ व ससुर के सामने घूॅघट करके ही जाना है और उनके सामने कोई आवाज़ नहीं निकालना है, बात करने की तो बात दूर। इस लिए जेठ जी जब खुद ही मुझसे बातें करने और करवाने की कोशिश करते तो मैं डर जाती और भाग कर अपने कमरे में जाकर अंदर से दरवाजा बंद कर लेती। इतना तो मैं समझ गई थी कि जेठ जी की नीयत मेरे प्रति सही नहीं है। मगर किसी से कह भी नहीं सकती थी। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से घर में कोई कलह शुरू हो जाए।

उधर विजय जी की मेहनत से घर में ढेर सारा पैसा आने लगा था। बाबू जी अपने इस बेटे से बड़ा खुश थे। मुझसे भी खुश थे क्योंकि मैं उनकी नज़र में एक आदर्श बहू थी। एक बार जेठ जी फिर आए शहर से। किन्तु इस बार वो पैसों के लिए आए थे क्योंकि उन्हें शहर में खुद का कारोबार करना था। उन्होने बाबू जी से इस बारे में बात की और उनसे पैसे मागे। इस बाबूजी नाराज़ भी हुए। पैसों के बारे में उन्होने यही कहा कि ये सब पैसे विजय की मेहनत का नतीजा है इस लिए उससे पूछना पड़ेगा। बाबू जी की इस बात ने जेठ जी के मन में विजय जी के लिए और भी ज़हर भर गया। मुझे आज भी नहीं पता कि ऐसी क्या वजह थी जिसकी वजह से जेठ जी के मन में अपने इस भाई के लिए इतना ज़हर भरा हुआ था? जबकि सब जानते थे कि विजय जी हमेशा उनका आदर व सम्मान करते थे। उनकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते थे। ख़ैर, पैसा लेकर जेठ जी शहर चले गए। इस बार जब वो आए थे तो किसी भी दिन उन्होंने वो हरकतें नहीं की जो इसके पहले करते थे मुझे देखने की। शहर में जेठ जी ने खुद का कारोबार शुरू कर लिया। इधर विजय जी के ज़ेहन में ये भूत सवार हो गया था कि घर को तुड़वा कर इसे नये सिरे से बनवा कर हवेली का रूप दिया जाए। उन्होने बाबू की सहमति से हवेली की बुनियाद रखी। हवेली को तैयार करने में भारी पैसा खर्च हुआ। यहाँ तक की बाद में हवेली का बाॅकी काम कर्ज लेकर करना पड़ा। जेठ जी ने पैसा देने से इंकार कर दिया।

इस बीच बड़ी दीदी को एक बेटी हुई। इसका पता भी हम सबको बाद में चला था। ख़ैर, जब वो शहर से आए तो बाबू जी इस खबर से नाराज़ तो हुए किन्तु फिर हमेशा की तरह ही चुप रह गए।

मैं इस बात से खुश थी कि जेठ जी अब चोरी छिपे मुझे देखने वाली हरकतें करना बंद कर दिये थे। इस बीच अभय ने भी अपनी पसंद की लड़की से शादी कर ली। बाबू जी इस बात से नाराज़ हुए लेकिन कर भी क्या सकते थे? लेकिन करुणा का आचरण बहुत अच्छा था, वो पढ़ी लिखी थी लेकिन उसमें संस्कार भी थे। मैं उसे अपनी छोटी बहन बना कर खुश थी। हम दोनों का आपस में बड़ा प्रेम था। कोई कह ही नहीं सकता था कि वो मेरी देवरानी है। अभय गुस्सैल स्वाभाव के ज़रूर थे किन्तु उनके अंदर अपने से बड़ों का आदर सम्मान करने की भावना थी। प्रेम के चक्कर में छोटी ऊम्र ही उन्होने शादी कर ली थी। लेकिन बाबू जी शायद इस लिए चुप रह गए थे क्योंकि वो अपने पैरों पर खड़े थे। गाॅव के ही सरकारी स्कूल में अध्यापक थे वो।

इधर हवेली बन कर तैयार हो चुकी थी। कर्ज़ भी काफी हो गया था लेकिन विजय जी के लिए तो जैसे ये कर्ज़ कोई मायने ही नहीं रखता था। बाबू जी ने हवेली के तैयार होने पर बड़े धूमधाम से गृह प्रवेश का उत्सव मनाया। शहर से बड़े भइया और दीदी भी आईं। हवेली देख कर वो दोनो ही हैरान थे किन्तु प्रत्यक्ष में हमेशा की तरह ही ग़लतियाॅ बता रहे थे। बाबू जी सब जानते भी थे और समझते भी थे किन्तु हमेशा चुप रहते।

ऐसे ही चार साल गुज़र गए और मुझे एक बेटा हुआ। मेरे बेटे के जन्म के चार दिन बाद बड़े भइया और दीदी को फिर से एक बेटी हुई। बाबू जी ने अपने पोते के जन्म पर बड़े धूमधाम से उत्सव मनाया। बड़े भइया और दीदी इससे नाराज़ हुए। उनका कहना था कि उनकी बेटियों के जन्म उत्सव नहीं मनाया जबकि विजय के बेटे के जन्म पर बड़ा उत्सव मना रहे हैं आप। उनकी इन बातों से बाबू जी का गुस्सा उस दिन जैसे फट पड़ा था। उन्होंने गुस्से में बहुत कुछ सुना दिया उन दोनो को। बात भी सही थी। दरअसल वो दोनो खुद को हम सबसे अलग कर लिए थे। शहर में खुद का कारोबार और बड़ा सा एक घर था उनके पास। शायद इसी का घमंड होने लगा था उन्हें। वो सोचते थे कि कहीं हम लोग उनके कारोबार और शहर के मकान में हिस्सा न मागने लगें इस लिए वो हमेशा हम सबसे कटे कटे से रहते। जबकि यहा हवेली और ज़मीन जायदाद में अपना हक़ समझते थे।

गौरी कुछ पल के लिए रुकी और गहरी साॅसें लेने लगी। सब लोग साॅस बाधे उसकी बातें सुन रहे थे।

"मैं जानती हूँ अभय कि मैने अभी जो कुछ कहा उस सबको तुम जानते हो।" गौरी ने कहा__"तुम सोच रहे होगे कि मैं ये सब तुम्हें क्यों बता रही हूँ जबकि मुझे तो सिर्फ वो सब बताना चाहिए जो इन लोगों ने मेरे और मेरे पति के साथ किया था। ख़ैर, ये सब बताने का मतलब यही था कि जो कुछ हुआ उसकी बुनियाद उसकी शुरूआत यहीं से हुई थी। ज़हर के बीज यहीं से बोना शुरू हुए थे।
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