RE: Gandi Sex kahani भरोसे की कसौटी
दोनों कुछ देर तक वैसे ही लेटे रहे... चाची ने उसे हल्का झिंझोड़ कर उठाया... आहिस्ते से कहा, “जल्दी कीजिये... कोई आ जाएगा...|” वो आदमी मुस्कुराता हुआ चाची के दोनों चूचियों को मसलते हुए उनके होंठों पर हलके से किस किया ओर बोला, “क्या चीज़ है तू.... जितना भी रगडूं... उतना और करने को जी चाहता है... ऊम्माह्ह्ह |”
दोनों जल्दी से उठ कर अपने अपने कपड़े पहन कर वाशरूम से बाहर निकल गए.. | मैं भी जल्दी से उतरा और अपने लंड को ठीक करता हुआ होटल के आगे पहुँचा और फिर अपने टैक्सी वाले के पास गया... वो मुझे दूर से देख कर ही अपने हाथ को एक विशेष अंदाज़ में हिला कर मुस्कुरा दिया... ये उसका इशारा था... कि जो काम मैंने उसे दिया था.. वो उसने कर दिया है.... मैं भी मुस्कुरा कर एक सिगार सुलगाते हुए उसकी ओर बढ़ गया |
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शाम का समय | अपने छत पर खड़ा, छत की छोटी सी बाउंड्री वाल पर कॉफ़ी का मग रखकर, टी शर्ट – बरमुडा पहने, कश लगाते हुए दूर क्षितिज़ में अस्त होते सूर्य और उसके प्रकाश से आसपास आसमान में फ़ैली लालिमा को निहार रहा था | मंद मंद हवा भी चल रही थी | दूर कहीं शायद चमेली का पौधा होगा, जिसकी खुशबू, नथुनों से टकरा कर मन को शांत और आह्लादित कर दे रही थी | भोर और शाम ... इन दोनों में एक बात कॉमन ज़रूर है.. इन दोनों ही समय में, कोई एक पॉइंट ऐसा ज़रूर होता है जब आस पास की चीज़ें अचानक से स्थिर हुई सी प्रतीत होती है.. सबकुछ शांत.. रुका रुका सा लगता है ... | लगता है जैसे समय भी अपनी धुरी पर घूमना भूल कर, इस समय की अद्वितीय सुन्दरता और शांत खड़ी सी प्रकृति की प्रशंसा हेतु शब्द ढूँढ रहा हो और शब्दों के मिलते ही वो वातावरण नुमा धागे में उन्हें पिरोकर उस समय की महत्ता, सुंदरता और अद्वितीयता को कई गुना बढ़ा देता है |
तीन सिगरेट ख़त्म कर चूका हूँ अब तक... चौथा अभी अभी सुलगाया... कॉफ़ी लगभग ख़त्म होने को आ गई है | मन अब मेरा प्रकृति की सुंदरता से हट कर जीवन के संघर्षों में आ गया है | और फ़िलहाल कुछ समय से जीवन में रहस्य, रोमांच, भ्रांति, चिंता, संदेह और दुविधाओं के चक्रव्यूह वाला एक अलग अध्याय शुरू हो गया है | जिन्में मुख्य पात्र मेरी खुद की चाची ही है... (अभी तक) ... और रहस्य, रोमांच और भय वाले इस अध्याय / इस कहानी का ताना बाना बुना जा रहा है चाची के इर्द गिर्द... पर यह बात दावे के साथ कहा जा सकता है की इस कहानी का केन्द्रीय पात्र कोई और है | और वो जो कोई भी है वो विक्टिम भी हो सकता है या विलेन भी | हो सकता है वो इन सभी बातों से अनजान हो .. या हो सकता है की ये सब कुछ उसी के इशारों पर हो रहा हो |
इतनी सारी बातों का दिमाग में बार बार चलने के कारण सिर भारी सा होने लगा | अंतिम कश ख़त्म कर बची खुची कॉफ़ी गटक गया | अपने रूम में जा कर आराम करने का विचार आ ही रहा था कि तभी देखा, घर से दूर.. सड़क के मोड़ वाले जगह पर एक टैक्सी आ कर रुकी... कुछ देर... तकरीबन छह सात मिनट... या शायद दस मिनट तक टैक्सी वैसी ही खड़ी रही... आस पास थोड़ा अँधेरा हो चुका था और शायद टैक्सी के शीशे पर भी काली फिल्म चढ़ाई हुई थी.. | इसलिए बहुत साफ़ कुछ भी नहीं दिख रहा था | जल्द ही पीछे का दरवाज़ा खुला और और उसमें से एक महिला निकली... हाथ में एक मीडियम साइज़ का बैग लिए... | निकलने के बाद दरवाज़ा लगाई और झुक कर अन्दर बैठे किसी से बातें करने लगी | करीब दस और मिनट और बीत गया.. | टैक्सी आगे बढ़ी और फिर टर्न हो कर जिस रास्ते से आई थी.. उसी रास्ते से वापस चली गई | न अनजाने क्या मन हुआ जो मैंने खुद को एक कोने में खड़ा कर छुप गया पर नज़र बराबर सड़क पर ही थी मेरी | वो औरत धीरे धीरे चलते हुए हमारे ही घर के तरफ़ आ रही थी | कुछ करीब आते ही मैं पहचान गया उसे... वो चाची थी ! पर.. पर.. ये क्या... इनकी ड्रेस तो बदली सी है.. | सुबह जैसा देखा था अभी उसके एकदम उलट ... !
वेल्वेट मिक्स्ड डीप ब्लू रंग की साड़ी और मैचिंग ब्लाउज में बिल्कुल किसी घरेलू गृहिणी जैसी ... पर साथ ही अत्यंत सुन्दर एक अप्सरा सी लग रही थी | सड़कों के दोनों तरफ़ लगे बिजली के खंभों पर लगे बल्बों से आती सफ़ेद रोशनी से नहाई चाची की ख़ूबसूरती को जैसे पंख लग गए हो | साड़ी को अच्छे से लपेटे, चेहरे पर थकान का बोझ लिए चाची गेट तक पहुँच गई थी... इसलिए मैं भी जल्दी से नीचे चला गया... दरवाज़ा खोलने |
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