RE: Hindi Adult Kahani कामाग्नि
लेकिन अब बचपन साथ छोड़ रहा था और समय के साथ माँ ने भी ऐसे आग्रह करना पहले कम और फिर धीरे धीरे बंद कर दिए। विराज भी अपनी किसानी के काम में व्यस्त रहने लगा और उसके अन्दर से भी ये बच्चों वाली चाहतें ख़त्म होने लगीं थीं और अब उसकी अपनी उम्र के लोगों के साथ ज्यादा जमने लगी थी खास तौर पर जय के साथ। समय यूँ ही बीत गया और दोनों शादी लायक हो गए।
एक दिन जय विराज को अपने साथ एक ऐसी जगह ले गया जहाँ से वे छुप छुप कर गाँव की लड़कियों को नहाते हुए देख सकते थे। उन लड़कियों के नग्न स्तनों को देख कर अचानक विराज को अपना बचपन याद आ गया जब वो अपनी माँ का दूध पिया करता था। चूंकि उसने 10-12 साल की उम्र तक भी स्तनपान किया था, उसकी यादें अभी ताज़ा थीं।
उसी रात विराज ने अपनी माँ को फिर दूध पिलाने को कहा। वैसे तो माँ को यह बड़ी अजीब बात लगी लेकिन उसके लिए तो विराज अब भी बच्चा ही था तो उसने हाँ कह दिया। माँ ने पहले की तरह अपने ब्लाउज के नीचे के कुछ बटन खोले और अपना एक स्तन निकाल कर विराज की तरफ़ आगे कर दिया। लेकिन आज उसे चूसने से ज़्यादा मज़ा छूने में आ रहा था। उसकी उँगलियाँ अपने आप उस स्तन को सहलाने लगीं जैसे की सितार बजाया जा रहा हो। लेकिन सितार एक हाथ से कैसे बजता। विराज का दूसरा हाथ अपने आप ब्लाउज के अंदर सरक गया और उसने अपनी माँ का दूसरा स्तन पूरी तरह अपनी हथेली में भर लिया।
एक स्तन आधा और एक पूरा उसके हाथ में था और वो दोनों को सहला रहा था। आज उसे कुछ अलग ही अनुभूति हो रही थी। धीरे धीरे सहलाना, मसलने में बदल गया। और तभी विराज ने महसूस किया कि उसका लंड कड़क हो गया है। यूँ तो उसने पहले भी कई बार सुबह सुबह नींद में ऐसा महसूस किया था लेकिन अभी ये जो हो रहा था उसका कोई तो सम्बन्ध था उसकी माँ के स्तनों के साथ। उसकी बाल बुद्धि में यह बात स्पष्ट नहीं हो पा रही थी कि ऐसा क्यों हो रहा है। इसी बेचैनी में वो चूसना छोड़ कर ज़ोर ज़ोर से स्तनों को मसलने लगा।
माँ- ऊँ…हूँ… बहुत पी लिया दूध… अब सो जा।
विराज समझ गया कि माँ उसकी इस हरकत से खुश नहीं है। वैसे तो उसकी माँ वात्सल्य की मूर्ति थी लेकिन अगर गुस्सा हो जाए तो इकलौता बेटा होने का लिहाज़ नहीं करती थी। विराज को पता था कि अब ये सब कोशिश करना खतरे से खाली नहीं है और उसने निश्चय किया कि अब वो ये सब माँ के साथ नहीं करेगा।
अगले दिन विराज अपने इस नए अनुभव के बारे में जय को बताने के लिए बेचैन था। जैसे ही मौका मिला, जय को कहा- चल अमराई में चल कर बैठते हैं।
दोनों अपनी हमेशा वाली आरामदायक जगह पर जा कर बैठे और विराज ने जय को सारा किस्सा बताया की कैसे माँ के स्तन दबाने से उसका लंड कड़क हो गया था।
जय को विश्वास नहीं हुआ- क्या बात कर रहा है? ऐसा भी कोई होता है क्या! मैं नहीं मानता।
विराज- अरे मैं सच कह रहा हूँ। कैसे समझाऊं? अब तेरे सामने तो नहीं कर सकता न…
जय- आंख बंद करके सोच उस टाइम कैसा लग रहा था।
विराज- एक काम कर मैं तेरे पुन्दे मसलता हूँ, आँखें बंद करके और सोचूंगा कि माँ के दुद्दू दबा रहा हूँ।
जय- तू मेरे मज़े लेने के लिए बहाना तो नहीं मार रहा है ना? तू भी अपनी चड्डी उतार! मैं भी देखूंगा तेरा नुन्नू कैसे खड़ा होता है।
दोनों ने अपनी चड्डी उतार दी। जय, विराज के बगल में थोड़ा आगे होकर खड़ा हो गया और पीछे मुड़ कर विराज के मुरझाये लण्ड को देखने लगा। विराज ने आँखें बंद कीं और जय के नितम्बों को सहलाते हुए कल रात वाली यादों में खो गया। थोड़ी ही देर में उसका लण्ड थोड़े थोड़े झटके लेने लगा।
जय- अरे ये तो उछल रहा है। कर-कर और अच्छे से याद कर!!
जय की बात ने विराज की कल्पना में विघ्न डाल दिया था, लेकिन कल्पना कब किसी के वश में रही है। विराज की कल्पना के घोड़े जो थोड़े सच्चाई की धरती पर आये तो एक नया मोड़ ले लिया और उसे लगा कि जैसे वो अपनी माँ के नितम्ब सहला रहा है। इतना मन में आते ही टन्न से उसका लण्ड खड़ा हो गया।
जय- अरे! ये तो सच में खड़ा हो गया!!
विराज ने भी आँखें खोल लीं।
विराज- तू तो मान ही नहीं रहा था!
जय- छू के देखूं?
विराज- देख ले! अब मैंने भी तो तेरे पुन्दे छुए हैं तो तुझे क्या मना करूँ।
जय ने अपनी दो उंगलियों और अंगूठे के बीच उस छोटे से लण्ड को पकड़ कर देखा, थोड़ा दबाया थोड़ा सहलाया।
विराज- और कर यार! मज़ा आ रहा है।
जय- ऐसे?
विराज- हाँ… नहीं-नहीं ऐसे नहीं… हाँ… बस ऐसे ही करता रह… बड़ा मज़ा आ रहा है याऽऽऽर!
इस तरह धीरे धीरे दोनों यार जल्दी ही अपने आप सीख गए कि लण्ड को कैसे मुठियाते हैं। ये पहली बार था तो विराज को ज़्यादा समय नहीं लगा। वो जय के हाथ में ही झड़ गया।
विराज- ओह्ह… आह…!
जय- अबे, ये क्या है? पेशाब तो नहीं है… सफ़ेद, चिपचिपा सा?
विराज- पता नहीं यार लेकिन जब निकला तो एक करंट जैसा लगा था। मज़ा आ गया लेकिन मस्त वाला।
जय- सफ़ेद करंट! हे हे हे… चल तुझे इतना मज़ा आया तो मुझे भी कर ना।
विराज- लेकिन तेरा तो खड़ा नहीं है?
भले ही दोनों जवान हो चुके थे, 18 पार कर चुके थे लेकिन मासूमियत अभी साथ छोड़ कर गई नहीं थी। वक़्त धीरे धीरे सब सिखा देता है। धीरे धीरे दोनों दोस्त अपने इस नए खेल में लग गए थे। उन्होंने लण्ड को खड़ा करना, मुठियाना और तो और चूसना भी सीख लिया। लेकिन दोनों में से कोई भी समलैंगिक नहीं था। उनकी कल्पना की उड़ान हमेशा विराज की माँ के चारों और ही घूमती रहती थी।
इसी बीच एक रात विराज ने अपनी माँ को बिस्तर से उठ कर जाते हुए देखा। थोड़ी देर बाद जब उसने छिप कर दूसरे कमरे में देखा तो उसकी माँ जय के पापा से चुदवा रही थी। इस बात से तो विराज-जय की दोस्ती और गहरी हो गई। दोनों अपने माँ बाप की चुदाई की बातें कर-कर के एक दूसरे का लण्ड मुठियाते तो कभी पूरे नंगे हो कर एक साथ एक दूसरे का लण्ड चूसते और साथ-साथ एक दूसरे के बदन को सहलाते भी जाते।
कभी कभी तो जब मौका मिलता तो दोनों छिप कर अपने माँ-बाप की चुदाई देखते हुए एक दूसरे की मुठ मार लेते। लेकिन दोनों की इस लंगोटिया यारी में एक बड़ा मोड़ तब आया जब विराज के लिए शादी का रिश्ता आया।
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