RE: non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया
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बस दोस्तों अब मेरी दास्तान के कुछ आख़िरी लम्हात के चंद ही वाकियात हैं जो मैं आपको अगली किस्त में सुना दूंगा। और वहीं हमारा साथ ख़तम होगा। बस मैं कह चुका।
मेरे दोस्तों, मेरे यारों, बस अब यह बूढ़ा बहुत थक गया है। जिंदगी मजीद मोहलत देने को तैयार नजर नहीं आती। ना जाने कब यह लड़खड़ाती जबान बंद हो जाए। ना जाने कब यह काँपते लब थम जाएूँ। अब आप मेरी जिंदगी के आख़िरी वाकियात जरा मुख़्तसिर मुलाहिजा फेरमा लें। फिर मोका मिले ना मिले।
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यह घालिबान 1954 का साल है। दीदी ने इसी साल एक लड़की को जनम दिया है। अगस्त में और अगले ही महीने यानी सेप्टेंबर में कामिनी भी एक खूबसूरत से लड़के को जनम दे चुकी है। दीदी ने लड़की का नाम राजेश्वरी जब की कामिनी और मैंने अपने बेटे का नाम अजय रखा है। मुझको अपनी छोटी बहन कामिनी से होने वाला बच्चा बहुत प्यारा लगा। उसमें कामिनी और मेरी बहुत झलक है। असल में मैं और कामिनी, हम दोनों बहन भाई की शकलें काफी हद तक एक जैसी हैं। नाजुक सा नाक नक़्शा, और यही हमारे बच्चे को मिला था। अब हम सबकी मसरुफ़ियत बढ़ सी गई थीं। दीदी और मेरा बेटा अक्षय तो अब तीन साल का हो चुका था। बातें भी करने लगा था दीदी अब अपना टाइम राजेश्वरी की देख भाल में बिताती और कामिनी अपने पहले बच्चे अजय में बिजी होती।
इसी तरह वक्त गुजर रहा था। हम अब भी एक दूसरे से मजे लेते, अब कोई झिझक नहीं थी। अक्सर मैं और कामिनी नदी पर नहाने जाते तो बच्चे को वहाँ दरख़्त के नीचे लिटा देते और खुद नहाकर फिर दरख़्त के नीचे आकर एक दूसरे के जिस्मों में खो जाते। कभी दीदी भी वहाँ आ जातीं तो वो भी शरीक होतीं। अब रात में हम तीनों ही एक दूसरे के साथ सेक्स करते और एक दूसरे को आराम पहुँचा कर आराम से सो जाते। अक्षय तेज़ी से बड़ा हो रहा था।
अब मैं भी माहिर हो चुका था और मेरी दोनों बहनें भी। वो मेरी मनी अपनी चूत में ही छुड़वाती लेकिन अपनी चूत को सिकोड कर उसको बच्चेदानी में जाने ही नहीं देतीं और फौरन उकड़ू बैठकर मनी को बाहर गिरा देतीं। या फिर मनी छूटने से पहले अगर मेरा लंड कामिनी की चूत में होता तो मनी छूटने से पहले ही दीदी मेरा लंड निकाल कर अपने मुँह में ले लेतीं और मेरी मनी पी लेतीं और अगर दीदी की चूत में होता तो कामिनी चूत चुसते हुये मेरा लंड खींच लेती और मेरा लंड अपनी मनी उसके मुँह में भर देता। इसी तरह वक्त का चक्कर चलता रहा।
हमारे बच्चे हमारे सामने बड़े होते गये। मुझे याद है के यह 1957 का साल था। महीना घालिबान फरवरी था सर्दियाँ थीं लेकिन काबिल-ए-बर्दाश्त। हमें यहाँ आए 19 साल हुआ ही चाहते थे। मेरी उमर इस वक्त 28 साल, राधा दीदी की 34 साल, जब की कामिनी की 25 साल थी। हम तीनों भरपूर जवान थे लेकिन अब दीदी का हसीन जिस्म ढलने लगा था, अब उनमें वो पहले जैसा जोश भी नहीं रहा था। मुझे आज भी वो दिन याद आते हैं, जब दीदी बढ़ बढ़ कर मेरे लंड पर हमले किया करती थीं।
अपनी चूत फैला-फैलाकर उसे ज्यादा से ज्यादा अंदर किया करती थीं। कई-कई दफा उनकी चूत मनी छोड़ती थी। फिर भी उसकी आग सर्द नहीं होती थी। जब चूत चुसवाती थीं तो दहकती चूत की गर्मी से मेरे होंठ जलने लगते थे, मम्मे बिल्कुल गोल हुआ करते थे, जो चुदाई के वक्त बेहद खूबसूरत तरीके से हिला करते थे। वोही दीदी अब कभी कभार ही चुदाई करवाया करती थीं। ज़्यादातर लंड चूस कर ही फारिग या अपनी चूत चुदवा लिया करती थीं।
चूत में भी अब वो मजा नहीं रहा था। चुसते वक्त काफी देर बाद पानी आता था और चुदाई के वक्त लंड अभी जाता ही था की चूत से पानी टपकने लगता। और चूत काफी खुल ही गई थी। दो बच्चे पैदा करने के बाद। कुछ ही देर बाद चूत से अजीब भड़ भड़ की आवाजें आने लगती। मम्मे अब गोल नहीं रहे थे। ढलक से गये थे,
बच्चों को दूध पिलाने की वजह से और निप्पल काले पड़ चुके थे। गान्ड भी अब काफी गोश्त चढ़ा चुकी थी और कमर काफी मोटी हो गई थी।
जब की कामिनी का जिस्म अब भी कसा हुआ था, मम्मे भी टाइट थे। हाँ निप्पल उसके काफी बड़े हो गये थे क्योंकी वो भी बच्चे को दूध पिलाया करती थी। चूत अब भी गरम और रसभरी थी, चूसने में मजा आता था। गान्ड भी कसी हुई थी। गान्ड का सुराख खुला हुआ था। मैं डालता ही रहता था। उसमें। हम अब भी नंगे ही रहते थे कपड़े हम बच्चों को पहनाया करते थे की उनको मौसम की सजख्ियों से बचा सकें। यह ऐसी ही एक शाम का ज़िकर है।
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