RE: Bahu ki Chudai बहुरानी की प्रेम कहानी
मैंने बताया था कि मैं और बहूरानी उनके चचेरे भाई की शादी में दिल्ली पहुंचे हुए थे जहां मैं अपनी अदिति बहूरानी को बंजारन के वेश में देखकर उस पर मोहित हो गया था और येन केन प्रकारेण उसकी मचलती नंगी जवानी को भोगने में कामयाब भी हो गया था.
उसी शादी में मुझे कमलेश नाम की ग्रामीण बाला भी मिली थी जो कि रिश्ते में मेरी बहूरानी की भतीजी लगती थी यानि मैं एक तरह से उसका दादाजी लगता था. कमलेश के बारे में मैंने पिछली कहानी में बड़े विस्तार से लिखा था जिसमें मैंने उसके व्यवहार और रूप रंग और उसकी कामुक चेष्टाओं का विशद वर्णन किया था. कमलेश को सब लोग कम्मो नाम से ही बुलाते हैं तो अब मैं भी उसे इस कहानी में कम्मो नाम से ही संबोधित करूंगा.
तो पिछली कथा में बात यहां तक पहुंची थी कि बहूरानी ने मुझे कहा था कि मैं कम्मो को मार्केट ले जाऊं और उसे नया स्मार्टफोन दिलवा दूं; पैसे तो कम्मो के पास हैं.
तो मित्रो, पिछली कहानी से आपको याद होगा कि पिछली रात हम सब लोग साथ में डिनर कर रहे थे और कम्मो मुझे बड़े प्यार और अनुराग से सर्व कर रही थी … कभी दही बड़े, कभी रसगुल्ला कभी कुछ कभी कुछ. कहने का मतलब यह कि मुझे अपनी जगह पर से उठाना नहीं पड़ा और कम्मो ने काउन्टर से खाना ला ला कर भरपेट से कुछ ज्यादा ही खिला दिया था. उसके इस चाहत भरे खुशामदी व्यवहार को मैं समझ रहा था कि उसे कल मेरे साथ मार्केट जा के नया फोन जो लेना था.
अब नया फोन लेने की उमंग तरंग क्या कैसी होती है उसका तो हम सबको अनुभव है ही … पर गाँव की कोई लड़की जो अभी तक नोकिया का बाबा आदम के जमाने का टू जी फोन इस्तेमाल कर रही थी, उसका मन कैसे ललचाता होगा स्मार्टफोन की स्क्रीन पर उंगली फेरने को या व्हाट्सएप, फेसबुक पर अपना खुद का अकाउंट खोलने को और सबसे चैट करने को; क्योंकि अब तो ये सब एप्प्स गांव गांव में मशहूर हैं और जब वो दिन आ ही जाए कि बस अपना नया फोन मिलने ही वाला है तब दिल कैसे खुश और बेकरार रहता है, इस अनुभव से हम सब गुजरे हैं कभी न कभी; वही हाल कम्मो का भी था.
तो अगले दिन सवेरे क़रीब नौ बजे मैं और कम्मो मार्केट जाने के लिए तैयार थे. कम्मो सजधज ली थी अपने हिसाब से; वो जितना खुद को सजा सकती थी, उसने सजा लिया था. अच्छे से बाल संवार कर चोटी गूंथ ली, आँखों में काजल डाल लिया और नया सलवार कुर्ता और दुपट्टा, मेहंदी तो उसके हाथों में पहले ही लगी थी; कहने का लब्बो लुआब यह कि वो खुद को जितना टिपटॉप कर सकती थी, उसने कर लिया था. वैसे खूब सुन्दर लग रही थी वो.
“चलें कम्मो?” मैंने कहा.
“अंकल जी एक मिनट, पैसे लेना तो मैं भूल ही गयी.” वो बोली और भागती हुई किसी कमरे में गयी. वापिस लौटी तो उसके हाथ में रूमाल की पोटली सी थी जिसमें उसके पैसे बंधे हुए थे.
“लो अंकल जी. पैसे आप रख लो. बहुत दिनों से जोड़ रही थी मैं फोन के लिए!” वो बोली और रूमाल मुझे दे दिया.
मैंने रूमाल खोला तो उसमें तरह तरह के नोट बेतरतीब ढंग से उल्टे सीधे मुड़ेतुड़े हुए रखे थे; दस, बीस, पचास, सौ … सब तरह के नोट थे. चार छह नोट पांच पांच सौ के भी थे. अब ये लोग तो ऐसे ही पैसे जोड़ के रखते हैं; जब कभी रुपये हाथ आये तो तह करके रूमाल में बांध लिए. मैंने सारे नोट ठीक ढंग से सेट किये और गिने तो कोई आठ हजार चार सौ कुछ निकले. अब ऐसे चिल्लर नोट ले के फोन खरीदने जाना मुझे बड़ा अटपटा सा लग रहा था तो मैंने अपनी बहूरानी अदिति को बुला कर वो नोट उसे दे दिए और कम्मो को समझा दिया कि ऐसे छोटे छोटे नोट लेकर कुछ खरीदने जाना अच्छा नहीं लगता और उसके फोन का पेमेंट मैं कर दूंगा अपने अकाउंट से.
“पापा जी, कम्मो कह रही थी कि इसे लालकिला भी देखना है. तो इसे आप वहां भी घुमा देना पहले, फिर चांदनी चौक या करोलबाग से फोन खरीद देना.” बहूरानी बोली.
“ठीक है बहू. तो तू पहले कोई टैक्सी बुक कर दे लालकिले के लिये” मैंने बहू से कहा तो उसने अपने फोन से ऊबर की कैब बुक कर दी.
कैब शायद कहीं पास में ही थी, तीन चार मिनट में ही आ गयी. मैंने कैब का दरवाजा खोल कर पहले कम्मो को बैठने दिया फिर खुद जा बैठा और हम चल दिए लाल किले की ओर.
तो दोस्तो, इस तरह मैं और कम्मो तैयार होकर धर्मशाला से निकल लिए.
शादी तो रात में ही होनी थी, लौटने की कोई जल्दी भी नहीं थी. मैंने सब कुछ पहले ही प्लान कर रखा था कि पहले थोड़ा घूम फिर कर किसी रेस्टोरेंट में लंच करेंगे उसके बाद फोन खरीद कर दिल्ली के नज़ारे देखते हुए शाम तक वापिस लौटेंगे.
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