RE: Desi Porn Kahani संगसार
"समाज? कौन- सा समाज? औरत - मर्द का आपसी रिश्ता किसी समाज, किसी कानून का मोहताज़ नहीं होता है. सो मैं भी नहीं हूँ."
"तुम्हारे चेहरे पर बग़ावत की तुतुहरी बज रही है, मगर यह बग़ावत तुम्हें सिर्फ़ ग़लत रास्ते पर नहीं, बल्कि मौत के रास्ते की तरफ़ भी ढकेल रही है."
"अब मेरा हर रास्ता मौत की ही ओर जाता है."
"तो फिर रास्ता बदल डालो."
"जब मरना हर हालत में है तो रास्ता बदलकर क्या होगा?"
"एक मौत को समाज इज़्ज़त देगा और दूसरे पर लानत भेजेगा."
"तो फिर भेजने दो उन्हें लानत, उस सूरज पर जो ज़मीन को ज़िंदगी देता है, उस मिट्टी पर जो बीज को अपने आग़ोश में लेकर अंकुर फोड़ने के लिए मज़बूर करती है और इस क़ायनात पर जिसका दारोमदार इन्हीं रिश्तों पर क़ायम है, जिसमें हर वज़ूद दूसरे के बिना अधूरा है."
"यह लनतरानी छोड़ो और हक़ीक़त की दुनिया में उतरो."
"हक़ीक़त?"
"हाँ."
"अगर शौहरदार औरत को मर्द पूरी तरह हासिल न हो उसकी अपनी इच्छाओं और तमन्नाओं के मुताबिक़, तो फिर तुम्हारा समाज और क़ानून कोई हल बताता है?"
"तलाक़.... दूसरी शादी..."
"तलाक़? उस इंतज़ार में तो मैं बूढ़ी हो जाऊँगी... फिर आज तक औरत को तलाक़ माँगने पर क्या उसे आज़ादी मिलती रही है जो मैं...."
"फिर शराफ़त, शराफ़त की ज़िंदगी गिज़ारो, औरतों के लिए शरीफ़ होना ही..."
"शराफ़त कुछ औरतों की मज़बूरी हो सकती है, क्योंकि उनकी तरफ़ कोई आँख उठाकर देखना पसंद नहीं करता है और इस मज़बूरी में वे पाक पवित्र बनी रह जाती हैं मगर मेरे साथ यह मज़बूरी नहीं है."
"तुम अफ़ज़ल को ज़लील कर रही हो?"
"बिल्कुल नहीं, वह बिस्तर पर मेरा पूरक नहीं है, यह मैं जानती हूँ. उसका जोड़ा भी कहीं होगा और...."
"मैं भी इसी घर में पैदा हुई, पली - बढ़ी और अपनी ज़िंदगी गुज़ार रही हूँ, कम और ज़्यादा का संतुलन बनाकर शादीशुदा ज़िंदगी को खुशहाल बनाने की हम दोनों कोशिश करते हैं, मगर तुम? तुम भी तो उसी घर में पैदा हुई, पली - बढ़ी और अचानक यह तब्दीली...
वह भी शादी से पहले नहीं शादी के बाद, आख़िर क्यों?"
"इसलिए कि मोहब्बत ने मेरा दरवाज़ा खटखटाया है." आसिया ने कहा सहज स्वर में, मगर उसके तेवर को देखकर आसमा के माथे पर पसीना छलक आया.
बहन के इस तरह किए गए सवालों से आसिया के दिल में उथल-पुथल मच गई थी. उसने यह रिश्ता ख़ुद तलाश नहीं किया था. शादी के बाद अफ़ज़ल से मिली, हर ख़ुशी को उसने उमंग के साथ जिया था, मगर शादी के एक साल बाद वह कौन सा कमज़ोर लम्हा था, जब वह आ टकराया. अपनी बातों, अपनी नज़रों से उसने इस तरह आसिया से ख़ुद उसका परिचय कराया कि आसिया दंग रह गई थी.
दूर से पैदा हुई क़शिश पहले ही दिन तन - गाथा में नहीं बदली थी बल्कि जब दोनों हर तरह के तर्क, अंकुश और व्यथा पर विजयी हो गए तो इस मुक़ाम पर पहुँचे थे. वह अफ़ज़ल से उम्र में दो - तीन साल बड़ा था. आधी दुनिया घूम चुका था. पढ़े - लिखे होने के साथ उसके पास अनुभव था, नज़रिया था जो आसिया के सामने से कई तरह के जाले साफ़ करने में, उसे विश्वास देने और समाज को सियासी तौर से समझने में मददगार ही नहीं हुए थे बल्कि बातों से एक अजीब तरह का लुत्फ़ भी देते थे. अफ़ज़ल के साथ उसकी ज़िंदगी बँधे - बँधाए ढर्रे पर चल रही थी, मगर इसके साथ रोज़ एक नई बात मालूम होती. रोज़ एक तलाश शुरू होती जो उसे बड़े आराम से एक ठहरी ज़िंदगी से आगे ले जाती. आसिया उम्र के जिस दौर में थी वह जिज्ञासा से भरी उम्र का दौर था. उसकी यह ज़रूरत अफ़ज़ल नहीं बल्कि वह पूरी कर रहा था.
"वह शादीशुदा है?" आसमा ने सवाल ठोंका.
"नहीं." आसिया ने मासूमियत से गर्दन हिलाई.
"तुमसे शादी करेगा?" उपेक्षा - भरे स्वर में आसमा बोली.
"मैंने अभी तक इस सवाल पर सोचा ही नहीं था."
"अगर तुम्हारे वज़ूद में एक नए इनसान ने साँस ली तो?"
"क़यामत के दिन बच्चे माँ के नाम से पुकारे जाएँगे, बाप के नुत्फ़े से नहीं."
दोनों बहनें आमने - सामने बैठीं चुपचाप - सी चंद लम्हे टकटकी बाँधे एक - दूसरे को देखती रहीं, जैसे अपनी बात समझाने की कोशिश कर कर रही हों. फिर जाने क्या हुआ कि आसमा की बड़ी - बड़ी आँखों में पानी जमा होने लगा.
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