RE: Desi Porn Kahani संगसार
"वह तज़ुर्बे कर रही है. यहाँ सदियों से जो तज़ुर्बा हम कर रहे हैं वह तो उसकी नज़र में फुज़ूल और बोसीदा बात है. वह अकेली समाज को बदल डालेगी, मर्दों की बराबरी कर उनसे नया कानून लिखवालेगी, चुपचाप बैठी देखती जाओ यह आतशपारा क्या गुल खिलाती है." माँ का चरखा चल गया था और आसमा के कान खड़े हो गए थे. अब धीरे धीरे करके बात उसकी समझ में आने लगी थी.
"मर्द सीग़ा भी करेगा, ब्याहता के रहते दूसरी शादी भी करेगा और बाहर भी जाएगा, उसे कौन रोक सकता है भला? लोग थू - थू भी करेंगे तो फ़र्क़ नहीं पड़ता; मगर औरत ये सब करेगी तो न घर की रहेगी न घाट की. दूसरा शौहर करना तो दूर, किसी से आशनाई भी हुई तो दुनिया उसे हरामकारी और मज़हब उसे जानकारी कहेगा, मगर उसके सिर पर तो इंक़लाब सवार है. एक इंक़लाब ने हमारा सुख छीना, दूसरा आया तो समझो हमारी बची इज़्ज़त भी धूल में मिल जाएगी." माँ पर जैसे दौरा पड़ गया था. उनकी आवाज़ ऊँची होकर फट गई थी.
"सब्र से काम लो." घबराकर आसमा ने माँ को शांत करना चाहा.
"अरे, उसके मियाँ में है कोई ख़राबी, मगर बदबख़्त की क़िस्मत फूटी है." माँ ने रुआँसी आवाज़ में कहा और चुप हो गई, शायद आँसू पीने की कोशिश कर रही थीं.
आसमा सिर झुकाए बच्चों के धुले कपड़ों पर इस्तिरी करने लगी. उसका दिमाग़ तेज़ी से सोच रहा था. अग़र आसिया अफ़ज़ल से खुश नहीं है तो तलाक़ ले ले, मगर यह सब? तलाक़ वह किस बुनियाद पर माँगेगी भला? कोई ख़राबी नहीं अफ़ज़ल में, नशा, बीमारी, बेकारी, पिटाई, लापरवाही कुछ भी नही है जो केस बना सके. नामर्दानगी का इल्ज़ाम उस अर लगाया नहीं जा सकता है. उसको साबित करना पड़ेगा और यह पता लगा कि आसिया ख़ुद कहीं दिलचस्पी रखती है फिर तो क़यामत आ जाएगी, कोर्ट उसे....
"कपड़ा जल रहा है?" माँ चीख़ी.
"ओह!" आसमा चौंकी. छोटी बेटी का लाल फ्राक सीने के पास से जल चुका था. आसमा ने प्लग निकाला, कपड़े समेटे और चुपचाप बेटे के पास जाकर बैठ गई. उसका दिल - दिमाग़ परेशान था. कई तरह के सवाल उसके सामने आ खड़े हुए थे. जिनमें सबसे अहम सवाल था कि शादी के बाद ऐसा क्यों हुआ और वह कौन है जिसने
उसकी बहन का ईमान डगमगा दिया है?
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शाम को आसमा के शौहर का फोन आया कि वह उसे लेने आने वाला है, मगर माँ की बीमारी का बहाना करके आसमा ने उससे एक दिन और रुकने की इज़ाज़त ले ली. बेटी को रुकता देखकर माँ ने बड़ी बहन को फोन करके बुला लिया और तीनों सिर जोड़कर आसिया की बदक़िस्मती पर आँसू बहाती रहीं. आसिया जब शाम ढले घर में दाख़िल हुई तो ख़ाला ने महसूस नहीं होने दिया कि उन्हें सारी बात का पता चल गया है. वह उसी प्यार - दुलार से मिली और पूछने लगी.
"मायके में कब तक रहना है? हो सके तो ख़ाला के घर भी आओ."
"अब यहीं रहूँगी, मुझे वापस नहीं जाना है." आसिया ने फ़ैसला सुनाया, जिसे सुनकर माँ ए हाथ से घी का डब्बा छूटते छूटते बचा.
"लाओ, मैं बघारती हूँ." आसमा गोद का बच्चा आसिया को दे, माँ ई घबराहट ताड़, हड़िया भूनने में लग गई.
"पूरे एक महीने मैंने तुझे दूध पिलाया था, जब तू तीन महीने की थी और ज़ोहरा सख़्त बीमार थी." ख़ाला ने पुरानी यादों में डूबते हुए कहा.
"अब मैं तीन महीने की बच्ची थोड़े ही हूँ जिसकी ज़रूरत सिर्फ माँ की छाती का दूध होता है. इस घर में कोई नहीं समझता कि मैं बड़ी हो गई हूँ. मेरी ज़रूरत, मेरी चाहत कुछ और है." आसिया ने शिक़वे - भरे लहज़े में कहा.
"अ मेरी बच्ची, तेरी ज़रूरतों को मैं अपनी अकल के मुताबिक़ समझने की कोशिश करूँगी." कहकर ख़ाला ने आसिया को अपनी बाहों में समेट, उसके माथे को चूमा और बालों को सहलाया.
ज़ोहरा एक किनारे बैठी बेटी का चेहरा हैरत से ताकने लगीं. आसमा ने चाय की ट्रे सामने रखी और केक, सूखे मेवे की प्लेट ख़ाला के आगे बढ़ाई. आसिया सँभलकर बैठ गई.
"ज़रूरत का, इनसान की ज़िंदगी में एक उसूल होता है." ख़ाला ने धीमी आवाज़ में कहा.
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