RE: Chodan Kahani जवानी की तपिश
सलामू ने जल्दी-जल्दी लोगों को एक तरफ किया और मेरी वहाँ बैठने की जगह बनाई। मैं उस बिस्तर पर बैठ गया। बाकी लोग बिस्तर से हटकर नीचे लगे हुए कालीन पर बैठ गये। पूरे हाल कमरे में चारों तरफ लोगों के बैठने के लिए कालीन लगाए गये थे। उसके बाद ताजियत का शाम तक ना खतम होने वाला दौर शुरू हो गया। दिन कैसे गुजरा कुछ पता ही ना चला। बाबा की ताजियत के लिए बहुत से लोग वहाँ पर आए। अपने इलाके के आला अफ़सरान, पुलिस के आला औहदेदार, मिनिस्टर तक बाबा की ताजियत के लिए वहाँ पहुँचे हुए थे। मुरीदों की तो कोई इंतिहा ही नहीं थी। यह सब देखकर मैं हैरान था कि मेरा खानदान कितना मुअज्जिज खानदान है,
और लोग मेरे बाबा की कितनी इज़्र्जत करते थे। हर आँख नम थी, सिवाए पीर जमाल शाह की। मैं सारा दिन वक्त-बा-वक्त उसपर नजर रख रहा था।
इस दौरान मैंने भी महसूस किया कि पीर जमाल शाह भी मुझे बार-बार देख रहा है। इस दौरान पीर जमील शाह, जमाल शाह का बेटा भी एक दो बार हाल कमरे में चक्कर लगा चुका था। उसके आने पर मुरीदों और काम करने वालों में खलबली सी मच जाती थी। सब लोग उसके एक इशारे के मुंतज़िर रहते कि कहीं उनका इशारा हो जाए और उनसे कोई गलती ना हो जाये।
इस दौरान सलामू भी कुछ देर में मेरे पास आ जाता और फ़िर वो मुख्तलिफ कामों से बाहर भी निकल जाता। शाम के वक्त लोगों की भीड़ कम होना शुरू हुआ तो, पीर जमाल शाह भी अपनी जगह से उठकर कहीं चले गये। मैं भी सलामू का इंतजार करने लगा कि वो आए तो मैं भी जाकर अपने कमरे में आराम करूँ। सारा दिन यहाँ बैठ कर थक गया था, और कल की थकान भी अभी बाकी थी। क्योंकी मैं कल रात को भी अपनी नींद पूरी ना कर पाया था। थोड़ी देर में ही सलामू आ गया और मैं उसके साथ हवेली के मर्दानखाने में अपने रिजर्व कमरे में पहुँच गया।
रूम की तरफ आते हुए मैंने पीर जमाल शाह के रूम की तरफ गौर से देखा और अंदाज़ा लगाने की कोशिस की कि पीर जमाल शाह अंदर है या नहीं? मगर रूम की बंद लाइटें और खामोशी से मुझे अंदाज़ा हुआ कि पीर जमाल शायद अभी तक वहाँ नहीं पहुँचा था।
अपने रूम में पहुँचते ही मैं अपने बेड पर गिर गया, मेरी टांगे नीचे लटकी हुई थी। मैंने जूते उतारने की भी जहमत महसूस नहीं की। सलामू सामने खड़ा मुझे गौर से देख रहा था। मैंने अपनी आँखें बंद कर ली, मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा था। उसी वक्त मुझे अपनी पैरों पर एक हाथ का स्पर्श महसूस हुआ। मैं जल्दी से उठकर बैठ गया। देखा तो सलामू मेरे जूते उतारने की कोशिस कर रहा था।
मैंने जल्दी से अपना पैर दूर करते हुए उससे कहा-“सलामू चाचा, यह आप क्या कर रहे हो? आपको यह सब करने की जरूरत नहीं…”
सलामू ने मुश्कुराकर मुझे देखते हुए कहा-“छोटे साईं, जब आप छोटे थे तो कितनी ही बार मैंने आपको जूते पहनाए और उतारे भी हैं। मुझे मना मत करो। लेट जाओ, आप बहुत थके हुए हो…”
मैंने जल्दी से उसे दोनों बाजू से पकड़कर खड़ा करते हुए कहा-“चाचा, तब मैं छोटा था, यह सब कुछ खुद नहीं कर सकता था। लेकिन अब मैं बड़ा हो गया हूँ और यह सब मैं खुद कर सकता हूँ…”
मेरे कंधे को थपक कर उसने बड़े प्यार से मेरे बाजू को पकड़कर मुझे बेड पर बिठा दिया और बड़ी ही अपनियत से कहा-“छोटे साईं, आप कितने भी बड़े हो जाओ, लेकिन मेरे लिए वही छोटे साईं ही हो। मुझे आपका कोई भी काम करके बहुत खुशी मिलेगी। मुझे यह सब करके ऐसा महसूस होता है कि आपके बाबा मुझे शाबासी दे रहे हों, और छोटे साईं आपकी खिदमत करने का मैंने आपके बाबा से वादा किया है। मैं मेरा अहलो--अयाल आपके गुलाम हैं। मुझे यह सब करने से अगर कभी आपने मना किया तो मैं मर जाउन्गा…” उसने अपने दोनों हाथ मेरे सामने बाँध लिए।
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