RE: Antarvasna kahani नजर का खोट
"आह " इस बार मैं अपने दर्द को ना रोक सका पर पसलियों में चोट गहरी लग गयी थी क्योंकि पलक झपकते ही मुह से उबाक के साथ खून भी निकल पड़ा
पर राणाजी पर किसी पागल हाथी जैसा उन्माद चढ़ गया था और क्रोध में वो भूल गए थे की सामने उनका बेटा है उनका अपना खून मेरे बालो से पकड़ कर उठाया और एक बार फिर से फेंक दिया मुझे
मैं- मेरी बात तो सुनिये बापू सा , सुनिये आह
राणाजी- क्यों क्यों किया तूने ऐसा आखिर क्यों मार डाला मेरी मेनका को क्यों
मैं- मैंने नहीं मारा
तड़ाक, मेरी बात पूरी होने से पहले ही उनका तमाचा मेरे गाल पर पड़ा और पेट में एक लात अब मुझे भी गुस्सा आने लगा था पर सामने मेरा बाप था पर कोई कितना बर्दास्त करेगा आखिर इस बार मैंने उनका हाथ पकड़ लिया
मैं- मेरी बात सुनिये बापू सा
राणाजी को जैसे ही ये आभास हुआ की मैंने उनका प्रतिकार किया है ,उनका हाथ पकड़ रखा है उनकी आँखे जैसे जल गयी गुस्से में
राणाजी- गुस्ताख़ तेरी ये जुर्रत तू हमारा हाथ पकड़ेगा हमारा ठाकुर हुकुम सिंह का
मैं- बस बापू सा अब बहुत हुआ, मैं कब से कह रहा हु मेरी बात सुनिये पर आप है की समझ ही नहीं रहे कही ऐसा न हो की आपका क्रोध जब शांत हो तो सिवाय पछताने के आपके पास कुछ न बचे
राणाजी- हमारा तो सब तबाह हो चूका है सब खत्म कर दिया तूने
इस बार राणाजी की लात बहुत जोर से लगी मुझे बिलबिला गया दर्द के मारे, मुझे भी अब गुस्सा आ रहा था पर मैं सोच रहा था कि बाप के सामने हाथ उठ गया तो कल को खुद की नजरों में गिर जाऊंगा और बाप है की समझ ही नहीं रहा है
मै उठते हुए- बापू सा, मैं अंतिम बार कह रहा हु शांत हो जाइये वरना पिता पुत्र की रेखा पार न हो जाये
राणाजी- कब तक शब्दो की आड़ लेगा कायर , तेरी हैसियत नहीं की तू हमारा सामना कर सके रिश्ता तो उसी समय खत्म हो गया जब तेरे हाथ हमारी मेनका की तरफ बढे थे अब तेरी लाश ही जायेगी यहाँ से
मैं समझ गया था कि ये अब कुछ नहीं सुनेंगे, कोशिश करनी बेकार है अब धर्मसंकट ये था कि उनपर जूनून था और मैं अपना अंत नहीं चाहता था और राणाजी का ये रौद्र रूप आज विध्वंस करने पर उतारू था
मेरा शरीर अब मचलने लगा था प्रतिकार करने को क्योंकि उसकी भी सहन शक्ति खत्म हो रही थी और राणाजी ने जैसे आज ना रुकने की कसम खा ली थी ,दरअसल मैं अपने मन की जंग में उलझ गया था एक तरफ जैसा भी हो
मेरा बाप था और दूसरी तरफ बार बार मेरे जेहन में वो मंजर आ रहा था जो मैंने खारी बॉवड़ी में पद्मिनी की आँखों में देखा था आज ,आज वो पल आखिर आ ही गया था उस दिन मैंने एक बाप बेटे की रक्त रंजित तलवारो को आपस में टकराते हुए देखा था
और नसीब देखो, आज भी ऐसी ही मुश्किल घड़ी थी इस बार मैंने नीचे झुक कर राणाजी के वार को बचाया और उनकी कमर में हाथ डाल कर उन्हें उठाते हुए पटक दिया, एक पल तो मुझे लगा की बूढी हड्डिया चटक न जाए उनपर होने वाला हर प्रहार मेरे ही कलेजे को चीर जाना था
मैं- मान, जाइये रुक जाइये
राणाजी उठते हुए- अब आएगा मजा
मजा, मैंने सोचा कैसा मजा आएगा अपनी ही औलाद के खून को बहाने में अखिर ये कैसी प्यास है जो अपनों के रक्त से ही बुझती है ये कैसा स्वाद मुह लगा है इन हथियारों को, की अपनों के ही दुश्मन बन पड़े है
राणाजी एक बार फिर मुझ पर लपके और पूरी शक्ति से मैंने एक घूंसा उनकी जांघ पर दे मारा, मुझे इतनी आत्मग्लानि थी की क्या बताऊँ, जिस खम्बे का सहारा लेकर वो बैठे थे उसी खम्बे पर दे दनादन मैंने अपना गुस्सा उतारना शुरू किया उंगलिया छिल गयी खून रिसने लगा
राणाजी एक बार फिर जुट गए थे मेरे बदन के साथ साथ मेरी आत्मा को तार तार करने के लिए पर अब भावनाओ पर गुस्सा हावी होने लगा था , राणाजी की बूढी हड्डियों में अभी भी बहुत दम था इसका भान जल्दी ही हो गया मुझे जब मैं फर्श पर दर्द से तड़प रहा था
राणाजी ने दिवार से तलवारे निकाल ली और एक मेरी और फेंकते हुए बोले- ले उठा तलवार और कर मेरा सामना, जिस धरती पर मेरी मेनका की लाश पड़ी है मैं उस धरा को सींच दूंगा तेरे रक्त से
मै उठते हुए - हां तो कर लीजिए अपने मन की पर ये याद रखना रक्त के जितने भी छींटे उड़ेंगे वो रक्त आपका अपना ही होगा,
राणाजी- आज तक बस मेरा रक्त ही तो बहता आया है पर फिर भी टुटा नहीं क्योंकि मेरी शक्ति मेरी प्रेरणा मेरी मेनका मेरे साथ थी पर आज तेरी वजह से सब खत्म हो गया और जब सब खत्म हो ही गया है तो आज अंत कर दूंगा
मैं कुछ करता उससे पहले ही उनकी तलवार मेरी बाह पे चीरा लगा गयी और अगले ही पल हवेली हमारी तलवारो की टंकारो से गूंज गयी मेरी पकड़ तलवार की मुठ पर कस्ती जा रही थी और आखिर वो लम्हा भी आया जब मेरी तलवार ने राणाजी के रक्त का चुम्बन लिया
अब खून चाहे उनका गिरे या मेरा बात एक ही थी तलवारो को कहा भान था कि हर बार मेरा ह्रदय ही घायल हो रहा था हम दोनों के बदन घावों की शरण स्थली बनते जा रहे थे और तभी लगा की जैसे आज तक़दीर दगा दे गयी
मेरी तलवार दो टुकड़ों में बंट गयी और मेरे सीने में एक लंबा घाव हो गया " आई" मैं लहराते हुए गिरा और इससे पहले की राणाजी की लहराती तलवार मेरे जिस्म में प्रविष्ट हो जाती दरवाजे से एक साया तेजी से मेरी तरफ आया और मुझे परे धकेल दिया टन की तेज आवाज से तलवार फर्श से टकराई
" बंद कीजिये बापू सा, बंद कीजिये ये रक्त का खेल कब तक इन तलवारो से खेलेंगे जिन्हें अपने ही खून की पहचान नहीं कब तक आप अपनी जिद के लिए मासूमो के जीवन बर्वाद करते रहेंगे कब तक आप अपने मन की करते रहेंगे कब तक"
" दूर हट हरामजादी दूर हट कही ऐसा ना हो की इसके चक्कर में आज तेरे टुकड़े भी यही पड़े मिले"
भाभी- बस ठाकुर साब बस, अब अगर कुंदन की तरफ आपका एक भी कदम उठाया तो ठीक नहीं होगा फिर मैं भी भूल जाउंगी की मैं कौन हूं और मैं अगर अपनी पे आयी तो आज अफ़सोस के सिवाय कुछ नहीं बचेगा ,कुछ नहीं बचेगा
राणाजी- तू मेरे टुकड़ो पे पलने वाली कुतिया तेरी औकात ही क्या है आज जिस शान बान , जो शौकत जो रुतबा तेरा है उसकी वजह है की तू हमारे घर के रहती है हमारा दिया खाती है
भाभी- अपनी नजरो से इस धूल का चश्मा उतारो ठाकुर साहब और सच का सामना करो , उस सच का जिससे सारी उम्र भागते रहे और कुंदन का खून करके क्या साबित करोगे आखिर कब तक अपने अहंकार का पोषण करते रहोगे कब तक आज थमना होगा आज इसी वक़्त
राणाजी- जस्सी, जुबान को लगाम दे वर्ना आज लाशो के जो ढेर लगेंगे उसमे एक लाश तेरी भी होगी
भाभी- तो ठीक है आज हम भी देखते है कि ठाकुर हुकुम सिंह जो अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा मर्द समझता है आज उसकी तलवार का सामना हम करेंगे और देखते है कि जिन कंधो पर आजतक वो अपनों की लाशों का बोझ लादे है आज हम देखते है की दबंग राणाजी अपने आप से कहा तक भागेंगे
भाभी में भी दिवार पर टँगे म्यान से एक तलवार खींच ली और राणाजी से बोली- आज मेरी तलवार के पहले वार से ही आपको अतीत के पन्ने पलटते हुए दिखेंगे वो पन्ने जो खून से रंगे है
दर्द से कराहते हुए मैंने देखा की जैसे उस समय दो बिजलिया आपस में टकरा रही हो दोनों की आँखों में बस नफरत ही तो कभी राणाजी तो कभी भाभी , जैसे जैसे वक़्त गुजरता गया दोनों के जिस्म लाल होते गए
पर तभी , भाभी लहराती हुई राणाजी की तरफ लपकी और कब वो उनकी तलवार ले उडी खुद राणाजी को यकीन नहीं आया उनकी आँखे जैसे शून्य हो गयी थी होंठ कांपने लगे
राणाजी - ये दांव तुमने कैसे , कैसे कर पाई तुम ये हम पूछते है है कैसे जस्सी ऐसा तो सिर्फ सिर्फ
भाभी- ऐसा तो सिर्फ पद्मिनी ही कर सकती थी यही कहना चाहते है ना आप
राणाजी ने जस्सी भाभी के मुह से जैसे ही पद्मिनी का नाम सुना राणाजी का क्रोध न जाने कैसे गायब हो गया वो एक दम शांत हो गए हवेली एक बार फिर से उसी तरह शांत हो गयी जैसे वो हमेशा से थी भाभी मेरे पास आई और मुझे सहारा देकर खड़ा किया और मेरे सर पर अपने दुप्पट्टे को पट्टी की तरह बांधा और मुझे लेकर दरवाजे की ओर बढ़ गयी
राणाजी- जस्सी, तुम इस तरह बिना हमारे सवाल का जवाब दिए नहीं जा सकती नहीं जा सकती
भाभी मुड़ी और बोली- क्या सुन पाओगे ठाकुर साहब, जानते हो आज अगर मैं चाहती तो आज ये हवेली आपके खून से लाल रँगी होती क्योंकि कुंदन पर वार करके आपने हर मर्यादा पार कर दी पर आपकी सबसे बड़ी सजा तो ये होगी की आप ज़िंदा रहे पल पल तड़पे जैसे पिछले 12 सालों से तड़पते रहे है पर अब जो घाव मैं आपको दूंगी उसके बाद आप पल पल मरेंगे पल पल मरेंगे
राणाजी- मरे हुए को क्या मारना जस्सी मर तो हम उसी दिन गए थे जब हमारे इन हाथो से हमारे भाई, हमारे दोस्त अर्जुन का खून हुआ था सांसे उसकी टूटी थी पर प्राण हमारे छुटे थे हम तो उसी दिन मर गए थे जब अर्जुन की दी हुई जिम्मेदारी को नहीं निभा पाये थे बस चल फिर रहे थे क्योंकि मेनका के रूप में एक लौ थी पर आज वो भी बुझा दी इस कुंदन ने अब क्या जीना क्या मारना
मैं- मैंने माँ को नहीं मारा बापू सा, उन्होंने खुद अपनी जान दी जब आप यहाँ पहुचे तो मैं बस कोशिश कर रहा था
राणाजी चुप रहे एक शब्द नहीं बोले
भाभी- सारी उम्र आप मेनका के लिए लड़ते रहे दुनिया से भागते रहे अपने आप से मेनका को तो पा लिया पर कभी सोचा नहीं की आपकी और मेनका की एक बेटी थी क्या उसकी याद नहीं आयी आपको , कैसे जिन्दा रही होगी वो या मर गयी पर आपको क्या आपको तो बस अपनी शर्तों पे जीना था
राणाजी- तुम्हे कैसे पता की मेरी और मेनका की एक बेटी थी
भाभी- अब क्या फर्क पड़ता है राणा हुकुम सिंह
राणाजी- फर्क पड़ता है आजतक , आजतक उसकी तलाश में हु मैं मेरी आँखे आज भी तरस रही है उसको देखने की पर वो न जाने कहा किस हाल में है
भाभी- एक कहावत है राणाजी की जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है, कभी आपने सोचा की आखिर मेरी और कामिनी की दुश्मनी का क्या राज़ है क्यों मैं उससे बस नफरत करती हूं क्यों
राणाजी कुछ नहीं बोले
भाभी- पता नहीं मैंने क्या कर्म किये थे जो पद्मिनी जैसा संरक्षक मिला मुझे, जानते हो उसने मेरे लिए जीने की व्यवस्था की यहाँ तक त्रिलोक जो को मुझे गोद दिया ताकी मैं चैन से जी सकु,और फिर एक दिन मैं देवगढ़ आ गयी
और फिर जो कुछ आपने मेरे साथ किया सिर्फ नफरत की मैंने आपसे इस घर में मौजूद हर इंसान से सिवाय माँ सा के जिन्होंने अपनी सगी बेटी कविता से भी ज्यादा मेरा मान रखा क्योंकि वो जान गयी थी वो जान गयी थी
राणाजी - क्या
भाभी- वही जो हवस में अँधा एक इंसान नहीं समझ पाया
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