Antarvasna kahani नजर का खोट
04-27-2019, 12:34 PM,
#24
RE: Antarvasna kahani नजर का खोट
वक़्त पता नहीं कब इतनी जल्दी बीत जाता है पता नहीं चल पता अभी कल की ही तो बात लगती है जब तुम मेरी ऊँगली पकड़ कर चलना सीख रहे थे और आज बेटा इतना बड़ा हो गया वो थोडा सा सरक कर मरे पास आये और बस हौले हौले मेरे बालो पर आना हाथ फेरने लगे आज मैंने पहली बार आने पिता को महसूस किया था आज राणाजी के हाथो में एक नरमी सी थी और आवाज बेहद सर्द जैसे कही दूर इ आ रही हो 



कुंदन ये बावड़ी जहा हम बैठे है बल्कि ये पूरी जगह मुझसे बहुत जुडी है मेरा बचपन यहाँ बीता जवानी यहाँ बीती मैं यहाँ पहली बार तुम्हारे दादा जी के साथ आया था और फिर यही का होकर रह गया पता नहीं कितनी यादे जुडी है यहासे उन्होंने कुछ पल साँस लिया और फिर अपनी आँखों को साफ़ सा किया बेटे ये जो बावड़ी है ना इसकी खुदाई हमने अपने हाथो से की थी 



शायद तुम्हे हमारी बाते समझ नहीं आ रही पर हमे लगा की एक पिता को उसके बेटे को कुछ बाते अवश्य बतानी चाहिए बल्कि हम तुम्हारे आभारी है की तुम्हारी वजह से हमारे अन्दर का वो पिता आज साँस ले पाया जो शायद झूठी चोधर में कही दब सा गया था 



राणाजी की आवाज थोड़ी बाहरी सी होने लगी थी कांप सी रही थी तभी ऊपर किसी ने घंटा बजाय जो इशारा था की सुबह का पहला पहर शुरू हो गया है और राणाजी उठ गए उसी के साथ

मैं बस उनको खुद से दूर जाते देखते रहा जबतक की वो उस घंटे तक ना पहुच गए जो ऊपर जाती सीढियों के पास उस बड़े से पेड़ के निचे लगा था तन्न्न तन्न्न की आवाज दूर दूर तक गूंजने लगी कुल सात बार उन्होंने उसे बजाया और फिर वापिस मेरे पास आगये मैं समझने की कोशिश कर रहा था की आखिर वो क्या रहा है और वो मुझे लाल मंदिर क्यों लेके आये है उन्होंने मुझे इशारा किया तो मैं दौड़ कर गया 

वो- कुंदन ये जो मैदान सा देख रहे हो माथे से लगाओ इसकी मिट्ठी इसमें सच्चे इंसानों का खून है उनकी वीरता की गाथा महसूस होगी तुम्हे 

मैंने उस मिटटी को गले से लगाया कुछ गरम सी लगी वो पिताजी की बातो से लग रहा था की लाल मंदिर की चुनौती को हमेशा से ही शौर्य और गर्व वीरता से जोड़ा गया था पर ना मैं योधा था ना मैं वीर और न मुझे शौक था इस परंपरा को आगे बढ़ने का मुझे मतलब था पूजा के सम्मान की जिसे छीन ने की कोशिश अंगार ने की थी जो काम मैं उस दिन पूजा की कसम से ना कर पाया था वो मैं इस चुनौती से कर सकता था ऐया मुझे विश्वाश था 

राणाजी – बेटे ज्यादा मेरे पास कहने को है नहीं तुम थोड़े में ही समझना दुनिया के और लोगो की तरह मेरी भी अब एक ही आस है की मुझ बूढ़े की अर्थी उसके बेटो के कंधे पर जाए , मैं नहीं चाहता की मैं अपने बेटे को कंधा दू तो मेरी इतनी लाज रखना तुम 
ये कह कर राणाजी ने मेरे आगे अपने हाथ जोड़ दिए सच में ही थोड़े में बहुत कुछ कह गए थे वो मैंने जिंदगी में पहली बार उस दिन उनकी आँखों में नमी देखि जिस इन्सान का हर शब्द क आदेश होता था आज वो मेरे सामने हाथ जोड़े खड़ा था मैं तो शर्म से ही मर गया मैंने बस अपने पिता के पाँव पकड़ लिए 

तभी किसी के आने ही आहात हुई तो हमारा ध्यान उस और गया एक पुजारी सा आदमी चला आ रहा था 

पुजारी- वीरो के वीर ठाकुर हुकम सिंह जी सात बार घंटा बजते ही मैं समझ गया था की आज सरकार खुद यहाँ आ पहुचे है तो आज माता की याद आ ही गयी 

राणाजी- माता को तो पल पल याद किया है पर बस नफरत सी हो गयी थी यहाँ से पुजारी जी 

वो- मैं समझता हु राणाजी 

राणाजी- बाकि मेरे आने का कारण तो आप समझ ही गए होंगे 

पुजारी- निसंदेह, परन्तु मैं चकित हु की ठीक बारह साल बाद आखिर ऐसी क्या वजह हो गयी जबकि आपने स्वयं कहा था की अब कोई चुनौती नहीं होगी न कोई देगा ना कोई स्वीकार करेगा 

राणाजी- कदापि हम नहीं आते परन्तु परिस्तिथि इस प्रकार हो गयी की हमारे संज्ञान के बिना चुनोती दी गयी और स्वीकार हुई अब स्वीकार चुनौती को पलट सके इतना साहस हममे नहीं 

पुजारी- कौन है वो वीर देवगढ़ की तरफ से 

राणाजी- ये हमारा छोटा बेटा ठाकुर कुंदन सिंह 

पुजारी ने हैरानी से मेरी तरफ देखा और बोले- राणाजी गलत किया ये तो अनर्थ अहि और फिर अभी इसकी उम्र ही क्या है बाकि माता की मर्जी 

राणाजी- पुजारी जी , आप जयसिंह गढ़ वालो के पास मुनादी करवाइए 

पुजारी- उसकी आवश्यकता नहीं ठाकुर जगन सिंह कल आ चुके है यहाँ 

बातो बातो में पता नहीं चला की भोर का सूरज दस्तक देने लगा था चारो और हल्का हल्का दिन निकलने लगा था रौशनी सी होने लगी थी और तभी मेरी नजर उसी मैदान के बीचो बीच एक स्तम्भ पर पड़ी जो शायद चार- पञ्च फूट ऊँचा होगा कभी सफ़ेद रहा होगा पर अब काई लगी थी और उसके बीच में धंसी थी एक तलवार 

मैं- वो क्या है 

पुजारी- अपने पिताजी से पूछो 

मैंने राणाजी की तरफ नजर की तो वो बोले- ये विजेता की तलवार है हर बार जितने वाला अपनी तलवार यही छोड़ जाता है ताकि उसकी विरासत कोई और संभाले 

मैं- पर ये किसकी है 

पुजारी कुछ बोलने ही वाला था तो पिताजी बोले- छोड़ो इन बातो को हम जरा माता के चरणों में शीश नवाज के आते है तुम आस पास नजर डाल लो और ज्यादा दूर जाना नहीं 

पिताजी के जाते ही मैं उस स्तम्भ के पास गया और उसको देखने लगा खून के कुछ धब्ब आज भी उस पर और उस तलवार पर भी खून सुखा हुआ था तभी मुझे वहा पर कुछ निचे एक तलवार और दिखी 

मैं- पुजारी जी दो दो विजेता 

वो- नहीं ये निचे वाली तलवार विजेता की है और ऊपर वाली हारने वाले की 

मैं- हारने वाले की 

वो- कुनदन हां उस हारने वाले की जो हारकर भी अमर है और विजेता भी दरअसल उस दिन विजेता तो बस एक था पर हार हुई थी मित्रता की दो तन एक मन हार गए थे उस दिन सच कहू तो कभी कभी यकीन नहीं होता खैर, सब समय का दोष है 

मैं – मैं कुछ समझा नहीं पुजारी जी 

वो- समझना ही क्या बस नियति है जैसे तुमने चुना उन्होंने भी चुना था 

मैं- ये विजेता की तलवार किसकी है 

वो- ठाकुर हुकुम सिंह जी की तुम्हारे पिता की 

जैसे ही पुजारी के मुह से वो शब्द निकले मेरे पैरो के नीची से जमीन ही निकल गयी बारह साल पहले मेरे पिता ने चुनौती जीती थी पता नहीं वो मेर लिए गर्व का क्षण था या आश्चर्य का पता नहीं कैसे कैसे जज्बात उमड़ आये मेरे मन में 

मैं- और ये दूसरी तलवार किसकी है 


“है एक सच्चे इन्सान की जो आज भी मुझमे जिन्दा है ” राणाजी ने हमारी तरफ आते हुए कहा
राणाजी- पुजारी जी आवश्यक तैयारिया जल्दी से करवाइए क्योंकि बरसात का महिना है ऊपर से अमावस के भी कुछ दिन है हम कुछ आदमी भेज देते है आपकी सहायता हेतु बाकि आप हमे सूचित करते रहे 



फिर उनहोंने मुझे लिया और वापिस चलने लगे 
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RE: Antarvasna kahani नजर का खोट - by sexstories - 04-27-2019, 12:34 PM

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