RE: Desi Porn Kahani करिश्मा किस्मत का
मै और मेरा दोस्त राजेश
अपनें नये मकान में शिफ्ट हुये हमें करीब एक साल हो चला था। हम पिछले जुलाई की शुरूआत में यहाँ आये थे और मेरी दोस्ती अपनी कॉलोनी के कई लड़कों के साथ हो गई थी। उनमें से एक लड़का था राजेश जो एक अच्छे परिवार से था और पढ़ने लिखने में भी अच्छा था। उससे मेरी दोस्ती थोड़ी ज्यादा हो गई थी। हाँलाकि हम दोनों में बहुत अच्छी पटती थी लेकिन राजेश और मेरा नेचर बिल्कुल अलग था। लड़कियों के मामले में राजेश खिलन्दड़ा और दिलेर था और मै बिल्कुल दब्बू। रूप-रंग से तो वह औसत ही था लेकिन लड़कियाँ पटाने की कला में उसे महारथ हासिल थी। वह जब चाहे तब, जिस किसी भी अनजान लड़की से चाहे उससे, अपनी इच्छा और मर्जी से बिना किसी झिझक के बात करनें की हिम्मत रखता था और ऐसा शायद ही कभी होता था कि वह खुद पहल करे और लड़की उसे दाद न दे। लड़कियाँ उसके लिये इन्सान कम और मौज मस्ती का सामान ज्यादा थीं।
पता नहीं उसमें ऐसा क्या जादू था कि कालेज और कालोनी की ज्यादातर लड़कियाँ उस पर लट्टू थीं और उसके इशारों पर नाचती थीं। एक ओर जहाँ बाकी सारे लड़के सिर्फ एक लड़की पाने की चाह में पूरी जवानी खराब कर देते हैं और आखिर में सोचते हैं कि अगर गोरी और सुन्दर नहीं तो साँवली और औसत ही सही पर कोई तो मिले, वहीं दूसरी ओर लड़कियों में राजेश से बात करनें की होड़ लगी रहती थी और सब की सब उसका साथ पानें को तरसती थी। पता नहीं राजेश में ऐसा क्या था कि इलाहाबाद में ही गंगा उल्टी बह रही थी।
रंग-रूप, कद-काठी, डील-डौल और सुन्दरता में मेरे मुकाबले वह कहीं नहीं ठहरता था। लेकिन वह लड़कीबाज नम्बर एक था। जो एक काम मै चाह और सोच कर भी करनें की कभी हिम्मत नहीं जुटा पाता था वह काम वह चुटकी बजा के कर दिखाता था। लड़कियाँ उसे थोक में मिलती थी इसलिये लड़कियाँ वह बदलता रहता था। प्यार, मुहब्बत और ईश्क में उसे ज्यादा भरोसा नहीं था। वह तो बस जवानी का मजा लूटना जानता था। वह अक्सर कहता था कि बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहिये, डूबकी नहीं लगानी चाहिये, डूबकी लगानें से डूब जानें का डर बना रहता है। उसकी ये सब बातें मेरी समझ से परे थी लेकिन उसकी लड़कियाँ पटाने की कला की मै दिल से कद्र करता था। दोस्तो मैं और राजेश दोनों गंगा के किनारे रह रहे थे लेकिन उसके चारो ओर हमेशा बाढ़ आई रहती और मेरे चारो ओर हमेशा सूखा पड़ा रहता था।
वो हमेशा बिना किसी लाग-लपेट के खुल कर कहता था, मर्द मुठ नहीं मारते चूत मारते हैं। मुठ वो मारते हैं जिनको चूत नहीं मिलती। असली मर्द कंप्यूटर स्क्रीन पर ब्लू फिल्में नहीं देखा करते रियल लाईफ में खुद बनाते हैं। उसकी ये बातें मुझे अन्दर तक चुभती और भीतर तक गहरा घाव कर जाती थीं। मुझे अपने मर्द होनें पर शक भी होनें लगता था और शर्म भी आती थी। वो जो कुछ भी कहता था वह बहुत कड़वा था पर शायद सच भी था। उसके मुँह से इन नग्न सच्चाईयों को सुन कर मै बार बार प्रतिज्ञा करता कि अब आज के बाद कभी मुठ नहीं मारूंगा और कभी ब्लू फिल्में नहीं देखूगाँ लेकिन ये प्रतिज्ञा कुछ घण्टे भी नहीं टिक पाती थी। कंप्यूटर की स्क्रीन के सामने आते ही सारा ब्रह्मचर्य उड़न छू हो जाता और रात होते होते तो सारी की सारी प्रतिज्ञा कपूर की तरह उड़ जाती थी।
राजेश हमारे बगल वाले मकान में ही रहता था। राजेश का मकान दो मंजिला था और उसके बेडरूम की और हमारे बेडरूम की बाल्कनीयाँ आमनें सामने थीं। हालांकि हम दोनों पड़ोसी थे लेकिन दीवाली और होली जैसे त्योहारों को छोड़ हम बहुत कम ही एक दूसरे के घर आते जाते थे। मेरे पापा का रौब एसा था कि राजेश को पापा से बहुत डर लगता था। इसलिये मैं और वो अक्सर घर के बाहर ही मिला करते थे। हम दोनों करीब करीब हर शाम को साथ घूमने निकले थे और अपनी अपनी बाल्कनीयों में से एक दूसरे को निकलने का इशारे कर लिया करते थे।
पिछले कुछ दिनों से राजेश हमारे घर कुछ ज्यादा ही आने जाने लगा था। अब वो करीब सप्ताह में एकाध बार तो आ ही जाता था। मुझे लगा कि शायद पापा का न होना इसकी वजह है। यह तो मुझे बाद में पता चला कि वो तो रिंकी के साथ अपना चक्कर फिट करनें में लगा हुआ है लेकिन अब तक उसने कभी मुझसे इस बारे में कोई ज़िक्र नहीं किया था। वो तो एक दिन गलती से मैंने उन दोनों को पहली मंजिल की अपनी अपनी बाल्कनीयों में से एक दूसरे की तरफ इशारे करते हुए अपनी उपर की दूसरी मंजिल की अपनी बाल्कनी से देख लिया और मुझे दाल में कुछ काला नज़र आया। पर मुझे अभी भी अपनी नजरों पर भरोसा नहीं आ पा रहा था। यही एक बार अगर नादान प्रिया होती तो मैं मान भी लेता। लेकिन मेरा दिल अब भी यह मानने को तैयार ही नहीं था कि रिंकी जैसी समझदार लड़की इसके झाँसे में आ सकती है। माना कि राजेश बहुत बड़ा खिलन्दड़ा था पर रिंकी बहुत अलग थी। अगर जो मैं अपनी नजरों से देख रहा था वह सच था तो यह माउन्ट एवरेस्ट को भी फतह कर लेनें से बड़ा एचीवमेन्ट था। और मैनें इसको पक्का कर लेनें की ठान ली।
उसी दिन शाम को जब मैं और राजेश घूमने निकले तो मैंने उससे पूछ ही लिया “क्या बात है बेटा, आज कल तू बाल्कनी में कुछ ज्यादा ही दिखाई देनें लगा है?”
मेरी बात सुनकर राजेश अचानक चौंक गया और अपनी आँखें नीचे करके इधर उधर देखने लगा। मैं जोर से हंसने लगा और उसकी पीठ पर एक जोर का धौल लगा कर बोला “साले, तुझे क्या लगा, तू चोरी चोरी अपने मस्ती का इन्तजाम करेगा और मुझे पता भी नहीं चलेगा?”
“अरे यार, ऐसी कोई बात नहीं है।” राजेश मुस्कुराते हुए बोला।
“अबे चूतिये, इसमें डरने की क्या बात है। अगर आग दोनों तरफ लगी है तो हर्ज क्या है?” मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
राजेश की जान में जान आ गई और वो मुझसे लिपट गया, राजेश की हालत ऐसी थी जैसे मानो उसे कोई खज़ाना मिल गया हो वो बोला “यार सोनू, मैं खुद ही तुझे सब कुछ बताने वाला था लेकिन हिम्मत नहीं हो रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था कि पता नहीं तू क्या समझेगा।”
“अरे वो सब छोड़ ये बता कि बात कहाँ तक पहुँची?” मैनें पूछा।
“कुछ नहीं यार, वो लाइन तो पूरा दे रही है पर मिलने का सही मौका नही मिल पा रहा है इसलिये बस अभी तक इशारों इशारों में ही बातें हो रही हैं। आगे कैसे बढ़ूँ समझ में नहीं आ रहा है।”
“क्यों तेरे पास उसका नम्बर नहीं है?” मैंने पूछा।
तो वो बोला “यार आज तक कभी उससे बात ही नहीं हो पाई तो नम्बर किससे लेता तुझसे माँगनें की कभी हिम्मत नहीं हुई।”
“हम्म्म्म ..., अगर तू चाहे तो मैं तेरी मदद कर सकता हूँ।” मैंने एक मुस्कान के साथ कहा।
“सोनू मेरे यार, अगर तूने ऐसा कर दिया तो मैं तेरी दोस्ती का यह एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूँगा।” राजेश मुझसे लिपट कर कहने लगा “यार कुछ कर न!”
“अबे गधे, दोस्ती में एहसान नहीं होता। रुक, मुझे कुछ सोचने दे शायद कोई सूरत निकल निकल आये।” इतना कह कर मैं थोड़ी गंभीर मुद्रा में कुछ सोचने लगा और फिर अचानक मैंने उसकी तरफ देखकर मुस्कान दी।
राजेश ने मेरी आँखों में देखा और उसकी खुद की आँखों में एक अजीब सी चमक आ गई।
मैंने राजेश की तरफ देखा और मुस्कुराते हुए पूछा "बेटा, मेरे दिमाग में एक प्लान तो है लेकिन थोड़ा खतरा है, अगर तू चाहे तो मेरे कमरे में तुम दोनों को मौका मिल सकता है और तुम अपनी बात आगे बढ़ा सकते हो।"
"पर यार तेरे घर पर सबके सामने मिलेंगे कैसे हम?” राजेश थोड़ा घबराते हुए बोला।
"तू उसकी चिंता मत कर, मैं सब सम्हाल लूंगा! तू बस कल दोपहर को मेरे घर आ जाना।"
"ठीक है, लेकिन ख्याल रखना कि तू किसी मुसीबत में न पड़ जाये।” राजेश ने चिंतित होकर कहा।
इतनी सारी बातें करने के बाद हम अपने अपने घर लौट आये। राजेश को तो पिछले एक साल से भी ज्यादा वक्त से मै यही सब करता हुआ देख रहा था और जब रिंकी को कोई आपत्ति नहीं थी तो उन दोनों को मिलानें में भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी? घर आकर मैं अपने कमरे में गया और बिस्तर पर थोड़ा लेट गया और रिंकी और राजेश को मिलानें के बाद जो कुछ हो सकता था उसकी कल्पना में खो गया। आज से पहले या अब तक भी कभी मेरे अपने मन में रिंकी या प्रिया के लिये किसी तरह का कोई खिँचाव या कोई गलत ख्याल नहीं आया था। लेकिन आज मैं जैसे जैसे रिंकी और राजेश को मिलाने की कल्पना और उसके बाद की सम्भावनाओ के बारे में सोचता जाता वैसे वैसे मेरी नजरों के सामने एक नई रिंकी का उदय होनें लगा था।
रिंकी दरअसल बला की खुबसुरत थी। वह देवलोक की परी थी। कुदरत का अद्भूत करिश्मा थी। सही मायने में कामदेवी थी। उसकी साँचें मे ढ़ली तेजाबी और बारूदी जवानी तपस्वीयों के भी होश उड़ा दे ऐसी थी। उसकी अदाओ में नजाकत थी। उसमें गजब का तिलस्म और जादू था। उसके उन्नत उरोज, उसकी पतली कमर, उसके उभरे हुये गोल गोल नितम्ब और कूल्हे, बनावट के जादुई अनुपात का अदभुत संगम थे। वह ऐसा आग का गोला थी कि जो उसे दूर से देखता चकाचौंध हो जाता और जो नजदीक आकर छू लेता वह जल जाता। उसके कमर तक लम्बे बालों और उसकी संगमरमर सी दुधिया और चिकनी त्वचा का कोई मुकाबला नही था। अब मैं अच्छी तरह समझ चुका था कि ऐसे ही नहीं राजेश उसके पीछे दीवाना हुआ जा रहा।
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