RE: Desi Porn Kahani करिश्मा किस्मत का
सिन्हा अंकल के परिवार का शिफ्ट होना
सिन्हा अंकल के परिवार में उनकी पत्नी के अलावा उनकी दो बेटियाँ थी, बड़ी बेटी का नाम रिंकी और छोटी का नाम प्रिया था। रिंकी मेरी हम उम्र थी और प्रिया तीन साल छोटी थी। रिंकी 21 साल की थी और प्रिया 18 साल की। बड़ी रिंकी गम्भीर, समझदार और बेहद स्मार्ट थी और तौल तौल कर बातें करती थी जब कि छोटी प्रिया थोड़ी चुलबुली नटखट और शरारती थी। बोलनें से पहले ज्यादा सोचती नही थी, जो कुछ भी उसके दिल में होता था वही उसकी जुबान पर। रिंकी की हाईट नेहा दीदी की तरह ही लम्बी थी। दोनों करीबन 5 फीट 7 इन्च के आस-पास होगी। जब कि प्रिया कुछ छोटी थी करीबन 5 फीट 5 इन्च के आस-पास।
आंटी यानि सिन्हा अंकल की पत्नी का नाम स्मिता था और सिन्हा अंकल उनको प्यार से स्मित कह कर बुलाते थे। स्मिता आंटी की उम्र यही करीब 40 के आसपास थी लेकिन उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता था कि वो 30 साल से ज्यादा की हों। उन्होंने अपने आपको बहुत अच्छे से मेंटेन कर रखा था। स्मिता आंटी की मुस्कान बहुत दिलकश थी। खैर उनके बारे में बाद में बात करूगाँ।
रिंकी, और प्रिया ने आते ही नेहा दीदी से दोस्ती कर ली थी और उनकी खूब जमने लगी थी, आंटी भी बहुत अच्छी थीं और हमारा बहुत ख्याल रखती थीं, यहाँ तक कि उन्होंने हमें खाना बनाने के लिए भी मना कर दिया था और हम सबका खाना एक ही जगह यानि उनके किचन में ही बनता था।
हमारे दिन बहुत मज़े में कट रहे थे। रिंकी ने हमारे ही कॉलेज में दाखिला ले लिया था जो कि हमारे घर से ज्यादा दूर नहीं था। मैं और रिंकी एक ही क्लास में थे और हम अपने अपने फ़ाइनल इयर की तैयारी कर रहे थे, हमारे सब्जेक्ट्स भी एक जैसे ही थे। प्रिया का इन्टर कॉलेज थोड़ा दूर था।
हमारे क्लास एक होने की वजह से रिंकी के साथ मेरी अक्सर बात चीत होती रहती थी हाँलाकि कालेज वह अकेली और अलग से ही जाती थी। प्रिया भी मुझसे बात कर लिया करती थी। प्रिया मुझे भैया कहती थी और रिंकी मुझे नाम से बुलाया करती थी। मैं भी उसे उसके नाम से ही बुलाता था।
हमारे घर की बनावट ऐसी थी जिसमे कम्पाउन्ड वाले मेन गेट से घुसते ही सबसे नीचे वाले आगे के हिस्से में कार पार्किग थी और जिसके पिछले हिस्से से उपर की मंजिलों के लिये अलग से सीढियाँ जाती थीं। उपर की पहली मंजिल पर, मंजिल के ठीक बीचो बीच एक बड़ा सा हॉल और हॉल के दाहिने ओर, एक दूसरे से सटे हुये दो बड़े बड़े मास्टर-बेड थे और साथ ही हॉल के बाईं ओर पीछे की तरफ एक किचन तथा किचन से लग कर ही आगे सड़क की ओर एक अतिरिक्त टायलेट और बाथरूम भी था। हॉल में आगे सड़क की ओर एक बड़ी सी बाल्कनी थी जिससे सड़क का पूरा नजारा दिखाई देता था। इसी तरह दाहिने ओर के दोनों मास्टर-बेडो में भी बगल की ओर एक एक बाल्कनीयाँ थीं। उपर के बाकी दोनों मंजिलों की डीजाईन भी ठीक वैसी ही थी।
पहली मंजिल पर पीछे की तरफ सीढ़ियों की ओर वाला बेडरूम हमारे मम्मी पापा का और दूसरा आगे सड़क की ओर वाला बेडरूम नेहा दीदी का था। इसी तरह बीच वाली दूसरी मंजिल पर मम्मी पापा के ठीक उपर सीढ़ियों की तरफ वाला कमरा मेरा और नेहा दीदी के उपर आगे सड़क की ओर वाला कमरा मेहमानों के लिए सुरक्षित था।
सीढ़ियों को लग कर पीछे की तरफ जो कमरे थे उन में एक एक अतिरिक्त खिड़की लगी थीं जो सीढ़ियों की तरफ खुलती थीं जिनको गर्मियों में रात में खोल देनें पर ये तीनों कमरे बाकी तीनों कमरों के मुकाबले अधिक ठंढ़े और हवादार हो जाते थे। पूरे मकान को इस तरह बनवाया गया था कि जरूरत पड़ने पर अलग अलग तीन परिवार रह सकें या फिर हर मंजिल अलग अलग किरायेदारों को दी जा सके। आप कह सकते है कि हमारा मकान असल में दो बेडरूम किचन हाँल के तीन फ्लैटों वाला तीन मंजिला ऐसा अपार्टमेंन्ट था जिसमें हर मंजिल पर एक एक स्वतंत्र फ्लैट था।
पहली और दूसरी मंजिल के दोनों ही हॉलों में पीछे सीढ़ियों की दीवाल को लग कर बयालीस इन्च के बड़े बड़े एलसीडी टीवी लगे थे और आगे बाल्कनी की दीवाल को लग कर सोफे रखे थे। इसके साथ ही दूसरी मंजिल पर किचन की ओर एक बड़ा सा डाँइनिंग टेबल भी था जो अब उपर की तीसरी मंजिल पर शिफ्ट कर दिया गया था क्योकि खाना अब सबका वहीं बनता था।
नेहा दीदी से घुल-मिल जाने के कारण रिंकी उनके साथ उनके कमरे में ही सोती थी और मैं अपने कमरे में अकेला सोता था। बाकी लोग यानि सिन्हा अंकल (जब भी यहाँ होते तब) अपनी पत्नी और प्रिया के साथ सबसे ऊपर वाले हिस्से में रहते थे। जिसमें से मेरे उपर वाले पीछे की तरफ के कमरे में अंकल-आंटी और मेहमानों के कमरे के उपर, आगे सड़क की ओर वाले कमरे में प्रिया अकेले सोती थी। चुकि स्मिता आंटी ने हमें खाना बनाने से सख्त मना कर दिया था और हम सबका खाना एक ही जगह यानि तीसरी मंजिल पर उनके अपनें किचन में ही बनता था इसलिये दूसरी मंजिल का हमारा अपना किचन अब बन्द ही रहता था।
उपर की तीसरी मंजिल पर फिलहाल टीवी नहीं था, शायद उसकी जरूरत भी नहीं थी क्योंकि शुरूआती चार महीनों के गर्मियों के दिनों के समय उपर की छत तपनें लगती थी सो प्रिया और स्मिता आंटी दिन के वक्त का अपना ज्यादातर खाली समय मेरी वाली दूसरी मंजिल के हॉल में या फिर मेरे बगल के मेहमानों वाले कमरे में ही बिताते थे और अब शायद उनको उसकी आदत सी पड़ गई थी। दीपावली के वक्त इस बार घर की रौनक कुछ अलग ही थी, 18 अक्टूबर की शाम को ही मम्मी पापा और सिन्हा अंकल सारे आ गये थे और फिर तीनों सोमवार की सुबह यानि कि 23 अक्टूबर को गये। इस दीपावली पूरे घऱ में खूब चहल-पहल और बहुत धूम थी।
मम्मी-पापा को गये छ महीने से कुछ उपर हो चले थे। मई से नवम्बर आ चुका था। दिन मजे में कट रहे थे। इस बीच सिन्हा अंकल करीब दस-बारह और मम्मी-पापा करीब सात-आठ बार आ चुके थे। सिन्हा अंकल बहुत हँसमुख मिलनसार और मजाकिया किस्म के इंन्सान थे और मेरी उनसे अच्छी पटने लगी थी। छोटी प्रिया उनकी लाडली थी। प्रिया अपनें पापा पर गई थी। वह अक्सर किसी न किसी बहानें मेरे चारो ओर मँडराती रहती और हमेशा कोई न कोई शरारत, हँसी मजाक और ठिठोली करती रहती और मैं भी उसके इस चुलबुलेपन का बूरा नहीं मानता था।
सिन्हा अंकल जब होते तब टीवी देखने हर शाम को नीचे ही आ जाते और फिर मै और वो एक साथ घण्टों गप्प मारते और हमारे बीच बैठ कर प्रिया भी अपनी चुहलबाजियाँ जारी रखती। वह हर दूसरी शाम किसी न किसी टॉपिक को समझनें या फिर किसी सवाल को हल करनें के लिये मेरे कमरे में चली आती।
एक दिन जब मैनें पूछा कि “तुम रिंकी के पास क्यों नहीं जाती मेरे पास ही क्यों आ जाती हो” तो जवाब मिला “भैया जब आप रिंकी से ज्यादा नजदीक हो तो मै उतनी दूर क्यों जाऊँ?” मै कुछ और कहूं इससे पहले ही वह बोल उठी “असल में मैं निकलती तो हूँ रिंकी के यहाँ जानें के लिये ही पर दूसरी मंजिल आते ही मेरे पैर जवाब दे देते है और अपने आप ही आपकी तरफ मुड़ जाते है। कह बैठते है जब अगले ही स्टेशन पर ज्ञान का इतना बड़ा भण्डार है तो एक स्टेशन और आगे क्यों जाना?” और मैं मुस्करा दिया, बातें बनानें में वह सच में उस्ताद थी।
रिंकी अलग थी, शायद वह अपनी माँ पर गई थी। वह शान्त लेकिन तेज थी, मेधावी, प्रज्ञावान, बुद्धिमान विचारशील और विवेकशील थी, अपनें आस-पास की चीजो को टाड़ने, तौलने और भापनें की प्रतिभा उसमें गजब की थी, अच्छे-बूरे और सही-गलत की उसे गहरी समझ थी। वो एक ही वाक्य में बहुत कुछ कह जाती थी। गलतियाँ हर इन्सान करता है और वो भी करती थी पर अपनी गलतियों का एहसास उसे बहुत तेजी से हो जाता था और फिर उन गलतियों से उपर उठने और उन्हे सुधार लेने का उसमे अथाह आत्मबल था।
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