RE: bahan ki chudai बहन की इच्छा
बहन की इच्छा—2
गतान्क से आगे…………………………………..
दोपहर के खाने के बाद उसके पती निकल जाते थे और में हॉल में बैठ'कर टीवी देखते रहता था. बाद में अपना काम ख़तम कर के ऊर्मि दीदी बाहर आती थी और मेरे बाजू में दीवान'पर बैठती थी. हम दोनो टीवी देखते देखते बातें कर'ते रहते थे. दोपहर को दीदी हमेशा सोती थी इस'लिए थोड़े समय बाद वो वही पे दीवान'पर सो जाती थी.
जब वो गहरी नींद में सो जाती थी तब में बीना जीझक उसे बड़े गौर से देखता और निहारता रहता था. अगर संभव होगा तो में उसके छाती के उप्पर का पल्लू सावधा'नी से थोड़ा सरकाता था और उसके उभारों की सांसो के ताल'पर हो रही हलचल को देखते रहता था. और उस'का सीधा, चिकना पेट, गोला, गहरी नाभी और लचकदार कमर को वासना भरी आँखों से देखते रहता था. कभी कभी तो में उसकी साड़ी उप्पर कर'ने की कोशीष करता था लेकिन उसके लिए मुझे काफ़ी सावधा'नी बरत'नी पड़ती थी और में सिर्फ़ घुट'ने तक उसकी साड़ी उप्पर कर सकता था.
उनके घर में बंद रूम जैसा बाथरूम नही था बल्की किचन के एक कोने में नहाने की जगह थी. दो बाजू में कोने की दीवार, साम'ने से वो जगह खुली थी और एक बाजू में चार फूट उँची एक छोटी दीवार थी. ऊर्मि दीदी सुबह जल्दी नहाती नही थी. सुबह के सभी काम निपट'ने के बाद और उसके पती दुकान में जा'ने के बाद वो आराम से आठ नौ के दरम्यान नहाने जाती थी. उस'का लड़का सोता रहता था और दस बजे से पह'ले उठता नही था. में भी सोने का नाटक करता रहता था. नहाने के लिए बैठ'ने से पह'ले ऊर्मि दीदी किचन का दरवाजा बंद कर लेती थी. में जिस रूम में सोता था वो किचन को लगा के था. में ऊर्मि दीदी की हलचल का जायज़ा लेते रहता था और जैसे ही नहाने के लिए वो किचन का दरवाजा बंद कर लेती थी वैसे ही में उठ'कर चुपके से बाहर आता था.
किचन का दरवाजा पुराने स्टाइल का था यानी उस में वर्टीकल गॅप थी. वैसे तो वो गॅप बंद थी लेकिन मेने गौर से चेक करके मालूम कर लिया था के एक दो जगह उस गॅप में दरार थी जिसमें से अंदर का कुच्छ भाग दिख सकता था. नहाने की जगह दरवाजे के बिलकूल साम'ने चार पाँच फूट पर थी. दबे पाँव से में किचन के दरवाजे में जाता था और उस दरार को आँख लगाता था. मुझे दिखाई देता था के अंदर ऊर्मि दीदी साड़ी निकाल रही थी. बाद में ब्लाउस और पेटीकोट निकाल'कर वो ब्रेसीयर और पैंटी पह'ने नहाने की जगह पर जाती थी. फिर गरम पानी में उसे चाहिए उतना ठंडा पा'नी मिलाके वो नहाने का पानी तैयार करती थी.
फिर ब्रेसीयर, पैंटी निकाल'कर वो नहाने बैठती थी. नहाने के बाद वो खडी रहती थी और टावेल ले के अपना गीला बदन पौन्छती थी. फिर दूसरी ब्रेसीयर, पैंटी पहन के वो बाहर आती थी. और फिर पेटीकोट, ब्लऊज पह'ने के वो साड़ी पहन लेती थी. पूरा समय में किचन के दरवाजे के दरार से ऊर्मि दीदी की हरकते चुपके से देखता रहता था. उस दरार से इतना सब कुच्छ साफ साफ दिखाई नही देता था लेकिन जो कुच्छ दिखता था वो मुझे उत्तेजीत कर'ने के लिए और मेरी काम वासना भडका'ने के लिए काफ़ी होता था.
वो सब बातें मुझे याद आई और ऊर्मि दीदी को लाने के लिए में एक पैर पर जा'ने के लिए तैयार हो गया. मुझे टाइम नही होता तो भी में टाइम निकालता था. दूसरे दिन ऑफीस जा के मेने इमर्जेंसी लीव डाल दी और तीसरे दिन सुबह में पूना जानेवाली बस में बैठ गया. दोपहर तक में ऊर्मि दीदी के घर पहुँच गया. मेने जान बुझ'कर ऊर्मि दीदी को खबर नही दी थी के में उसे लेने आ रहा हूँ क्योंकी मुझे उसे सरप्राइज कर'ना था. उस'ने दरवाजा खोला और मुझे देखते ही अश्चर्य से वो चींख पडी और खुशी के मारे उस'ने मुझे बाँहों में भर लिया. इसका पूरा फ़ायदा ले के मेने भी उसे ज़ोर से बाँहों में भर लिया जिस'से उसकी छाती के भरे हुए उभार मेरी छाती पर दब गये. बाद में उस'ने मुझे घर के अंदर लिया और दीवान'पर बिठा दिया.
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