RE: Maa ki Chudai मा बेटा और बहन
"हमसब दो रोटी कम खा लेते, फिजूलखर्ची बंद कर देते, लोकल ट्रांसपोर्ट का यूज कर लेते, लाख तरीके हैं पैसे बचाने के मगर पापा को तो हमेशा तुम्हें सताने मे ही मजा आता है। अब देखो उनकी बीवी कितनी चुदासी हो गई है मगर चुदास बुझाने वाले वह यहाँ है नही और मैं पहले ही कह चुका हूँ कि तुम्हें चोदना नही चाहता" अभिमन्यु ने उसकी गर्दन को चूमना-चूसना कुछ पलतक रोकते हुए कहा, अपने नीच शब्दों पर वह खुद हैरान था और यह यकीनन इस बात का प्रमाण था कि अब कमरे का वातावरण कहीं से भी सामान्य या मर्यादित नही रहा था।
"मत ...मत करो ऐसी गंदी बातें अपनी माँ से। तुम्हारे पापा वाकई मुझे सताते हैं मन्यु और मैं कुछ नही कर पाती" अपने बेटे के विस्फोटक कथन से एकाएक दो तरफा बंट गई वैशाली अपने बाएं हाथ के पंजे मे खुल्लम-खुल्ला अपनी कच्छी के भीतर रस उगलती अपनी अतिसंवेदनशील चूत को भींचते हुए बोली और ठीक उसी वक्त अभिमन्यु अपनी दाईं हथेली से अपनी माँ के दाहिने मम्मे को जकड़ लेता है और बाएं पंजे को वह उसकी माँ के हाथ के ऊपर रख उसके साथ स्वयं भी उसकी चूत को दबोचने लगता है। कोई संकोच नही और ना ही कोई भय, वासना की प्रचूरता मे वह बेहद निर्भीक हो चला था। पहली बार वह अपनी माँ के गदराए अधनंगे बदन को इतने करीब से महसूस कर रहा था और जिसकी तपिश ने उसके सोचने-समझने की सारी क्षमता को अपने आप ही क्षीण कर दिया था।
वहीं वैशाली का हाल इससे भी बुरा था। उसकी गर्दन पर लगातार बेटे के होंठ रेंग रहे थे, वह बलपूर्वक ब्लाउज के ऊपर से उसका दायां मम्मा मसले जा रहा था, उसकी चूत मुख को ऐंठने व भींचने मे वह दोनो ही एकसाथ व्यस्त हो गये थे और स्वतंत्ररूप से उसकी गांड जोकि अब उसके स्वयं के वश से कोसों दूर काफी तेजी से बेटे के तने हुए लंड से रगड़ खाए जा रही थी, उसपर अविराम ठोकरें मारे जा रही थी।
"मैंने गलत नही कहा माँ, तुम सचमुच चुदासी हो और इस समय तुम्हें वाकई एक लंबे, मोटे-तगड़े लौड़े की जरूरत है जो तुम्हारी चूत मे घुसकर तुम्हें पटक-पटककर चोद सके, तुम्हारी चुदास पूरी तरह से मिटा सके" अभिमन्यु शर्म और हया की सभी सीमाओं को लांघते हुए कहता है।
"बोलो कि तुम चुदासी हो माँ और तुम्हें जी भरकर चुदना है, सिर्फ एक ताकतवर लौड़ा ही तुम्हारी असली प्यास बुझा सकता है और तुम्हें वह लौड़ा किसी भी हालत मे चाहिए" उसने नीचतापूर्वक अपने पिछले कथन मे जोडा़ और फिर बिना रूके पूरी शक्ति से अपनी माँ का दायां मम्मा निचोड़ने लगा, साथ ही कच्छी के ऊपर से फौरन वैशाली का हाथ झटककर अपने बाएं पंजे से स्वयं अकेले ही वह उसकी गीली चूत को रगड़ने लगता है।
"न ...नही, नही आह! नही चाहिए मुझे" सीत्कारते हुए वैशाली का मुंह खुल गया, उसकी गर्दन अकड़ने लगी और गहरी-गहरी सांसें लेती हुई वह अपने चरमोत्कर्श पर पहुँच जाने को विवश होने लगती है।
"तुम झूठी हो माँ, कहो कि तुम्हें इसी वक्त चुदना है। तुम्हें बस लंड चाहिए और कुछ नही वर्ना मैं अपने कमरे मे जाता हूँ" झूठी धमकी देकर भी अभिमन्यु उसके बदन को छेड़ना नही छोड़ता, बल्कि अब वह भी अपनी कमर हिला-हिलाकर अपनी माँ की गांड से ताल मिलाते हुए ही अपने विशाल लंड का तीव्रता से उसकी गांड पर देने लगा था।
"मत ...मत उन्ह! उन्ह! मन्यु मत ...मत" इसके आगे वैशाली की आवाज उसके गले से बाहर निकलना बंद हो जाती है और ठीक इसी निश्चित समय पर अभिमन्यु भी उसे एकदम से छोड़ देने का नाटकीय उपक्रम कर देता है।
"हाँ चाहिए मुझे लंड और मैं हूँ चुदासी, बहुत बहुत बहुत ज्यादा चुदासी है तुम्हारी माँ अभिमन्यु। मेरे लाल कुछ करो वर्ना ...." वैशाली ने सहसा चीखते हुए कहा और अविलंब बेटे के दाहिने हाथ को पकड़कर खुद अपनी कच्छी के ऊपर से अपनी गीली चूत पर पटापट थप्पड़ मारने लगी।
"आईऽऽ! मैं भी उन्हीं रंडियों की तरह बेशर्म होकर चुदना चाहती हूँ जिन्हें छुपछुप कर तुम चोदने जाते हो। मुझे भी रंडी बनना है, अभी बनना है, अभी हाल बनना है मन्यु" चिल्लाते हुए वैशाली के मुंह से लार बाहर निकल आती है, अपनी ही पापी इच्छा पर वह कामांध माँ अतिशीघ्र अपने बाल नोंचने लगी थी।
"उतारो अपनी कच्छी, तुम्हें चोदूंगा नही पर देखता हूँ इसके अलावा और क्या किया जा सकता है" अपनी माँ के हाथों से उसके बाल छुड़वाते हुए अभिमन्यु का दिल अंदर ही अंदर फट पड़ा था, उसके मन-मस्तिष्क मे बस एक ही गूंज उठ रही थी कि उसके वादे-अनुसार वह किसी भी परिस्थिति मे अपनी माँ को चोद नही सकता था पर यह भी जानता था कि उसकी माँ के दर्द का एकमात्र मर्ज सिर्फ उसका अपना लंड है क्योंकि उसका पिता पैसे कमाने मे व्यस्त था और उसकी माँ घर की चारदीवारी के बाहर कभी मुंह मार नही सकती थी, यदि मुंह मारना ही होता तो इतना दर्द झेलने पर मजबूर नही होती।
वह वैशाली को आगे झुकाकर उसके पीछे से तत्काल उठ खडा़ हुआ और अपने स्थान पर अपनी माँ को टिकते हुए उसकी सुर्ख लाल आखों मे झांकने लगता है। उसकी माँ के खुले बाल, ब्लाउस के भीतर उसकी तेजी से बढ़ती-घटती सांसों के प्रभाव से लगातार ऊपर-नीचे होते उसके गोल-मटोल मम्मे, मम्मों की गहरी घाटी के बीचों-बीच फंसा उसका पतिव्रत मंगलसूत्र, सपाट पेट नंगा, बेहद पतली कमर, पसीना एकत्रित करती उसकी गोल-गहरी नाभी, पेडू से भी नीचे सरक चुकी उसकी कच्छी और कच्छी की बगलों से बाहर झांकती उसकी घनी-घुंघराली काली झांटें, मांसल चिकनी दोनो जांघें, गौरवर्णी पिडलियां, पायल से सजी एडियां और उम्र मुताबिक घिस चुके दोनो तलवे; उसकी माँ का अत्यंत कामुक अंग-अंग उसकी आँखों को बेहद आकर्षित कर रहा था, साथ ही आनंदित और आंदोलित भी।
"उतारो कच्छी, अपनी टांगें क्यों मोड़ ली?" अपने बेटे की आँखों का अपनी माँ के अधनंगे बदन का यूं खुल्लम-खुल्ला शर्मनाक अवलोकन करना वैशाली सहन नही कर पाती और अपने घुटनों को मोड़ लज्जा से अपना सिर नीचे झुकाकर गुपचुप बैठ जाती है मगर जल्दबाजी मे वह यह भूल गई थी कि अपने पैरों को मोड़कर उन्हें अपनी छाती से चिपकाकर बैठने से उसने अभिमन्यु पर अचानक क्या गदर ढ़ा दिया था। उसकी कच्छी जो कि पहले से ही उसकी गांड की गहरी दरार के भीतर फंसी हुई थी उसकी तात्कालिक बैठक के बाद तो जैसे उसकी गांड के दोनो पट बिलकुल नंगे दिखाई देने लगे थे और तो और कच्छी का सेटिन कपडा व हल्के पीले रंग की रंगत के गीले हो चुकने के उपरान्त उसकी चूत का पूरा फूला उभार कच्छी के ऊपर से अभिमन्यु को स्पष्ट नजर आ रहा था, यहाँ तक की वह अपनी माँ की चूत के दोनो सूजे होंठों का निरंतर फड़फड़ना भी प्रत्यक्ष देख पा रहा था।
"उतारो ना कच्छी या कहो तो मैं खुद उतार दूँ" कहकर वह वैशाली की ओर अपने हाथ बढ़ाने लगता है।
"खबरदार मन्यु" एकाएक वह कठोर स्वर मे बोली और जिसके नतीजन सकपकाकर अभिमन्यु फौरन अपने हाथ पीछे खींच लेता है।
"चोदोगे नही तो फिर कैसे शांत करोगे अपनी माँ को? उसकी चूत मे उंगलियां डालकर या सीधे चूत को अपनी जीभ से चाटने लगोगे, होंठों से उसे चूसने लगोगे? इसके बाद कहोगे कि माँ अब तुम मेरा लंड हिलाओ या अपने मुंह से चूसकर मुझे भी शांत करो, है ना?" वैशाली ने पिछले कथन मे जोड़ा मगर इसबार उसका स्वर सामान्य था। कोई क्रोध नही, कोई शर्म नही, कोई अतिरिक्त हकलाहट भी नही; बिलकुल शांत।
"देखो मन्यु! इतने दूर पहुँचकर मैं यह नही कहती कि वापस पीछे लौटो, मैं खुद नही लौट सकूंगी पर यह भी सही नही कि हम एकदम से अपने रिश्ते की पवित्र दीवार को ढ़हा दें। मुझे कुछ वक्त दो, तुम मुझे चोदना नही चाहते यह वाकई तुम्हारी तारीफ है पर मेरे बारे मे भी तो सोचो कि तुम्हारी सगी माँ होने के बावजूद कहीं मैं खुद बहक गई फिर तुम्हारे प्रॉमिज का क्या मतलब रह जाएगा?" मुस्कुराते हुए ऐसा कहकर वैशाली अपने हाथ के दोनो अंगूठे एकसाथ अपनी कच्छी की इलास्टिक के भीतर फंसा लेती है और अपनी मुड़ी हुई टांगों को हवा मे ऊपर उठाकर कच्छी को हौले-हौले अपने यथावत स्थान से उतारने लगी।
"तुम चाहो तो एकबार फिर से अपनी माँ की नंगी चूत को देख सकते हो, बल्कि मैं खुद ही चाहती हूँ कि मेरा सगा जवान बेटा सचमुच मेरी चूत को जी भर देखे" अभिमन्यु के चुपचाप बैठे रहने के कारण वह उसे उत्साहित करते हुए बोली और अपनी उतर चुकी कच्छी को सीधे अपने बेटे के चेहरे पर मारकर जोरों से हँस पड़ती है।
"नाराज मत होना मॉम बट मुझे भी टाइम चाहिए सोचने को और फिर इसे मेरी खुल्ली धमकी समझो या मेरा प्यार कि अगली बार मैं तुम्हारे रोके नही रुकूंगा, तुम्हें चोदने के अलावा तुम्हारे साथ मुझे जो कुछ करना होगा मैं वह करके ही मानूंगा" ऐसा कहकर अभिमन्यु अपनी माँ को सफा चौंकते हुए अत्यंत तुरंत बिस्तर से नीचे उतर जाता है, वैशाली के अपनी कच्छी को उतारकर अपनी टांगें विपरीत दिशा मे चौड़ा देने के बाद भी उसने अपनी एक नजर अपनी माँ की नंगी चूत पर नही डाली थी और बेटे की इसी विशेष हरकत ने उसकी माँ को सहसा अचंभित कर दिया था। वह वैशाली की कच्छी को वहीं बिस्तर पर छोड़कर अपने खुद के उतरे हुए कपड़े फर्श से उठाने लगा है और फिर धीमे स्वर मे उसे "गुड नाइट" कहकर तेजी से उसके बेडरूम से बाहर निकल जाता है।
तिरस्कार! इस शब्द से शायद ही संसार की कोई परिपक्व स्त्री अंजान होगी, पहले अपने पति मणिक के और अब अपने बेटे अभिमन्यु के हाथों तिरस्कृत होकर ना चाहते हुए भी वैशाली उसे खुद से दूर जाने से रोक नही पाती, बस हतप्रभ कभी अपनी कच्छी को तो कभी गाढ़े रस से सराबोर अपनी चूत को घूरते हुए लंबी-लंबी सांसें भरने लगती है। वहीं अपनी माँ की अंतिम बातों व तर्कों ने अभिमन्यु को एकाएक भीतर तक हिलाकर रख दिया था और पहली बार वह उनके पवित्र रिश्ते की निरंतर तीव्रता से खोती जा रही गरिमा के विषय मे सोचने पर मजबूर था, हालांकि वह तत्काल क्या सोचकर अपनी माँ के बेडरूम से बाहर निकल आया था इसका कोई कारण तो उसे नही सूझ पाता मगर अपने बिस्तर पर गिरते ही अब यकीनन वह पहले से कहीं अधिक गंभीर हो चुका था।
बिस्तर एक से परंतु उनपर लेटे प्राणियों की आँखें नींद से मीलों दूर, दिन तो बीत गया था पर यह रात थी जो बीतने का नाम ही नही लेना चाहती थी।
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