RE: Maa ki Chudai मा बेटा और बहन
"उफ्फ! तुम ...तुम जरूर उन्हें पहनोगी माँ" जोरदार हंपाई लेते हुए अभिमन्यु ने एक अंतिम नजर अपने अधसिकुड़े लंड और उसके घेरे पर लिपटी वैशाली की कच्छी पर डाली तो अपने आप उसके चेहरे पर पूर्व संतुष्टि के भाव उमड़ आते हैं। कच्छी की काली रंगत पर उसके सफेद वीर्य की बूंदे उसे चांद पर दाग समान नजर आती हैं जबकि असलियत मे चांद सफेद और उसपर लगा दाग काला होता है।
"हे हे ... हा हा ...हू हू" अपनी मूर्ख तुलना पर अजीब-अजीब आवाजों मे जोर से हँसता हुआ वह पागल अपने पूरी तरह से सिकुड़ चुके लंड को अपने उसी दाएं हाथ से गोल-गोल घुमते हुए फौरन नाचना शुरू कर देता है।
नहा-धोकर धुले कपड़े पहन अभिमन्यु बेझिझक सीधा वैशाली के कमरे के खुले दरवाजे के भीतर प्रवेश कर गया। बिस्तर की पुश्त से अपना सिर टिकाए लेटी उसकी माँ के माथे पर उसके दाएं हाथ की उलटी कलाई रखी देख, वह अपने चलायमान कदमों की गति मे परिवर्तन लाया और हौले-हौले कदमों से ठीक उसके बगल मे जाकर खड़ा हो जाता है। उसकी माँ ख्यालों मैं गुम थी, उसके ख्यालों की गहराई वह इस वजह से माप गया कि वह उसके बिस्तर के बेहद करीब खडा़ था और उसकी माँ को अबतक इसकी भनक तक नही लग पाई थी।
"मॉम! मैं थोडी़ देर को बाहर चला जाऊं, टाइम से लौट आऊँगा" अभिमन्यु ने ज्यों ही कहा वैशाली चौंकते हुए उठ बैठी, आखिर वह क्यों ना चौंकती? जिसके दिल मे चोर बसा हो उसका बात-बेबात चौंकना कोई विशेष बात नही और यह भी सत्य था कि चौंकने से पूर्व वह अपने बेटे के ही ख्यालों मे गुम थी।
"क ...क्यों?" वैशाली ने हकलाते हुए पूछा फिर एकाएक अपनी मैक्सी की अस्त-व्यस्त हालत को सुधारने मे अपनी हकलाट को छुपाने लगती है।
"कुछ नोट्स लेने हैं और बाइक मे पेट्रोल भी भरवाना था वर्ना कल कॉलेज टाइम से नही पहुँच पाऊंगा" अभिमन्यु ने बताया।
"कैसे नोट्स? और पेट्रोल के लिए तो मैं तुम्हें लगभग रोज ही पैसे देती हूँ। कहीं नही जाना, जाओ अपने कमरे मे वापस" वैशाली अपने दाएं हाथ की प्रथम उंगली का इशारा कमरे के खुले दरवाजे की ओर करते हुए क्रोधित स्वर मे बोली, अब चौंकाने की बारी उसके बेटे की थी। हालांकि यह उसका झूठ-मूठ का क्रोध था, वह अभिमन्यु को जताना चाहती थी कि भले ही उनके रिश्ते के बीच अमान्य--सा खुलापन आया था मगर इसका प्रभाव बेटे की सजा पर जरा सा भी नही पड़ा था।
"कम अॉम मम्मी, मैं कोई छोटा बच्चा नही जिसे तुम इस बुरी तरह डांटोगी" अपनी माँ की क्रोध पर अभिमन्यु के तेवर भी एकदम बदल गए और वह वैशाली को पुनः चौंका देता है।
"सॉरी माँ, रियली सॉरी। मैं तो बस हमारे लिए रिजर्वेशन करवाने जा रहा था" उसने पिछले कथन मे जोड़ा, इस बार उसका स्वर शांत था।
"कैसा रिजर्वेशन? हम कहाँ जा रहे हैं?" वैशाली ने तत्काल पूछा, यह तीसरी बार था जो वह लगातार चौंकी थी।
"आज मेरी तरफ से ट्रीट है, पिज्जा हट मे" अभिमन्यु मुस्कुराते हुए बोला और बिस्तर पर बैठ जाता है।
"ओह! पैसे मिले नही की बर्बादी शुरू" बात वैशाली की समझ मे आते ही वह भी मुस्कुरा उठी, जाने कितना अरसा बीत गया था जब वह आखिरी बार बाहर किसी रेस्तरां मे खाना खाने गई।
"मैं माणिकचंद जी के पैसों से तुम्हें ट्रीट नही दे रहा, मैं तुम्हारे ही पैसों को तुम्हारे साथ शेयर करना चाहता हूँ। मेरी पॉकेटमनी है पाँच हजार और तुमने लेट इंटरेस्ट लगाकर मुझे दिये सात हजार, तुम कितनी बड़ी मक्खीचूस हो मम्मी मैं अच्छे से जानता हूँ। यह एक्सट्रा दो हजार तुम्हारे जोड़े हुए पैसे हैं और जो पता नही तुमने मुझे क्यों दे दिए?" अभिमन्यु कुछ मजाक और कुछ प्यार मिश्रित स्वर मे बोला, जानना तो वह भी चाहता था कि हमेशा पाई-पाई जोड़ने वाली उसकी माँ ने अपने खुद के जोड़े हुए पैसे आखिर उसे क्यों दे दिए।
"इधर आओ, कान मे बताती हूँ" वैशाली प्रेमपूर्वक उसे अपने पास आने का इशारा करते हुए बोली तो फौरन अभिमन्यु अपना दायां अपनी माँ के करीब ले आता है।
"मेरे पति की बेज्जती, मेरे ही मुंह पर बेशर्म और मैं कंजूस। हम्म!" बेटे के कान मे कुछ कहने की बजाए वैशाली उसका कान मोरोड़ते हुए बोली।
"आहऽऽ मम्मी छोड़ोऽऽ" अभिमन्यु दर्द होने का नाटक करते हुए कराहा जबकि उसकी माँ ने उसका कान उतना ही मरोड़ा था जितना वह आराम से सह सकता था।
"सबकुछ तो तुम्हारा ही है मन्यु। यह घर, जायजाद, रुपया-पैसा सबकुछ तुम्हारा है बेटा" कहकर वैशाली उसके मरोड़े हुए कान को पटापट चूमने लगती है, उसकी उंगलियां हौले-हौले बेटे के बालों मे घूम रही थीं।
"और माँ तुम?" अभिमन्यु ने एकाएक अपना चेहरा मोड़ते हुए पूछा, जिसके नतीजतन उसकी माँ के होंठ उसके कान से फिसलते हुए उसके दाएं गाल और होंठों के अंत पर आकर ठहर जाते हैं। यह ना बेटे ने जानबूझकर किया था और ना ही उसकी माँ ने, तो उतने जल्दी दोनो संभल भी नही पाते।
"बोलो ना माँ, और तुम?" इसी बीच अभिमन्यु ने पुनः अपना प्रश्न दोहरा दिया, जिसे पूछते वक्त उसकी गरम सांस के झोंके सीधे वैशाली की नाक के बाएं नथुएे के भीतर प्रवेश कर जाते हैं।
"वीको वज्रदंती? मी टू" जाने क्यों और कैसे अकस्मात् वैशाली ने खुद को संभाला और अपना चेहरा बेटे के चेहरे से दूर ले जाते हुए बोली।
"हा हा हा हा" बेडरूम एकसाथ दोनो की खिलखिलाहट से गूंज उठता है।
"नौटंकी नही मॉम, प्लीज आन्सर मी ना" अभिमन्यु ने अपनी रुकाय ना रूकने वाली हँसी को जबरन रोकने की कोशिश करते हुए कहा, मानो जैसे कोई जिद पकड़ गया हो। कुछ देर तक तो वैशाली अपने पेट पर हाथ रखे जोरों से हँसती रही मगर जब अचानक ही उसके बेटे ने हँसना बंद कर दिया, वह स्वयं उसकी आँखों मे झांकने लगती है।
"जवाब दो माँ, और तुम?" अभिमन्यु का वही प्रश्न जारी था। अपना पेट पकड़ कर हँसने के कारण वैशाली की आँखें नम हो गई थी और उसके खुले बात तितर-बितर होने से उनकी कुछ लटें उसके चेहरे पर भी लटक आई थीं। अभिमन्यु को तो जैसे सांप सूंघ गया, वह अपलक बस अपनी माँ के अक्लपनीय सौन्दर्य को ही घूरने लगा था। उसकी माँ उसे सुंदरता की मूरत ही नही बल्कि साक्षात कामदेवी नजर आने लगी थी और ज्यों ही उसकी माँ ने अपने बालों की एक लंबी लट अपने चेहरे के बाएं भाग से हटाई, घबराकर वह झटके से अपना दायां हाथ सीधे अपने धड़कना भूल गए दिल पर रख देता है।
"मैं ...अम्मऽऽ" अपने बेटे की तात्कालिक स्थिति की प्रत्यक्ष गवाह वैशाली की अधेड़ आँखें बिन बोले ही सबकुछ समझ गई थीं और मुस्कुराकर वह भी अपना दायां हाथ अपने दिल पर रख लेती है।
"हाँ माँ तुम?" दिल मे उठे दर्द से बेहाल अभिमन्यु ने अब भी हार नही मानी थी, अत्यंत तुरंत पूछता है। अपने बेटे की उत्सुकता ने वैशाली को अंदर तक हिलाकर रख दिया था पर वह परिपक्व स्त्री अपने अंतर्मन का हाल अपने चेहरे पर कतई नही आने देती। एकपल को उसने सोचा क्यों ना बेटे को वही सुना दे जिसे सुनने को वह इतना बेकरार था मगर चाहकर भी वह खुद को तोड़ नही पाती।
"मैं हूँ अपने पति माणिकचंद जी की" कहकर एक बार फिर से वैशाली ने हँसना शुरू कर दिया और टूटे दिल के संतोष के साथ अभिमन्यु भी झूठी हँसी हँसने लगता है। उसकी माँ ने कुछ गलत कहाँ कहा, वह सचमुच अपने पति की ही तो थी और ऐसा सोचकर वह तेजी से बिस्तर से नीचे उतर जाता है।
"तुम तैयार रहना माँ, मैं घंटे भर मे आ जाऊंगा" कहकर अभिमन्यु बिना अपनी माँ के चेहरे को देखे उसके बेडरूम से बाहर निकल जाता है, वह जानता था कि यदि कुछ पल और वह वहाँ रुकता तो पक्का रो देता। शायद यही सोचकर वैशाली ने भी उसे नही रोका वर्ना उसका बेटा जरूर उसकी आखों से झर-झर बहने लगे आँसुओं को देख लेता।
घर के मुख्य द्वारा से बाहर निकलकर अभिमन्यु सीधे अपनी बाइक के पास पहुँचा और उसपर बैठ क्षणिक पलों तक कुछ सोचने-विचारने मे लगा रहता है, उसके दोनो हाथ उसकी सोच के साथ ही हिलने-डुलने लगे थे जैसे उसकी सोच से मूक वार्तालाप कर रहे हों।
"हम्म! यह मस्त रहेगा, बिलकुल ठीक। हाँ यही मस्त रहेगा" वह अचानक से बड़बडा़या और सहसा उसके मायूस चेहरे पर पुनः मुस्कान लौट आती है। तत्पश्चात उसने बाइक दौड़ा दी, यकीनन उसकी सोच पूरी हो चुकी थी।
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अपने बेडरूम के बिस्तर पर बैठी वैशाली काफी देर तक अपने आँसुऔं मे ड़ूबी रही, उसे इस बात पर रोना नही आ रहा था कि उसने अभिमन्यु की चाह को अपना समर्थन नही दिया था बल्कि वह इसलिए दुखी थी कि पलभर मे कैसे एक बेटा अपनी सगी माँ की ओर इतनी गम्भीरता से आकर्षित हो गया था? स्त्रियां तो ऐसे लघु आकर्षणों पर फूली नही समातीं, काश! कि वह सिर्फ एक स्त्री ही होती तो कितना अच्छा होता मगर स्त्री होने के साथ-साथ एक विवाहित माँ होने का भी गौरव उसे प्राप्त था और ऐसे मे उसका बेटा चाहे कितना भी अधिक उसकी ओर आकर्षित हो जाता, रहता तो वह एक पराया मर्द ही।
"माँ भी तुम्हारी है अभिमन्यु क्योंकि वह भी इस घर की जायजाद मे शामिल है और जिसके इकलौते वारिस तुम ही हो बेटा, सिर्फ तुम ही हो" खुद से ऐसा बारम्बार कहते हुए वैशाली तत्काल अपने आँसुओं के पोंछ लेती है, निश्चित उसके शब्दों से उसके ममतामयी दिल का वह बोझ कम होने लगा था कि जाने-अंजाने जीवन मे पहली बार उसने स्वयं अपने बेटे का दिल तोड़ा था।
चेहरे पर टूटी-फूटी मुस्कान लिए वैशाली फौरन बिस्तर से नीचे उतरी और सर्वप्रथम उसने घर के मुख्य द्वार को लॉक किया, फिर वापस अपने बेडरूम मे लौटकर सीधे अटैच बाथरूम के भीतर घुस जाती है। अभिमन्यु ने उसे तैयार रहने को कहा था और पिछला आधा घंटा वह अपनी सोच मे ही बिता चुकी थी। अच्छे से मुंह हाथ धोकर वह अपने वार्डरोब मे भरी पड़ी साड़ियों मे से अपनी सबसे पसंदीदा साड़ी का चुनाव करने लगती है और जल्द ही उसने उस मेहरुन रंगत की साड़ी को चुन लिया जिसे बीते मदर्स डे पर उसे उसकी बेटी अनुभा ने तोहफे मे दिया था।
"ओह हो! इस साड़ी का पेटीकोट तो मैच ही नही हो रहा और फिर पहनने को साफ-सुथरी कच्छी भी तो नही बची" वैशाली पेटीकोट का रंग साड़ी के रंग से हल्का पाकर मायूसी से बुदबुदाई, उसने सहसा गौर किया कि कैसे अब वह 'कच्छी' जैसे देशी शब्द का स्वतः ही उच्चारण करने लगी थी। शर्माते हुए पेटीकोट को बिस्तर पर फेंक उसने मैक्सी अपने गदराए बदन से अलग कर दी और ड्रेसिंग टेबल के सामने जाकर खडी़ हो जाती है।
जीवन मे दूसरी बार उसे अपने बदन मे एक अजीब-सा बदलाव नजर आ रहा था, ठीक वैसा बदलाव जैसा उसने अपनी बीती जवानी मे महसूस किया था जब वह अपने कुंवारेपन से मुक्त होने को पल-पल तड़पा करती थी। आज पुनः उसी तड़प से उसका सम्पूर्ण बदन टूट रहा है, उस तड़प के टूटने की प्रतीक्षा मे आज फिर उसका अंग-अंग बिन छुए ही फड़कने लगा है मानो किसी जवान, बलिष्ठ मर्द के नीचे दब जाने की उसकी इच्छा दोबारा जीवंत हो गई हो जिस इच्छा के तहत उसने कभी अपने भावी पति की कल्पना की थी।
कांच मे अपने अक्स को देख वह अपने बाएं हाथ की उंगलियां ब्रा के भीतर कैद अपने गोल-मटोल मम्मों के ऊपरी फुलाव पर घुमाने लगती है, उसे तत्काल वह क्षण याद आ गया जब डाइनिंग टेबल पर बैठा अभिमन्यु कितनी बेशर्मी के साथ उसके मम्मों के इसी फुलाव को खा जाने वाली नजरे घूरे जा रहा था।
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