RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"माँ गान्ड को ढीला छोड़.......क्यों कस रही है" मेरी बात सुन माँ थोड़ा कोशिश करने लगी. मैने एक के बाद धीरे धीरे दो उंगलियाँ माँ की गान्ड में डालने की कोशिश करने लगा. माँ फिर से गान्ड टाइट करने लगी. मैने खीज कर एक चांटा कस कर उसके चुतड पर मारा तो माँ को समझ में आ गया. बहुत जल्द तेल से सनी मेरी दो उंगलियाँ माँ की गान्ड में अंदर बाहर हो रही थीं. हालाँकि माँ सी सी कर रही थी. अब मुझे लगा कि लंड घुसाया जा सकता है. मैने दो तीन वार तेल से उंगलियाँ तर कर उसकी गान्ड में डाली ताकि अच्छी तरह से चिकनाई हो जाए और ढक्कन उठाकर दूर रख दिया.
"माँ थोड़ा अपनी गान्ड तो फैला" मैने जैसे ही कहा माँ ने अपने हाथ पीछे लाकर अपने दोनो चुतड़ों को फैलाया. उसकी टाँगे तो पहली ही खूब चौड़ी थी अब उसने जब अपने चुतड़ों को विपरीत दिशा में खींचा तो गान्ड का छेद हल्का सा खुल गया. मैने अपने हाथ उसकी कमर पर रखे और अपना लन्ड़ उसकी गान्ड के सुराख पर रख दिया.
"हाए धीरे....धीरे-धीरे डालना.......उूउउफफफ्फ़ बहुत बड़ा है" माँ ने मुझे चेताया"
"तू डर मत माँ......तुझे मैं तकलीफ़ नही होने दूँगा" मैने माँ को दिलासा दिया. वो कुछ घबरा रही थी क्यॉंके एक तो इतने सालों से ना चुदने से गान्ड बिल्कुल सांकरी हो गयी थी और उपर से मेरा लंड काफ़ी मोटा था. मैने माँ की कमर हाथों मे कस कर पकड़ ली और लंड आगे सुराख के उपर रख ज़ोर लगाने लगा. माँ का बदन कांप रहा था. मगर वाकई गान्ड बहुत टाइट थी. वो मेरे ज़ोर लगाने से थोड़ा सा खुली तो ज़रूर मगर इतनी नही कि लंड घुस पाता. लगता था काफ़ी ज़ोर लगाना पड़ेगा और माँ को भी थोड़ी तकलीफ़ सहन करनी पड़ेगी. मैने कमर को पूरे ज़ोर से थाम फिर से ज़ोर लगाना सुरू किया.
इस बार जब मैं ज़्यादा और ज़्यादा ज़ोर लगाने लगा और उसकी गान्ड खुलने लगी तो माँ उन्ह...उन्ह करने लगी. वो कराह रही थी मगर एक बार तो उसे झेलना ही था. तेल से सने लंड का चमकता सुपाडा गान्ड को धीरे धीरे खोलता गया और फिर 'गप्प' की आवाज़ हुई और लंड का माँ की गान्ड में गायब हो गया. इधर मेरा लंड माँ की गान्ड मे घुसा उधर माँ ने अपने हाथ कुल्हों से हटा चादर अपनी मुत्ठियों में भींच ली. उसे दर्द हो रहा था मगर उसने अभी तक मुझे रुकने के लिए नही कहा था. मैने ज़ोर लगाना चालू रखा. बिल्कुल आहिस्ता आहिस्ता धीरे धीरे ज़ोर लगाता मैं लंड को आगे और आगे ठेलने लगा. माँ के मुख से हाए...हाइ......उफफफफ्फ़....आआहज.....हे भगवान..... करके कराहें फूट रही थीं. जिस तरह उसका बदन पसीने से भर उठा था और जिस तरह वो बदन मरोड़ रही थी मैं जान गया था कि उसे बहुत तकलीफ़ हो रही थी. मगर हैरानी थी उसने मुझे एक बार भी रुकने के लिए नही कहा..... और जब उसने मुझे रोका तब तक लगभग दो तिहाई लंड उसकी गान्ड में घुस चुका था. मैने आगे घुसाना बंद किया और धीरे धीरे आगे पीछे करने लगा. गान्ड इतनी टाइट थी कि खुद मुझे बहुत तकलीफ़ हो रही थी. गान्ड लंड को बुरी तरह से निचोड़ रही थी. इसलिए पीछे लाकर वापस अंदर डालने में बहुत परेशानी हो रही थी और उपर से माँ भी बुरी तरह सिसक रही थी और बार बार दर्द से बदन सिकोड अपनी गान्ड टाइट कर रही थी. मगर तेल की चिकनाई की वजह से मुझे लंड आगे पीछे करने मे मदद मिली. धीरे धीरे लंड उसकी गान्ड मैं थोड़ा आसानी से आगे पीछे होने लगा. हर घस्से से कुछ जगह बनती जा रही थी. मैने मौका देख हर धक्के के साथ लंड थोड़ा....थोड़ा आगे और आगे पेलने लगा. आख़िर कार कोई बीस मिनिट बाद मेरा पूरा लंड माँ की गान्ड में था. माँ को भी इसका जल्द ही अहसास हो गया जब मेरे टटटे उसकी चूत से टकराने लगे.
"उफफफफ्फ़.......पूरा घुसा दिया........इतना मोटा लॉडा पूरा मेरी गान्ड में डाल दिया"
"हां माँ......पूरा ले लिया है तूने........ऐसे ही बेकार में डर रही थी"
"बेकार में......उूउउफफफफ्फ़.........मेरी जगह तू होता तो तुझे मालूम चलता.....अभी भी कितना दुख रहा है....,धीरे कर"
"माँ अब तो चला गया है ना पूरा अंदर.......बस कुछ पलों की देर है देखना तू खुद अपनी गान्ड मेरे लौडे पर मारेगी" मैं माँ की पीठ चूमता बोला.
"धीरे पेल बेटा.......हाए बहुत दुख रही है मेरी गान्ड......." माँ सिसिया रही थी. माँ का तेल वाला सुझाव वाकई मे बड़ा समझदारी वाला था. तेल से लंड आराम से अंदर बाहर फिसलने लगा था. जहाँ पहले इतना ज़ोर लगाना पड़ रहा था लंड को थोड़ी सी भी गति देने के लिए अब वो उतनी ही आसानी से अंदर बाहर होने लगा था. हालाँकि माँ ने मुझे धीरे धीरे धक्के लगाने के लिए कहा था मगर पिछले आधे घंटे से किए सबर का बाँध टूट गया और मैं ना चाहता हुआ भी माँ की गान्ड को कस कस कर चोदने लगा.
"हाए उउउफफफफफफफ्फ़.........आआआहज्ज्ज्ज मार...डााअल्ल्लीीगगगघाा क्य्ाआआअ......हीईीईईईई.....ओह माआआअ.......,,हे भगवान......मेरी गान्ड....,उफफफफफफफ़फ्ग"
माँ चीख रही थी, चिल्ला रही थी मगर मुझे रुकने के लिए नही कह रही थी. सॉफ था उसे इस बेदर्दी में भी मज़ा आ रहा था. अगर बाहर इतनी बारिश ना होती और बारिश का और बादलों का इतना तेज़ शोर ना होता तो हमारे पड़ोसी ज़रूर उसको चिल्लाते सुन लेते.वैसे भी वो रोकती तो मैं रुकने वाला नही था. दाँत भींचे मैं माँ की गान्ड को पेलता जा रहा था और वो पेलवाती जा रही थी.
"हाए अब बोल साली कुतिया......मज़ा आ रहा है ना गान्ड मरवाने में....."
"आ रहा है....हाए बहुत मज़ा आ रहा है....ऐसे ही ज़ोर लगा कर चोदता रह.......हाए मार अपनी माँ की गान्ड"
"ले साली कुतिया .....ले....यह ले.........मेरा लॉडा अपनी गान्ड में" मैने पूरी रफ़्तार पकड़ते हुए माँ के चुतड़ों पर ताड़ ताड़ चान्टे मारने सुरू कर दिए.
"हाई....उूुुउउफफफ्फ़...,मार ..,हरामी....मार अपनी माँ की गान्ड....मार अपनी माँ की गान्ड.......,हाए मार मार कर फाड़ डाल इसे...,उफफ़गगगगगग...हे भगवान..........ले ले मेरी गान्ड.......ले ले मेरे लाल...,"
मेरे थप्पड़ों से माँ के चुतड लाल सुर्ख होने लगे. उधर फटक फटक मेरा लॉडा भी उसकी गान्ड फाड़ने पर तुला हुआ था. माँ तो लगता था जैसे एसी चुदाई की भूखी थी, यह उसका मैने नया रूप देखा था. उसकी इच्छाएँ इतने समय तक दबी रहने के कारण हिंसक रूप धारण कर चुकी थी. उसे चुदाई में गालियाँ अच्छी लग रही थी, मेरी मार अच्छी लग रही थी, मेरा उससे जानवरों की तरह पेश आना अच्छा लगता था. बल्कि जितना मैं बेदरद हो जाता उतना ही उसका आनंद बढ़ जाता, इस बात को जान मैने उसके साथ कोई नर्मी नही वर्ती, तब भी जब मैं उसकी गान्ड मार रहा था या तब जब रात के आख़िरी पहर के समय में उसे हमारे आँगन में बर्फ़ीली हवा के बीच बारिश के बीच पेड़ के साथ घोड़ी बनाकर चोद रहा था ना आने वाले दिनो में जब कभी मैं उसे खेतों में, तो कभी घर में अपने पिता की उस कामसूत्र की किताब में दिखाए अलग अलग आसनो मे चोदता. वो हर वार मेरा पूरा साथ देती और चुदाई के समय मेरी किसी बात पर एतराज ना करती. चुदाई के बाद हम फिर से अपने पुराने रूप मे आ जाते जिसमे वो मेरी माँ होती और मैं उसका बेटा. हालाँकि हम दोनो को चुदाई में बेहद आनंद आता था मगर फिर भी हमारे बीच रोजाना चुदाई नही होती थी. साप्ताह में एक दो बार, ज़्यादा से ज़्यादा. मैने अपना ध्यान कभी भी लक्ष्य से भटकने नही दिया था और माँ भी इस बात का पूरा ख़याल रखती थी. मैं एक पल के लिए भी नही भूला था कि कोई हर दिन हर पल मेरी राह देख रहा है, मैं एक पल के लिए भी नही भुला था
समय अपनी रफ़्तार चलता रहता है वो किसी के लिए नही रुकता. मैं इस बात को भली भाँति जानता था. हालाँकि मेरे लिए बहन से दूर रहकर अब एक दिन भी काटना मुश्किल था मगर फिर भी कभी कभी मुझे समय की रफ़्तार बहुत तेज़ लगती. मुझे एक नई ज़िंदगी सुरू करनी थी नयी जेगह पर; अपनी पुरानी ज़िंदगी से हमेशा हमेशा के लिए डोर जाना था मुझे. इसलिए मुझे ढेरों पैसा चाहिए था. ढेरों पैसा कमाने के लिए टाइम भी उतना ही ज़्यादा चाहिए था. इसीलिए मैं हर एक पल को सही तरीके से इस्तेमाल कर ज़्यादा से ज़्यादा पैसा जोड़ लाना चाहता था टके वाक़त आने पर पैसों की कमी ना खल सके, क्योंकि मेरे पास एक सिमट समय था, सिमत समय.
मैं जानता था वो कितनी बैचैनि से कितनी बैसब्रि से उस दिन का इंतजार कर रही है जब मैं उसे वहाँ से ले जाउन्गा, हमेशा हमेशा के लिए अपनी बनाकर.
भारी बारिश ने मेरी चौथी फसल का जितना नुकसान किया था, भगवान का शुक्र था वैसी बारिश या वैसी कुदरती आफ़त मेरी आने वाली बाकी तीन फसलों पर नही आई. मगर मेरा असली धन था मेरी मुर्गियाँ जिनसे मैने असली कमाई की. इतनी कमाई कि मैने नयी ज़िंदगी में उसे अपना नया धंधा बनाने का फ़ैसला कर लिया.
तीन साल बीत जाने पर मैं बहन से मिलने गया तो वो बहुत खुश थी. हमारा बनवास ख़तम होने वाला था. वो इतनी खुश थी, इतने उत्साह में थी, इतने जोश मे कि मैं उसे देखकर बार बार मुस्करा पड़ता. मैने उसे हिम्मत दी कि अब बस थोड़े ही दिन हैं, मुझे कोई ठिकाना ढूँढना था, यहाँ से कहीं दूर' जहाँ हमे कोई ना जानता हो.
मैने एक दो सहरों के चक्कर लगाए पर मुझे हर जगह कोई ना कोई कमी नज़र आ जाती. हारकर मैने ना चाहते हुए भी बोम्बे (उस टाइम वो बोम्बे के नाम से ही जाना जाता था) का रुख़ किया. बॉम्बे मेरी पहली पसंद कभी नही था' क्योंकि ज़मीन के भाव वहाँ और जगहो की तुलना मे अधिक थे. मगर मरता क्या ना करता, मेरे पास ज़्यादा विकल्प नही थे.
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