RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
समय अपनी रफ़्तार चलता रहता है. वो किसी के लिए नही रुकता. ना किसी के अच्छे के लिए ना किसी के बुरे के लिए. दूसरी फसल भी तैयार हो गयी. दूसरी फसल काट कर बेच कर मैने और माँ ने पूरे पैसे गिने तो हम दोनो एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे. इतने पैसे मैं दस साल तक नही कमा सकता था. हालाँकि इस बार आनाज़ मुझे मंडी में लेकर जाना पड़ा क्योंकि घर में इतना आनाज़ रखने के लिए जगह ही नही थी और वैसे भी माँ के लिए इतना आनाज़ बेचने का काम बहुत ज़्यादा होता. मंडी में आनाज़ की बिकवाली और पैसे मिलने में बहुत कम वक़्त लगा.मैने कुछ पैसे माँ को दिए और बाकी बॅंक में जमा करवा दिए. इस बार काफ़ी बचत बच जाने वाली थी क्योंकि इस बार मुझे कोई बड़ा खर्चा नही करना था. मैने नयी फसल की विजाई की. इस बार मुझे बहुत जल्दबाज़ी थी, मैं जिसके लिए ये सब कर रहा था मुझे उससे मिलने जाना था. आख़िरकार फसल बीज कर सभी काम निपटा मैं एक इतवार सहर जाने को तैयार हुआ. आज लगभग सात महीने बाद मैं बहन का चेहरा देखने वाला था.
सबसे पहले मैने एक नाई की दुकान पर जाकर बाल कटवाए और शेव करवाई, उसके बाद नये कपड़ों का एक जोड़ा खरीदा. घर जाकर जब मैं नहा-धोकर तैयार हुआ तो माँ मुझे देखते ही रह गयी. "जल्दी जल्दी खाना खा लो...उफ़फ्फ़ आज दुकान खोलने में बहुत देरी........." माँ ने मेरी और देखा तो बोलते बोलते रुक गयी. वो आँखे फाडे मुझे देखे जा रही थी. "कहीं जा रहे हो? किसी की शादी वादी है क्या?" उसने हैरत से पूछा. उसे शायद अभी सूझा नही था. मगर उसका दोष नही था मैने भी कभी बहन से मिलने जाने के बारे में बात नही की थी.
"हां....वो मैं.......वो मैने सोचा.......इतने महीने हो गये हैं...........मैने सोचा दीदी को मिल...." मुझे ना जाने क्यूँ माँ को बताते शरम आ रही थी.
"ओह.....उः..हो....तो यह बात है. मैं भी कहूँ आज इतना बन ठन कर......" माँ ने चुटकी लेते हुए कहा. वो मुस्करा रही थी, मैने शरम के मारे मुँह दूसरी तरफ कर लिया. माँ हंस पड़ी.
"ओह.....हुहो. ........आज तो रंग ढंग ही बदल गये हैं जनाब के. ठीक है जाओ...जाओ...मैं कुछ नही कहती. मुझे दुकान पर जाना है, जाते हुए ताला लगा कर चाभी मुझे दुकान पर दे जाना"
ना जाने क्यों मुझे इतनी बैचैनि, इतनी बेकरारी हो रही थी. दिल ऐसे जोरों से धड़क रहा था कि धूम धूम की आवाज़ कानो में गूँज रही थी. मेरे होंठो से मुस्कान हटने का नाम नही ले रही थी. केयी बार मैं खुद से बातें करता करता हंस पड़ता तो बस में मेरे साथ की सीट पर बैठी लड़की मेरी ओर अजीब सी नज़रों से देखती. केयी बार मेने लोगों को अपनी ओर घूरते पाया मगर मुझे कोई परवाह नही थी. बहन का हॉस्टिल बस स्टॅंड के बेहद नज़दीक था मगर मुझे पहले सराफ़ा बाज़ार जाना था वहाँ से उसके लिए कुछ खरीदना था.
बहन के हॉस्टिल के सामने पहुँचते मुझे दिन के बारह बज गये थे. हालाँकि आज रविवार का दिन था मगर माँ के अनुसार बहन किसी भी दिन छुट्टी नही करती थी, रविवार के दिन ओवरटाइम करती थी. 'अब मैं उसके हॉस्टिल जाऊं और उसकी वोडरन को मिलूं? क्या करूँ? हो सकता है वो आज काम पर ना गयी हो,' मुझे समझ नही आ रहा था मैं क्या करूँ. एक दिल कर रहा था कि अंदर चला जाऊं और दूसरी तरफ ना जाने क्यों कुछ घबराहट महसूस हो रही थी. 'अगर वो आज ना मिली तो? हो सकता है वो आज कहीं गयी हो?' ना जाने क्यों दिल में जितनी खुशी जितनी उत्सुकता थी उतना ही एक अजीब सा डर एक अजीब सी बैचैनि भी थी. मैं हॉस्टिल से काफ़ी दूर खड़ा उसके लोहे के मुख्यद्वार को देख रहा था और उसके दूसरी तरफ बनी बड़ी सी बिल्डिंग की खिड़कियों से कभी कभार झाँकने वाले चेहरों में से बहन का चेहरा ढूँढ रहा था. जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था मेरी बैचेनि बढ़ती जा रही थी, मुझे ठंडे मौसम में भी पसीना आ रहा था. मैं मन पक्का कर एक कदम आगे बढ़ाता और फिर एक कदम वापस पीछे की ओर खींच लेता. दोपहर का समय होने और मुख्य सड़क से दूर होने के कारण सड़क पर कभी कभार ही कोई नज़र आता था.
मैं अंदर जाने का साहस ना जुटा सका और वहीं खड़ा रहा. दो घंटे गुज़रे होंगे कि अचानक सड़क के दूसरी ओर से मुझे लड़कियों का एक झुंड आता दिखाई दिया. पहले तो मैं वहीं खड़ा रहा फिर तेज़ी से चलकर वहाँ से थोड़ी दूर एक पेड़ की ओट में हो गया. लड़कियों का एक नही बल्कि एक दूजे के पीछे कयि झुंड चले आ रहे थे. मेरी हालत उस वक़्त कैसी थी मैं बयान नही कर सकता था. मेरी सांसो की रफ़्तार बढ़ गयी थी, मेरा पूरा बदन कांप रहा था, माथे पर पसीने की बूंदे चमकने लगी थी. लड़कियों का झुंड सड़क के दूसरी ओर बिल्कुल मेरे सामने से गुज़रा, मगर जिसे मेरी आँखे तलाश रही थी वो उनमे नही थी. दूसरा झुंड सामने आया फिर तीसरा. मगर वो उनमे ना थी. चौथे झुंड के पीछे पीछे तीन लड़कियाँ चली आ रही थी. मैने उन्हे देखा और फिर खुद को यकीन दिलाने के लिए अपनी आँखे बंद कर लीं. जब मैने अपनी आँखे खोलीं तो वो तीनो लड़कियाँ सड़क के उस ओर बिल्कुल मेरे सामने से गुज़र रही थी. मेरी नज़र उनमे से एक पर जम गयी. ना जाने कैसे आँखो से आँसू बहने लगे. वो उन लड़कियों की बातें सुनती उनके साथ चली जा रही थी. उसने मेरी ओर नही देखा.
मैने उसे पुकारा नही, उसे बुलाया नही. मैं तो उस पल की वास्तविकता को महसूस कर रहा था. उसे देखते ही मेरे अंदर की बैचैनि दूर हो गयी, बेकरारी मिट गयी. पूरी रूह में एक अजीब सा सकून एक सुखद अहसास फैल गया. सब दुखों सभी समस्याओ से ध्यान हट गया. वो चलती चलती बिना मुड़े बिना पीछे देखे सीधे गेट के अंदर जाकर लुप्त हो गयी. मैने अपनी आँखे बंद कर लीं सर उपर उठाया और उपर वाले का शुक्रिया अदा करने लगा. मैं उस सुखद अहसास में अपनी आत्मा आनंदित होती महसूस कर रहा था.
मैं अपनी उस अजीब सी शांति में खोया उस खुशी को महसूस करता खुद को कंट्रोल करने की कोशिश कर रहा था. अब मुझे अंदर जाना था. जहाँ मैं खड़ा था वहाँ से थोड़ी दूर एक छोटा सा पार्क था जिसमे बहुत सारे बड़े बड़े पेड़ उगे हुए थे, लगता था काफ़ी पुराना पार्क था, बीच में कहीं कहीं बैठने के लिए बेंच बने हुए थे. मैने उस पार्क में जाकर एक नल पर अच्छे से मुँह धोया. फिर मैं वापस हॉस्टिल की ओर चल दिया. उसे गये आधा घंटा बीत गया था. अभी मैं पेड़ के पास ही पहुँचा था कि सामने गेट से एक लड़की निकलती दिखाई दी. उसके हाथ में पोलीथिन का एक बॅग था. इस बार उसने कपड़े बदल लिए थे और एक पंजाबी सूट पहना हुआ था. सर पर दुपट्टा ओढ़े वो सड़क के उस ओर चली आ रही थी. वो वोही थी, वोही थी, मैने उसे गेट से निकलते देख पहली नज़र में ही पहचान लिया था. वो सड़क के किनारे किनारे उदास सी अपनी किसी चिंता में खोई चली जा रही थी. मैं सड़क पार करके उस ओर जाना चाहता था मगर मेरे पैर नही हिल रहे थे. मैं चाह कर भी अपने पैर नही हिला पा रहा था जैसे उनके साथ मानो भारी बोझ बाँध दिया गया हो.
वो इतने नज़दीक आ गयी थी कि सर उठाकर मेरी ओर देखती तो मुझे आसानी से पहचान लेती, मगर वो तो बस सीधे चली जा रही थी. वो बिल्कुल मेरे सामने आ गयी, मैने उसे पुकारना चाहा तो गले से आवाज़ ना निकली. वो मेरे सामने से गुज़र रही थी. मेने ज़ोर लगा कर पैरों को हिलाया और पेड़ के पीछे से घूम कर दूसरी ओर चला गया. वो पेड़ से थोड़ा सा आगे थी. नज़ाने कैसे मेरे होंठ कंपकंपाए और धीरे से मेरे मुख से 'दीदी' करके निकला. मेरी आवाज़ इतनी कम थी कि खुद मुझे बड़ी मुश्किल से सुनाई दी थी तो उसे कैसे सुनाई देती. वो दो कदम चली होगी फिर वो ठिठक गयी, फिर वो एकदम से मेरी ओर घूमी. पहले पहले उसके चेहरे पर अविश्वास के भाव आए, फिर जैसे वो उलझन में हो, फिर उसके चेहरे पर घबराहट, एक डर के भाव आए. वो आँखे फाडे मुझे घूरे जा रही थी. फिर अचानक, एकदम से, उसने हाथ से पोलिथीन का बॅग फेंका और मेरी ओर भागने लगी. मैने घबरा कर सड़क पर इधर उधर देखा कहीं कोई गाड़ी तो नही आ रही थी मगर शुक्र था रास्ता पूरा खाली था. वो बिना रुके बिना अपनी नज़र मुझसे हटाए सीधे भागते हुए मेरे पास आ गयी थी. मेरी बाहें खुद ब खुद खुलती गयीं और वो मेरी बाहों में समा गयी, उसकी बाहें मेरी गर्दन पर लिपट गयी और वो फुट फूटकर रोने लगी, मैने खुद को रोकना चाहा मगर प्यार के वो पल इतने वेग्मयि थे कि मैं भी खुद को रोक ना सका और उसके साथ मैं भी रोने लगा.
बहन की बाहों का घेरा रह रह कर मेरे गले पर कसता चला जाता. वो खाँसती, गला सॉफ करती और फिर से सुबकने लगती. मैं उसकी पीठ सहलाता अपनी कराहों को गले में दबाने की कोशिश कर रहा था. रोते रोते उसने अपनी पकड़ ढीली की और चेहरा थोड़ा पीछे कर मेरे चेहरे को गौर से देखा. उसने अपने हाथों में मेरा चेहरा थाम लिया और उसी तरह सुबक्ते हुए मेरे चेहरे पर चुंबनो की बरसात करने लगी. मैने खुद को संभाला, वो जगह ठीक नही थी, उस समय वहाँ पर कोई भी आ सकता था और हमारा तमाशा बन सकता था.
"दीदी यहाँ से चलो. कोई आ जाएगा" मैं उसके हाथ चेहरे से हटाता बोला. मगर उसने जैसे मेरी बात सुनी ही नही. उसने आँसुओं से तर अपना चेहरा मेरा चेहरे से सटा दिया.
"दीदी, प्लीज़ यहाँ से चलो. कोई आ जाएगा और हमे इस हालत में देखकर क्या सोचेगा?" मैने उसकी बाहें झींझोड़ते हुए कहा. इस बार वो जैसे होश मैं आई. उसने अपना चेहरा दुपट्टे से पोन्छा.
"सॉरी........तुम्हे इतनो दिनो.......बाद ...देखा कि .....चलो.....पार्क...में..चलते हैं..." वो लड़खड़ाती आवाज़ में बोली.
"एक मिंट रूको" कहकर मैं सड़क के दूसरी ओर को भागा, वहाँ उसका वो पोलिथीन का बॅग पड़ा हुआ था जिसमे उसका कुछ समान था. मैने बॅग उठाया और वापस उसके पास चला आया. हम दोनो पार्क को चल दिए. पार्क पास ही में था. हमने पार्क के दूसरी तरफ पीछे की ओर जाने का फ़ैसला किया. वहाँ से सड़क से कुछ दिखाई नही पड़ता था. पार्क में बड़े बड़े पेड़ों की घनी छाया थी. ऐसे ही एक बेंच पर हम दोनो बैठ गये. कुछ पल खामोशी से बीत गये. वो अभी भी अपनी आँखे पोंछ रही थी जो रह रह कर बरसने लगती थी.
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