RE: Antarvasna kahani ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगा...
ग़रीब घर की भूरी, पिता के देहांत के बाद बढ़ती किल्लतो से मुश्किल से परिवार का भरण पोषण हो रहा था.
4 भाइयों के बीच अकेली बेहन, आमदनी का ज़रिया मात्र 10-12 बीघा ज़मीन ही थी,
बड़ा भाई मेरे से कोई 2 साल ही बड़ा था, लेकिन फैल होते-2 मुश्किल से 10थ पास ही कर पाया था,
तीन भाइयों के बाद चौथी औलाद थी वो. बड़े भाई की मुश्किल से शादी हो पाई थी.
भूरी एक हल्के कद की गोरी-चिटी लड़की थी, रंग रूप की वजह से ही उसका नाम उसके पिता ने भूरी रख दिया था.
अधखिलि कली जिसके पास ढंग के पहनने को कपड़े भी नही होते थे, इस समय भी वो एक घिसे घिसाए पुराने से सलवार सूट में थी जो शायद काफ़ी पुराना होने से उसके विकसित हो रहे बदन को ढंग से ढक भी नही पा रहे थे.
वैसे तो उसके संतरे अभी 30” के ही हुए होंगे, लेकिन टाइट कुर्ते मैं लगता था कपड़े को फाड़ के बाहर निकल पड़ेंगे.
बिना ब्रा के उसके छोटे-2 लेकिन नुकीले चुचक उसके झीने कपड़े में सॉफ छटा दर्शा रहे थे.
उसके कपड़े इतने घिस चुके थे की पिंक कलर का कपड़ा भी उसके बदन के रंग का दिख रहा था.
मैने उसे नज़र भर देखा…,
पहले तो मुझे उस पर दया आई, और मैने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा.
फिर जब मुझे उसके कपड़ों से आर-पार उसका शरीर दिखाई देने लगा तो मेरी भावनाएँ बदलने लगी,
अनायास ही मेरा हाथ उसकी पीठ पर चला गया और उसे सहलाने लगा.
मे उसकी पीठ सहलाते हुए बोला- भूरी, तेरे पास और ढंग के कपड़े नही हैं..?
वो- क्यों इनमें क्या खराबी है ..?
मे- पुराने हैं, देखो तुम्हारा शरीर भी चमक रहा है..
जब उसने मेरी नज़रों का पीछा किया तो वो शर्म से दोहरी हो गयी और बोली-
हैं तो एक दो जोड़ी, पर भाभी पहनने नही देती, बोलती है, अभी इनसे ही काम चलने दो जब तक चलता है बाद में निकाल लेना.
मे- और तेरी मम्मी क्या कहती है…?
वो- वो बेचारी क्या कहेगी, चुप ही रहती है.
मे- तेरा मन नही होता अच्छा खाने-पहनने को..?
वो- किसका मन नही होगा… भैया..? लेकिन आए कहाँ से..? दो जून की रोटी हो जाती है वही बहुत है..!
मे - ओह्ह्ह.. भूरी..! मे उसकी दयनीय दशा जान कर कराह कर बोला - अगर तेरा बाहर खाने का मन करता है तो मुझे बता मे तुझे खाने के लिए पैसा दे दूँगा अगर चाहे तो..!
ये बात मैने दया वश कही थी, भूरी थोड़ी एमोशनल होती हुई मेरे कंधे पर सर रख कर बोली-
जलेबी खाने का बहुत मन करता है, जब भी सुबह-2 अजुद्दि लाला की दुकान पर जाती हूँ, उसी समय वो गरम-2 बना रहा होता है,
जब और लोग भी खा रहे होते हैं तो सच कहती हूँ भैया, इतना मन करता है, कि उठा के भाग जाउ….
कंधे से चिपकने से उसके अधखिले संतरे जो की सिर्फ़ एक झीने से कपड़े की दीवार के उस पर थे उसके नन्हे-मुन्ने अंगूर के दाने मेरे बाजू में चुभने से लगे.
मेरा मन किया कि हाथ से सहला दूँ.. लेकिन मन को काबू में करके उसकी पीठ से हाथ लेजा कर उसके दूसरे बाजू को पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया, दूसरे हाथ से उसकी ठोडी को पकड़ कर उठाया और बोला-
मे तुझे पैसे दूँगा जलेबी खाने के लिए, जब जी करे खा लिया करना, ठीक है, लेकिन कोई पुच्छे कि पैसे कहाँ से आए तो क्या कहेगी..?
वो - कोई भी बहाना बना दूँगी, तुम चिंता मत करो, मे तुम्हारा नाम नही लूँगी.
मैने उसे कस कर कहा- ओह्ह.. तू तो बड़ी समझदार है मेरी गुड़िया.. शाबास, ले ये 50 रुपये रख अभी… मैने जेब से निकाल कर उसको एक 50 का नोट दे दिया.
और हां जब ख़तम हो जाएँ ना तो बोल देना और दे दूँगा ठीक है. अब तू जा मुझे काम करना है.
वो हां में गर्दन हिला कर मुझसे और ज़ोर से लिपट गयी और मेरे गाल पे किस करके बोली- ओह्ह्ह मेरे प्यारे अरुण भैया, तुम कितने अच्छे हो..?
फिर वहाँ से चली गयी, और मे अपने काम में बिज़ी हो गया.
शाम को सब काम धंधा निपटा कर घर जा कर खाना-वाना खाया, थोड़ा बहुत इधर उधर बैठा, साथ के लड़कों के साथ थोड़ा गांजे की चिलम में कस लगाया और सोने के लिए ट्यूब वेल की ओर चल दिया.
आज मैने अनुभव किया कि मेरा मन आज अशांत नही था, भूरी के साथ बिताए पलों को याद करते ही मेरा शरीर रोमांच से भर गया.
अब मेरे मन में बैचानी की जगह कुछ और ही तरह की फीलिंग आ रही थी. जिसमें कुच्छ संवेदना, कुछ रोमांच, जैसी कॉलेज के दिनो में आती थी, अब मे भूरी का साथ पाने की कल्पना करने लगा.
सोने की कोशिश की तो आँखें बंद करते ही भूरी ख्वाबों में आ गयी, वोही उसका दोपहर वाला रूप, अल्हड़ कच्ची कली अब धीरे-2 मेरे दिलो-दिमाग़ पर छाने लगी.
जिस मुशिबत से में आज से पहले जूझ रहा था, उससे तो मुक्ति मिल गयी थी, लेकिन एक नयी तरह का रोमांच हाबी होता जा रहा.
दो साल से ज़्यादा समय से मैने सेक्स नही किया था, ध्यान मुद्रा शुरू करने के बाद कुछ महीनो तक तो कभी-2 रात को मेरा अंडरवेर खराब हो भी जाता था,
लेकिन जब से कुण्डलिनी यात्रा वाला प्रयोग किया था तब से तो मेरे वीर्य की कभी एक बूँद भी निकली हो, ऐसा फील भी नही हुआ था.
लेकिन आज ढाई साल के बाद दिन की बातों को याद करके मेरे लिंग में भी कुछ-2 तनाव सा महसूस होने लगा था.
सोचते-2 ना जाने कब मुझे नींद ने अपने आगोस में ले लिया और मे भूरी के अधखिले योवन का अनुभव अपने सपनों में करता हुआ सो गया.
दूसरी सुबह जब मेरी नींद खुली, तो मन एक सुखद अनुभूति से भरा हुआ था, मेरा चित्त एक दम शांत लग रहा था, मानो कोई जादू हुआ हो.
सुबह-2 बहुत सारे काम होते हैं घर खेतों के, तो नाश्ता वग़ैरह करके उनमें लग गया, आज मेरा मन काम में भी लग रहा था,
काम निपटाते-2 कब 12 बज गये पता ही नही चला, दोनो चचेरे भाई, अपने-2 स्कूल चले जाते थे, बच्चों को पढ़ाने,
श्याम भाई ने तो मेरे आने के बाद खेतों की चिंता ही छोड़ दी थी.
मे अभी नहा धो के चुका ही था और कमरे में चारपाई पर लेट कर अपने शरीर को थोड़ा रेस्ट दे रहा था कि दरवाजे पर आहट हुई..,
मैने जब देखा तो भूरी को वहाँ खड़े पाया, उसके भी आधे से खेत हमारे ट्यूब वेल के पास ही थे.
ओह्ह्ह.. भूरी…!! आ.. आजा, और सुना कैसी है, आज जलेबी खाई या नही- मैने पुछा उसे.
उसके हाथ में अख़बार के कागज का एक पॅकेट जैसा था.
वो आकर मेरी चारपाई पर बैठ गयी, मे लेटा ही रहा और थोड़ा साइड में खिसक कर उसे बैठने के लिए जगह दे दी.
वो - आज मैने जी भरके जलेबी खाई, और देखो तुमहरे लिए भी लाई हूँ, लो ख़ाके देखो, बहुत अच्छी है और पॅकेट खोल कर मेरे सामने रख दिया.
मे थोड़ा सा उपर को खिसक कर अढ़लेटा सा हो गया अपनी एक एल्बो का सहारा लेकर- अरे वाह !! लगता है गरम-2 हैं,
मैने अपना हाथ बढ़ाया एक टुकड़ा उठाने को तो उसने मेरा हाथ रोक कर बोली - तुम लेटे रहो मे खिलाती हूँ तुमको,
और एक टुकड़ा मेरे मुँह में दे दिया, मैने जान बूझकर उसकी उंगली काट ली…
आययईीीई… कटखने…कहीं के… मेरी उंगली काट ली… ये कह कर अपना हाथ झटकने लगी..
मे हँसने लगा तो गुस्से जैसा मुँह करके बोली- बहुत गंदे हो तुम..!! मे तो तुम्हें जलेबी खिला रही थी और तुमने मुझे ही काट लिया..
जाओ मे नही खिलाती अब, खुद ही ख़ालो..
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