Antarvasna kahani ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगाना
12-19-2018, 01:59 AM,
#98
RE: Antarvasna kahani ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगा...
जन्वरी के महीने की शुरुआत ही हुई थी, भयंकर सर्दी, पारा कभी-2 शून्य से भी नीचे चला जाता था, श्याम बिहारी 3 दिन से दिल्ली में पड़े मौज कर रहे थे. 

मुझे एक लास्ट खेत मे गेहूँ की बुआई करनी थी, अरहर (टूअर) काट कर खेत तैयार करने में देरी हो गयी थी.

सुबह-2 जब मे खेत बोने घर से चला ही था, पिता जी धूप में बैठे थे मुझे रोक कर बोले थोड़ा जल्दी काम ख़तम करके आना, ना जाने उनको आभास सा हो गया था शायद की अब समय आ चुका है जाने का. 

मैने कहा ठीक है दोपहर तक गेहूँ खेत में डालकर ट्रॅक्टर से मिलाने को बोल कर आता हूँ.

मैने खेत में पहुँच कर गेहूँ का बीज़ पूरे खेत में फैलाया, कोई 3-4 एकर का खेत था, इसी काम में 2 घंटे निकल गये, ट्रॅक्टर से मिलने की शुरुआत ही की थी, कि एक पड़ोसी भागते हुए आया और बोला, अरुण जल्दी चल तेरे पिता जी की हालत ज़्यादा खराब हो गयी है.

मे उसको ट्रॅक्टर थमा कर भागा-2 घर पहुँचा, जब उनके पास पहुँचा तो हमारे गाँव के ताउजी जो कि वैद्या भी हैं, वो उनकी नब्ज़ पकड़े हुए थे. 

पिता जी ने मेरी ओर देखा, आँखों के कोरों से पानी बह रहा था, मुझसे कुछ बोलना चाहते थे आवाज़ नही निकली, कफ ने गले को जकड रखा था.

बोलने की कोशिश में कुछ घरर-2 सी आवाज़ निकली और उनका मुँह खुला का खुला रह गया. 

वैद्य जी ने कहा उनके पैर की नाड़ी को दवा के देखा, मैने उनके पैर में हील के जस्ट उपर की नाड़ी को टटोला एक-दो हल्की सी फड़कन महसूस हुई, और बस….. उनकी आत्मा मुँह के रास्ते वातावरण में विलीन हो गयी..

वैद्य जी ने हाथ छोड़ दिया और बोले- इनको जल्दी चारपाई से नीचे लेलो अब ये नही रहे.

आख़िरकार अपने कमजोर शरीर और बीमारियों से हार कर पिता जी हम दोनो भाइयों को बेसहारा छोड़ कर अंतःपुर को चले गये.

नीचे ज़मीन पर लिटा कर भावशून्य अवस्था में खड़ा होकर मे उनके खुले हुए मुँह को ही ताड़ता रहा कितनी ही देर. 

भले ही मैने अकेले रह कर कितने ही ज़िम्मेदारी भरे काम किए थे अपने गुज़रे दिनो में लेकिन ना जाने क्यों आज मुझे ऐसा लग रहा था जैसे आज मे बिल्कुल अकेला रह गया हूँ, आज मे अपने को अनाथ महसूस कर रहा था.

मेरे चचेरे बड़े भाई प्रेम चन्द जी ने मेरे कंधे पकड़ कर हिलाया और आवाज़ दी- अरुण..अरुण.. कब तक खड़ा रहेगा..? इनका दाह संस्कार भी करना है, तब मेरी आँखों से दो बूँद आसुओं की टपकी लेकिन मुँह से एक हिचकी तक नही निकली.

मैने हड़बड़ा कर कहा- अब क्या होगा भैया..? मे तो अकेला हो गया, अब क्या करूँ..?

वो बोले- अरे तू अकेला कहाँ है, हम सब हैं ना तेरे साथ.. ! तू जो बोलेगा, जैसा कहेगा, हम सब इंतेजाम कर देंगे, तू चिंता ना कर मेरे भाई..!

मे उनके कंधे से लग कर फफक पड़ा… उन्होने मुझे ढाढ़स बँधाया और जैसे-तैसे मुझे चुप कराया. 

मेरी माँ और छोटी वाली बेहन जो वहीं थी, वो दहाड़ें मार-2 कर रो रही थी, औरतें उनको चुप करने में लगी थी और साथ-2 खुद भी रो रही थी.

गाँव मोहल्ले के सभी लोगों ने मिलकर दाह संस्कार की विधि को जैसा विधान के हिसाब से होना चाहिए संपन्न कराया और मैने अपने पिता के पार्थिव शरीर को अग्नि के सुपुर्द कर दिया.

सभी भाइयों को प्रेम भैया ने टेलीग्राम कर दिया था, टेलिफोन की सुविधा अभी तक नही थी आस-पास. 

तीसरे दिन दोनो बड़े भाई और श्याम बिहारी पधारे तब तक हम सभी मुंडन संस्कार भी कर चुके थे. मैने किसी से कोई सवाल जबाब नही क्या, सबने श्याम को बहुत खरी-खोटी सुनाई, वो मुँह लटकाए सुनते रहे.

तेरहवीं के बाद हम चारों भाई एक साथ बैठे और भविश्य के बारे में सलाह मशविरा किया, जिसमें तय हुआ कि हम चारों में से किसी एक को तो गाँव में रहना ही होगा, अच्छी-ख़ासी ज़मीन जायदाद की देखभाल भी करनी है. 

दोनो बड़े तो अपनी-2 नौकरियों पर सेट थे बाल-बच्चे दोनो के हो चुके थे जो पढ़ लिख भी रहे थे, बचे हम दोनो जो अभी तक नौकरी की तलाश मे थे. 

मुझे इन्मिच्योर डिक्लेर करते हुए फ़ैसला कर दिया कि श्याम इस सबकी देख भाल करेगा, जब तक उसके बाल-बच्चे अपने पैरों पर खड़े नही हो जाते, कोई भी अपना हिस्सा नही माँगेगा उससे, अरुण की जब तक नौकरी नही लगती है वो घर रह कर मदद करेगा.

उन दोनो के चले जाने के बाद मेरा भी ज़्यादा दिन घर पर मन नही लगा और मे भी एक दिन अपना बॅग उठाए हरियाणा अपने चचेरे भाई यशपाल जी जो मेरे ज़्यादा हितैषी थे पूरे घर में उनके पास चला गया जहाँ बहुत सारी कंपनियाँ थी.

जैसा कि मे पहले उनके बारे में लिख चुका हूँ कि यशपाल भैया वहाँ स्टेट गॉव में अग्रिकल्चर ऑफीसर हैं.

में कुछ दिन उनके पास मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ता रहा, और भाग-दौड़ करके जल्दी ही एक लिमिटेड कंपनी में ट्रेनी इंजिनियर के तौर पर लग गया. 

एक साल की ट्रैनिंग थी, तो स्टाइ फंड के तौर पर उस समय 1500/- महीना मिलता था. अकेले के लिए ठीक ही थे, वैसे भी भाई साब ने मुझे अलग रहने से मना कर दिया था, क्योंकि कुछ उनको भी सहारा था मुझसे और मेरा उनसे.

उनकी उस समय 3 बड़ी प्यारी बच्चियाँ थी सबसे बड़ी बेटी ने अभी स्कूल जाना शुरू ही किया था, दूसरी उससे ढाई साल छोटी और तीसरी मेरे वहाँ जाने के कुछ महीने पहले ही पैदा हुई थी.

वो एक किराए के मकान में रहते थे, 4 कमरों का मकान दो हिस्सों में बना था, एक हिस्से में उनके ही महकमे के मुछड भाई साब रहते थे नाम था इंद्रमनी शर्मा, 

वो भी यूपी से ही थे बड़ी-2 मूँछे, हॅटा-कट्ता शरीर, देखने से ही कोई पोलीस के बड़े अधिकारी लगते थे. 

दोनो में घनिष्ट मित्रता थी. उनकी शादी 5 साल पहले ही हुई थी लेकिन अभी तक कोई बच्चा नही था. उनकी वृद्ध माँ और छोटा भाई भी उनके साथ रहता था, जो उन दिनो पोस्ट ग्रॅजुयेशन कर रहा था.

पिता जी की मृत्य के बाद मे कुछ धार्मिक सा हो गया था क्योंकि जब मैने 10 दिनो तक वैदिक रीति से उनका कर्म- कांड कराए थे सारे दिन सिर्फ़ एक चाइ के सहारे सर्दियों में नंगे बदन तर्पण करना शास्त्री जी के साथ बैठ कर. 

तो आदत सी पड़ गयी थी शुद्ध और धार्मिक रहने की, हर मगलवार (ट्यूसडे) को व्रत के साथ-2 सुंदरकांड का पाठ भी करता था.

मे सारी बीती हुई घटनाओं को भूल कर अपनी ड्यूटी और अपनी प्यारी-2 भतीजियों के साथ में बिज़ी हो गया, भैया और भाभी दोनो ही बहुत अच्छे थे, मुझे अपने सगे भाइयों से भी ज़्यादा प्यार मिल रहा था उनके साथ....

हम जिस एरिया में रहते थे, वो रहने के हिसाब से बहुत अच्छा था, लेकिन थोड़ा पहाड़ी के नीचे का था जो शाहर के दूसरे हिस्सों से थोड़ा उचाई पर था, जिसकी वजह से कॉर्पोरेशन का पानी वहाँ तक कभी-2 ही पहुँच पाता था. इसलिए हम सभी को रात में ही उठके कुछ नीचे के एरिया से बल्टियों से पानी ढोना पड़ता था.

भैया भाभी की 12 महीने की आदत थी सुबह 3-4 बजे से उठ के ही नहाना-धोना, पानी का इंतेजाम करना, जिसमें मुझे भी उनकी हेल्प करनी होती थी.

इंद्रमनी और उनका परिवार इतना जल्दी नही उठते थे, और उनको हर रोज़ पानी की समस्या से दो-चार होना पड़ता था.

एक दिन मगलवार का दिन था, नहा धोकर मे फॅक्टरी जाने से पहले सुंदरकांड का पाठ कर रहा था, मात्र अंडरवेर और उसके उपर एक तौलिया लपेटे हुए, कोई 52 दोहे हो चुके थे मात्र 7-8 दोहे का पाठ ही शेष था. भाई साब अपने फील्ड के दौरे पर गये हुए थे.

कि भाभी घबराई हुई आई और बोली, भाई साब देखना वो इंद्रमनी भाई साब के साथ कुछ झगड़ा हो गया है नीचे. 

मैने रामायण के गुटके को प्रणाम किया और क्षमा माँगी शेष बचे हुए पाठ के लिए और यूँही तौलिए में ही उठके भागा. 

जिन लोगों से झगड़ा हो रहा था वो 6 भाई थे और उनकी एक ताड़िका जैसी माँ थी, सबके सब साले हरामखोर, पूरे मोहल्ले को डरा के रखा था. उस दिन पानी लेने इंद्रमनी जी उसके दरवाजे के सामने वाले नाल पर पहुँच गये और खाली देखकर अपनी बाल्टी वहाँ लगा दी, 

तभी उनमें से एक भाई आया और उनकी बाल्टी उठाके फेंक दी, जब उन्होने उससे कारण पुछा तो बस हो गया झगड़ा.

जब मे वहाँ पहुँचा तो क्या देखता हूँ कि वो साले 6 के 6 इंद्रमनी के चारों ओर चिपके हुए थे, वो दो-तीन हो तो टक्कर भी लें अब 6-6 को कैसे संभालते. 

उनका छोटा भाई तो उनकी ताड़िका माँ को ही संभालने में नाकाफ़ी था, वो पहाड़ जैसी उसके सामने खड़ी थी, और वो सिर्फ़ बाल्टी घुमाने के अलावा और कुछ नही कर पा रहा था बेचारा.
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