RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
“नीलू, मैं कैसे बताऊँ कि क्या हुआ! मैं तुमको बताना चाहता था, लेकिन मैं खुद ही श्योर नहीं था। इसलिए पहले नहीं बता सका। अगर रश्मि न मिलती तो तुम्हारे मन पर क्या बीतती? मैं तो अभी यह भी बताने की हालत में नहीं हूँ की रश्मि को ढूँढने के लिए मैंने क्या क्या पापड़ बेल दिए। यह तो बस भोलेनाथ की ही कृपा है कि वो मुझे मिल सकी। ... और... और कहाँ तक रश्मि के सोचने का सवाल है.. तो रश्मि के सोचने का क्या? मैं उसको सब कुछ सच सच बताऊंगा। जो सच्चाई है, वो उसे स्वीकारना ही होगा। उसको... रश्मि को तुम्हें इसी रूप में, इसी रिश्ते में स्वीकारना ही होगा..।“
“क्या स्वीकारना होगा, जानू?” रश्मि के ‘जानू’ कहने पर सुमन और मैं दोनों ही चौंक कर उसकी तरफ देखने लगे। न जाने क्यों, मुझे पुनः अपराध बोध हो गया।
“सब स्वीकार है.. फिलहाल आप दोनों यह चाय स्वीकार कीजिए। वहां मुरुक्कु रखे हुए थे, वो भी मैं ले आई। नीलू, आज डिनर के लिए क्या सोचा है?”
“वो दीदी..”
“रश्मि.. जानू..,” मैंने झिझकते हुए यह कहा, “अभी चाय पी लो, डिनर का देख लेंगे। ओके?”
हमने चुपचाप चाय पीनी शुरू करी। मुझे यह तो मालूम था कि सुमन और मेरी कहानी मुझे ही रश्मि को सुनानी पड़ेगी, लेकिन यह कितना कठिन होगा, यह मुझे नहीं मालूम था।
“जानू,” मैंने दुनिया भर की हिम्मत इकठ्ठा कर के बोलना शुरू किया, “आपको एक बात बतानी है.. बहुत ज़रूरी..”
“हाँ, बोलिए न! मैं भी तो मरी जा रही हूँ सब कुछ सुनने के लिए! कितना कुछ है सुनने के लिए! तीन साल यूँ ही उड़ गए! मुझे तो कुछ याद भी नहीं। अब आप दोनों को ही तो बताना है सब कुछ।“ रश्मि ने मुस्कुराते हुए कहा। “.. और इसकी शादी के बारे में भी.. किस से शादी कर ली?”
“तो ठीक है.. सबसे पहले सुमन की शादी से ही शुरू करते हैं..”
हिम्मत बटोरी, लेकिन फिर भी ठिठक नहीं गई। ऐसी बातें सहजता से कैसे कही जा सकती हैं।
“जानू... सुमन से... शादी... मेरा मतलब हैं, सुमन से मैंने शादी कर ली..”
रश्मि को लगा जैसे उसके पैरों तले की ज़मीन ही निकल गई हो। ‘शादी कर ली है..! यह कैसे मुमकिन है?’ रश्मि की शकल देख कर साफ़ दिख रहा था कि उसको यकीन ही नहीं हुआ है।
“शादी कर ली है..?”
मैंने हामी में सर हिलाया।
“सुमन से?”
मैंने फिर से सर हिलाया।
रश्मि ने अविश्वास के साथ सुमन की तरफ देखा। वो सर झुकाए, किसी मुजरिम की भांति बैठी हुई थी, और खामोशी के साथ आंसू टपका रही थी। आज सच में हम सभी का जीवन बदल गया था।
“क्या सच में? आप और सुमन?”
“हाँ जानू.. हम दोनों ने शादी कर ली.. लेकिन इस बात को पूरा समझने के लिए आपको सब कुछ बहुत पेशेंटली सुनना पड़ेगा..”
मुझे दिख रहा था कि मेरे इस खुलासे के बाद रश्मि बहुत ही व्यथित हो गई थी, लेकिन जितनी ही जल्दी यह सारी बात सामने आ जाय, उतना ही अच्छा था।
मैंने रश्मि को सब कुछ बताना शुरू किया – शुरू से – जब मैं त्रासदी के बाद, उनकी तलाश में उत्तराँचल गया था। मैंने बताया की कैसे दर दर भटकने के बाद एक दिन अनायास ही सुमन मिली। उसकी कैसी बुरी हालत थी। एकाध दिन और न मिलती, तो कभी न मिलती। सुमन से ही मुझे बाकी जानकारी मिली कि कैसे मम्मी, पापा और रश्मि तीनो ही नहीं रहे।
मैं सुमन को ले कर वापस आ तो गया, लेकिन जीने की सारी इच्छा अब समाप्त हो गई थी। यंत्रवत हो गया था। अब जीवन में न कोई उद्देश्य नहीं दिख रहा था, और न ही कोई औचित्य। आत्महत्या का भी ख़याल आया, लेकिन कायर की तरह मरने में क्या रखा था। इन सब के बीच में हर बात पर से ध्यान हटने लगा – न स्वास्थय पर नज़र, और न ही परिवार पर। सुमन घर पर थी, लेकिन फिर भी उससे न बराबर ही बात होती थी – उस पूरे समय तक मैं उसका पूरी तरह से प्रमाद करता रहा था। एक तरह से मन में यह ख़याल आता ही रहा कि रश्मि के स्थान पर वो क्यों न रही! सुमन का चेहरा मुझे उत्तराखंड की त्रासदी की ही याद दिलाती थी।
और फिर मेरा एक्सीडेंट हो गया। ऐसा एक्सीडेंट जिसने मुझे मृत्यु के मुहाने तक पहुंचा दिया। मैं बोल रहा था, लेकिन एक्सीडेंट की बात सुन कर रश्मि के दिलोदिमाग में एक झंझावात चलने लगा।
‘रूद्र का एक्सीडेंट! मेरे रूद्र का एक्सीडेंट!! हे भगवान्! यह क्या क्या हो गया मेरे पीछे!’
मैं बोल रहा था – मुझे नहीं मालूम की क्या क्या बीता नीलू पर, लेकिन जब अंततः मेरी चेतना वापस आई, तब मैंने उसको अपने बगल, अपने साथ पाया। डॉक्टर और नर्स सभी लोगों ने कहा की उन्होंने मेरे बचने की कोई उम्मीद ही बाकी नहीं रखी थी। लेकिन सुमन, जैसे सावित्री के समान ही मुझे यमराज के पाश से छुड़ा लाई। ये वही सुमन थी, जिसकी मैंने इतने समय तक उपेक्षा करी। ये वही सुमन थी, जिसको मैंने बात बात में दुत्कार दिया, ये वही सुमन थी जिसने मेरी हर कमी को मेरी हर उपेक्षा को नज़रंदाज़ कर के सिर्फ मेरा साथ दिया। सुमन ने जिस तरह से मुझे सहारा दिया, मेरी टूटी हुई ज़िन्दगी को वापस पटरी पर लाया, मेरे पास और कोई विकल्प ही नहीं था। मैं सच में तुम्हारा कोई विकल्प नहीं चाहता था – कभी भी नहीं। मेरा तो सब कुछ ही तुम्हारे साथ साथ ही चला गया था। मैंने तो एक अँधेरे में डूबता जा रहा था, और न जाने कब तक डूबता रहता, अगर सुमन ने आ कर मुझे सम्हाल न लिया होता।
ये जो तुम मुझे इस हाल में देख रही हो, वो मेरा पुनर्जन्म है, और उसका सारा श्रेय सिर्फ सुमन को जाता है। तुम्हारे बाद यदि मेरा कोई विकल्प हो सकता था – एक नेचुरल विकल्प, तो वो सिर्फ और सिर्फ सुमन ही हो सकती थी। यह कहते कहते मुझे फरहत की याद हो आई.. वो भी एक विकल्प थी। लेकिन नेचुरल नहीं!
“सच में?” रश्मि मंत्रमुग्ध सी हो कर बोली। उसने सुमन की तरफ देखते हुए बहुत मद्धम आवाज़ में कहा, "मेरी प्यारी नीलू... तू कब से इतनी सयानी हो गई?"
इतना कह कर वो उठ खड़ी हुई और हमारे (?) शयन कक्ष की ओर जाने लगी।
“मैं कुछ देर आराम करना चाहती हूँ.. और शायद सोचना भी.. आप लोग मुझे कुछ देर डिस्टर्ब मत करिए.. प्लीज!” उसने बिना किसी की भी तरफ देखे कहा और अन्दर चली गई। बस इतनी गनीमत थी कि उसने अन्दर से दरवाज़ा बंद नहीं किया।
सोने का तो सवाल ही नहीं था। बिस्तर पर पड़े पड़े रश्मि कुछ परिचित की तलाश कर रही थी। उसका शयन कक्ष बिलकुल बदल गया था। हाँ, वो कमरा, वो अलमारी, ये बिस्तर आदि तो वही थे, लेकिन इस समय कितने अलग से लग रहे थे। अपरिचित। बिलकुल अपरिचित। उसको ऐसा लग रहा था, कि जैसे किसी और के कमरे में लेटी हुई हो! अलमारी खोल कर अन्दर देखने की हिम्मत ही नहीं हुई – पति ही अपना नहीं रहा तो किस हक़ से किसी और की अलमारी खोले? किस हक़ से?
हाँ, किस हक़ से वो रूद्र और सुमन के बिस्तर पर लेटी हुई है? उसको समझ ही नहीं आ रहा था कि इस पूरे घटनाक्रम पर वो क्या प्रतिक्रिया दे! उसको लगा कि शायद उसको गुस्सा आएगा, लेकिन वो भी नहीं आ रहा था। रूद्र - उसका पति जिस पर उसे हमेशा ही गर्व रहा है। वह खुद को कितना सुहागिन मान कर इतराती रही है, गर्व से फूली हुई फिरती रही है। वह पति अब किसी और का है!
किसी और का? किसी और का कैसे है? सुमन तो भी अपनी है। उसकी खुद की बच्ची! खुद की बच्ची – हुँह! इतनी ही बच्ची रहती तो उसके पति पर डोरे डालती? उसके पति को ले उडती? अचानक ही रश्मि को इतना गुसा आया कि उसका मन हुआ कि उस डायन को अभी के अभी अपने पति के सामने झाड़ू से पीट डाले!
उसके मस्तिष्क में सुमन और रूद्र की छवि जाग गई – एक दूसरे से गुत्थम गुत्था! एक दूसरे से गुत्थम गुत्था और नग्न! पूर्ण नग्न! रूद्र सुमन के ऊपर चढ़े हुए! उसको उस छवि की कल्पना से उबकाई आ गई! शर्म नहीं आती... किसी और के साथ! फिर उसको एक दूसरा विचार आया। किसी और के साथ कहाँ? सुमन तो अब रूद्र की पत्नी है। उनकी विवाहिता! तो कल जो उसके साथ हुआ? कल रात क्या था? अब रश्मि तो उनकी विवाहिता नहीं रही! तो क्या था वह सब? रेप? ओह! नहीं नहीं! कल तो उसके खुद के आमंत्रण पर ही तो रूद्र ने उसको भोगा था! तो अब उसका और रूद्र का क्या रिश्ता है? और कैसे रश्मि उनकी विवाहिता नहीं है?
यह विचार आते ही रश्मि की कुछ व्यावहारिक बुद्धि जागी।
रूद्र ‘उसका पति’ कैसे है! वो तो सभी के अनुसार मर चुकी थी। व्यावहारिकता के हिसाब से मर चुकी है, विधि के हिसाब से मर चुकी है.. मर चुकी है, मतलब रूद्र भी उसके वैवाहिक बंधन से मुक्त हो चुके थे। और फिर सुमन ने उनको तब सम्हाला जब वो नितांत अकेले थे। वो भी तो नहीं थी। जब उनका एक्सीडेंट हुआ, तो वो कहाँ थी? उनको किसके भरोसे छोड़ गई थी? ऐसे में सुमन ने ही तो सम्हाला! उससे ज्यादा किया। कहीं ज्यादा! पता नहीं अगर वो खुद वहां होती, तो क्या कर पाती! डाक्टरों ने सुमन को सावित्री का रूप बताया – सावित्री का! सती सावित्री! सती – वो स्त्री, जो पूरी तरह पवित्र हो। सुमन पवित्र है। पूरी तरह। गन्दगी खुद उसके अपने दिमाग में है, जो ऐसी फूल जैसी, ऐसी गुड़िया जैसी बच्ची को तकलीफ देने की सोची भी। दोनों ही रीति रिवाजों के बंधनों में बंधे हुए पति-पत्नी हैं। उनके बारे में वो ऐसा बुरा सोच भी कैसे सकती है?
पल भर में ही उसका सारा क्रोध शांत हो गया। कितना कष्ट हुआ होगा उन दोनों को ही, जब खुद उसने उन दोनों का साथ छोड़ दिया। रूद्र पूरी तरह से उसके लिए ही सपर्पित थे; सुमन उनके लिए समर्पित है; और रूद्र भी सुमन के प्रति समर्पित हैं। उनका विवाह झूठा तो नहीं है। भले ही भाग्य ने दोनों को इतने दुःख दिए, लेकिन एक दूसरे के संग से दोनों सुखी हैं! मन का बंधन क्या टूटता है कभी?
किस तरह से, किस मुश्किल से दोनों ने एक दूसरे से शादी करने का निर्णय लिया होगा। कितना कठिन रहा होगा उन दोनों के लिए ही। आज वो जो अचानक ही उनके हँसते खेलते जीवन में आ गई, तो ये दोनों अब कैसे खुश रहेंगे? उसके रहने से कितनी पीड़ा होगी मन में उनके?
वो प्यारी सी बच्ची! कैसे उसने उसके ही सुहाग की रक्षा करी थी! और एक वह है कि उसको ही अभियुक्त बना कर अपने कुंठित न्यायलय के कठघरे में खड़ा करने चली थी! छि:! कितना ओछापन!
संयोग से ही सही, सुमन को रूद्र मिल गया। भले ही पहले रूद्र उसका पति था, लेकिन अब वह उस का नहीं, सुमन का पति है। सच तो यह है कि सुमन ने उसके इस छोटे से परिवार की रक्षा की, उसको सजाया, और सँवारा। और वह उस पर ही आक्रोश में भर कर इस सजे सजाए गृहस्थी में आग लगाने जा रही थी! कितना छोटा मन है उस का!
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