RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
रास्ते में सुमन के कई सारे कॉल आए – जैसे हर रोज़ उससे रोमांटिक बातें होती थीं, आज करना संभव नहीं था। जैसे तैसे उसको भरोसा और दिलासा दिला कर और बाद में बात करने का वायदा कर के शांत किया। लेकिन फिर भी उसके sms आते रहे। वो तो रश्मि गुमसुम सी बैठी थी, इसलिए यह सब सिलसिला चल गया। साला मैं तो बिना वजह ही चक्की की दोनों पाटिया के बीच बस फंस कर ही रह गया! कैसी किस्मत थी – दो दो बीवियाँ, और वो भी दोनों सगी बहने! ऊपर से दोनों को एक दूसरे के बारे में पता भी नहीं! वैसे यहाँ तक भी गनीमत थी... पिसना तो अभी बाकी है!
तो ऐसे गुमसुम हालात में मेरे से तो गाडी नहीं चलाई जा पाती। इसलिए ड्राईवर साथ होने से बहुत सहूलियत हो गई। हमारे पास वैसे भी कोई सामान नहीं था। मेरे पास बस दो जोड़ी कपडे थे, और रश्मि के पास कुछ भी नहीं – जो उसने पहना हुआ था, बस वही था। मैंने दिमाग में नोट कर लिया की उसके लिए दिल्ली में कपड़े खरीदने हैं। बहुत देर की चुप्पी के बाद मैंने ड्राईवर को गाड़ी में लगे संगीत तंत्र को चलाने को कहा – कम से कम हम दोनों लोग अपनी अपनी चिंता के दायरे से बाहर निकालेंगे! मुझे तो लगा की बस कोई एक घंटा चले थे, लेकिन जब मैंने बाहर ध्यान दिया, तो घुप अँधेरा हो गया था, और अब मेरे हिसाब से गाड़ी चलाना बहुत सुरक्षित नहीं था।
“भाई, आगे कोई होटल या धर्मशाला आये, तो रोक लेना!”, मैंने ड्राईवर से कहा, “अब अँधेरा बढ़ गया है, और ऐसे में गाड़ी चलाना ठीक नहीं। आज रात वहीँ रुक जायेंगे, और कल आगे का सफ़र करेंगे। क्यों, ठीक है न?“
“बिलकुल ठीक है साहब! मैं भी यही कहने वाला था.. जैसे ही कोई सही होटल दिखेगा मैं वैसे ही रोक लूँगा। रात में ड्राइव करते रहने का कोई इरादा नहीं है मेरा।“
ऐसे ही बात करते हुए मुझे एक बंगलेनुमा होटल दिखा। मुझे अचानक ही पुरानी बातें याद हो आईं – शादी के बाद जब मैं रश्मि को विदा कर के ला रहा था तो हम इसी होटल में रुके थे। मैंने ड्राईवर को उसी होटल के प्रांगण में पार्क करने को कहा, और उसको कहा की आज हम यहीं पर रुकेंगे।
जैसा की मैंने पहले भी लिखा है, यह एक विक्टोरियन शैली में बनाया गया बंगला था, जिसमें चार बड़े बड़े हाल नुमा कमरे थे। हर कमरे ही छतें ऊंची-ऊंची थीं, जिनको लकड़ी की मोटी मोटी शहतीरें सम्हाले हुई थी। बिस्तर पहले के ही जैसे साफ़ सुथरे थे। किस्मत की बात थी, एक कमरा खाली मिल गया हम लोगों को। होटल के सभी कमरों में मेहमान थे, लेकिन फिर भी वहां का माहौल बहुत शांत था। ड्राईवर को खाने के लिए पैसे दे कर रश्मि और मैं अपने कमरे में आ गए। पहले की ही भांति मैंने वहां के परिचारक को कुछ रुपये दिए और गरमा-गरम खाना बाहर से लाने को कह ही रहा था की रश्मि ने माना कर दिया – उसने कहा की हम दोनों बाहर ही चले जायेंगे।
खैर, मेरे लिए तो यह भी ठीक था। सामान तो कुछ खास था नहीं, इसलिए हम दोनों बाहर चले आये। दुकाने ज्यादातर बंद हो रही थीं, लेकिन एक दो दुकाने, जो लगभग सभी प्रकार की वस्तुएं बेच रही थीं, अभी भी खुली थीं। वहां जा कर रश्मि के लिए हमने एक और जोड़ी शलवार कुर्ता खरीदा, और फिर खाने के लिए चल दिए। छोटी जगह पर कोई खासमखास इंतजाम तो रहता नहीं, लेकिन फिर भी उस छोटे से ढाबे में दाल तड़का, आलू की सब्जी और रोटियाँ खा कर अपार तृप्ति का अनुभव हुआ। खाने के बाद हम लोग तुरंत ही होटल में नहीं गए – रश्मि के कहने पर वहां की मुख्य सड़क से अलग हट कर नीचे की तरफ जाने वाली सड़क की और चल दिए। उसने ही मुझे बताया की अलकनंदा नदी यहाँ से बहती है।
मैंने कोई प्रतिरोध नहीं किया – इतनी देर के बाद रश्मि ने वापस कुछ कहना बोलना शुरू किया था – मेरे लिए वही बहुत था। बात उसी ने शुरू करी,
“आप अपना ख़याल नहीं रखते न?”
अब मैं उसको क्या बताता! उसके जाने के बाद मुझ पर क्या क्या बीती है, यह तो मैं ही जानता हूँ। और, वह सब बातें मैं रश्मि को कैसे कह दूं?
“कैसे रखता? आपकी आदत जो है..” यह वाक्य बोलते बोलते गले में फाँस सी हो गयी।
“मेरे कारण..” वो कुछ और कहती की मैंने उसको बीच में टोक दिया,
“जानू.. किसी के कारण कुछ भी नहीं हुआ.. जो हुआ, वो हुआ.. इसमें न किसी की गलती है, और न ही किसी का जोर! वो कहते हैं न.. आगे की सुध ले.. तो हम लोग भी आगे की ही सुध लेते हैं.. भगवान को जो करना था, वो कर दिया.. ज़रूर कुछ सिखाना चाहते थे, जिसके लिए यह सब हुआ!”
रश्मि कुछ देर चुप रही।
हम लोग टहलते हुए जल्दी ही नदी के किनारे पहुँच गए। अलकनंदा अपनी मंथर गति से बहती जा रही थी। नदी की कर्णप्रिय ध्वनि से आत्मा तक को आराम मिल रहा था। हम लोग चुपचाप उस आवाज़ का देर तक आनंद लेते रहे... चुप्पी रश्मि ने ही तोड़ी,
“पिछली बार जब हम यहाँ आये थे, तो मेरा मन हुआ था कि आपको यहाँ लाया जाए...”
“हम्म... तो फिर लाई क्यों नहीं?”
“आपको ठंडी लग जाती न... इसलिए..” रश्मि मुस्कुराई।
ओह प्रभु! इस एक मुस्कान के लिए मैं अपना जीवन कुर्बान कर सकता हूँ! कितने सारे कष्ट सहे हैं बेचारी ने! हे मेरे प्रभु – प्लीज.. अब यह मुस्कान मेरी रश्मि से कभी मत छीनना!
“अच्छा जी! आपको नहीं लगती?”
“नहीं! बिलकुल भी नहीं.. मैं तो पहाड़ों की बेटी हूँ.. याद है?” रश्मि की मुस्कान बढती जा रही थी!
“हाँ! याद है... इन्ही पहाड़ों ने मेरा दिल और दिमाग दोनों ले लिया!”
“हैं! तो मुझे क्या मिला?”
“... और आपको दे दिया..”
“हा हा! बातें बनाना कोई आपसे सीखे!”
हम दोनों अब तक नदी के किनारे एक बड़े से पत्थर पर बैठ कर अपनी टाँगों को पानी में डाले हुए सौम्य मालिश का आनंद उठा रहे थे।
“आपने बताया नहीं की आप यहाँ इतनी जल्दी कैसे आ गए?”
“रश्मि – भगवान् के खेल तो बस भगवान् ही जानता है! बस यह कह लो की हमको मिलना था वापस, इसीलिए भगवान् ने कोई युक्ति लगा कर मिला दिया... सोचने समझने जैसी बात ही नहीं है.. कोई और मुझे यह कहानी सुनाता तो मैं कहता की फेंक रहा है.. लेकिन, अब जब यह खुद मेरे साथ हुआ है, तो और कुछ भी नहीं कह सकता! अभी कोई सप्ताह भर पहले की बात है – मैं घर पर बैठा टीवी देख रहा था। वहां नेशनल जियोग्राफिक में उत्तराँचल त्रासदी के ऊपर कोई डाक्यूमेंट्री चल रही थी। उसी में मैंने झलक भर आपको देखा।“
उसके बाद मैंने रश्मि को सब कुछ सिलसिलेवार तरीके से बता दिया। वो मंत्रमुग्ध सी मेरी बात सुनती रही।
“समझ ही नहीं आया की आँखों का देखा मानूं या दिल का कहा सुनूं, या फिर दिमाग पर भरोसा करूँ! मैंने तो इस बार बस भगवान् पर भरोसा कर के यह सब कुछ किया.. और देखो.. यहाँ तक आ गया..”
सारी बात पूरी करते करते मेरी आँखों से आंसूं गिर गए। रश्मि ने कुछ कहा नहीं – बस मेरी बाँह को पकड़ कर मुझसे कस कर चिपक गई।
“अब तुम मुझे छोड़ कर कहीं मत जाना..” बहुत देर के बाद मैंने बहुत ही मुश्किल से अपने दिल की बात रश्मि को कह दी, “चाहे कुछ हो जाय..”
“नहीं जाऊंगी जानू.. कहीं नहीं! आपको छोड़ कर मैं कहीं नहीं जाऊंगी!”
कह कर रश्मि मुझसे लिपट गई, और हम दोनों एक दूसरे के आलिंगन में बंधे भाव-विभोर हो कर रोने लगे। कुछ देर बाद जब हम दोनों आलिंगन से अलग हुए तो रश्मि ने कहा,
“अब मैं रोऊंगी भी नहीं.. आप मुझे मिल गए.. अब क्या रोना?”
मैंने भी अपने आंसू पोंछे, और कहा, “सही है.. अब क्यों रोना! .... चलें वापस?”
रश्मि ने उत्तर में मुझे नज़र भर कर देखा, और हलके से मुस्कुराई,
“जानू..” उसने पुकारा।
रश्मि की आवाज़ में ऐसा कुछ था जिसने मेरे अन्दर के प्रेमी को अचानक ही जगा दिया। मैं इतनी देर से उसके अभिवावक, और रक्षक का रोल अदा कर रहा था। लेकिन रश्मि की उस एक पुकार ने ही मेरे अन्दर के प्रेमी को भी जगा दिया।
“हाँ?”
“आपको शकुंतला और दुष्यंत की कहानी मालूम है?”
“हाँ..” क्या कहना चाहती है!
“आप मेरे दुष्यंत हो?”
“हाँ.. अगर आप मेरी शकुंतला हो!”
“मैं तो आप जो कहें वो सब कुछ हूँ..”
“लेकिन, मैं तो नहीं भूला .. भूली तो आप..”
रश्मि मुस्कुराई, “वो भी ठीक है.. चलो, मैं ही दुष्यंत.. हा हा!”
“हा हा..”
“आप भी तो भूल गए होंगे..!”
“नहीं.. मैं कै..” मेरे पूरा कहने से पहले ही रश्मि ने अपना कुरता उतार दिया।
“आप नहीं भूले?” वो मुस्कुराते हुए अपनी ब्रा का हुक खोल रही थी।
रश्मि से मैंने इतने दुस्साहस की उम्मीद नहीं करी थी। एकदम नया था यह मेरे लिए। और आश्चर्यजनक भी। सुखद आश्चर्यजनक!
“ह्म्म्म.. अंगूठी किधर है?” मैंने भी ठिठोली करी।
“अंगूठी? हा हा.. आप फिलहाल तो इन अंगूरों से याददाश्त वापस लाइए.. अंगूठी आती रहेगी..” वो मुस्कुराई।
“बस अंगूर ही मिलेंगे?”
“नहीं जानू.. शहद भी...”
तब तक मेरा लिंग तन कर पूरी तरह तैयार हो चला था। शलवार का नाडा रश्मि खोल ही चुकी थी, तो उसको उतारने का उपक्रम मैंने कर दिया। साथ ही साथ उसकी चड्ढी भी उतर गयी।
“इन अंगूरों में रस कब आएगा?”
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