RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
भगवान् ने एक और सद्बुद्धि दी – और वह यह की मैंने कभी भी सुमन की रश्मि से तुलना नहीं करी.. और करने की सोची भी नहीं। दोनों ही लडकियाँ अप्रतिम और अनोखी थीं। दोनों ही मेरी पत्नियाँ थीं, और दोनों से ही मुझे अत्यंत प्रेम था। जहाँ रश्मि ने मेरे यंत्रवत जीवन में अपने प्रेम की फुहार सिंचित कर उसमें बहार ला दी थी, उसी प्रकार सुमन ने मेरे मृतप्राय शरीर में पहले तो प्राण फूंके, और फिर अपने प्रेम के रस से सींच कर जैसे मुझे संजीवनी दे दी थी। एक आदमी को भला जीवन से और क्या प्रत्याशा हो सकती है?
“बत्तीस नंबर के पेशेंट को होश आ गया है..”, सरकारी अस्पताल की नर्स सुषमा हर्ष-पूरित उत्तेजना में भागते भागते बाहर आई और लगभग चीखते हुए यह उद्घोषणा करने लगी।
“जल्दी से डॉक्टर संजीव को बुलाओ.. हे प्रभु! कैसे कैसे निराले खेल! मैंने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी..” वह रिसेप्शन पर निठल्ले से खड़े दोनों वार्ड-बॉयज को कह रही थी। उन दोनों ने उसकी बात पर ऐसे मुँह बनाया जैसे उनको किसी ने रेंडी का तेल पिला दिया हो, लेकिन सुषमा ने जब आँखे तरेरी, तो दोनों ही भाग कर डॉक्टर संजीव को बुलाने निकल लिए। किसी की मजाल नहीं थी की नर्स सुषमा की बात न माने।
कोई पंद्रह मिनट बाद डॉक्टर संजीव, बतीस नंबर की पेशेंट की जांच कर रहे थे। नब्ज़ और आँखें इत्यादि देखते हुए वो मरीज़ से पूछते जा रहे थे,
“बहुत बढ़िया! कैसा लग रहा है आपको? कहीं दर्द तो नहीं?”
“मैं कहाँ हूँ?” मरीज़ ने पूछा।
“ओह! सॉरी! मैंने तो बताया ही नहीं – आप गौचर के सरकारी अस्पताल में हैं! मैं डॉक्टर संजीव हूँ.. और ये हैं नर्स सुषमा! इन्होने ही आपकी दिन रात देखभाल करी है।“
“क्या डॉक्टर साहब.. आप भी..”
“अस्पताल में? क्यों?”
“आपको सब बताएँगे.. लेकिन, आप पहले यह बतोये की आपका नाम क्या है?”
“नाम? मेरा नाम.. क्या? मेरा नाम क्या है?” मरीज़ को कुछ समझ नहीं आ रहा था।
“कोई बात नहीं.. कोई बात नहीं.. आराम से!” कहते हुए डॉक्टर ने अपने नोट पैड में कुछ लिख लिया, और फिर सुषमा से कहा, “इनके वाइटल स्टैट्स सब ठीक हैं.. लेकिन, इतने महीने कोमा में रहने के कारण लगता है याददाश्त सप्रेस हो गयी है। कोई बात नहीं.. तीन दिन ऑब्जरवेशन पर रखते हैं – अगर हालत ठीक रही तो पेशेंट को रिलीव कर दे सकते हैं.. मेमोरी गेन में टाइम लग सकता है और उसके लिए हॉस्पिटल में रहने की ज़रुरत नहीं! इनके घर इत्तला कर दी?”
“अभी नहीं डॉक्टर! अभी करती हूँ!”
“देखिए,” संजीव ने मरीज़ को कहा, “आप घबराइये नहीं.. आप महीनो के बाद होश में आईं हैं, इसलिए शायद आपको अभी कुछ ख़ास याद नहीं है। लेकिन, जल्दी ही आपको सब याद आ जायेगा। इस बीच नर्स सुषमा आपका पूरा ख़याल रखेंगी।“
कह कर डॉक्टर ने मरीज़ के सर पर प्यार से हाथ फिराया और फिर कुछ और ख़ास निर्देश दे कर वहां से विदा ली।
“हाँ! कुंदन जी... मैं सुषमा बोल रही हूँ... नर्स सुषमा!” टेलीफोन पर सुषमा कह रही थी,
“हाँ हाँ.. अस्पताल से.. आपके लिए खुश खबरी है.. हाँ! आपकी पत्नी को होश आ गया है.. हाँ हाँ! ... आप बिलकुल आ सकते हैं देखने उसको! क्या नाम बताया था आपने उसका? ... अंजू? हाँ? ओके! उनको एक्चुअली फिलहाल याद नहीं आ रहा है! कोमा का असर लगता है.. आप आ जाइए, फिर आराम से बात कर लेंगे.. ओके .. ओके!”
कुंदन कोई बीस इक्कीस साल का गढ़वाली युवक था। उसकी इलेक्ट्रॉनिक्स रिपेयर की दूकान थी – दूकान क्या थी, बस महीने का खर्च निकल जाता था। पोलिटेकनिक की पढाई करते ही उसने अपना खेत बेच दिया, और यह काम करने लगा। माँ बाप उसके थे नहीं, इसलिए किसी ने रोका भी नहीं! मौज से कट रही थी। लेकिन आमदनी अधिक तो नहीं थी। रहने सहने का काम हो जाता था। बाकी लोगों की तरह उसको भी यह मन होने लगा था कि तनहा रातों में वो अकेला न सोये! यूँ ही अकेले, ठन्डे बिस्तर में पड़े रहने से अच्छा था की कोई एक गरम शरीर उसके बगल में हो, जिसके संग वो साहचर्य कर सके! ऐसे ही नाहक अपने वीर्य को वो कब तक नाली में बहाता रहेगा?
महीनो पहले वो केदारनाथ जी के दर्शनों के लिए गया था यह मन्नत मांगने की उसको एक सुन्दर सी पत्नी मिल जाय। पत्नी वत्नी का तो पता नहीं, लेकिन वो उस प्राकृतिक आपदा की चपेट में आ गया। जैसे तैसे वो जान बचा कर भागा। चोटें बहुत सी आईं, लेकिन फिर भी वो न जाने कैसे पहाड़ों की तरफ ऊपर की ओर पहुँच गया। रस्ते में उसने न जाने कितने ही अभागों के शवों को देखा। हर शव उसको यही याद दिलाता की अंत में उसकी भी यही दशा होने वाली थी, लेकिन फिर भी उसने हिम्मत न हारी।
एक शाम को उसने एक लड़की को वहीँ पहाड़ों पर पड़े देखा – वो लगभग मरणासन्न थी। उसके आस पास सियार मंडरा रहे थे, की कब वो मरे, और कब उनका भोजन बने। अचानक ही कुंदन को लगा की उसकी आस पूरी होने वाली है। उसने उस लड़की को जंगली जानवरों की दृष्टि से बचाया, और जैसे कैसे भी उसको वापस जीवन की तरफ लाया। लेकिन लड़की की हालत बहुत खराब थी। होश तो कब का खो चुकी थी। इस घटना के कोई दो दिन बाद भारतीय सेना ने उन दोनों को बचाया और अस्पताल में भरती किया।
कोई और उस लड़की पर हाथ साफ़ न कर ले, उसके लिए कुंदन ने उसको अपनी पत्नी ‘अंजू’ के नाम से भरती किया था। कम से कम वह देह व्यापार करने वालो की कुदृष्टि से तो बची रहेगी। उसको तो अस्पताल से हफ्ते भर में छुट्टी मिल गयी, लेकिन अंजू को होश नहीं आया। इस बीच उसको पता चला की वो बाप बनने वाला था।
‘साला! कैसी किस्मत! लड़की मिली भी तो पेट से!’ उसने सोचा।
लेकिन फिर उसको यह सुन कर राहत हुई की वो बच्चा उस प्राकृतिक आपदा का शिकार बन गया था। यह सुन कर उसको सच में दुःख हुआ। लेकिन यह तसल्ली भी हुई, की शायद अंजू का पति मर गया हो, और अब यह सुन्दर सी, अप्सरा सी दिखने वाली लड़की उसकी बन सके। लेकिन यह तसल्ली बहुत दिन न रही – अंजू जैसे होश में आने का नाम ही नहीं ले रही थी। महीनो बीत गए। कुंदन की उम्मीद तो कब की छूट गयी थी। माँ बाप नहीं थे, तो किसी को क्या पड़ी थी की उसके लिए लड़की ढूंढता? ऐसा नहीं था की कुंदन की माली हालत में कोई बहुत ज्यादा खराबी थी – उसका गुजरा हो जाता था, उसको कोई बुरी आदत नहीं थी.. लेकिन उसके कसबे में एक बात प्रसिद्द थी – वो बाद बेबुनियाद भी हो सकती है – और वो यह की कुंदन ‘उतना मर्द’ नहीं था। उसको अपने बारे में यह बात सुनने में आती रहती थी। उसको गुस्सा भी आता था, लेकिन बेचारा क्या करता? बस, खून के घूँट पी कर रह जाता।
इस अफवाह के कारण कई सारे सम्बन्धी नहीं चाहते थे की उनकी लड़की का रिश्ता कुंदन से हो जाय। कौन माँ बाप चाहेंगे की उनकी लड़की वैवाहिक सुख से वंचित रहे? किसी को न मालूम होता तो कोई बात नहीं, लेकिन जान बूझ कर कोई मक्खी तो नहीं निगलेगा न! अंजू उसके लिए एक आखिरी आस थी, लेकिन उसको भी होश नहीं आ रहा था। लेकिन आज जब अचानक ही नर्स सुषमा का फ़ोन आया, तो कुंदन की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं रहा! निश्चित सी बात है, अंजू का कोई भी रिश्तेदार जीवित नहीं है.. होता तो अब तक कोई इश्तेहार न दे देता? ढूँढने न आता भला? कुंदन के अकेलेपन के दिन बस समाप्त होने ही वाले थे।
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आज ऑफिस जाने का मन नहीं हुआ, इसलिए सवेरे ही बहाना बना कर घर में रुकने का प्लान कर लिया। लेकिन, सुमन को कॉलेज जाना ही था – उसका कोई बहुत ज़रूरी लेक्चर था, जिसको वो बिलकुल भी मिस नहीं कर सकती थी। खैर, मैंने ठान ही ली थी, की आज घर में बैठूँगा, और सुमन के लिए कुछ अच्छा सा पका कर उसको दोपहर बाद सरप्राइज दूंगा।
खैर, दोपहर के निकट मैं टीवी लगाए चैनल इधर उधर कर रहा था। टीवी देखने की आदत नहीं थी, लेकिन समय काटने के लिए कुछ तो करना ही था। सैकड़ों चैनल तीन चार बार इधर उधर करने के बाद नेशनल जियोग्राफिक चैनल पर रोक दिया – रोक क्या दिया, मेरी उंगलियाँ स्वतः रुक गईं। सामने टीवी स्क्रीन पर उत्तराखंड त्रासदी की एक डाक्यूमेंट्री चल रही थी। वो त्रासदी मेरे जीवन का सबसे बड़ा घाव थी – मेरे हाथ खुद ही रुक गए, और मैं देखने लगा। दिमाग कहीं और ही मंडरा रहा था। डाक्यूमेंट्री में क्या कहा जा रहा था, मुझे सुनाई नहीं दे रहा था – मेरा मष्तिष्क स्वयं ही सामने के चित्रों में कभी तो अथाह जलराशि की गड़गड़ जैसी आवाज़ भरता जा रहा था, तो कभी चोटिल व्यक्तियों की कराह की आवाज़! मन में तो हुआ की टीवी बंद कर दूं – लेकिन वो कहते हैं न, आदमी को अपने दुस्वप्नों से दो-चार होना चाहिए। और कुछ न हो, कम से कम तसल्ली तो मिल ही जाती है।
मैं टीवी बंद नहीं कर सका। बस – चित्र देखता गया। अचानक ही एक ऐसा चित्र आँखों के सामने आया जिसने मेरे ह्रदय की धड़कन कुछ क्षणों के लिए रोक दी। डाक्यूमेंट्री में एक अस्पताल का दृश्य दिखा रहे थे, जिसमे त्रासदी के शिकार लोग भरती किये गए थे। कैमरामैन ने अस्पताल के बड़े से हाल में अपना कैमरा एक कोने से दूसरे कोने तक चलाया था, लेकिन मुझे जो दिखा वो अत्यंत ही अकल्पनीय था।
उस अस्पताल के एक बिस्तर पर रश्मि थी!!
कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा। दृश्य में रश्मि लगभग निर्जीव सी बिस्तर पर लेटी हुई थी, नहीं – बैठी हुई थी। उसको एक नर्स ने पीछे से सहारा दिया हुआ, और सामने से एक और नर्स उसका कुछ तो मुआयना कर रही थी। एक क्षणिक दृश्य, एक झलक भर.. लेकिन मेरे दिलोदिमाग पर एक अमिट छाप लगाता हुआ! एकदम से रोमांच हो गया – शरीर से सारे रोंगटे खड़े हो गए। उत्तेजना में मेरी साँसे तेज हो गईं।
‘क्या सचमुच रश्मि जीवित है? हे प्रभु! काश, ऐसा ही हो!’
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