Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
12-17-2018, 02:21 AM,
#83
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
सोमवार सवेरे ही रूद्र की कार दुर्घटना की खबर आई। मुझ पर तो मानो वज्रपात हुआ। खबर सुनते ही मुझे चक्कर आ गया, और मैं जहाँ खड़ी थी, वही गिर गई।

“रूद्र प्रताप सिंह को जानती हैं?” फ़ोन के उस तरफ से दो टूक सवाल किया गया।

“...जी हाँ!”

“आप?”

“जी मैं उनकी.. रिलेटिव हूँ” मैंने हिचकिचाते ही कहा, “... क्यों?”

“ओके.. उनका एक्सीडेंट हुआ है मैडम...” उधर से उत्तर सुन कर मेरा मन जोर जोर से धड़कने लगा। सोचने लगी की कहीं रूद्र को कुछ हो तो नहीं गया...। 

“आप प्लीज ठीक ठीक बताइए...”

"... आप जल्दी से अपोलो हॉस्पिटल आ जाइए..” उधर फिर से दो टूक आवाज़ आई। 

“आप बताएँगे तो?”

“कहा न...” 

“हाँ... वो मेरे रिलेटिव हैं..। सब ठीक तो है।“ मैंने घबराते हुए पूछा।

“खबर ठीक नहीं है।“

“...क्या मतलब...?”

“वैसे हम उनका ऑपरेशन कर रहे हैं.. लेकिन...”

“लेकिन क्या...?” 

“बचने की कोई उम्मीद नहीं है। खून बहुत निकल चुका है.. और.. और देर भी काफी हो गयी है..।“

इतना सुनना था की मैं बेहोश होकर वही फ़र्श पर ढेर हो गई। सहेलियों ने मेरे चेहरे पर पानी के छींटे दे देकर मुझे होश में लाया। और, थोड़ा होश आने पर मेरे साथ हॉस्पिटल पहुंचे। करने को वहाँ क्या था? बस, अनगिनत कागजों पर दस्तखत करने थे। वैसे भी इंश्योरेंस रूद्र के इलाज का पूरा खर्चा उठा ही रहा था। उनके ऑफिस से कई सारे लोग आ कर मिल चुके हैं.. कोई आश्वासन देता, कोई हिम्मत बढ़ाता, कोई सलाह देता, तो कोई मदद! 

लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आता, कुछ सुनाई नहीं देता, कुछ दिखाई नहीं देता। बार बार आँखों के सामने कुछ ही दिनों पहले हुए आतंक के चित्र खिंच जाते। मैं वापस वैसे परिस्थितियां झेलने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थी। इतने बड़े संसार में ऐसे नितांत अकेली रहना...!! बस मन में एक ख़याल रहता की भगवान्, इनको ठीक कर दो.. जल्दी! न अन्न का दाना खाया जाता, न ही जल की एक बूँद पी जाती! लेकिन जीने के लिए करना पड़ता है.. जैसे तैसे अन्न जल को अपने उदर के अन्दर धकेल कर वापस ICU के सामने बैठ जाती, की न जाने कब इनको होश आ जाए! 

‘बचना मुश्किल है..’

‘खून बहुत बह चुका..’

‘बहुत देर से हॉस्पिटल लाये जा पाए..’

‘दुआ करो की बच जाएँ..’

‘अगले बहत्तर घंटे में कुछ सुधार हो तो कुछ गुंजाईश है..’

‘कमाल है.. बस होश आ जाय..’

‘जैसा सोचा था, उतना बुरा नहीं है..’

‘बच जायेंगे अब..’

‘बस, जल्दी से होश आ जाय..’

एक.. दो.. तीन.. ऐसे कर के पूरे अट्ठारह दिन बीत गए! न जाने इस प्रकार के कितने बयान सुने! डॉक्टर भी क्या करे! वो कोई भगवान् या अन्तर्यामी थोड़े ही होते हैं.. और फिर अंततः..

“.. यहाँ नर्सें कह रही हैं की वो आपको वापस ले आईं.. जैसे सावित्री ले आईं थीं सत्यवान को! हो सकता हो की यह सच भी हो!”

सुन कर मेरी आँखों से आंसू ढलक गए! ऐसे क्यों कह रहे हैं डॉक्टर? मैं इनकी पत्नी हूँ नहीं.. लेकिन... लेकिन... ओह!

“आप भले मेरी बात को मज़ाक मानिए, लेकिन मैंने यह सब कहना अपना फ़र्ज़ समझा.. आगे इनका खूब ख़याल रखिएगा.. यू शुडन्ट भी अलाइव!”

“डॉक्टर.. एक मिनट..” मैंने कहा, “मैं इनकी पत्नी नहीं.. साली हूँ....”

“ओह! आई ऍम सॉरी! मुझे लगा की आप इनकी बीवी हैं.. ऐसी चिंता, ऐसी सेवा तो आज कल बीवियां भी नहीं करतीं।”

“इट इस ओके!”

“नीलू?” उन्होंने पुकारा! उनकी आँखों में आंसू थे।

“जी?” मेरे दिल ने राहत की सांस ली.. मैंने उनका हाथ पकड़ लिया।

“थैंक यू!”

दिल के सारे बाँध टूट गए.. मैं उनके हाथ को अपने दोनों हाथों में थाम कर अपने आंसुओं से भिगोने लगी। 
‘हे भगवान्! आपका लाख लाख शुक्र है!’

अगले सप्ताह मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। हादसे की गंभीरता के विपरीत, मेरे शरीर में टूटी हुई हड्डियों की संख्या काफी कम थी – बस हाथ, पैर और पसलियों में कुछ टूट फूट हुई थी। इस दुर्घटना ने मानसिक और भावनात्मक तौर पर कितनी चोट पहुंचाई थी, वो तो समय के सतह ही मालूम होना था। लेकिन, हाल फिलहाल, सभी का (और मेरा भी) उद्देश्य मुझे वापस अपनी पहले वाली शारीरिक दशा तक लाना था। अस्पताल में पड़े रहने से कोई लाभ नहीं था – वहाँ जितना स्वास्थ्य लाभ उठाना था, वो तो हो गया था। इसलिए अब घर में ही रहने का आदेश हुआ था। एक बड़ी समस्या यह थी की मेरी देखभाल कौन करेगा – ऐसी ऐसी जगहों पर हड्डियाँ टूटी थीं, की मैं खुद से तो अपनी देखभाल तो क्या, ठीक से उठ या चल फिर नहीं सकता था। सुमन ने तुरंत ही मेरी देखभाल करने के लिए आग्रह किया, लेकिन मैंने ही मना कर दिया। उसकी पढाई लिखाई का हर्जा कर के मुझे कोई ख़ुशी नहीं मिलने वाली थी। और वैसे भी मुझे एक ऐसी नर्स चाहिए थी तो मेरे साथ अगर सारे चौबीस घंटे नहीं तो उसके ज्यादातर समय तक तो रहे ही।

खैर, मेरे डिस्चार्ज के ठीक एक दिन पहले एक ऐसी नर्स मिल गई, और जैसे ही वो मिली, मुझे डिस्चार्ज होने का सुख भी मिल गया (अस्पताल की गंध से मुझे उबकाई आती है... तो मात्र वहाँ से छुटकारा पाने के ख़याल से ही सुख होने लगता)। घर पहुँचने के लगभग साथ साथ ही एक नर्स ने दरवाजे पर दस्तखत दी। उसके साथ कुछ देर सुमन ने वार्तालाप किया, और फिर वो मेरे कमरे में अन्दर आई। मैंने देखा की वो बिलकुल साफ़-सुथरी बेदाग़ सफ़ेद पोशाक पहने एक लड़की थी – उसकी आँखों में हल्का सा काजल लगा हुआ था, और उसने अपने बाल पोनीटेल जैसे बाँधा हुआ था। नर्स शब्द सोच कर लगता है की कोई प्रौढ़ उम्र की एक कन्टाली महिला होगी.. लेकिन यह सबसे पहले तो एक लड़की थी.. बस कोई चौबीस-पच्चीस साल की.. और.. और उसका चेहरा एकदम खिला खिला सा था। मुस्कुराता हुआ। उतनी ही मुस्कुराती हुई और चमकदार आँखें! 

“हेल्लो मिस्टर सिंह!” उसने प्रफुल्ल आवाज़ में कहा, “हाउ आर यू फीलिंग टुडे?” 

और मेरे उत्तर देने से पहले, “ओह.. बाई दि वे.. आई ऍम योर नर्स, फरहत!”

“हेल्लो फरहत! थैंक यू फॉर अक्सेप्टिंग टू टेक केयर ऑफ़ मी!”

अगले कुछ देर तक उसने मुझे और सुमन को अपना अपॉइंटमेंट लैटर पढाया, मेरी दवाइयों और उनको लेने की समय सारिणी, व्यायाम और अन्य आवश्यकताओं के बारे में विस्तार से बताया। ज्यादातर बातें तो ठीक थी, लेकिन जब उसने यह भी बताया की उसकी ड्यूटी में रोज़ मेरे कपड़े बदलना, नहलाना और बाथरूम में मदद करना भी शामिल रहेगा तो मुझे कुछ घबराहट और कोफ़्त सी महसूस हुई। 

एक तो वो एक लड़की थी, और ऊपर से मुसलमान। अब यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं की मुस्लिम समुदाय कितना दकियानूसी होता है, ख़ासतौर पर अपनी महिलाओं को लेकर। उन पर इतनी सारी बंदिशें होती हैं की गिनना मुश्किल है। 

“फरहत, टेल मी अबाउट योर फॅमिली!” मैंने कहा। इतनी देर तक अंग्रेजी में ही बातें हो रही थीं.. मुझे लगा की औपचारिक रहना ठीक है..

“मैं, और मेरे अब्बू.. बस, हम दो ही जने हैं!”

“अरे वाह! आपको तो हिन्दी बोलनी भी आती है? और.. आपके बोलने से लग रहा है की आप उत्तर भारत की हैं..?”

“आपको कैसे पता? दरअसल, मेरे अब्बू लखनऊ से हैं! वो यहाँ बैंगलोर में कोई पैंतीस साल पहले आये थे.. काम के लिए। वो रिटायर हो गए हैं.. शॉप-फ्लोर पर एक एक्सीडेंट में उनका हाथ कट गया था। तब से वो रिटायर हो गए हैं। घर चलाने और उनकी दवाइयों के खर्च के लिए पेंशन पूरा नहीं पड़ता न.. इसलिए मैं भी काम करती हूँ।“ 

बिना कहे ही उसको जैसे मेरी मन की बात समझ में आ गयी। इतना तो मुझे समझ में आ गया की इस लड़की से आराम से बात चीत की जा सकती है। यह एहसास अपने आप में बहुत सुखद था.. इतने दिन गहरे मानसिक अवसाद में गुजारने, और फिर एक प्राणघातक दुर्घटना झेलने के बाद मुझमें वापस जीवन जीने की इच्छा प्रबल हो गयी थी। 

खैर, फरहत को कुछ और कुरेदने पर उसने बताया की वैसे तो नर्स बनने, या फिर किसी तरह का करियर बनाने की उसने कभी सोची ही नहीं थी। निम्न-मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार से सम्बद्ध होने के कारण उसकी नियति उसको मालूम थी। जैसे तैसे तो उसने इंटरमीडिएट की परीक्षा बायोलॉजी साइंस से पास करी। बायोलॉजी लेने पर भी घर में बहुत हाय-तौबा मची। 

‘आर्ट्स या होम साइंस क्यों नहीं लेती?’ कह कह कर नाक में दम कर दिया। लेकिन आज पीछे देख कर लगता है की अच्छा किया! अपने अब्बू के एक्सीडेंट के बाद उसने जनरल नर्सिंग और मिडवाइफरी का कोर्स किया। जब तक कोर्स ख़तम हुआ तब तक उसकी अम्मी चल बसी, और घर की माली हालत बहुत खराब हो गयी। अच्छी बात यह रही की उसकी इस हॉस्पिटल में नर्सिंग का कार्य मिल गया, जिससे कुछ सहारा हो सका। यदि सब कुछ ठीक रहता तो पढाई लिखाई नहीं, वो किसी के बच्चे जन कर उनको पाल रही होती।

मैंने पूछा की वो और आगे नहीं पढना चाहती, तो उसने बताया की बिलकुल पढना चाहती है.. लेकिन बीएससी नर्सिंग का कोर्स दो साल का है.. और इस समय वो अपने काम से मुक्त नहीं हो सकती। 

उसने यह भी बताया की घर ही नहीं, जान पहचान में भी सभी ने कितना बवाल मचाया। उसका नर्सिंग की पढाई करना जैसे सभी का ठेका हो गया। ‘गैर मर्दों को छुएगी!’ यह सभी के जीवन का मानो सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। लेकिन वो कहते हैं न.. जब ज़रुरत होती है, तो हर बात छोटी हो जाती है। कुछ दिनों बाद सभी लोग चुप हो गए.. भारत की नर्स आज कल गल्फ और यूरोप में काफी डिमांड में हैं.. इसलिए पहले हाय तौबा मचाने वाले, अब उसके करियर में सिक्कों की खनक सुन कर रिश्तेदारी जोड़ने के लालच में चुप हो गए। 

“और यह इतनी अच्छी इंग्लिश कैसे बोलती हो?” मैंने पूछा।

“जब इतनी कठिन ट्रेनिंग होती है, तो लगता है की क्यों न फिर इस मौके का पूरा फायदा उठाया जाय। लैब ट्रेनिंग, लाइब्रेरी, और हेल्थ सेंटर्स.. वहाँ अनगिनत घंटे बिताने के बाद बचे हुए समय में मैं डिस्कवरी और न्यूज़ चैनल देखती, और अंग्रेजी पढ़ती। बिना अंग्रेजी के आगे कैसे बढ़ा जा सकता है?” उसने एक बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर दिया। इसी बीच सुमन भी कमरे में आ गयी।

“दैट इस ग्रेट, फ़रहत! आपसे बात करके मुझे लग रहा है की अब मेरा केयर ठीक से होगा, एंड दैट आई ऍम इन सेफ हैंड्स!”

मेरी इस बात पर वो ख़ुशी से मुस्कुराई। हम तीनों कुछ देर तक इधर उधर की बातें करते रहे। फरहत ने मुझे आराम करने को कहा, लेकिन मैंने यह कह कर मना कर दिया की पिछले न जाने कितने महीनो से किसी से ढंग से बात नहीं किया – न घर के बाहर, और न ही घर के अन्दर! इसलिए, आज रोको मत.. अगर थक गया, तो मैंने खुद ही चुप हो कर सो जाऊँगा। मेरी इस दलील पर दोनों ही लड़कियाँ चुप हो गयी, और हमने कुछ और देर तक बात चीत जारी रखी। 

मुझे इस बात का अनुमान था की मेरे एक्सीडेंट के कारण सुमन की पढाई का काफी नुक्सान हो गया था, इसलिए मैंने उससे आग्रह किया की वो अब बेफिक्र हो कर अपने कोर्स को जल्दी जल्दी पूरा करने पर ध्यान लगाए। वैसे भी घर में खाना पकाने के लिए हमारी काम-वाली ने स्वीकार कर लिया था। मजे की बात यह है की अभी मेरा जीवन पूरी तरह से स्त्रियों के भरोसे पर टिका हुआ था।

“अच्छा.. मैं आप से एक बात पूछूं?” मैंने फरहत से कहा।

“हाँ, पूछिए न?”

“आपके नाम का मतलब क्या है?”

“ओह! हा हा.. फरहत शायद अरबी या फ़ारसी शब्द है.. और इसका मतलब है.. उम्म्म.. सुशील, सभ्य, हैप्पीनेस, आनंद, मेजेस्टी.. एक्चुअली बहुत सारे मीनिंग्स हैं.. लेकिन लड़कियों के लिए यूज़ होने से इसका मतलब हैप्पीनेस होना चाहिए..”

“वैरी नाईस!” कह कर मैं कुछ और देर तक चुप हो गया।

और फिर बिस्तर से उठने की कोशिश करने लगा।

“आपको उठना है?”

“हाँ.. एक्चुअली, टॉयलेट जाना है..”

“ओके” कह कर फरहत मेरी उठने में मदद करने लगी।

कोई दो तीन मिनट कोशिश करने के बाद, जिससे मुझे कम से कम तकलीफ़ हो, फरहीन मुझे सहारा दे कर टॉयलेट तक पहुँचाया। इतना तो तय था की बिना उसके सहारे के मैं यह सब मामूली काम भी नहीं कर सकता था, लेकिन ऐसे ही किसी अनजान लड़की (जो की उम्र में मुझसे काफी छोटी हो) के सामने निर्वस्त्र कैसे हुआ जा सकता है? एक वयस्क पुरुष के लिए इससे ज्यादा लाचारी और लज्जा का विषय और क्या हो सकता था?

“फरहत.. आप.. अब मैं देख लूँगा..” मैंने हिचकिचाते हुए कहा।

“नाउ वेट अ मिनट! आई थिंक वी नीड टू टॉक एंड सॉर्ट आउट समथिंग। मैं आपकी नर्स हूँ, तो सबसे पहला रूल यह है की आपको मेरे सामने शर्माने की कोई ज़रुरत नहीं है। आपके हाथ और पैर पर प्लास्टर चढ़ा हुआ है, और रिब्स पर भी चोटें हैं.. अगर आप पूरी तरह से ठीक होते तो मेरी ज़रुरत ही नहीं थी.. है न?”

“हाँ.. वो सब तो ठीक है लेकिन..”

“लेकिन वेकिन कुछ नहीं। आप अगर इस बात से शर्मा रहे हैं तो यह सोचिये की मैं आपको स्पंज बाथ, टॉयलेट, ड्रेसिंग भी करूंगी.. तो प्लीज.. ओफेन्देड मत फील कीजिए! ओके? 

“ओह गॉड! कहना आसान है..”

“आई नो! बट वी विल ट्राई.. ओके? नाउ, लेट में हेल्प यू विद योर पजामा..”

कह कर उसने मुझे सहारा दिए हुए ही मेरे पजामे का नाड़ा ढीला कर दिया और मेरे पजामे को धीरे से नीचे सरका दिया। कोई और समय होता (मतलब अगर रश्मि होती) तो अब तक मेरा लिंग अपने पूर्ण उत्थान पर पहुँच कर छलांगे लगाने लगता, लेकिन इस समय शर्म, संकोच और नर्वसनेस होने के कारण मेरा लिंग एक छोटे से छुहारे के आकार का ही रहा। मैंने फरहत की तरफ देखने की हिम्मत नहीं की, लेकिन मुझे पूरी तरह से यकीन था की वो अवश्य ही उसी तरफ देख रही होगी, और उसके आकार पर मन ही मन हंस रही होगी..

खैर, जब मेरा पजामा यथोचित दूरी तक सरक गया, तो उसने मुझे सहारा दे कर कमोड पर बैठाया। मैंने कुछ देर तक कोशिश करी, लेकिन फरहत की उपस्थिति में मेरे लिए मूत्र करना संभव ही नहीं हो रहा था।

“कर लीजिये न..”

“थोड़ी प्राइवेसी मिल जाय... मुझसे हो नहीं पा रहा है ...”

“ओह सॉरी..!” कह कर वो बाथरूम से बाहर निकल गयी।

उसके जाते ही मन में कुछ शांति हुई - मैंने अपने जघन क्षेत्र की मांस-पेशियों को ढीला करने की कोशिश की और तत्क्षण ही मैंने मूत्र को बाहर निकलता महसूस किया। जब मैंने मूत्र कर लिया तो मैंने कुछ देर रुक कर आवाज़ लगाई,

“..फरहत?”

“जी.. आई..”

अन्दर आकर उसने सबसे पहले बाथरूम में नज़र दौड़ाई। एक तरफ उसको वेट-टिश्यु मिल गए। उसने उसमें से एक टिश्यु निकाल कर आधा फाड़ा, और मेरी तरफ मुखातिब हुई। उसने मुझे सहारा दे कर उठाया, और फिर मेरे लिंग को पकड़ कर उसके शिश्नाग्रच्छ्द को धीरे से पीछे की तरफ सरकाया उसको तीन-चार बार झटका दिया, जिससे मूत्र की बची हुई कुछ बूँदें निकल गई। फिर उसने वेट-टिश्यु की मदद से लिंग के सुपाड़े को ठीक से पोंछ दिया। इसके बाद हम दोनों वापस अपने कमरे में आ गए।

कमरे में आकर लेटने के कुछ देर तक हमने कोई बात नहीं करी। इसी बीच कामवाली आ गयी। फरहत ने उसको विशेष निर्देश दिए की घर और खासतौर पर मेरे कमरे की सफाई कैसे करी जाय, और यह भी की खाना कैसे बनाया जाय। यह निर्देश देते समय उसका अंदाज़ धौंस देने वाला नहीं था.. बल्कि यह साफ़ दिख रहा था की वो मेरी और कामवाली की मदद ही करना चाहती थी। सच में.. पहले ही दिन में फरहत का व्यक्तित्व, उसके बात करने का अंदाज़ और उसकी मुस्कान मेरे दिल-ओ-दिमाग पर छा गई।
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RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प ) - by sexstories - 12-17-2018, 02:21 AM

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