Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
12-17-2018, 02:19 AM,
#78
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
सुमन देर शाम को ही उठ पाई। तब तक मैं उसके लिए जूस, और सैंडविच इत्यादि का इंतजाम कर लाया था। मैं उसको बिस्तर से उठा कर बाथरूम ले गया, जहाँ अन्य ज़रूरी कामों के साथ मैंने उसको नहलाया भी। वापस आ कर मैंने उसको कपड़े पहनाये – वो इतनी कमज़ोर हो गयी थी की खुद के बल पर बैठ भी नहीं पा रही थी। खाना भी मैंने उसको अपने हाथों से ही खिलाया। और सबसे अंत में दवा पिलाई। फिर उसको वापस बिस्तर में लिटाया।

मैंने प्यार से उसके बालों को सहलाते हुए पूछा, “नीलू, अब ठीक लग रहा है?”

सुमन की आँखों से आंसू टपक पड़े।

“कोई नहीं बचा, जीजू! कोई नहीं..”
मेरे ऊपर मानो बिजली गिरी! ‘कोई नहीं..! मतलब!’

जब तक कोई निश्चित बुरी खबर नहीं मिलती, तब तक आशा बंधी रहती है। मेरी भी आशा बंधी हुई थी की शायद रश्मि और बाकी सभी जीवित होंगे... लेकिन सुमन के इस एक वाक्य ने वह आशा भी छीन ली। मैं बुरी तरह से फूट पड़ा – मानो, थमा हुआ बाँध अचानक ही टूट गया हो। मेरे पैर... जैसे उनमें से सारी जान निकल गयी हो। मेरा सर चकराने लगा, और मैं अचेत हो कर गिर गया।


रजनीगंधा की मस्त कर देने वाली खुशबू मेरे नथुनों के रास्ते से आ कर मुझे आंदोलित कर देती है। मेरी चेतना वापस आती है। आँख खुलती है, तो मुझे लगता है की मानो मैं स्वर्ग के नंदन वन में हूँ। चारो तरह चांदनी फैली हुई है, और हरी भरी घास पर ढेर सारे पुष्प खिले हुए हैं! वैसे ही जैसे फूलों की घाटी में देखे थे! 

‘क्या बात है! लेकिन.. लेकिन, वो रजनीगंधा की खुशबू?’

मैं उठ कर देखता हूँ तो एक तरफ छोटा सा तालाब, जिसमें कई सारी कुमुदनियाँ अभी सुप्त अवस्था में थीं। दूसरी तरफ नज़र दौड़ाई तो देखा की एक बहुत ही सुन्दर सा घर था – उस घर के प्रथम तल पर स्थित एक बड़ी खिड़की से रौशनी छन कर बाहर आ रही थी। दिमाग की एक झटका सा लगा – यह तो वही घर है जैसा मैंने और रश्मि ने साथ में सोचा था! एक बार और मैंने नज़र दौड़ाई, तो देखा की तालाब के समीप ही एक स्त्री, एक छोटी सी लड़की के साथ खेल रही है। 

‘ओह! रजनीगंधा की सुगंध उसी तरफ से आ रही है।‘

अचानक उस स्त्री की दृष्टि भी मेरे ऊपर पड़ती है; वो खेलना बंद कर मेरे पास आती है.. रश्मि को देख कर मैंने मुस्कुरा उठता हूँ। वो खजुराहो की मूर्तियों जैसी सर्वांग सुंदर दिख रही है - अत्यन्त कमनीय! दरअसल, उसने खजुराहो की मूर्तियों के समान ही वस्त्र पहने हुए हैं – कमर के नीचे धोती है, और स्तनों को ढके हुए कंचुकी! इन वस्त्रों में रश्मि के रूप सौंदर्य और अंग-प्रत्यंग की रचना देखते ही बन रही है। उसके वक्ष गोलाकार थे, और शरीर चांदनी में चमक रहा था। आँखों में वही परिचित चंचलता और मादकता!

वो प्रेम से मेरे सर को अपनी गोद में रखकर मुझसे कहती है, “जानू.. उठ गए!”

मैंने एक गहरी सांस भरी – रजनीगंधा की मादक खुशबू मेरे पूरे वजूद में समां गई। समझ नहीं आ रहा की सो जाऊं या जागूँ? 

“आई लव यू!” मैंने आँख बंद किये किये कहा।

उत्तर में रश्मि खिलखिलाई! फिर रुक कर बोली, “अच्छा.. एक बात बताओ.. सुन्दर है न?”

“बहोत!” मैंने रश्मि की कंचुकी में उंगली डाल कर उसको नीचे की तरफ खींचा। उसका बायाँ स्तन कंचुकी के बंधन से मुक्त हो गया। मेरी हरकत पर रश्मि ने मेरे हाथ पर एक हलकी सी चपत लगाई।

“गंदे! मैं नहीं...”, 

कहते हुए उसने एक तरफ अपनी उंगली से इशारा किया, 

“... हमारी बेटी!”

रश्मि की इस बात पर मेरा सर एक झटके से दूसरी तरफ उस छोटी लड़की को देखने के लिए मुड़ता है। मेरी आँख एक झटके से खुलती है। मेरे चेहरे पर सुमन झुकी हुई है और बदहवासी में मेरे दोनों गालों को पीट रही है। 

“जीजू.. उठिए.. प्लीज.. उठिए! ओह थैंक गॉड!”

मेरा सर सुमन की गोद में था – उसने जब मेरी आँख खुली हुई देखी तो उसके चेहरे पर कुछ राहत के भाव आये। 

“जीजू... आप ठीक तो हैं न?”

“ह्ह्ह..हाँ.. मैं ठीक हूँ..” कहते हुए मैं उसकी गोद से उठ कर बैठ जाता हूँ। लेकिन सदमे का असर अभी भी था – मेरा सर फिर से चकरा गया, तो मैं सर थाम कर बैठ गया। सुमन मुझे पकड़ कर पुनः रोने लगी।

“सब ख़तम हो गया.. सब..” कहते हुए उसकी एक बार फिर से हिचकियाँ बंध गईं। मैं तो मानो काठ का हो गया! क्या कहूँ? सुमन कुछ देर रोने के बाद खुद ही कहने लगी,

“बाढ़ से बचने के लिए हम लोग होटल बाहर निकले। होटल का अहाता बुरी तरह से टूट गया था, और वहाँ से पानी बह रहा था – वहीँ से बाहर निकलते हुए माँ का पैर फिसल गया। पानी इतना तेज़ और मैला था की गिरने के बाद वो फिर कभी नहीं दिखाई दीं। पापा उनको बचने के लिए अहाते में कुछ देर तक गए, और जब वापस आये तो लंगड़ा कर चल रहे थे – शायद उनके पैर में मोच आ गयी थी। 

हमने देखा की आस पास के कुछ लोग पहाड़ की ढलान के ऊपर की तरफ जा रहे थे, इसलिए हम लोग भी उधर ही चलने लगे। जैसे-तैसे हम लोग ऊपर पहुंच गए, लेकिन उस चढ़ाई को करने में बहुत समय लगा – न दिन का पता चलता और न रात का! दीदी तो प्रेगनेंसी के कारण पहले ही कुछ कमज़ोर थीं, और भूखी प्यासी रहने के कारण उसकी हिम्मत जवाब दे गई। और वो वहीँ बेहोश होकर गिर गयी। पापा ने कहा की वो कुछ खाने के लिए लाते हैं, लेकिन पूरा दिन भर तलाशने के बाद भी उनको कुछ भी नहीं मिला। 

हमारे साथ जो लोग ऊपर जा रहे थे उनमे से उस समय तक कोई नहीं दिख रहा था – शायद वो किसी और तरफ निकल गए, या फिर .. बह गए! मदद देने के लिए अब कोई नहीं था। खैर, पहाड़ पर घास भी उगी हुई थी, और उसको देख कर पापा ने सोचा की शायद उसको खाया जा सकता है। लेकिन उनको कुछ शक था की वो घास खाने लायक है भी, या नहीं! लेकिन, उनका शक सही था... वो वाली घास ज़हरीली थी। उसको खाने पर उनको अच्छा तो नहीं लगा तो उन्होंने उसको थूक दिया – लेकिन जगता है की कुछ ज़हर अन्दर चला गया। दिन भर उल्टियाँ करने के बाद उनकी भी मौत हो गयी। 

दीदी अब और चल नहीं सकती थीं.. इसलिए मैंने उसको वहीँ लिटा कर मैं आस पास खाने को ढूँढने गयी। शायद किसी पक्षी ने कुछ मांस गिरा दिया था। वो मैंने और दीदी ने मिल कर खाया। रात में डर लगता - लगातार बारिश, ठंड और जंगली जानवरों का डर बना रहता था। मरने वालों के शवों को कुत्ते और अन्य जानवर खा रहे थे। अगले दिन दीदी की हालत काफी खराब हो गयी। भूख, कच्चा मांस, डिहाइड्रेशन, कमजोरी, संक्रमण... रात में जब वो सोई तो उसका शरीर कांप रहा था। बाहर ठंडक भी बहुत हो रही थी। मैं जब सवेरे उठी तो देखा की दीदी नहीं बची..! रोने के लिए अब तो आंसू भी नहीं बचे थे! दो दिन तक जैसे तैसे जंगली जानवरों से बचते हुए मैं रही... फिर कल मैंने हेलिकॉप्टर की आवाज़ सुनी तो उसको इशारा किया... न जाने कैसे उन्होंने मुझे देखा और वहाँ से निकला। अब यह नहीं समझ आता की मैं लकी हूँ, या एकदम मनहूस!“

जीवन भी अजब है। क्या क्या रंग दिखलाता है। सब कुछ... इसी जन्म में हो जाता है, सब यहीं मिल जाता है! तीन साल भी हम साथ नहीं रह पाए! तीन साल भी नहीं! 

‘हे देव! इतनी क्रूरता! ऐसे लेना था, तो दिया ही क्यों? रश्मि ने ऐसा क्या किया था की उसकी इस तरह से मृत्यु हो? वह बेचारी सभी की हंसी ख़ुशी के लिए ही सब कुछ करती थी। किसी के प्रति उसके मन में कोई भी विद्वेष नहीं था। फिर क्यों? कहाँ है भगवान? कैसा भगवान?’

और मेरी हालत?

मैं तो एकदम अकेला हूँ! एकदम अकेला.. मेरे हर तरफ एक भीड़ जैसी है.. घर में रहो, सड़क पर निकालो, या फिर ऑफिस जाओ... हर तरफ लोगों की कोई कमी नहीं है.. लेकिन, मैं नितांत अकेला हूँ! सोसाइटी में लोग जब मुझे देखते हैं तो मानो उनको लकवा हो जाता है.. बात करते करते चुप हो जाते हैं, मुझे देख रहे होते हैं तो किसी और तरफ देखने लगते हैं.. कन्नी काट लेते हैं.. जैसे की मुझे कोई रोग हो! 

मुझे भी मुक्ति चाहिए! लेकिन आत्महत्या कर नहीं सकता। ऐसे संस्कार नहीं हैं! लेकिन... मुक्ति तो मुझे अब चाहिए! वसीयत में मैंने अपना सब सब कुछ सुमन के नाम लिख दिया है, और अपनी आखिरी इच्छा के लिए निर्देश दिया है की मृत्यु के बाद मुझे विद्युत् शव-दाह गृह में जलाया जाय। क्यों बेकार में लकड़ियाँ जलाना?
रश्मि की मृत्यु के बाद बीमा राशि और सरकारी सहायता से मिली हुई रकम मिला कर मैंने एक ट्रस्ट-फण्ड बनाया, जिसका एक ही उद्देश्य था – गरीब परिवार की चुनी हुई मेधावी क्षात्राओं को उनकी उच्च शिक्षा (कम से कम स्नातक स्तर तक) तक पूरी सहायता देना। मेरे ऑफिस, और रश्मि के कॉलेज के लोगों ने इस फण्ड में भरपूर योगदान दिया था, जिससे अब यह एक स्थाई क्षात्रवृत्ति बन चुका था। बाकी का सारा निबटारा होने वाली सारी राशि (सुमन के माता पिता की बीमा राशि और सरकारी सहायता), और उत्तराँचल की सारी ज़मीन इत्यादि मैंने कानूनी सहायता से सुमन के नाम लिखवा दी। कम से कम उसका जीवन तो अब स्थिर हो गया था।

मुझे लग रहा था की अब मेरे जीवन का मकसद पूरा हो गया है.. ‘रश्मि! मुझे भी अपने पास बुला लो!’ बस मैं यही एक बात रोज़ मन ही मन दोहराता। एक साल हो गया था मेरा परिवार नष्ट हुए! परिवार क्या, पूरा संसार नष्ट हुए! संसार की सबसे निराली लड़की को मुझसे आज से एक साल पहले काल ने छीन लिया। उसके साथ साथ छीन लिया उसने मेरी संतान को – मेरी बेटी! साथ ही चले गए मेरे माता और पिता भी! दोनों माता पिता!

‘कैसा क्रूर मजाक!’

कहते हैं की जीवन किसी के लिए नहीं रुकता! चलता ही रहता है.. लेकिन किस ओर? मैं तो अब हर क्षण बस मृत्यु का ही इंतज़ार कर रहा हूँ। हाँ – खाता हूँ, पीता हूँ, सोता हूँ.. टीवी भी देख लेता हूँ.. क्या करूँ? जीना पड़ रहा है! लेकिन क्या जीना! मैं सब कुछ अकेले ही करता हूँ। हाँ – घर में सुमन भी रहती है। लेकिन, उससे तो बस नाममात्र की बातें होती हैं। कभी कभी दुःख होता है की इस सब में उसकी क्या गलती! मैं क्यों उसके साथ ऐसे बर्ताव करूँ? आखिर मेरे साथ साथ उसने भी तो अपना परिवार खोया है! लेकिन, फिर भी.. एक अजीब तरह की बेबसी होती है.. अजीब तरह की कसक.. अक अजीब तरह का आक्रोश!! कुल मिला कर, उससे अधिक बात नहीं हो पाती! अब तो लगता है की किसी से भी मैं ठीक से बात नहीं कर पाऊँगा! 

उस दुर्घटना के कुछ ही दिन बाद की बात है... मैं कमरे की खिड़की से बाहर किसी अनंत शून्य में देख रहा था।

सुमन मेरे पीछे आ कर कहती है, “आप क्या देख रहे हो?”

मैंने कई दिनों से खुद को जब्त किया हुआ था.. उस एक वाक्य ने न जाने कैसे मेरे सब्र के बाँध को ढहा दिया। मैंने चिड़चिड़े ढंग से उसको जवाब दिया, “अपने काम से काम रखो! मुझसे चिपकने की कोई ज़रुरत नहीं!”

वो उसी पल मेरे कमरे से बाहर भाग गई। कुछ समय बाद मैंने उसके रोने सुबकने की आवाज़ सुनी, लेकिन मैंने उसको मनाने की कोई कोशिश नहीं करी। वो मेरी जिम्मेदारी नहीं है। अगर उसको भी इस संसार में गुजारा करना है, तो बिना किसी मोह के ही करना होगा। संसार बहुत क्रूर है! और भगवान उससे भी बड़ा क्रूर! किसी भी प्रकार का मोह न ही हो तो अच्छा! न कोई बंधन होगा, और न कोई बोझ! आराम से चले जाओ.. किसी को पता भी नहीं चलेगा की कब निकल लिए! 

सबसे अच्छी बात यह की रश्मि के ही कॉलेज में सुमन का दाखिला हो गया था – वहाँ के प्रिंसिपल मुझे अक्सर उसकी उन्नति के बारे में बताते.. कहते की बहुत मेधावी है! मैंने उनको अपनी स्थिति के बारे में बताया, और उनको कहा की वो उसको उचित मार्गदर्शन देते रहें। क्योंकि मुझसे नहीं हो पायेगा।

अच्छे लोगो न भारी अभाव हो रहा है मेरे जीवन में.. अभी कोई सात महीने पहले श्री देवरामानी का देहांत हो गया – दिल का दौरा पड़ने से। उनकी श्रीमति को उनकी संताने अपने साथ ले गईं। लिहाजा, अब पड़ोस भी खाली लगता है। घर आने का मन नहीं होता। इसलिए मैं अक्सर अपने टूर बनता रहता हूँ.. पिछले एक साल में चार महीने मैं बाहर रहा। वो मकान तो बस रश्मि के कारण घर था, अब तो बस एक बेरंग ढांचा सा लगता है! ऐसे यंत्रवत जीवन होने के कारण कार्यस्थल पर तरक्की बहुत तेजी से हो रही है! अब मैं खुद भी मेरे भूतपूर्व बॉस के स्तर पर हूँ। लेकिन उनका मित्रवत व्यवहार अभी भी बरकरार है।

वो अभी भी मुझसे संपर्क में हैं। दुर्घटना के बाद उन्होंने मुझसे रश्मि के बारे में पूछा। क्या बताता! बस फूट फूट कर रोने लगा। उनको मैंने सारा वाकया सुनाया। उसके बाद से उन्होंने कभी भी रश्मि का नाम भी मेरे सामने नहीं लिया, जिससे मुझे दुःख न हो! शुरू शुरू में मैंने दोस्तों के साथ मुलाकात की, और वो लोग भी मुझसे मिलने आये – जैसे की पारंपरिक सामाजिक प्रणाली होती है..। हिमानी भी मिलने आई थी... उसने मुझसे दबे छुपे शब्दों में दोबारा शादी करने को भी कहा। मैंने उससे क्या कहा, मुझे कुछ याद नहीं आता अभी! हाँ, लेकिन कोई चार महीने पहले मैंने उसकी शादी का कार्ड देखा – कार्ड मिलने के एक महीना पहले उसकी शादी हो गयी थी। अच्छी बात थी.. मुझे अपने जीवन में किसी भी तरह का उलझाव नहीं चाहिए था। 

अकेलेपन के साथ साथ, मैं पिछले छह महीनों में न जाने किस गढ्ढे के अन्दर चला जा रहा हूँ.. वहाँ पर सूर्य का प्रकाश संभवतः कभी नहीं गया है। काश! आत्महत्या करना पाप न होता!
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RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प ) - by sexstories - 12-17-2018, 02:19 AM

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