RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
सरप्राइज! हा हा! रूद्र के साथ तो हर पल ही सरप्राइज है! एक घंटा? हम्म.. बस इतना समय है की नहा कर, कपड़े बदले जा सकें। नहा कर मैं अपने कमरे में आई, और सोचने लगी की क्या पहना जाय! मेरे जन्मदिन पर रूद्र ने एक लाल रंग की ड्रेस मुझे गिफ्ट करी थी, वो घुटने से बस ठीक नीचे तक जाती थी.. अभी तक पहनने का मौका नहीं मिला था, तो सोचा की आज तो एकदम सही समय है। मैं ड्रेस पहनी, अपने बालों को एक पोनीटेल में बाँधा, गले में एक छोटे छोटे मोतियों की माला पहनी और तैयार हो गयी।
मैं कभी यह नहीं सोचती की मैं कैसी दिखती हूँ – मेरे पति मुझे आकर्षक पाते हैं, मेरे लिए इतना ही काफी है। लेकिन ख़ास मौकों पर सजने सँवरने में क्या बुराई है.. ख़ास तौर पर उसके लिए जिसको मैं बेहद प्यार करती हूँ? हम लोग अक्सर बाहर का खाना नहीं खाते (स्वास्थय के लिए ठीक नहीं होता न!), कभी कभी ही खाते हैं (या फिर तब जब हम यात्रा कर रहे होते हैं).. बाहर जाने से याद आया, की मुझे आज उनके प्लान के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। सरप्राइज का तो मज़ा ही इसी में है! मैं लिफ्ट से नीचे की तरफ उतर कर भवन के प्रांगन में अभी आई ही थी, की गेट से मुझे रूद्र कार में आते हुए दिखे।
ऐसा नहीं है की हम लोग घूमने फिरने कहीं जाते नहीं – रूद्र और मैं कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के जंगल गए। कान्हा शब्द कनहार से बना है जिसका स्थानीय भाषा में अर्थ चिकनी मिट्टी है। यहां पाई जाने वाली मिट्टी के नाम से ही इस स्थान का नाम कान्हा पड़ा। रूडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध पुस्तक “जंगल बुक” की प्रेरणा इसी स्थान से ली गई थी। यहाँ हमने भारत का राष्ट्रीय पशु बाघ, बारहसिंघा, हिरण, मोर, भेड़िये इत्यादि जीव देखे। इसके अलावा हमने राजस्थान राज्य की भी यात्रा करी, जहाँ हमने जयपुर, जोधपुर (दोनों जगहें अपनी स्थापत्य और शिल्पकला के लिए और साथ ही साथ हत्कला के लिए प्रसिद्द हैं), जैसलमेर (थार रेगिस्तान) और रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान (फिर से, बाघ, हिरण, सांभर हिरण!) की सैर करी। मेरे लिए यह दोनों जगहें बुल्कुल अद्भुत थीं! एक तरफ तो अंत्यंत घना जंगल, तो दूसरी तरफ कठिन रेगिस्तान! लेकिन अपने देश के इन अद्भुत स्थानों को देख कर न केवल मेरा दृष्टिकोण ही विकसित हुआ, बल्कि भारतवासी होने पर गौरव भी महसूस हुआ। बंगलोर के आस पास भी हम लोग यूँ ही लम्बी ड्राइव पर जाते हैं... मुझे यहाँ का खाना बहुत पसंद है (कभी सोचा नहीं था की दक्षिण भारतीय खाना मुझे इतना पसंद आएगा!)।
रूद्र ने मुस्कुराते हुए मेरे पास गाडी रोकी; मैंने उनके बगल वाली सीट वाला दरवाज़ा खोला और कार में बैठ गयी। उनको मुस्कुराता देख कर मैं भी मुस्कुराने लगी (कुछ तो चल रहा है इनके दिमाग में)! उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरे होंठों पर एक चुम्बन जड़ा और फिर कार वापस सड़क पर घुमा दी। ह्म्म्म.. अभी तक तो सभी कुछ पूर्वानुमेय है – हम एक रेस्त्राँ जा कर रुके, जहाँ हमने मुगलई भोजन किया। आज रूद्र ने कॉकटेल नहीं ली (वो अक्सर लेते हैं, लेकिन आज कह रहे थे की ड्राइव करना है, इसलिए नहीं लेंगे..), लेकिन उन्होंने मुझे दो गिलास पिला ही दी। बाहर आते आते मुझ पर नशा छाने लगा। लेकिन इतना तो होश था ही की समझ आ सके की हम लोग वापस घर की तरफ नहीं जा रहे थे। मैंने जब पूछा की कहाँ जा रहे हैं, तो उन्होंने कहा की यही तो सरप्राइज है..! हम्म्म्म... लॉन्ग ड्राइव! रात के अंधियारे में, जगमगाती सड़कों और उन पर सरपट दौड़ती गाड़ियों को देखते देखते कब मेरी आँख लग गयी, कुछ याद नहीं।
जब आँख खुली तो मैंने देखा की गाडी रुकी हुई है (शायद इसी कारण से आँख खुली), सुबह का मद्धिम, लालिमामय उजाला फैला हुआ है, हवा में ताज़ी ताज़ी सुगंध और मेरे चहुँओर छोटी छोटी हरी भरी पहाड़ियाँ थीं। मुझे रूद्र की आवाज़ सुनाई दे रही थी – वो आस पास ही कहीं थे, और किसी से बातें कर रहे थे। मैंने चार पांच गहरी गहरी सांसें लीं – मन और शरीर दोनों में ताजगी आ गयी। नशा काफूर हो गया। मैंने सीट पर बैठे बैठे अंगड़ाई ली और फिर से गहरी सांसें लीं, और फिर कार से बाहर निकल आई और आवाज़ की दिशा में बढ़ दी।
“जानू.. जाग गई?” रूद्र ने मुझे देखा, और मेरे पास आते आते मुझे आंशिक आलिंगन में भरा। उन्होंने फिर हमारे मेज़बान से मुझे मिलवाया।
“हम लोग कहाँ हैं?” मैंने पूछा।
“डार्लिंग, हम लोग कूर्ग में हैं..”
‘कूर्ग?’
उनसे मिलते मिलते सूर्योदय हो गया – सूर्य की किरणें पहाडियों के असंख्य श्रृंखलाओं पर लगे वृक्षों से छन छन कर आती हुई दिखाई पड़ रही थी। जादुई समां!
ओह! आपको कूर्ग के बारे में बताना ही भूल गई... कूर्ग कर्णाटक राज्य के पश्चिमी घाट पर है। सब्ज़ घाटियों, भव्य पहाड़ों और सागौन की लकड़ी जंगलों के बीच स्थित देश के सबसे खूबसूरत हिल स्टेशनों में से एक है। इन पहाड़ियों से होती हुई कावेरी नदी बहती है। यह जगह पर्यटकों को बहुत आकर्षित करती है – शहरों में रहने वाले, खास तौर पर बैंगलोर और मैसूर से अनेक पर्यटक यहाँ आते हैं। शुद्ध ताज़ा हवा और चहुँओर बिखरी हरियाली लोगों के चित्त को प्रसन्न कर देती है। इसके अतिरिक्त, यह स्थान कॉफी, चाय, और इलायची के बागानों के लिए भी जाना जाता है। यह भारत का ‘स्कॉटलैंड’ भी कहा जाता है... अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण! लगभग 100 साल पहले ब्रिटिश लोगों ने इस स्थान पर भी रिहाइशी बंदोबस्त किए थे।
जिस जगह पर हम रुके थे, वह एक होम-स्टे था। रूद्र का प्लान था की किसी होटल में नहीं, बल्कि प्रकृति के बीच एक शांत जगह पर रहेंगे। यह एक अच्छी बात थी – पहला इसलिए क्योंकि यहाँ कोई भीड़ भड़क्का नहीं था। हमारे मेजबान का घर और होम-स्टे उनके कॉफ़ी और केले के बगान में ही थे। यह एक बहुत ही वृहद् (करीब सौ एकड़) बगान था – इसमें इनके अलावा इलाइची भी पैदा की जाती है। और तो और, हमारे खाने पीने का इंतजाम भी हमारे मेजबानो ने कर दिया था – सवेरे का नाश्ता तैयार था, तो हमने फ्रेश होकर उनके साथ ही बैठ कर स्थानीय नाश्ता किया और कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ देर तक बात चीत करी।
मैंने रूद्र से शिकायत करी की अगर वो पहले बताते तो कम से कम कुछ पहनने को पैक कर लेती। कितनी देर तक इसी कपड़े में रहूंगी? इसके उत्तर में उन्होंने गाड़ी की पिछली सीट पर बहुत ही तरीके से छुपाया हुआ एक पैक निकाला – उसमे मेरे पहनने के लिए जीन्स और टी-शर्ट था। रूद्र के लिए शॉर्ट्स और टी-शर्ट था। क्या बात है!
इस जगह की सैर पर जब हम निकले, तब समझ आया की यह वाकई एक अलग ही प्रकार का हिल स्टेशन है। उतना व्यवसायीकरण नहीं हुआ है अभी तक! साथ ही साथ इस जगह पर अपनी एक मज़बूत संस्कृति, और इतिहास है। सबसे अच्छी बात यहाँ की साफ-सुथरी हवा, लगातार आती पंछियों की चहचहाहट और गुनगुनी धूप! एकदम ताजगी का एहसास! दिन भर में हमने वहाँ के खास खास पर्यटन स्थल (ओमकारेश्वर मंदिर, राजा की सीट, एब्बे झरना) देख डाले। झरने के बगल वाले एस्टेट में कॉफी के साथ साथ काली-मिर्च, और इलायची और अन्य पेड़-पौधे देखने को मिले।
एक बात मैंने वहाँ घूमते फिरते और देखी – यहाँ के लोग बहुत ही ख़ुशमिजाज़ किस्म के हैं। देखने भालने में आकर्षक और बढ़िया क़द-काठी के हैं। ख़ासतौर पर कूर्ग की महिलाएं बहुत सुन्दर हैं। हमने अपने लिए कॉफी, और शुद्ध शहद ख़रीदा (याद है?)। एक और ख़ास बात है यहाँ की, और वह यह की भारतीय सेनाओं में बहुत से जवान और अधिकारी कूर्ग से हैं। यहाँ के लोगो की वीरता के कारण इनको आग्नेयास्त्र (रूद्र वाला नहीं, बंदूक वाला) रखने के लिए लाइसेंस की आवश्यकता नहीं है।
शाम होते होते हम दोनों घूम फिर कर वापस होमस्टे आ गए, और अपने मेजबानो के साथ देर तक गप्पें लड़ाई, खाना खाया और बॉन-फायर का मज़ा लिया। आज रात यही रुक कर कल सवेरे वापस निकलने का प्रोग्राम था। लेकिन मन हो रहा था की यही पर रुक जाया जाय! घर की याद हो आई – वहाँ भी सब कुछ ऐसा ही था। मिलनसार लोग, शुद्ध वातावरण, पहाड़ी और शांत इलाका! मैं बालकनी में आकर बैठ गयी – एकांत था, दूर दूर तक शांति, न कोई लोग और न कोई आवाज़! रात में पहनने को कुछ नहीं था, इसलिए कमरे की बत्ती बुझा कर, बिना कपड़ों के ही कुर्सी पर बैठी कहे आकाश को देर तक देख रही थी। कम प्रदूषण वातावरण में होने के नाते, रात्रि आकाश असंख्य सितारों जगमगाते हुए दिख रहे थे! शानदार था!
यहाँ प्राकृतिक दृश्यों की भरमार थी... मिटटी से मानो एक जादुई खुशबू निकल रही थी। पेड़ पौधों का अपना निराला अंदाज़, चारों ओर जैसे बस सुगंध ही सुगंध! ऐसे मनभावन वातावरण में किसी भी प्रकार का क्लेश कैसे हो सकता है? लेकिन फिर भी मन आशान्त था! घर की याद हो आई.. एक एक बात! माँ बाप का साथ कितना सुकून देता है! उनकी याद आते ही मन हुआ की जैसे पंख लगाकर पल भर में ही उनके पास पहुँच जाऊँ। पापा तो कितना दुलारते हैं! घर जाने पर मैं आराम से उनके ऊपर पैर पसारकर देर तक बैठी रहती हूँ। माँ कभी एक कप चाय का पकड़ा देती हैं, तो कभी रक प्लेट गरम पकोड़े!
“क्या सोच रही हो?” रूद्र ने मेरे कंधे पर मालिश करते हुए पूछा। न जाने कैसे, अगर मेरे मन में कुछ भी उल्टा पुल्टा होता है तो उनको ज़रूर मालूम पड़ जाता है। एक बार उन्होंने मुझे कहा था की मैं बिलकुल पारदर्शी हूँ...
“कुछ भी नहीं, बस यूं ही मन उदास है।” मैंने सहज होते हुए कहा।
“अरे! ऐसा क्यों? मेरा सरप्राइज पसंद नहीं आया क्या, जो ऐसे जाने कहां खोई हो?”
मैंने संभलते हुए कहा, “कुछ भी तो नहीं हुआ?”
“नहीं... कुछ तो गड़बड़ है... वरना तुम इस तरह उदास और बुझी हुई कभी नहीं रहती।” इनकी पारखी आंखों ने ताड़ ही लिया... और ताड़े भी क्यों न? हम अब तक एक-दूसरे की रग-रग से वाकिफ हो गए थे, और एक-दूसरे की परेशानी की चिंता-रेखाओं को पकड़ लेते हैं। दो साल का अन्तरंग साथ है। चेहरा देख कर तो क्या, अब तो बिना देखे हुए ही मन के भाव समझ जाते हैं। उन्होंने मुझे पीछे से आलिंगन में भरते हुए पूछा, “ए जानू! बोलो न क्या हुआ? कुछ तो बताओ!”
मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए कहा, “यूं ही आज रह-रहकर घर की याद आ रही हैं।“
“अरे! बस इतनी सी बात.. अरे भई, कॉल कर लो!”
“ह्म्म्म.. देखा.. लेकिन सिग्नल नहीं हैं..”
“कोई बात नहीं, कल सवेरे कर लेना, जैसे ही नेटवर्क आता है.. ओके?”
मैंने कुछ नहीं कहा... बस डबडबाई हुई आंखों को चुपके से पोंछ लिया। चाहे मैंने कितनी ही चोरी छुपे यह किया हो, वो देख ही लेते हैं।
“ओये, तुम चॉकलेट खाओगी?” मुझे चॉकलेट बहुत पसंद हैं... इसीलिए वो अक्सर अपने साथ दो तीन पैक ज़रूर रखते हैं। मैं मुस्कुराई! मेरी हर परेशानी का इलाज रहता है इनके पास।
“हाँ! बिलकुल! चॉकलेट के लिए मैंने कब मना किया?”
“हा हा! चलो यार! कम से कम तुम कुछ मुस्कुराई तो!” उन्होंने मुझे चॉकलेट पकड़ाते हुए कहा, “... यू नो! तुम्हारे चेहरे के लिए मुस्कुराहट ही ठीक है.. उदास होना, या गुस्सा होना... तुम्हारे लिए नहीं डिज़ाइन किया गया है..।“
“अच्छा जी, तो फिर किसके लिए?”
“मेरे लिए! मुझे देखो न.. अगर इस चेहरे पर एक बार गुस्सा आ जाय, तो सामने वाले की...”
मैंने बीच में ही काटते हुए कहा, “जी हाँ.. समझ आ गया!” फिर कुछ देर रुक कर, “जानू, आप भी कभी गुस्सा या उदास मत होइएगा। आप पर भी सूट नहीं करता!”
“मैं भला क्यों होऊंगा? मेरे साथ तो तुम हो! मेरे पास गुस्सा या उदास होने का कोई रीज़न ही नहीं है!” इन्होने मुझे दुलारते हुए कहा। मैं मुस्करा उठी। इनके स्नेह भरे साथ ने मुझे कितना बदल दिया है!
“यू किस मी...”, मैंने एक बिंदास लड़की के जैसे वर्तमान अन्तरंग क्षणों का भरपूर लुत्*फ उठाने के लिए रूद्र का चेहरा अपने चेहरे पर खींच लिया। पिछले एक हफ्ते से हम लोग बहुत ही व्यस्त हो गए थे, और जाहिर सी बात है की इस कारण से सबसे पहले हमारे यौन समागम की बलि चढ़ी। मुझे तो लगता है की जब किसी को सेक्स की नियमित खुराक की आदत पड़ जाती है तो किसी भी प्रकार का व्यवधान शरीर और मन पर असर करने लगता है। ठीक वैसे ही जैसे किसी की नींद गड़बड़ होने से पूरे मानसिक और शारीरिक व्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। मेरा शरीर किसी कसे हुये वीणा की तरह हुआ जा रहा था। मन बेचैन होने लगा था।
हमारे आलिंगन बद्ध शरीरों में जैव रसायनों और संवेदनाओं के समरस प्रभाव से अब तीव्र उत्तेजना प्रवाहित होने लगी थी। ऐसे खुले प्राकृतिक वातावरण में यह यौनजन्*य प्रक्रिया अब अपना असर दिखाने लगी थी – मेरी योनि से वही जाना पहचाना स्राव होने लगा था, और रूद्र का लिंगोत्थान होने लगा। कुछ देर ढंग से चूमने के बाद, रूद्र मुझे अपनी गोद में उठाकर हमारे सुसज्*जित शयनकक्ष में आए। मैं बिस्तर पर बैठ कर चादर की सिलवटें ठीक करने लगी, लेकिन अब तक रूद्र कामासक्त होकर शरारत के मूड में आ गए थे। हमने इन दो सालों में कितनी ही बार अनवरत सेक्स किया था, लेकिन आज भी जब भी वो मुझे अपनी बाहों में लेटे हैं तो उनके मनोभाव समझते ही शर्म की लाली मेरे गालों और आँखों में उभर जाती है। मुझे बिस्तर पर लिटा कर जब रूद्र मुझमे प्रविष्ट हुए तब तक मेरा सारा तनाव और उदासी समाप्त हो गयी थी। ताज़ी हवा, चहुँओर फैली शांति और प्रबल साहचर्य की ऊर्जा ने हमारे शरीरों में हार्मोंस की गति इतनी बढ़ा दी कि उत्तेजना की कांति त्*वचा से रिसने लगी। यौन संसर्ग सचमुच मानसिक चेतना को सुकून और शरीर को पौष्*टिकता देती है। देखो न, कैसे उनके पौरुष रसायनों की आपूर्ति से मेरी देह गदरा गयी है! साहचर्य में मैं मदमस्*त होकर रूद्र को अपनी छातियों में समेटे ले रही थी – और देर तक हमारी कामजनित इच्छाओं को मूर्त रूप देते रहे।
सवेरे हम लोग देर से उठे, और जब तक तैयार होकर बाहर आये, तब तक हमारे मेजबानों ने एक बेहतरीन ब्रेकफास्ट बना दिया था। हमने खाना खाया, कॉफ़ी पी, और फिर भुगतान वगैरह करके वापस की यात्रा आरम्भ करी। रास्ते में रूद्र ने कहा की चलो, तुम्हे तिब्बत की सैर कराता हूँ!
तिब्बत! यहाँ कहाँ तिब्बत! फिर कोई एक घंटे में उनका मतलब समझ आया। हम लोग ब्यलाकुप्पे तिब्बती मठ पहुंचे। यह एक बेहद सुन्दर जगह है... अचानक ही इतने सारे तिब्बती चेहरों को देख कर लगता है की भारत में नहीं, बल्कि वाकई तिब्बत पहुँच गए हैं! प्राचीन परम्पराओं को लिए, और आधुनिक सुविधाओं के साथ यह जगह एक बहुत सुन्दर गाँव जैसे है। वैसे भी यह जगह देखने के लिए आज एकदम सही दिन था – गुनगुनी धुप बिखरी हुई थी। परिसर के अन्दर बगीचों का रख रखाव अच्छे से किया गया था। हर भवन के ऊपर रंग-बिरंगी झंडे फहरते दिख रहे थे। आते जाते भगवा वस्त्रों में बौद्ध भिक्षु दिख रहे थे। एक तरफ तिब्बती बच्चे आइसक्रीम का आनंद ले रहे थे। हम लोग वाकई यह भूल गए की हम लोग कर्नाटक में हैं। मठ इतनी अच्छी तरह से सुव्यवस्थित और शांतिपूर्ण ढंग से सजाया गया था की यहाँ आ कर मेरे मन में अनंत शांति और ऊर्जा का संचार होने लगा।
मठ के अन्दर एक मंदिर है, जिसको स्वर्ण मंदिर कहते हैं। उसमें बहुत सुन्दर तीन मूर्तियाँ हैं - भगवान बुद्ध (केंद्र पर), गुरु पद्मसंभव, और बुद्ध अमितायुस। ये मूर्तियाँ तांबे की बनी हैं, और उन पर सोना चढ़ा हुआ है। मंदिर के अंदरूनी और वाह्य दीवारों पर बारीक डिजाइन और भित्ति-चित्र बनाए गए थे। दीवारों पर बने रंगीन भित्ति चित्र अनेक प्रकार की कहानियां सुना रहे थे। एक तरफ भिक्षु लोग प्रार्थना कर रहे थे और उनकी प्रार्थना से उत्पादित गहरी गुंजार... मानो हम खो गए थे। यहाँ पर बहुत देर रहा जा सकता है, लेकिन काम को कैसे दरकिनार किया जा सकता है? शाम से पहले बैंगलोर पहुंचने के लिए हमको अभी ही शुरू करना चाहिए था, तो इसलिए हमने भगवान बुद्ध को विदाई दी और बाहर आ गए। दोपहर का भोजन हमने वहीँ किया – तिब्बती भोजन! वहाँ ज्यादातर घरों को कैफे और रेस्तरां भोजनालय में बदल दिया गया है। खाने के बाद हमने कुछ हस्तशिल्प सामान खरीदा और वापसी का रुख किया।
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रूद्र की खजुराहो वाली उपमा मेरे दिमाग में हमेशा बनी रही। इन्टरनेट और अन्य जगहों से उसके बारे में मैंने बहुत सी जानकारी इकट्ठी कर ली थी.. इसिये जैसे ही रूद्र ने दिसम्बर की छुट्टियाँ मनाने के लिए जगह चुनने की पेशकश करी, मैंने तुरंत ही खजुराहो का नाम ले लिया। रूद्र ने आँख मारते हुए पूछा भी था की ‘जानेमन, क्या चाहती हो? अब क्या सीखना बाकी है?’ उनका इशारा सेक्स की तरफ था, यह मुझे मालूम है.. लेकिन मैंने उनकी सारे तर्क वितर्क को क्षीण कर के अंततः खजुराहो जाने के लिए मना ही लिया। लेकिन रूद्र भी कम चालाक नहीं हैं, उन्होंने चुपके से पन्ना राष्ट्रीय उद्यान को भी हमारी यात्रा में शामिल कर लिया।
खजुराहो के मंदिर भारतीय स्थापत्य कला का सुन्दर और उत्कृष्ट मिसाल हैं! मंदिरों की दीवारों पर उकेरी विभिन्न मुद्राओं को दिखाती मनोहारी प्रतिमाएँ दुलर्भ शिल्पकारी का उदाहरण हैं। खजुराहो मध्यप्रदेश राज्य में स्थित एक छोटा सा गाँव है। मध्यकाल में उत्तरी भारत के सीमांत प्रदेश पर मुसलमानी आक्रांताओं के अनवरत आक्रमण के कारण बड़गुज्जर राजपूतों ने पूर्व दिशा का रुख किया, और मध्यभारत अपना राज्य स्थापित किया। ये राजपूत महादेव शिव के उपासक थे। उन्हीं शासकों द्वारा नवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के बीच खजुराहो के मंदिरों का निर्माण कराया गया। कहते हैं इन मंदिरों की कुल संख्या पच्चासी थी, जिन्हें आठ द्वारों का एक विशाल परकोटा घेरता था और हर द्वार खजूर के विशाल वृक्ष लगे हुए थे। इसी कारण इस जगह को खजुराहो कहते थे। आज उतनी संख्या में मंदिर नहीं बचे हैं। मुस्लिम आक्रमणकारियों की धर्मान्धता और समय का शिकार हो कर अधिकांश मंदिर नष्ट हो गए हैं। आज केवल बीस-पच्चीस मंदिर ही बचे हैं। हर साल लाखों की संख्या में देशी व विदेशी पर्यटक खजुराहों आते हैं व यहाँ की खूबसूरती को अपनी स्मृति में कैद कर ले जाते हैं।
खजुराहो के मंदिरों को ‘प्रेम के मंदिर’ भी कहते हैं। कहिये तो इन मंदिरों का इतना प्रचार यहाँ की काम-मुद्रा में मग्न देवी-देवताओं प्रतिमाओं के कारण हुआ है। ध्यान से देखें तो इन मूर्तियों में अश्लीलता नहीं, बल्कि प्रेम, सौंदर्य और सामंजस्य का प्रदर्शन है। खजुराहो के मंदिरों को आम तौर पर कामसूत्र मंदिरों की संज्ञा दी जाती है, लेकिन केवल दस प्रतिशत शिल्पाकृतियाँ ही रतिक्रीड़ा से संबंधित हैं। प्रतिवर्ष कई नव विवाहित जोड़े परिणय सूत्र में बँधकर अपने दांपत्य जीवन की शुरुआत यही से करते हैं। लेकिन सच तो यह है की न ही कामसूत्र में वर्णित आसनों अथवा वात्स्यायन की काम-संबंधी मान्यताओं और उनके कामदर्शन से इनका कोई संबंध है।
खजुराहो मंदिर तीन दिशाओं में बने हुए हैं - पश्चिम, पूर्व और दक्षिण दिशा में। ज्यादातर मंदिर बलुहा पत्थर के बने हैं। इन पर आकृतियाँ उकेरना कठिन कार्य है, क्योंकि अगर सावधानी से छेनी हथोडी न चलाई जाय, तो यह पत्थर टूट जाते हैं। खजुराहो का प्रमुख एवं सबसे आकर्षक मंदिर है कंदारिया महादेव मंदिर। आकार में तो यह सबसे विशाल है ही, स्थापत्य एवं शिल्प की दृष्टि से भी सबसे भव्य है। समृद्ध हिन्दू निर्माण-कला एवं बारीक शिल्पकारी का अद्भुत नमूना प्रस्तुत करता है यह भव्य मंदिर। बाहरी दीवारों की सतह का एक-एक इंच हिस्सा शिल्पाकृतियों से ढंका पड़ा है। कंदरिया’ - कंदर्प का अपभ्रंश! कंदर्प यानी कामदेव! सचमुच इन मूर्तियों में काम और ईश्वर दोनों की तन्मयता की चरम सीमा देखी जा सकती है... भावाभिभूत करने वाली कलात्मकता! सुचित्रित तोरण-द्वार पर नाना प्रकार के देवी-देवताओं, संगीत-वादकों, आलिंगन-बद्ध युग्म आकृतियों, युद्ध एवं नृत्य, राग-विराग की विविध मुद्राओं का अंकन हुआ है। अन्दर की तरफ मंडपों की सुंदरता मन मोह लेती है। बालाओं की कमनीय देह की हर भंगिमा, और हर भाव का मनोरम अंकन हुआ है। उनके शरीर पर सजे एक-एक आभूषण की स्पष्ट आकृति शिल्पकला के कौशल को दर्शाती है। स्पंदन, गति, स्फूर्ति सब जैसे गतिमान और जीवंत से लगते हैं! मैं एकटक उन मूर्तियों को देखती रही!
मंदिर के गर्भगृह में संगमरमर का शिवलिंग स्थापित है, और उसकी दीवारों पर परिक्रमा करने वाले पथ पर मनोरम शिल्पाकृतियाँ बनी हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर चारों दिशाओं में देवी-देवताओं, देवदूतों, यक्ष-गंधर्वों, अप्सराओं, किन्नरों आदि का चित्रण किया गया है। सीढ़ी सादी भाषा में कहें तो खजुराहो मंदिर, ख़ास तौर पर कंदरिया महादेव मंदिर हिन्दू शिल्प और स्थापत्य कला का संग्रहालय है। शिल्प की दृष्टि से देश के अन्य सारे निर्माण बौने हैं! मैं इन मंदिर को देखते हुए मैं बार-बार अभिभूत हो रही थी। मंत्रमुग्ध सी निहार रही थी!
विशालता और शिल्प-वैभव में कंदरिया महादेव का मुकाबला करते लक्ष्मण मंदिर है। इसके प्रांगन में चारों कोनों पर बने उपमंदिर आज भी हैं। इस मंदिर के प्रवेश-द्वार के शीर्ष पर भगवती महालक्ष्मी की प्रतिमा है। उसके बाएँ स्तम्भ पर ब्रह्मा एवं दाहिने पर शिव की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में भगवान विष्णु की लगभग चार फुट ऊँची प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा में आप नरसिंह और वाराह अवतारों का रूप देख सकते हैं। मंदिर की दीवारों पर विष्णु के दशावतारों, अप्सराओं, आदि की आकृतियों के साथ-साथ प्रेमालाप, आखेट, नृत्य, मल्लयुद्ध एवं अन्य क्रीड़ाओं का अंकन किया गया है।
दिन भर इन मंदिरों का भ्रमण करने, थोड़ी बहुत खरीददारी करने और रात का साउंड एंड लाइट शो देखने के बाद जब हम वापस आये तो बहुत थक गए थे! सच कहूं, तो यहाँ आने को लेकर रूद्र मेरी अपेक्षा कम उत्साहित थे। हमने कमरे में ही माँगा लिया और खाना खा पीकर जब हम बिस्तर पर लेटे तो दिमाग में इस जगह के शासकों – चंदेल राजपूतों की उत्पत्ति की कहानी याद आने लगी। चंदेल राजा स्वयं को चन्द्रमा की संतान कहते थे। कहानी कुछ ऐसी है - बनारस के राजपुरोहित की विधवा बेटी हेमवती बहुत सुंदर थी.... अनुपम रूपवती! एक रात जब वह एक झील में नहा रही थी तो उसकी सुंदरता से मुग्ध होकर चन्द्रमा धरती पर उतर आया और हेमवती के साथ संसर्ग किया। हेमवती और चंद्रमा के इस अद्भुत मिलन से जो संतान उत्पन्न हुई उसका नाम चन्द्रवर्मन रखा गया, जो चंदेलों के प्रथम राजा थे।
कहानी अच्छी है, और प्रेरणादायी भी! प्रेरणा किस बात की? अरे, क्या अब यह भी बताना पड़ेगा?
“जानू?”
“ह्म्म्म?”
“हेमवती और चन्द्रमा वाला खेल खेलें?”
“नेकी और पूछ पूछ! लेकिन सेटअप सही होना चाहिए!”
“अच्छा जी! मैंने तो मजाक किया था, लेकिन आप तो सीरियस हो गए!” मैंने ठिठोली करी।
रूद्र ने खिड़की खोल दी। चांदनी रात तो खैर नहीं थी, लेकिन चांदनी की कमी भी नहीं थी। उसके साथ साथ ठंडी हवा भी अन्दर आ रही थी। लेकिन, अगर शरीर में गर्मी हो, तो इससे क्या फर्क पड़ता है? सोते समय मैंने शिफॉन की नाइटी पहनी हुई थी – इसका सामने (मेरे स्तनों पर) वाला हिस्सा जालीदार था। उसकी छुवन और ठंडी हवा से मेरे निप्पल लगभग तुरंत ही तीखे नोकों में परिवर्तित हो गए। रूद्र के कहने पर मैं खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई - क्षण भर को मुझे जाने क्यों लगा की मैं वाकई हेमवती हूँ, वाराणसी के उसी ब्राह्मण पंडित की पुत्री! खुली खिड़कियों से आती हुई चांदनी हमारे कमरे को मानो सरोवर में तब्दील किये जा रही थी और मैं चंद्रमा की किरणों में नहा रही थी, अंग-अंग डूबी हुई। मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं!
‘न जाने कितनी स्त्रियों को यह अनुभव हुआ हो!’
मैंने मुड़ कर रूद्र को देखा – वो भी तल्लीन होकर चांदनी में नहाए मेरे रूप का अनवरत अवलोकन कर रहे थे।
‘बॉडी लाइक खजुराहो इडोल्स!’
मैं धीरे धीरे खजुराहो की सपनीली दुनिया की नायिका बनती जा रही थी। राग-रंग से भरी हुई... आत्मलीन नायिका! मुझे लगा जैसे की मेरा शरीर किसी कसे हुये वीणा की तरह हो गया हो – उंगली से छेड़ते ही न जाने कितने राग निकल पड़ेंगे! मन अनुरागी होने लगा। क्या यह बेचैनी खजुराहो की थी? लगता तो नहीं! रूद्र तो हमेशा साथ ही रहते हैं, लेकिन आज वाली प्यास तो बहुत भिन्न है! न जाने कैसे, रूद्र के लिये मानो मेरी आत्मा तड़पती है, शरीर कम्पन करता है... अब यह सब सिवाय प्यार के और क्या है?
“कब तक यूँ ही देखेंगे?”
“पता नहीं कब तक! तुम वाकई खजुराहो की देवी लग रही हो! ये गोल, कसे और उभरे हुए स्तन, पतली कमर, उन्नत नितंब! ...बिलकुल सपने में आने वाली एक परी जैसी!”
“अच्छा... आपके सपने में परियां आती हैं?” तब तक रूद्र ने मुझे अपनी बाहों में भर लिया।
वो मुझे बहुत प्यार से देख रहे थे – आँखों में वासना तो थी, लेकिन प्यार से कम! उनकी आँखों में मेरा अक्स! उनकी आँखों के प्रेम में नहाया हुआ मेरा शरीर! सचमुच, मैं हेमवती ही तो थी!
रूद्र ने क्या कहा मुझे सुनाई नहीं दिया – बस उनके होंठ जब मेरे होंठों से मिले, तो जैसे शरीर में बिजली सी दौड़ गई! मैं चुपचाप देखती हूँ की वो कैसे मेरे हर अंग को अनावृत करते जाते हैं, और चूमते जाते हैं। बस कुछ ही पलों में मैं अपने सपनों के अधिष्ठाता के साथ एक होने वाली थी।
‘बस कुछ ही पलों में....’
रूद्र मेरे निप्पलों को बारी बारी मुंह में भर कर चूस, चबा, मसल और काट रहे थे। मेरी साँसे तेजी से चलने लगीं। मेरा पूरा शरीर कसमसाने लगा। आज रूद्र कुछ अधिक ही बल से मेरे स्तन दबा रहे थे – ऐसा कोई असह्य नहीं, लेकिन हल्का हल्का दर्द होने लगा।
“अआह्ह्ह! आराम से...”
"हँ?" रूद्र जैसे किसी तन्द्रा से जागे!
“आराम से जानू... आह!”
“आराम से? तू इतनी सेक्सी लग रही है... आज तो इनमें से दूध निचोड़ लूँगा!” कह कर उन्होंने बेरहमी से एक बार फिर मसला।
"आऊ! अगर... इनमें... दूध होता... तो आपको... मज़ा... आआह्ह्ह्ह! आता?" मैंने जैसे तैसे कराहते हुए अपनी बात पूरी करी। मैं अन्यमनस्क हो कर उनके बालों में अपनी उँगलियाँ फिरा रही थी।
उन्होंने एक निप्पल को मुंह में भर कर चूसते हुए हामी में सर हिलाया। कुछ देर और स्तन मर्दन के बाद मेरी दर्द और कामुकता भरी सिसकियाँ निकलने लगी। लोहा गरम हो चला था... लेकिन रूद्र फोरप्ले में बिजी हैं!
“अब... बस...! आह! अब अपना ... ओह! लंड.. डाल दो! प्लीज़! आऊ! अब न... अआह्ह्ह! सताओ...!”
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