Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
12-17-2018, 02:15 AM,
#48
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
एक साफ़ सुथरा (वैसे तो सारे का सारा बीच ही साफ़ सुथरा था) स्थान देख कर अपना चद्दर बिछाया और बैग रख कर मैं कैमरा सेट करने लगा। उसके बाद रश्मि की ढेर सारी तस्वीरे उतारीं.. मैं उसको सिर्फ ब्रा-पैंटीज में कुछ पोज़ बनाने को बोला, तो वह लगभग तुरंत ही मान गई। किसी मॉडल की भांति सुनहरी रेत और फिरोज़ी पानी की पृष्ठभूमि में मैंने उसकी कई सुन्दर तस्वीरे उतारी। उसके बाद मैंने भी सिर्फ अपनी अंडरवियर में रश्मि के साथ कुछ युगल तस्वीरे एक और पर्यटक से कह कर उतरवाई।

यह सब करते करते कोई एक घंटा हो गया हमको बीच पर रहते हुए.. बादल कुछ कुछ हटने लगे थे, इसलिए मैंने रश्मि को कहा की मैं उसके शरीर पर सनस्क्रीन लोशन लगा देता हूँ.. नहीं तो वो झुलस कर काली हो जायेगी। मैंने रश्मि को पानी की एक बोतल पकड़ाई और वह चद्दर पर आ कर लेट गई। सूरज इस समय तक ऊर्ध्व हो गया था। उसमें तपिश तो थी, लेकिन फिर भी, समुद्री हवा, और लहरों का गर्जन बहुत ही सुखकारी प्रतीत हो रहे थे। हम दोनों चुप-चाप इस अनुभव का आनंद लेते रहे, और कुछ ही देर में मैंने रश्मि और अपने के पूरे शरीर पर सनस्क्रीन लगा लिया।

कुछ देर ऐसे ही लेटे लेटे रश्मि बोली, “आप ग़ज़ल पसंद करते हैं?”

“ग़ज़ल!? हा हा! हाँ... जब भी कभी बहुत डिप्रेस्ड होता हूँ तब!”

“डिप्रेस्ड? ऐसी सुन्दर चीज़ आप डिप्रेस्ड होने पर पसंद करते हैं?”

“सुन्दर? अरे, वो कैसे?”

“अच्छा, आप बताइए, ग़ज़ल का मतलब क्या है?”

“ग़ज़ल का मतलब? ह्म्म्म... हाँ! वो जो ग़मगीन आवाज़ में धीरे धीरे गाया जाय?” 

“ह्म्म्म अच्छा! तो आप जगजीत सिंह वाली ग़ज़ल की बात कर रहे हैं? फिर तो भई शाल भी ओढ़ ही ली जाय!”

हम दोनों इस बात पर खूब देर तक हँसे... और फिर रश्मि ने आगे कहना शुरू किया,

“एक बहुत बड़े आदमी हुए थे कभी... रघुपति सहाय साहब! जिनको फिराक गोरखपुरी भी कहा जाता है! खैर, उन्होंने ग़ज़ल को ऐसे समझाया है – मानो कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करे, और हिरन भागते-भागते किसी झाडी में फंस जाए और वहां से निकल नहीं पाए, तो वह डर के मारे एक दर्द भरी आवाज़ निकालता है। तो उसी करूण कातर आवाज़ को ग़ज़ल कहते हैं। समझिये की विवशता और करुणा ही ग़ज़ल का आदर्श हैं।“

“हम्म... इंटरेस्टिंग! कौन थे ये बड़े मियां फ़िराक?”

“उनकी क्वालिफिकेशन ससुनना चाहते हैं आप? मेरिटोक्रेटिक लोगो में यही कमी है! अपने सामने किसी को भी नहीं मानते! अच्छा.. तो रघुपति सहाय जी अंग्रेजों के ज़माने में आई सी एस (इंडियन सिविल सर्विसेज) थे, लेकिन स्वतंत्रता की लड़ाई में महात्मा गाँधी के साथ हो लिए। उनको बाद में पद्म भूषण का सम्मान भी मिला है। समझे मेरे नासमझ साजन?”

“सॉरी बाबा! लेकिन वाकई जो आप बता रही हैं बहुत ही रोचक है! आपको बहुत मालूम है इसके बारे में! और बताइए!”

“ओके! ग़ज़ल का असल मायने है ‘औरतों से बातें’! अब औरतों से आदमी लोग क्या ही बातें करते हैं? बस उनकी बढाई में कसीदे गढ़ते हैं! शुरू शुरू में ग़ज़लें ऐसी ही लिखते थे... 

‘नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये, पंखडी एक गुलाब की सी हैं।‘”

“किस गधे ने लिखी है यह! आपकी तो दो-दो गुलाब की पंखुड़ियाँ हैं!”

“हा हा हा! वेरी फनी! इसीलिए पुराने सीरियस शायर ग़ज़ल लिखना पसंद नहीं करते थे। इसको अश्लील या बेहूदी शायरी कहते थे। लेकिन जैसे जैसे वक्त आगे बढ़ा, और इस पर और काम हुआ, जीवन के हर पहलू पर ग़ज़लें लिखी गयी।“

“अच्छा – क्या आपको मालूम है की उर्दू दरअसल भारतीय भाषा है?”

आज तो मेरा ज्ञान वर्धन होने का दिन था! मैं इस ज़रा सी लड़की के ज्ञान को देख कर विस्मित हो रहा था! क्या क्या मालूम है इसको?

“न.. हीं..! उसके बारे में भी बताइए?” 

“बिलकुल! जब मुस्लिम लोग भारत आये, तब यहाँ – ख़ास कर उत्तर भारत में खड़ी-बोली या प्राकृत भाषा बोलते थे.. और वो लोग फ़ारसी या अरबी! साथ में मिलने से एक नई ही भाषा बनने लगी, जिसको हिन्दवी या फिर देहलवी कहने लगे। और धीरे धीरे उसी को आम भाषा में प्रयोग करने लगे। उस समय तक यह भाषा फ़ारसी में ही लिखी जाती थी – दायें से बाएँ! लेकिन जब इसको देवनागरी में लिखा जाने लगा, तो इसको हिंदी कहने लगे। लेकिन इसमें भी खूब सारी पॉलिटिक्स हुई – उस शुरु की हिंदी से संस्कृत बहुल शब्द हटाए गए तो वह भाषा उर्दू बनती चली गयी, और जब फारसी और अरबी शब्द हटाए गए तो आज की हिंदी भाषा बनती चली गयी। लेकिन देखें तो कोई लम्बा चौड़ा अंतर नहीं है।“

“क्या बात है! लेकिन आप ग़ज़ल की बात कर रही थी?”

“हाँ! तो उर्दू की बात मैंने इसलिए छेड़ी क्योंकि ग़ज़ल सुनने सुनाने का असली मज़ा तो बस उर्दू में ही हैं!”

“आप लिखती है?”

“नहीं! पापा लिखते हैं!”

“क्या सच? वाह! क्या बात है!! तो अब समझ आया आपका शौक कहाँ से आया!” रश्मि मुस्कुराई!

“आप क्या करती हैं? बस पापा से सुनती हैं?”

“हाँ!”

“लेकिन आपको गाना भी तो इतना अच्छा आता है! कुछ सुनाइये न?”

“फिर कभी?”

“नहीं! आपने इतना इंटरेस्ट जगा दिया, अब तो आपको कुछ सुनाना ही पड़ेगा!”

“ह्म्म्म! ओके.. यह मेरी एक पसंदीदा ग़ज़ल है ... मीर तकी मीर ने लिखी थी – कोई दो-ढाई सौ साल पहले! आप तो तब पैदा भी नहीं हुए होंगे! हा हा हा हा!”

रश्मि को ऐसे खुल कर बातें करते और हँसते देख कर, और सुन कर मुझे बहुत मज़ा आ रहा था! 

“हा हा! न बाबा! उस समय नहीं पैदा हुआ था! बूढ़ा हूँ, लेकिन उतना भी नहीं...”

“आई लव यू! एक फिल्म आई थी – बाज़ार? याद है? आप तब शायद पैदा हो चुके होंगे? उस फिल्म में इस ग़ज़ल को लता जी ने बहुत प्यार से गाया है!”

“बाज़ार? हाँ सुना तो है! एक मिनट – आप भी कुछ देर पहले कह रही थीं की ग़ज़ल औरतों की बढाई के लिए होती है.. और अभी कह रही हैं की लता जी ने गाया?”

“अरे बाबा! लेकिन लिखी तो मीर ने थी न?”

“हाँ! ओह! याद आया! ओके ओके ... प्लीज कंटिन्यू!”

“तो जनाब! पेशे-ख़िदमत है, यह ग़ज़ल...” कह कर रश्मि ने गला खंखार कर साफ़ किया और फिर अपनी मधुर आवाज़ में गाना शुरू किया,

“दिखाई दिए यूं, के बेखुद किया... दिखाई दिए यूं, के बेखुद किया,
हमे आप से भी जुदा कर चले... दिखाई दिए यूं....”

रश्मि के गाने का तो मैं उस रात से ही दीवाना हूँ! लेकिन इस ग़ज़ल में एक ख़ास बात थी – वाकई, करुणा और प्रेम से भीगी आवाज़, और साथ में उसकी मुस्कुराती आँखें! मैं इस रसीली कविता ओह! माफ़ करिए, ग़ज़ल में डूबने लगा!

“जबीं सजदा करते ही करते गई... जबीं सजदा करते ही करते गई,
हक़-ए-बंदगी हम अदा कर चले... दिखाई दिए यूं....
परस्तिश कि या तक के ऐ बुत तुझे... परस्तिश कि या तक के ऐ बुत तुझे,
नजर में सबो की खुदा कर चले... दिखाई दिए यूं....”

रश्मि गाते गाते खुद भी इतनी भाव-विभोर हो गयी, की उसकी आँखों से आंसू बहने लगे ... उसकी आवाज़ शनैः शनैः भर्राने लगी, लेकिन फिर भी मिठास में कोई कमी नहीं आई... मैंने उसके कंधे पर हाथ रख अपनी तरफ समेट लिया।

“बहोत आरजू थी गली की तेरी... बहोत आरजू थी गली की तेरी...
सो या से लहू में नहा कर चले... दिखाई दिए यूं....
दिखाई दिए यूं, के बेखुद किया... दिखाई दिए यूं, के बेखुद किया,
हमे आप से भी जुदा कर चले... दिखाई दिए यूं....”

ग़ज़ल समाप्त हो गयी थी, लेकिन मेरे दिल में एक खालीपन सा छोड़ कर चली गयी। 

“आई लव यू!” रश्मि बोली – लेकिन इतनी शिद्दत के साथ की यह तीन शब्द, तीन तीर के जैसे मेरे दिल में घुस गए... “आई लव यू सो मच!” उसकी आवाज़ में रोने का आभास हो रहा था, “मुझे आपके साथ रहना है... हमेशा! आपके बिना तो मैं मर ही जाऊंगी!”

रश्मि ने मेरे मुँह की बात छीन ली। उसकी बात सुन कर मेरी खुद की आँख से आंसू की बूँद टपक पड़ी। हाँ! मर्द को दर्द भी होता है, और मर्द रोते भी हैं.. प्यार कुछ भी कर सकता है। मैं कुछ बोल नहीं पाया – कुछ बोलता तो बस रो पड़ता। मैंने रश्मि को जोर से अपने में भींच लिया। जो उसका डर था, वही मेरा भी डर था। इतनी उम्र निकल जाने के बाद, मेरे साथ पहली बार कुछ ठीक हो रहा था। 

आप कहेंगे की ‘अरे भई, अच्छी पढाई लिखाई हुई, अच्छी नौकरी है, अच्छा कमा रहे हो – घर है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है! फिर भी कैसे गधे जैसी बात कर रहे हो! यह सब अच्छी बाते नहीं हुई?’

तो मैं कहूँगा की ‘बिलकुल! यह सब अच्छी बाते हैं! लेकिन यह सब मैं इसलिए कर पाया की मेरे मन में एक प्रतिशोध की भावना थी! जिनके कारण मेरा बाल्यकाल उजड़ गया, उनको नीचा दिखाना मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य बन गया। भोगवादी परिमाणों और मापदंडो पर ही मेरा जीवन टिका हुआ था! एक अजीब तरह का चक्रव्यूह या कहिये भंवर! जिसमें मैं खुद ही घुस गया, और न जाने कितने अन्दर तक चला गया था। लेकिन रश्मि ने आते ही मुझे ऐसा अनोखा एहसास कराया की मानो पल भर में उस भंवर से बाहर निकल आया।‘
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