RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
अचानक ही मैंने उसकी योनि में एक बदलाव महसूस किया - उसकी दीवारें तेजी से संकुचित / कम्पित होने लगीं और योनि रस की एक धारा मेरे लिंग को भिगोने लगी। पहले रश्मि ने हलकी हलकी सिसकारी भरी और फिर एक बड़ी सांस भरी। उसके बाद एक लम्बी "आँह" जैसी आवाज़ आयी। मुझे अच्छा लगा कि रश्मि अब अपने रति-निष्पत्ति के आनंद का निर्लज्ज्ता से आस्वादन करने लगी है। उसके बाद कोई चार पांच धक्कों में मेरे स्खलित वीर्य का पहला माल बड़ी प्रचंडता से मेरे लिंग से निकल कर रश्मि की गहराई में चला गया। रश्मि ने भी इसको महसूस किया होगा, क्योंकि उसी के साथ उसने भी उच्च स्वर में सांस भरी। रश्मि कि रति निष्पत्ति का उन्माद अभी बस शुरू ही हुआ था - उसने अपने दोनों पैर मेरे इर्द-गिर्द कस कर जकड लिए और पूरे जोश से धक्के लगाने लगी। उसके हर धक्के के साथ मैंने वीर्य का कुछ कुछ माल उसकी योनि में छोड़ा। उसकी योनि मेरे लिंग पर कुछ इस तरह संकुचित को रही थी जैसे उसको पूर्णतयः दुह लेगी - और उसने किया भी वही। कुछ देर ऐसे ही करने के बाद हम दोनों पूरी तरह से निढाल पड़ गए।
मैं रश्मि के बगल ही गिर गया - उसके शरीर कि तपन को मैं महसूस कर पा रहा था। इस ठंडक में भी हम दोनों का शरीर पसीने से ढक गया था। हम दोनों ही जम कर हांफ रहे थे। मैंने उसको अपनी बाँह के घेरे में लेकर कस के पकड़ लिया। हम न जाने कब तक ऐसे ही पड़े रहे, और जब चेतना लौटी तो हम लोग पुनः एक दूसरे को चूमने लगे - लेकिन इस बार कोमलता से।
अंततः मैंने उसके कोमल होंठो को चूमना छोड़ कर उससे पूछा, "सो गर्ल, डू यू लाइक मेकिंग लव?"
रश्मि ने थोड़ी देर सोचकर कहा, "यस, ओह यस!" उसकी आँखें चमक रही थीं। रश्मि को इस तरह से खुश देखना बहुत ही सुखदाई था।
आज का पूरा दिन हमारी विदाई की तैयारियों में ही बीत गया।
सुबह सवेरे ही सबसे पहला कार्य हमारी शादी का पंजीकरण करवाने का किया। मैंने नहा-धो कर पैन्ट-शर्ट और शाल पहनी, और रश्मि ने साड़ी ब्लाउज और स्वेटर! पंजीकरण का कार्य पड़ोस के बड़े कसबे में होना था, इसलिए दफ़्तर खुलने से पहले ही हम सब वहां पहुँच गए। इतने मामूली काम के लिए भी पूरी मंडली साथ आई – कहने का मतलब यह काम सिर्फ 2 गवाह और मियां-बीवी के रहने मात्र से ही हो जाता है। खैर, हमने दफ़्तर के बगल ही एक ढाबे में नाश्ता किया और सबसे पहले अपना नंबर लगवा दिया। विवाह के अभिलेखी (रजिस्ट्रार) बहुत ही मज़ेदार व्यक्ति थे – उन्होंने हम सबको चाय पिलाई, समोसे खिलाए और अपने अनुभव की कई सारी मज़ेदार बातें बतायीं। उनके साथ बहुत देर तक बात चीत करने के बाद हमने उनकी अनुमति मांगी, जिसके उत्तर में उन्होंने हमको दफ़्तर के दरवाजे तक छोड़ा और एक बार फिर से हम दोनों को हमारी शादी की बहुत बहुत बधाइयाँ दी। करीब दोपहर तक वापस आते हुए हमने रश्मि के स्कूल में जा कर उसका पहचान पत्र बनवाया और घर वापस आ गए।
हमको अगले दिन बड़े सवेरे ही निकलना था, इसलिए विदाई देने के लिए मिलने वाले लोग दोपहर बाद से ही आने लगे। मेरे दोस्त लोग तो खैर कब के वापस चले गए थे, अतः ड्राइविंग करने का सारा दारोमदार मुझ पर ही था। दोपहर का भोजन समाप्त करने तक हमारे लिए ससुराल वालों ने न जाने क्या-क्या पैक कर दिया था, जिसका पता मुझे दो-ढाई बजे हुआ। इसलिए बैठ कर मैंने बड़ी मेहनत से पैक किया हुआ सारा फालतू का सामान बाहर निकाला और सिर्फ बहुत ही आवश्यक वस्तुएँ ही रखी। रश्मि का शादी का जोड़ा, दो जोड़ी शलवार कुरता और एक स्वेटर रखा। मुझे उसकी सारी साड़ियाँ बाहर निकालते देख कर मेरी सासू माँ विस्मित हो गयी।
‘ससुराल (?) में क्या पहनेगी?... शादी के बाद कोई शलवार-कुरता पहनता है क्या!!... विवाहिता को साड़ी पहननी चाहिए... संस्कार भी कोई चीज़ होते हैं!... विधर्मी लड़की!...’ इत्यादि इत्यादि प्रकार की उन्होंने हाय तौबा मचाई! उनको मनाने में कुछ समय और चला गया। मैंने समझाया की रश्मि के ससुराल में सिर्फ पति है – ससुर नहीं! तो ससुराल नहीं, पाताल बोलिए! यह भी समझाया की साड़ी अत्यंत अव्यावहारिक परिधान है... मानिए किसी स्त्री को कोई सड़क-छाप कुत्ता दौड़ा ले, तो साड़ी में वह तो भाग ही न पाएगी! और तो और शरीर भी पूरा नहीं ढकता है, और छः-सात मीटर कपड़ा यूँ ही वेस्ट हो जाता है!! मेरी दलीलों से मरी सासू माँ चुप तो हो गईं, लेकिन मन ही मन उन्होंने मुझे खूब कोसा होगा, क्योंकि सब मेरी बात पर हँस-हँस कर लोट-पोट हो गए!
खैर, आवश्यकता की समस्त वस्तुएँ जैसे विवाह प्रमाणपत्र, रश्मि का हाई-स्कूल प्रमाणपत्र और स्कूल पहचान-पत्र, मेरा पासपोर्ट, हवाई टिकट इत्यादि सबसे पहले ही रख ली; उसके बाद में कपड़े, आवश्यकतानुसार अन्य सामग्री, और तत्पश्चात कुछ वैवाहिक भेंट! कुल मिलकर दो बैग बने! मेरे बैग मिलाकर चार! सासू माँ इसी बात से दुखी थी की हम लोगो ने कुछ रखा ही नहीं और यह की लोग क्या कहेंगे की ससुराल वालों ने कुछ भेंट ही नहीं दी। उनको और समझाना मेरे लिए न केवल बेकार था, बल्कि मेरी खुद की क्षमता से बाहर भी था।
शाम को कोई चार - साढ़े चार बजे किसी ने बताया की भारी बारिश का अंदेशा है – केदार घाटी और बद्रीनाथ में हिमपात हो रहा था और उसके नीचे बारिश। ऐसे में भूस्खलन की संभावना हो सकती है। कुछ देर के विचार विमर्श के पश्चात सबने यह निर्णय लिया की मैं और रश्मि तुरंत ही नीचे की तरफ निकल लेते हैं, जिससे आगे ड्राइव करने में आसानी रहे। सासू माँ को यह ख़याल अच्छा नहीं लगा, लेकिन ससुर जी व्यवहारिक व्यक्ति थे, अतः मान गए। वैसे भी आठ-दस घंटो में ऐसा क्या ही अलग होने वाला था। इस अप्रत्याशित व्यवस्था के लिए कोई भी तैयार नहीं था – एक तरह से यह अच्छी बात साबित हुई। क्योंकि विदाई के नाम पर अनावश्यक रोने-धोने का कार्यक्रम करने के लिए किसी को मौका ही नहीं मिला। एक दो महिलाओं ने कोशिश तो ज़रूर करी की मगरमच्छी आंसू बहाए जायँ, लेकिन ससुर जी ने उनको डांट-डपट कर चुप करा दिया। हम दोनों ने सारे बुजुर्गों के पांव छुए और उनसे आशीर्वाद लिया। मैंने सुमन को छेड़ने के लिए (आखिर जीजा हूँ उसका!) दोनों गालों पर ज़ोर से पप्पी ली, और उसको एक लिफ़ाफ़ा दिया, जो मैं सिर्फ उसके लिए पहले से लाया था। सुमन को बाद में मालूम पड़ेगा की उसमें क्या है, लेकिन उसके पहले ही आपको बता दूं की उसमें बीस हज़ार एक रुपए का चेक था। इसी बहाने सुमन के नाम में एक बैंक अकाउंट खुल जाएगा और उसके पढाई, और ज़रुरत के कुछ सामान आ जायेंगे।
एक संछिप्त विदाई के साथ ही रश्मि और मैंने वापस देहरादून के लिए प्रस्थान आरम्भ किया। वैसे भी आज देहरादून पहुँचना संभव नहीं था – इसलिए कोई दो तीन घंटे के ड्राइव के बाद कहीं ठहरने, और फिर सुबह देहरादून को निकलने का प्रोग्राम था। मेरी किराए की कार एक SUV थी – न जाने क्या सोच कर लिया था। लेकिन, मौसम की ऐसी संभावनाओं में SUV बहुत ही कारगर सिद्ध होती है। वैसे भी पहाड़ों पर ड्राइव करने में मुझे कोई ख़ास अनुभव तो था नहीं, इसलिए धीरे ही चलना था। यात्रा आरम्भ करने के पंद्रह मिनट में ही मुझे अपनी कार के फायदे दिखने लगे – एक तो काफी बड़ी गाड़ी है, तो सामान रखने और आराम से बैठने में आसानी थी। बड़े पहिये होने के कारण खराब सड़क पर आसानी से चल रही थी। शाम होते होते ठंडक काफी बढ़ गई थी, तो कार का वातानुकूलक अन्दर गर्मी भी दे रहा था। मैंने रश्मि से कुछ कुछ बातें करनी चाही, लेकिन वो अभी अपने परिवार वालो के बिछोह के दुःख से बात नहीं कर रही थी – ऐसे में गाड़ी का संगीत तंत्र मेरा साथ दे रहा था।
बारिश अचानक ही आई, और वह भी बहुत ही भारी – सांझ और बादलों का रंग मिल कर बहुत ही अशुभ प्रतीत हो रहा था। एक मद्धम बूंदा-बांदी न जाने कब भारी बारिश में तब्दील हो गयी। न जाने किस मूर्खता में मैं गाड़ी चालाये ही जा रहा था – जबकि सड़क से यातायात लगभग गायब ही हो गया था। भगवान् की दया से वर्षा का यह अत्याचार कोई दस मिनट ही चला होगा – उसके बाद से सिर्फ हलकी बूंदा-बांदी ही होती रही। घर से निकलने के कोई एक घंटे बाद बारिश काफी रुक गई। रश्मि का मन बहलाने के लिए मैंने उसको अपने घर फोन करने के लिए कहा। उसने ख़ुश हो कर घर पे कॉल लगाया और सबसे बात करी – हम लोग कहाँ है, उसकी भी जानकारी दी और देर तक बारिश के बारे में बताया। और इतनी ही देर में घुप अँधेरा हो गया था, और अब मेरे हिसाब से गाड़ी चलाना बहुत सुरक्षित नहीं था।
“आगे कोई धर्मशाला आये, तो रोक लीजियेगा”, रश्मि ने कहा, “काफी अँधेरा है, और बारिश भी! अगर कहीं फंस गए तो बहुत परेशान हो जायेंगे।“
“बिलकुल! वैसे भी आज रात में ड्राइव करते रहने का कोई इरादा नहीं है मेरा। कोई ढंग का होटल आएगा तो रोक लूँगा। आज दिन की भाग-दौड़ से वैसे भी थक गया हूँ।“
ऐसे ही बात करते करते मुझे एक बंगला, जिसको होटल बना दिया गया था, दिखाई दिया। बाहर से देखने पर साफ़ सुथरा और सुरक्षित लग रहा था। इस समय रात के लगभग आठ बज रहे थे, और इतनी रात गए और आगे जाने में काफी अनिश्चितता थी – की न जाने कब होटल मिले? देखने भालने में ठीक लगा, तो वहीँ रुकने का सोचा। यह एक विक्टोरियन शैली में बनाया गया बंगला था, जिसमें चार कमरे थे – कमरे क्या, कहिये हाल थे। ऊंची-ऊंची छतें, उनको सम्हालती मोटे-मोटे लकड़ी की शहतीरें, दो कमरों में अलाव भी लगे हुए थे। साफ़ सुथरे बिस्तर। रात भर चैन से सोने के लिए और भला क्या चाहिए? होटल में हमसे पहले सिर्फ एक ही गेस्ट ठहरे हुए थे – इसलिए वहां का माहौल बहुत शांत, या यूँ कह लीजिये की निर्जन लग रहा था। गाड़ी पार्क कर के रश्मि और मैं कमरे के अन्दर आ गए। पता चला की वहां पर खाना नहीं बनाते (मतलब कोई रेस्त्राँ नहीं है, और खाना बाहर से मंगाना पड़ेगा)। मैंने परिचारक को कुछ रुपये दिए और गरमा-गरम खाना बाहर से लाने को कह भेजा। मेनेजर को यह कहला दिया की सवेरे नहाने के लिए गरम पानी का बंदोबस्त कर दें!
एक परिचारक गया, तो दूसरा अन्दर आ गया। उसने कमरे के अलाव में लकड़ियाँ सुलगा दी, जिससे कुछ ही देर में थोड़ी थोड़ी ऊष्मा होने लगी और कमरे के अन्दर का तापमान शनैः-शनैः सुहाना होने लगा। इस पूरी यात्रा के दौरान न तो मैं रश्मि से ठीक से बात कर पाया, और न ही उसकी ठीक से देख-भाल ही कर पाया। उसकी शकल देख कर साफ़ लग रहा था की वह बहुत ही उद्विग्न थी। सम्भंतः बिछोह का दुःख और बीच की भीषण वर्षा का सम्मिलित प्रभाव हो!
“हनी! थक गई?” मैंने पूछा। रश्मि ने ‘न’ में सर हिलाया।
“तो फिर? तबियत तो ठीक है?”
रश्मि ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“अरे तो कुछ बात तो करो! या फिर साइन लैंग्वेज में बात करेंगे हम दोनों?”
अपना वाक्य ख़तम करते करते मुझे एक तुकबंदी गाना याद आ गया, तो मैंने उसको भी जोड़ दिया,
“साइन लैंग्वेज में बात करेंगे हम दोनों!
इस दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों!
खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों!”
रश्मि मुस्कुराई, “सबकी बहुत याद आ रही है – और शायद थोड़ा थक गयी हूँ और...... डर भी गई! ऐसी बारिश में हमको रुक जाना चाहिए था!” उसने बोला।
“अरे! बस इतनी सी बात? लाओ, मैं तुम्हारे पांव दबा देता हूँ।“
“नहीं नहीं! क्यों मुझे पाप लगवाएंगे मेरे पैर छू कर?”
“अरे यार! तुम थोड़ा कम बकवास करो!” मैंने मजाकिए लहजे में रश्मि को झिड़की लगाई। “शादी करते ही तुम अब मेरी हो – मतलब तन, और मन दोनों से! मतलब तुम्हारा तन अब मेरा है – और इसका मतलब तुम्हारा पांव भी मेरा है। और मेरे पांव में दर्द हो रहा है! समझ में आई बात?”
“आप माँ वाली दलीलें मुझे भी दे रहे हैं! आपने आज उनको बहुत सताया!”
“आपको भी सताऊँ?”
और कोई चार-पांच मिनट तक मनुहार करने के बाद वो राज़ी हो गई।
मैंने रश्मि को कुर्सी पर बैठाया और सबसे पहले उसकी सैंडल उतार दी – यह कोई कामुक क्रिया नहीं थी (हांलाकि मैंने पढ़ा है की कुछ लोग इस प्रकार की जड़ासक्ति रखते हैं और इसको foot-fetish भी कहा जाता है), लेकिन फिर भी मुझे, और रश्मि को भी ऐसा लगा की जैसे उसको एक प्रकार से निर्वस्त्र किया जा रहा हो। रश्मि की उद्विग्नता इतने में ही शांत होती दिखी। चाहे कैसी भी तकलीफ हो, पांव की मालिश उसको दूर कर ही देती है। मैंने रश्मि के दाहिने पांव के तलवे के नीचे के मांसल हिस्से को अपने अंगूठे से घुमावदार तरीके से मालिश करना आरम्भ किया। कुछ देर में उसके पांव की उँगलियों के बीच के हिस्से, तलवे और एड़ी को क्रमबद्ध तरीके से मसलना और दबाना जारी रखा। पांच मिनट के बाद, ऐसा ही बाएँ पांव को भी यही उपचार दिया। इस क्रिया के दौरान मैंने रश्मि को देखा भी नहीं था, लेकिन मैंने जब दूसरे पांव की मालिश समाप्त की, तो मैंने देखा की रश्मि की आँखें बंद हैं, और उसकी साँसे तेज़ हो चली थीं।
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