RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
अगली सुबह सूर्य की पहली किरण के साथ ही मैं रश्मि से मिलने निकल पड़ा। मौसम अच्छा था - हलकी बारिश और मंद मंद बयार। ऐसे में तो पूरे चौबीस घंटे ड्राइव किया जा सकता है। लेकिन, पहाड़ों पर थोड़ी मुश्किल आती है। खैर, मन की उमंग पर नियंत्रण रखते हुए मैंने जैसे तैसे ड्राइव करना जारी रखा - बीच बीच में खाने पीने और शरीर की अन्य जरूरतों के लिए ही रुका। ऐसे करते हुए शाम ढल गयी, लेकिन फिर भी रश्मि का घर कम से कम पांच घंटे के रास्ते पर था। बारिश के मौसम में, और वह भी शाम को, पहाडो पर ड्राइव करने के लिए बहुत ही अधिक कौशल चाहिए। अतः मैंने वह रात एक छोटे से होटल में बिताई। अगली सुबह नहा धोकर और नाश्ता कर मैंने फिर से ड्राइव करना शुरू किया और करीब छह घंटे बाद भंवर सिंह के घर पहुँचा।
सवेरे निकलने से पहले मैंने उनको फोन कर दिया था की आज ही आने वाला हूँ, इसलिए उनके घर पर सामान्य दिनों से अधिक चहल पहल देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। दरवाज़े पर भंवर सिंह और सुमन ने मेरा स्वागत किया और मुझे घर के अन्दर ससम्मान लाया गया। घर के अन्दर चार पांच बुजुर्ग पुरुष थे - उनमे से एक तो निश्चित रूप से पण्डित लग रहा था। जान पहचान के समय यह बात भी साफ़ हो गयी। भंवर सिंह वाकई आज मेरे प्रस्ताव को अगले स्तर पर ले जाना चाहते थे। उन बुजुर्गो में दो लोग भंवर सिंह के बड़े भाई थे, और बाकी लोग उस समाज के मुखिया थे। भारतीय शादियाँ, विशेष तौर पर छोटी जगह पर होने वाली भारतीय शादियाँ काफी जटिल और पेचीदा हो सकती हैं - इसका ज्ञान मुझे अभी हो रहा था।
ऐसे ही हाल चाल लेते हुए दोपहर का खाना जमा दिया गया। बहुत ही रुचिकर गढ़वाली खाना परोसा गया था - पेट भर गया, लेकिन मन नहीं। नाश्ता सवेरे किया था, इसलिए भूख तो जम कर लगी थी - इसलिए मैंने तो डटकर खाया। खाना खाते हुए अन्य लोगो से मेरे उत्तराँचल आने, मेरे पढाई और काम के विषय में औपचारिक बाते हुईं। वैसे भी उन लोगो को अब मेरे बारे में काफी कुछ मालूम हो चुका था, बस वहां बात करने के लिए कुछ तो होना चाहिए - ऐसा सोच कर बस खाना पूरी चल रही थी।
खाने के बाद अब गंभीर विषय पर चर्चा होनी थी।
भंवर सिंह : "रूद्र जी, मैं जानता हूँ की आप बहुत अच्छे आदमी हैं, और आपके जैसा वर ढूंढना मेरे अपने खुद के बस में संभव नहीं है... और मैं यह भी जानता हूँ की आप मेरी बेटी को बहुत जिम्मेदारी और प्यार से रखेंगे। लेकिन.. यह सब बातें आगे बढ़ें, इसके पहले मैं आपको बता दूं की हम लोग अपनी परम्पराओं में बहुत विश्वास रखते हैं।"
मैंने सिर्फ अपना सर सहमती में हिलाया... भंवर सिंह ने बोलना जारी रखा, ".... वैसे तो हम लोग अपने समाज के बाहर अपने बच्चो को नहीं ब्याहते, लेकिन आपकी बात कुछ और ही है। फिर भी, जन्म-पत्री और कुंडली तो मिलानी ही पड़ती है न..."
"मुझे इस बात पर कोई ऐतराज़ नहीं... आप मिला लीजिये..." मैंने मन ही मन शक्ति को उनकी मूर्खता के लिए कोसा, 'कहीं ये बुड्ढा कचरा न कर दे'
"इसके लिए मैंने पंडित जी को बुलाया था... आप अपनी जन्मतिथि, समय और जन्म-स्थान बता दीजिये। पंडित जी इसका मिलान कर देंगे।"
"बिलकुल .." यह कह कर मैंने पंडित को अपने जन्म सम्बंधित सारे ब्योरे दे दिए। पंडित ने अपने मोटे-मोटे पोथे खोल कर न जाने कौन सी प्राचीन, लुप्तप्राय पद्धति लगा कर हमारे भविष्य के लिए निर्णय लेने की क्रिया शुरू कर दी। यह सब करने में करीब करीब एक घंटा लगा होगा उस मूर्ख को। खैर, उसने अंततः घोषणा करी की लड़का और लड़की के बीच अष्टकूट मिलान छब्बीस हैं, और यह विवाह श्रेयष्कर है। यह सुनते ही वहां उपस्थित सभी लोगो में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी - खासतौर पर मुझमें। चूंकि घर की सारी स्त्रियाँ और लड़कियां घर के अन्दर के कमरों में थीं, इसलिए मुझे उनके हाव-भाव का पता नहीं।
खैर, इस घोषणा के बाद भंवर सिंह और उनकी पत्नी दोनों ने मुझे कुर्सी पर आदर से बिठा कर मेरे मस्तक पर तिलक लगाया और मिठाई खिलाई। मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा था की यह सब क्या हो रहा था - खैर, मैं भी बहती धारा के साथ बहता जा रहा था। ऐसे ही कुछ लोगो ने टीका इत्यादि किया - अभी यह क्रिया चल ही रही थी की बैठक में रश्मि आई। उसने लाल रंग की साड़ी पहनी हुई थी - शायद अपनी माँ की। हिन्दू रीतियों में लाल रंग संभवतः सबसे शुभ माना जाता है। इसलिए शादी ब्याह के मामलों में लाल रंग की ही बहुतायत है। साड़ी का पल्लू उसके सर से होकर चेहरे पर थोड़ा नीचे आया हुआ था - इतना की जिससे आँख ढँक जाए।
'क्या बकवास!' मैंने मन में सोचा, 'इतना दूर आया... और चेहरा भी नहीं देख सकता ..!'
खैर, रश्मि को मेरे बगल में एक कुर्सी पर बैठाया गया। वहां बैठे समस्त लोगो के सामने हम दोनों का विधिवत परिचय दिया गया। उसके बाद पंडित ने घोषणा करी की वर (यानि की मैं), वधु (यानि की रश्मि) से विवाह करने की इच्छा रखता हूँ और यह की दोनों परिवारों के और समाज के वरिष्ठ जनो ने इस विवाह के लिए सहमति दे दी है। उसके बाद सभी लोगो ने हम दोनों को अपनी हार्दिक बधाइयाँ और आशीर्वाद दिए। मैंने और रश्मि ने एक दूसरे को मिठाई खिलाई।
पंडित ने एक और दिल तोड़ने वाली बात की घोषणा की - यह की अभी चातुर्मास चल रहा है, इसलिए विवाह की तिथि नवम्बर में निश्चित है। मेरा मन हुआ की इस बुढऊ का सर तोड़ दिया जाए। खैर, कुछ किया नहीं जा सकता था। बस इन्तजार करना पड़ेगा। यह भी तय हुआ की शादी पारंपरिक रीति के साथ की जायेगी। यह सब होते होते शाम ढल गयी। उन लोगो ने रात में वहीँ रुकने का अनुरोध किया, लेकिन मैंने उनसे विदा ली, और अपने पहले वाले होटल में रात गुजारी। होटल के मालिक ने मुझे बधाई दी और मुझे मुफ्त में रात का खाना खिलाया।
सवेरे उठने के साथ मैंने सोचा की अब आगे क्या किया जाए! शादी के लिए छुट्टी तो लेनी ही पड़ेगी, तो क्यों न यह छुट्टियाँ बचा ली जाए, और वापस चला जाया जाए। इस समय का उपयोग घर इत्यादि जमाने में किया जा सकता था। अतः मैंने सवेरे ही भंवर सिंह के घर जा कर अपनी यह मंशा उनको बतायी। उन्ही के यहाँ खाना इत्यादि खा कर मैंने वापसी का रुख लिया। दुःख की बात यह की जाते समय रश्मि से बात भी न हो सकी और न ही मुलाकात।
'दकियानूसी की हद!' खैर, क्या कर सकते हैं!
वापस कब घर आ गया, कुछ पता ही नहीं चला। समय कहाँ उड़ गया - बस खयालो की दुनिया में ही घूमता रहा। कुछ याद नहीं की कब ड्राइव करके वापस देहरादून पहुँचा और कब वापस घर!
रश्मि के लिए मेरे प्रेम ने मुझे पूरी तरह से बदल दिया था। सुना था, की लोग प्रेम के चक्कर में पड़ कर न जाने कैसे हो जाते हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोचा था की मेरा भी यही हाल होगा। घर पहुँचने के बाद मैं जो भी कुछ कर रहा था, वह सब रश्मि को ही ध्यान में रख कर कर रहा था। बेडरूम की सजावट कैसी हो, उसी ताज पर नया बेड और नयी अलमारियां खरीदीं, खिडकियों के परदे और दीवारों की सजावट सब बदलवा दी। मुझे जानने वाले सभी लोग आश्चर्यचकित थे। इन कुछ महीनों में मैंने क्या क्या किया, उसका ब्यौरा तो नहीं दूंगा, लेकिन अगर कुछ ही शब्दों में बयान करना हो तो बस इतना कहना काफी होगा की 'प्यार में होने' का एहसास गज़ब का था। ऐसा नहीं था की मैं और रश्मि फोन पर दिन रात लगे रहते थे - वास्तविकता में इसका उल्टा ही था। विवाह के अंतराल तक हमारी मुश्किल से पांच-छः बार ही बात हुई थी, और वह भी निश्चित तौर पर उसके परिवार वालो के सामने। लिहाज़ा, मिला-जुला कर कोई पांच-छः मिनट! बस! लेकिन फिर भी, उसकी आवाज़ सुन कर दुनिया भर की एनर्जी भर जाती मुझमे, जो उसके अगले फोन तक मुझको जिला देती। मेरा सचमुच का कायाकल्प हो गया था।
खैर, अंततः वह दिन भी आया जब मुझे रश्मि को ब्याहने उसके घर जाना था। निकलने से पूर्व, एक इवेंट आर्गेनाइजर को बुला कर विवाहोपरांत रिसेप्शन भोज के निर्देश दिए और घर की चाबियाँ हाउसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी को सौंप कर वापस उत्तराँचल चल पड़ा।
बरात के नाम पर मेरे दो बहुत ही ख़ास दोस्त आ सके। खैर, मुझे बरात जैसे तमाशों की आवश्यकता भी नहीं थी। कोर्ट में ज़रूरी कागजात पर हस्ताक्षर करना मेरे लिए काफी था। विवाह, दरअसल मन से होता है, नौटंकी से नहीं। मंत्र पढने, आग के सामने चक्कर लगाने से विवाह में प्रेम, आदर और सम्मान नहीं आते – वो सब प्रयास कर के लाने पड़ते हैं। लेकिन मैं यह सब उनके सामने नहीं बोल सकता था – उन सबके लिए अपनी बड़ी लड़की का विवाह करना बहुत ही बड़ी बात थी, और वो सभी इस अवसर को अधिक से अधिक पारंपरिक तौर-तरीके से मनाना चाहते थे। मेरे मित्रों ने देहरादून से स्वयं ही गाड़ी चलाई, और मुझे नहीं चलाने दी। उस कसबे में सबसे अच्छे होटल में हमने कमरे बुक कर लिए थे, जिससे कोई कठिनाई नहीं हुई।
विवाह सम्बन्धी क्रियाविधियां और संस्कार, शादी के दो दिन पहले से ही प्रारंभ हो गयी - ज्यादातर तो मुझे समझ ही नहीं आयीं, की क्यों की जा रही हैं। पारंपरिक बाजे गाजे, संगीत इत्यादि कभी मनोरम लगते तो कभी बेहद चिढ़ पैदा करने वाले! कम से कम एक दर्जन, लम्बी चौड़ी विवाह रीतियाँ (मुझे नही लगता की आपको वह सब विस्तार में जानने में कोई रूचि होगी) संपन्न हुईं, तब कहीं जाकर मुझे रश्मि को अपनी पत्नी कहने का अधिकार मिला। यह सब होते होते इतनी देर हो चली थी की मेरा मन हुआ की बस अब जाकर सो जाया जाए। ऐसी हालत में भला कौन आदमी सेक्स अथवा सुहागरात के बारे में सोच सकता है! मैंने अपनी घड़ी पर नज़र डाली, देखा अभी तो मुश्किल से सिर्फ दस बज रहे थे - और मुझे लग रहा था की रात के कम से कम दो बज रहे होंगे। सर्दियों में शायद पहाड़ों पर रात जल्दी आ जाती है, जिसकी मुझे आदत नहीं थी। खैर, अगले आधे घंटे में हमने खाना खाया और शुभचिंतकों से बधाइयाँ स्वीकार कर, विदा ली।
खैर, तो मेरी सुहागरात का समय आ ही गया, और रश्मि जैसी परी अब पूरी तरह से मेरी है - यह सोच सोच कर मैं बहुत खुश हो रहा था। अब भई यहाँ मेरी कोई भाभी या बहन तो थी नहीं – अन्यथा सोने के कमरे में जाने से पहले चुंगी देनी पड़ती। मुझे सुमन ने सोने के कमरे का रास्ता दिखाया। मैंने उसको गुड नाईट और धन्यवाद कहा, और कमरे में प्रवेश किया। हमारे सोने का इन्तेजाम उसी घर में एक कमरे में कर दिया गया था। यह काफी व्यवस्थित कमरा था - उसमे दो दरवाज़े थे और एक बड़ी खिड़की थी। कमरे के बीच में एक पलंग था, जो बहुत चौड़ा नहीं था (मुश्किल से चार फीट चौड़ा रहा होगा), उस पर एक साफ़, नयी चद्दर, दो तकिये और कुछ फूल डाले गए थे। रश्मि उसी पलंग पर अपने में ही सिमट कर बैठी हुई थी। रश्मि ने लाल और सुनहरे रंग का शादी में दुल्हन द्वारा पहनने वाला जोड़ा पहना हुआ था। मैं कमरे के अन्दर आ गया और दरवाज़े को बंद करके पलंग पर बैठ गया। पलंग के बगल एक मेज रखी हुई थी, जिस पर मिठाइयाँ, पानी का जग, गिलास, और अगरबत्तियां लगी हुई थी। पूरे कमरे में एक मादक महक फैली हुई थी। बाहर हांलाकि ठंडक थी, लेकिन इस कमरे में ठंडक नहीं लग रही थी।
'क्या सोच रही होगी ये? क्या इसके भी मन में आज की रात को लेकर सेक्सुअल भावनाएं जाग रही होंगी?'
मैं यही सब सोचते हुए बोला - "रश्मि ..?"
"जी"
"आई लव यू....."
जवाब में रश्मि सिर्फ मुस्कुरा दी।
"मैं आपका घूंघट हटा सकता हूँ?" रश्मि ने धीरे से हाँ में सर हिलाया।
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