RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
अगले एक सप्ताह तक मैंने बद्रीनाथ देवस्थान, फूलों की घाटी, कई सारे प्रयाग, और कुछ अन्य छोटे स्थानिक मंदिर भी देखे। हिमालय की गोद में चलते, प्राकृतिक छटा का रसास्वादन करते हुए यह एक सप्ताह न जाने कैसे फुर्र से उड़ गया। प्रत्येक स्थान मुझको अपने ही तरीके से अचंभित करता। अब जैसे बद्रीनाथ देवस्थान की ही बात कर लें – मंदिर से ठीक पूर्व भीषण वेग से बहती अलकनंदा नदी यह प्रमाणित करती है की प्रकृति की शक्ति के आगे हम सब कितने बौने हैं। इसी ठंडी नदी के बगल ही एक तप्त-कुंड है, जहाँ भूगर्भ से गरम पानी निकलता है। हम वैज्ञानिक तर्क-वितर्क करने वाले आसानी से कह सकते हैं की भूगर्भीय प्रक्रियाओं के चलते गरम पानी का सोता बन गया। किन्तु, एक आम व्यक्ति के लिए यह दैवीय चमत्कार से कोई कम नहीं है। मंदिर के प्रसाद में मिलने वाली वन-तुलसी की सुगंध, थके हुए शरीर से साड़ी थकान खींच निकालती है। और सिर्फ यही नहीं। प्रत्येक सुबह, सूरज की पहली किरणें नीलकंठ पर्वत की छोटी पर जब पड़ती हैं, तो उस पर जमा हुआ हिम (बरफ) ऐसे जगमगाता है, जैसे की सोना!
ऐसे चमत्कार वहां पग-पग पर होते रहते हैं। ताज़ी ठंडी हवा, हरे भरे वृक्ष, जल से भरी नदियों का नाद, फूलों की महक और रंग, नीला आकाश, रात में (अगर भाग्यशाली रहे तो) टिमटिमाते तारे और विभिन्न नक्षत्रों का दर्शन, कभी होटल में, तो कभी ऐसे खुले में ही टेंट में रहना और सोना - यह सब काम मेरी घुड़दौड़ वाली जिंदगी से बेहद भिन्न थे और अब मुझे मज़ा आने लग गया था। मैंने मानो अपने तीस साल पुराने वस्त्रों को कहीं रास्ते में ही फेंक दिया और इस समय खुले शरीर से प्रकृति के ऐसे मनोहर रूप को अपने से चिपटाए जा रहा था।
सबसे आनंददायी बात वहां के स्थानीय लोगो से मिलने जुलने की रही। सच कहता हूँ की उत्तराँचल के ज्यादातर लोग बहुत ही सुन्दर है - तन से भी और मन से भी। सीधे सादे लोग, मेहनतकश लोग, मुकुराते लोग! रास्ते में कितनी ही सारी स्त्रियाँ देखी जो कम से कम अपने शरीर के भार के बराबर बोझ उठाए चली जा रही है - लेकिन उनके होंठो पर मुस्कराहट बदस्तूर बनी हुई है! सभी लोग मेरी मदद को हमेशा तैयार थे - मैंने एकाध बार लोगो को कुछ रुपये भी देने चाहे, लेकिन सभी ने इनकार कर दिया - 'भला लोगो की भलाई का भी कोई मोल होता है?' छोटे-छोटे बच्चे, अपने सेब जैसे लाल-लाल गाल और बहती नाक के साथ इतने प्यारे लगते, की जैसे गुड्डे-गुडियें हों! इन सब बातो ने मेरा मन ऐसा मोह लिया की मन में एक तीव्र इक्छा जाग गयी की अब यही पर बस जाऊं।
खैर, मैं इस समय 'फूलों की घाटी' से वापस आ रहा था। वहां बिताये चार दिन मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। कोई साधे तीन किलोमीटर ऊपर स्थित इस घाटी में अत्यंत स्थानीय, केवल उच्च पर्वतीय क्षेत्र में पाये जाने वाले फूल मिलते हैं। फूलों से भरी, सुगंध से लदी इस घाटी को देखकर ऐसा ही लगता है की उस जगह मैं वाकई देवों और अप्सराओं का स्थान होगा। बचपन में आप सब ने दादी की कहानियों में सुना होगा की परियां जमीन पर आकर नाचती हैं। मेरे ख़याल से अगर धरती पर कोई ऐसा स्थान है, तो वह ‘फूलों की घाटी’ ही है। मेरे जैसा एकाकी व्यक्ति इस बात को सोच कर ही प्रसन्न हो गया की इस जगह से "मानव सभ्यता" से दूर-दूर तक कोई संपर्क नहीं हो सकता। न कोई मुझे परेशान करेगा, और न ही मैं किसी और को। लेकिन पहाड़ो के ऊपर चढ़ाई, और उसके बात उतराई में इतना प्रयास लगा की बहुत ज्यादा थकावट हो गयी। इतनी की मैं वहां से वापस आने के बाद करीब आधा दिन तक मैं अपनी गाडी में ही सोता रहा।
वापसी में मैं एक घने बसे कस्बे में (जिसका नाम मैं आपको नहीं बताऊँगा) आ गया। मैंने गाडी रोक दी की, थोडा फ्रेश होकर खाना खाया जा सके। एक भले आदमी ने मेरे नहाने का बंदोबस्त कर दिया, लेकिन वह बंदोबस्त सुशीलता से परे था। सड़क के किनारे खुले में एक हैण्डपाइप, और एक बाल्टी और एक सस्ता सा साबुन। खैर, मैंने पिछले ३ दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए मेरा ध्यान सिर्फ तरो-ताज़ा होने का था। मैं जितनी भी देर नहाया, उतनी देर तक वहां के लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना रहा। विशेषतः वहां की स्त्रियों के लिए - वो मुझे देख कर कभी हंसती, कभी मुस्कुराती, तो कभी आपस में खुसुर-फुसुर करती। वैसे, अपने आप अपनी बढाई क्या करूँ, लेकिन नियमित आहार और व्यायाम से मेरा शरीर एकदम तगड़ा और गठा हुआ है और चर्बी रत्ती भर भी नहीं है। व्यायाम करना मेरे लिए सबसे बड़ा भोग-विलास है, यद्यपि कभी कभार द्राक्षासव का सेवन भी करता हूँ, लेकिन सिर्फ कभी कभार। इसी के कारण मुझे पिछले कई वर्षों से प्रतिदिन बारह घंटे कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हो सकता है की ये स्त्रियाँ मुझे आकर्षक पाकर एक दूसरे से अपनी प्रेम कल्पना बाँट रही हों - ऐसे सोचते हुए मैंने भी उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया।
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