RE: Hindi Porn Story मीनू (एक लघु-कथा)
अपने मन में उठने वाले इस विचार से उसका स्खलन होते होते बचा। खैर, उसने मीनू को करधनी पहना दी। समय लगा – लेकिन उसने अपनी धर्मपत्नी को पहली बार इतने अन्तरंग क्षणों में देखा और छुआ। वो खुश था।
“हो गया! अब मुझे दिखाइए तो, कि कैसा लगता है!”
उसकी हिम्मत बढती ही जा रही थी। लेकिन फिर भी मीनू की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। कुछ देर उसने उसके कुछ कहने और करने का इंतज़ार किया, और कुछ न होता देख कर थोड़ा सा अधीर हो गया। उसने मीनू के हाथ पकड़े और उसको बिस्तर से उतार कर ज़मीन पर खड़ा कर दिया।
“ह्म्म्म... अरे वाह! आप पर तो ये बहुत सुन्दर लग रहा है। लेकिन कहना पड़ेगा, कि यह सुन्दर इसलिए लग रहा है, क्योंकि आप पर है...”
उसने बहुत ही काव्यात्मक भाषा में मीनू के रूप की बढ़ाई कर डाली। सच में – मीनू सचमुच में किसी अप्सरा की भांति ही प्रतीत हो रही थी। वो अपनी सुध बुध खो कर कुछ देर उसकी सुन्दरता को निहारता रहा। उसकी हिम्मत अपने शिखर पर थी। उसने एक आखिरी प्रहार किया,
“ठीक से दिख नहीं रहा है..” कहते हुए उसने मीनू के लहँगे का नारा पकड़ कर खींचना शुरू कर दिया।
मीनू को आदर्श से ऐसी हिमाकत की उम्मीद नहीं थी। इसलिए वो इस प्रकार के प्रहार के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थी। इस अचानक हुए हमले से वो भौंचक हो गई, और प्रतिक्रिया स्वरुप अपने बचाव में ज़मीन पर ही बैठ गई। बैठते हुए वो गुस्से से चीखी,
“नही... मुझे मत छुओ! मुझे छूने की हिम्मत भी मत करो! मैं तुम्हारे भाई को चाहती हूँ.. मेरे लिए वही मेरे पति हैं.. मैं तुमको अपना नहीं मान पाऊंगी.. कभी नहीं...” कहते हुए वो सुबकने और रोने लगी।
मीनू की इस एक बात ने आदर्श के सारे सपने चकनाचूर कर दिए। वो भी भौंचक हो कर पलंग के किनारे पर सर थाम कर बैठ गया। उसको समझ ही नहीं आया कि वो क्या करे! काफी देर वो यूँ ही सर पर हाथ धरे बैठा रहा; मीनू सुबकती रही। अंततः, वो धीरे से उठा, और भारी डग भरते हुए कमरे से बाहर निकल गया।
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किसी आदर्श भारतीय बहू के समान मीनू ने तुरंत ही पूरे घर और कारोबार की जिम्मेदारी अपने सर पर ले ली, और साथ ही साथ लक्ष्मी देवी को अनावश्यक कार्यों से मुक्ति दे दी। मीनू न केवल उच्च शिक्षित लड़की थी, बल्कि एक बेहद समझदार लड़की भी थी। साथ ही साथ उसको कृषि और उससे सम्बंधित व्यापार के बारे में अच्छी समझ भी थी। अपने घर पर उसने अपने पिताजी का अक्सर हाथ बँटाया था। इसलिए अपने ससुराल आकर उसने कृषि और वाणिज्य में भी पहल लेनी शुरू कर दी। उसको किसी ने रोका भी नहीं – ठाकुर भूपेन्द्र को इस बारे में मालूम था, और उनको मीनू के कौशल पर पूरा भरोसा भी था।
सच पूछो, तो उनको एक तरह से तसल्ली ही हुई की अब उनका लड़का भी बहू की संगत में रह कर कुछ सीख लेगा। और हुआ भी लगभग ऐसा ही – उसके निर्देश में पहली फसल का विक्रय उम्मीद से कहीं अधिक मूल्य पर हुआ। धीरे धीरे उसने कृषि की लागत भी कम करनी शुरू कर दी। खेतों में काम करने वाले मजदूरों के लिए वही खेतों में ही स्थाई आवास भी बनवाए, जिससे सभी मजदूर खेतों में ही अपने परिवारों के साथ रहने लगे। कहने वाली बात नहीं है कि काम करने वाले सभी लोग इस बात से अत्यंत प्रसन्न हुए और मीनू और ठाकुर परिवार के लिए उनकी निष्ठा और भी बढ़ गई। सभी लोग मीनू को बहुत पसंद करते थे, और उसका आदर भी करते थे। सिर्फ वाणिज्य और कृषि के काम में ही नहीं, मीनू गृह संचालन में भी अत्यंत निपुण साबित हुई। बस कुछ ही दिनों में यह एक आम चर्चा हो गयी कि ठाकुर की बहू साक्षात् लक्ष्मी का अवतार है!
आदर्श के लिए कृषि और वाणिज्य का क्षेत्र नया था; और साथ ही साथ वो अपनी पढाई भी कर रहा था। लेकिन, जो कमी उसके अनुभव में थी, वो कमी उसने अपने कठिन परिश्रम और लगन से पूरी कर दी। वो स्वयं भी एक सक्षम नेता था; वो अपने लोगों के साथ ही मेहनत करता, सभी के भले का ख़याल रखता, और सभी से ही बेहद मज़बूत रिश्ते बना के रखता था। साथ ही साथ, वो अपनी पढ़ाई भी बड़ी लगन के साथ कर रहा था।
ज्यादातर लोगों ने इस जोड़े से इस प्रकार की करामात की उम्मीद नहीं करी थी, लेकिन साल भर बाद सभी यह कहने पर मजबूर हो गए कि ठाकुर ने क्या किस्मत पाई है! सच में! बहू नहीं, लक्ष्मी ही घर में आई है! मीनू आदर्श का ख़याल रखती – जैसे वो उसकी भाभी होने पर करती; और आदर्श भी मीनू का पूरा ध्यान रखता था – क्या वो खाना ठीक से खा रही है, समय पर सो रही है, थक तो नहीं गई इत्यादि। यह सब तो ठीक है, लेकिन उन दोनों के बीच किसी भी तरह की अंतरंगता नहीं थी। उस रात के बाद, आदर्श ने मीनू को छुआ तक नहीं था। तो अपने कमरे के एकांत में दोनों पूरी तरह से अजनबी थे।
लेकिन, यह सब बाहर से नहीं दिखता था। दोनों साथ में काम करते, बात करते, और ऐसे लगते जैसे एक दूसरे के पूरक हों – देखने वाले को इस राज़ की भनक भी नहीं हो सकती थी। खैर, इस कठिन परिश्रम का फल यह हुआ कि इस वर्ष में खेती से होने वाली आय दोगुनी हो गयी। ठाकुर भूपेन्द्र को समझ आ गया कि अब वो शान्ति से सेवानिवृत्त हो सकते हैं।
और वो सचमुच सेवानिवृत्त हो गए! उनके साथ साथ ही लक्ष्मी देवी, जो पहले काम के बोझ तले दबी रहती थीं, को भी आराम मिला गया और आराम के साथ साथ ढेर सारा समय भी। ठाकुर और ठकुराइन को अपने वैवाहिक जीवन में पहली बार एक दूसरे के लिए इतना समय मिल सका। जब इतना समय मिला, तो उस समय का उपयोग उन दोनों ने अपने पारस्परिक प्रेम की ज्योति को पुनः प्रज्ज्वलित करने में किया। दोनों की उम्र अधिक नहीं थी – ठकुराइन कुछ चालीस साल की रही होंगी, और ठाकुर भूपेन्द्र कोई पैतालीस साल के। अपार फुर्सत मिलने के कारण दोनों दीर्घकालिक और संतोषजनक सम्भोग करने लगे। उनके वैवाहिक जीवन का यह सबसे आनंददायक अंतराल था। अब उनको हर बात के लिए समय मिलने लगा – वो अपने मित्रों से मिलते, सामाजिक कार्यों में भाग लेते, धार्मिक कार्यों में भाग लेते... अचानक ही वो दोनों पहले से कम उम्र लगने लगे – सच कहें तो चालीस से भी कम उम्र लगने लगे। दोनों प्रसन्न रहने लगे। दोनों ही संतुष्ट रहने लगे।
आदर्श जब कभी दोपहर में घर आता, तो उसको अपने माता-पिता के कमरे से सम्भोग करने की आवाजें आती। ऐसा नहीं है कि उसको बुरा लगता – सच पूछे तो उसको अच्छा ही लगता। उसको अच्छा लगता कि आखिरकार उसके माता पिता को बहुत ज़रूरी आनंद मिल पा रहा है। साथ ही साथ उसको एक उम्मीद भी होती, कि कभी वो अपनी राजकुमारी को भी इसी तरह से प्रेम कर सकेगा।
मीनू को भी अपने सास ससुर के बीच बढ़ते हुए प्रेम के बारे में मालूम था। उसको भी अच्छा लगता था कि दोनों एक दूसरे के कितने करीब हैं! अपने बड़े बेटे की मृत्यु के बाद, उस दोनों को प्रसन्न रहने की बहुत ही ज़रुरत थी.. और यह अच्छी बात थी कि वो दोनों अब खुश रह पा रहे हैं। बस, उसके एक बात का मलाल था, और वह यह कि आदर्श की पीड़ा उससे देखी नहीं जाती थी। उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया था जिससे वो ऐसे दंड का अधिकारी बने! लेकिन वो क्या करे!
खैर, देखते देखते ही आदर्श एक जिम्मेदार और आदरणीय नवयुवक बन कर उभरा। अपने ही गाँव क्या, उसकी बढ़ाई आस पास के कई गावों के लोग करने लगे। वो अपने गुणों के कारण विख्यात होने लगा। लोग उसको अपने यहाँ सलाह लेने के लिए बुलाते, और आदर्श भी इतना नेक था कि वो किसी को भी सहायता करने से मना नहीं करता था। ठाकुर भूपेन्द्र का सीना गर्व से चौड़ा हो गया।
मीनू को मालूम नहीं था कि उसको बिना बताए ही आदर्श उसकी माँ को देखने जाया करता था; उनकी देखभाल करने के लिए उसने एक आया और ससुराल की कृषि और वाणिज्य की देखभाल के लिए मुनीम और अन्य कर्मचारी लगा दिया था। कम से कम मीनू की अम्मा अब भगवान् भरोसे नहीं थीं। उनकी अच्छी देखभाल हो रही थी – उसके एहसान तले बहुत से लोग दब गए थे और किसी भी तरह से उसके उपकार का बदला चुकाना चाहते थे। इसलिए मीनू की अम्मा की देखभाल उत्तरदायी हाथों में थी। जल्दी ही उनकी शारीरिक हालत और आर्थिक हालत में सुधार आने लगा। साल भर में उस घर की सम्पन्नता भी वापस आ गई।
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एक दिन लक्ष्मी देवी ने मीनू को अपने पास बुलाया और कहा, “बिटिया, तुम हमारे बारे में क्या सोचती होगी!”
“किस बारे में अम्मा!”
“तू सोचती होगी कि तेरी सास कितनी निर्लज्ज है!”
“क्यों अम्मा! आप ऐसा क्यों कह रही हैं?”
“बिटिया – तुझसे क्या छुपा है? ये सब खेल, जो हम अब बुढापे में खेल रहे हैं, वो तो सब जवानी के हैं! तुम दोनों के खेलने के लिए हैं! लेकिन तुम दोनों दिन भर काम काम और बस काम ही करते रहते हो.. तुम दोनों को एक दूसरे के लिए समय मिल भी पाता है या नहीं?”
मीनू सबसे झूठ बोल सकती थी, लेकिन अपनी माँ समान लक्ष्मी देवी से नहीं। उसने कुछ भी नहीं कहा। लक्ष्मी देवी को पहले ही संदेह था। यह बस निश्चित हो गया।
“तुम दोनों को समय नहीं मिल पाता?”
“नहीं अम्मा.. ऐसा नहीं है...”
“मतलब.. तुम दोनों...!”
मीनू ने अपना सर ‘न’ में हिलाया। लक्ष्मी देवी को उसके मन की बात समझ में आ रही थी।
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