RE: Antarvasna kahani प्यासी जिंदगी
बाजी के साथ उस दिन वाले वाकये का आज सातवाँ दिन था। जब सुबह मैं डाइनिंग टेबल पर पहुँचा तो नाश्ता मौजूद नहीं था.. लेकिन किचन से बर्तनों की आवाज़ आ रही थी.. जो वहाँ किसी की मौजूदगी का पता दे रही थीं। कुछ ही देर बाद बाजी आईं और मेरे सामने सारा नाश्ता सज़ा कर बगैर कुछ बोले वापस चली गईं।
मैंने पीछे मुड़ कर बाजी को देखा तो वो अपने कमरे की तरफ जा रही थीं और अपने यूजुअल ड्रेस यानि बड़ी सी चादर और स्कार्फ में थीं।
उस दिन के बाद आज पहली बार मेरा और बाजी का आमना-सामना हुआ था।
फिर रोज़ ही ऐसा होने लगा कि जब मैं आकर बैठ जाता.. तो बाजी गरम-गरम नाश्ता लाकर मेरे सामने रखतीं और अपने कमरे में चली जातीं।
उस वाक़ये को आज ग्यारहवां रोज़ था।
सुबह जब बाजी नाश्ता लेकर आईं.. तो उन्होंने मुझे एक पेपर दिया.. जिस पर कुछ बुक्स के नाम लिखे थे और मुझसे कहा- कॉलेज से आते हो.. याद से ये बुक्स खरीद लाना..
मैंने कहा- ठीक है बाजी..
नाश्ता करने के बाद मैं कॉलेज चला गया।
अब अक्सर ऐसा होता कि बाजी सुबह कोई ना कोई काम की बात कर लेती थीं और जो सन्नाटा हमारे बीच कायम हो गया था.. अब वो टूट रहा था लेकिन वो अब भी बहुत रिज़र्व रहती थीं।
अक्सर मेरे साथ ही बैठ कर नाश्ता भी करने लगी थीं.. लेकिन फालतू बातें या मज़ाक़ नहीं करती थीं।
उस वाक़ये का आज 17वां दिन था.. बाजी नाश्ता लेकर आईं.. तो उनके जिस्म पर बड़ी सी चादर नहीं थी.. सिर्फ़ स्कार्फ बाँधा हुआ था और सीने पर दुपट्टा फैला रखा था। उन्होंने मेरे साथ ही बैठ कर नाश्ता किया और मैं कॉलेज के लिए निकल गया।
उस वाकये का 20 वां दिन था.. बाजी ने मेरे सामने नाश्ता रखा.. तो ना ही उनके सिर पर स्कार्फ था और ना ही दुपट्टा। लेकिन सिर पर बालों का बड़ा सा जूड़ा बाँध रखा था।
मेरे होश संभालने के बाद से यह पहली बार था कि मैंने बाजी को सिर्फ़ क़मीज़ सलवार में देखा था.. ना दुपट्टा.. ना चादर.. ना स्कार्फ..
बाजी नाश्ता रख कर अपने कमरे की तरफ जा रही थीं.. तो मैंने पहली मर्तबा उनकी कमर देखी.. जो उनके शानों और कूल्हों के बीच काफ़ी गहराई में थी और कमान सी बनी हुई थी।
आज 20 दिन बाद मेरे लण्ड ने जुंबिश ली और मुझे अपने हरामी होने का अहसास दिलाया.. वरना मैं तो अपने लण्ड को भूल ही चुका था।
अगले दिन से बाजी अपनी यूजुअल ड्रेसिंग पर वापस आ चुकी थीं।
उस वाक़ये का आज 24वां दिन था.. जब बाजी ने मुझे नाश्ता दिया। वो उस दिन बड़ी सी चादर और स्कार्फ में मलबोस थीं और उनका चेहरा बहुत पाकीज़ा लग रहा था।
मैं नाश्ता करके उठा और दरवाज़े तक पहुँचा ही था कि बाजी ने मुझे आवाज़ दी ‘वसीम..’
मैं रुका और मुड़ कर कहा- जी बाजी?
उस वक़्त तक वो मेरे क़रीब आ चुकी थीं।
बाजी ने बिना किसी झिझक या शर्मिंदगी के आम से लहजे में मुझसे पूछा- वसीम, पॉवर कॉर्ड कहाँ है?
बाजी का अंदाज़ ऐसा था.. जैसे वो किसी आम सी किताब का या किसी सब्ज़ी का पूछ रही हैं।
मैंने भी बाजी के ही अंदाज़ में अपने बैग से चाभी निकाली और बाजी के हाथ में पकड़ाते हुए कहा.. ऐसे-जैसे मैं भी उन्हें सब्ज़ी ही का बता रहा हूँ।
‘मेरी अलमारी में रखी है..’
और मैं बाहर निकल गया।
अगले दिन भी नाश्ते के बाद जब मैं बाहर निकलने ही वाला था.. तो बाजी अपनी चादर को संभालती हुई मेरे पास आईं और उसी नॉर्मल से अंदाज़ में कहा- वसीम तुम कितने बजे तक घर आओगे?
‘दो बजे तक आ जाऊँगा.. क्यूँ..??’ मैंने कुछ ना समझने वाले अंदाज़ में जवाब दिया।
‘नहीं कुछ नहीं.. बस मैं ये कहना चाह रही थी कि तुम 5 बजे तक घर नहीं आना.. मैं आज ज्यादा टाइम चाहती हूँ..’
‘ओके ठीक है.. मैं 5 बजे से पहले नहीं आऊँगा।’
हमारा बात करने का अंदाज़ बिल्कुल नॉर्मलौर सरसरी सा था.. लेकिन बाजी भी जानती थीं कि वो क्या कह रही हैं और मुझे भी अच्छी तरह पता था कि बाजी किस बात के लिए आज ज्यादा टाइम चाहती हैं।
आप लोग भी समझ ही गए होंगे कि मेरी सग़ी बहन.. मेरी हसीन और बा-हया बहन हार गई थी.. और उनके टाँगों के बीच वाली जगह जीत गई थी।
मैं 5:20 पर अपने घर में दाखिल हुआ तो बाजी इत्तिफ़ाक़ से उसी वक़्त ऊपर से नीचे आ रही थीं और उन्होंने अपना वो ही काला सिल्क का अबया पहना हुआ था, उनके पाँव में चप्पल भी नहीं थीं और बाल खुले हुए उनके कूल्हों से भी नीचे तक हवा में लहरा रहे थे।
बाजी के खड़े हुए निप्पल उनके अबाए में साफ ज़ाहिर हो रहे थे.. जो इस बात का पता दे रहे थे कि अबाए के अन्दर बाजी बिल्कुल नंगी हैं।
मैंने बाजी को सलाम किया.. तो उन्होंने अपने अबाए के बाजुओं को कोहनियों तक फोल्ड करते हुए मेरे सलाम का जवाब दिया और पूछा- खाना खाओगे?
‘नहीं.. मैं खाना खा कर आया हूँ.. बस एक कप चाय बना दें..’ मैंने बाजी के खूबसूरत सुडौल और बालों से बिल्कुल पाक बाजुओं पर नज़र जमाए हुए कहा।
‘ओके.. तुम बैठो मैं अभी बना देती हूँ..’ यह कह कर वो किचन की तरफ चल दीं।
मैंने बाजी को इतने इत्मीनान से इस हुलिए में घूमते देख कर कहा- बाजी क्या घर में कोई नहीं है?
‘नहीं.. हनी तो वैसे भी छुट्टियाँ नानी के घर गुजार रही है.. और अम्मी और अब्बू किसी ऑफिस के मिलने वाले की बेटी की शादी में गए हैं।’
उन्होंने चाय बनाते बनाते किचन से ही जवाब दिया।
मुझे चाय दे कर बाजी अपने कमरे में चली गईं और मैं बाजी के इस नए अंदाज़ को सोचने लगा।
फ़ौरन ही घंटी की आवाज़ ने मेरी सोच की परवाज़ को वहीं रोक दिया, बाहर मेरे कुछ दोस्त थे जो कहीं पिकनिक पर मुझे भी साथ ले जाना चाह रहे थे।
मैं बाजी को बता कर उनके साथ चला गया।
फिर अगली सुबह नाश्ते के वक़्त ही बाजी से सामना हुआ, वो आज भी सिर्फ़ गाउन में थीं और हालात कल शाम वाले ही थे।
बाजी मेरे साथ ही नाश्ता करने लगीं और हम इधर-उधर की बातें करते रहे।
मैंने बाजी के हुलिया के पेशे नज़र कहा- बाजी अम्मी-अब्बू घर में ही हैं ना?
‘हाँ.. लेकिन सो रहे हैं अभी..’
उन्होंने चाय का घूँट भरते हुए लापरवाह अंदाज़ में जवाब दिया।
मैंने भी चाय का आखिरी घूँट भरते हुए बाजी के मम्मों पर एक भरपूर नज़र डाली और ठंडी आह भरते हुए टेबल से उठ खड़ा हुआ।
दरवाज़े की तरफ रुख़ मोड़ते हुए मैंने बाजी से कहा- आप चेंज कर लो.. अम्मी-अब्बू के उठने से पहले पहले। मैं नहीं चाहता कि वो आपको इस हुलिये में देखें.. आपकी इज़्ज़त मुझे अपनी जान से भी ज्यादा अज़ीज़ है।
उन्होंने एक मुहब्बत भरी नज़र मुझ पर डाली और शैतानी सी मुस्कुराहट के साथ कहा- मैं तुम्हारी रग-रग से वाक़िफ़ हूँ.. वसीम तुम्हें ये टेन्शन नहीं कि वो मुझे इस हुलिया में देखें.. बल्कि तुम्हें ये फिकर है कि अगर अम्मी-अब्बू को पता चला कि मैं तुम्हारे सामने इस हालत में थी.. तो शायद आइन्दा के लिए तुम्हारी नजरें मेरे इस हुलिया से महरूम हो जाएँगी।
शायद यह सच ही था.. इसलिए मेरे मुँह से जवाब में कुछ नहीं निकल सका और बोझिल से कदमों से मैं बाहर की तरफ चल पड़ा।
आज कॉलेज जाने का बिल्कुल मन नहीं था। आज बहुत दिन बाद मेरे लण्ड में सनसनाहट हो रही थी और जी चाह रहा था कि आज पानी निकालूँ।
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