RE: Mastram Kahani प्रीत का रंग गुलाबी
पता नहीं क्यों पर शिवाय ने अपने होंठो पर बंसी लगायी और मोहिनी के पैरो ने ताल खड्काई समय एक बार फिर से तैयार हो गया था खुद को दोहराने को, मोहिनी के खुले बाल हवा में लहरा रहे थे पल पल बीत रहा था और
साथ ही शिवाय की आँखों में गुजरा हर एक पल जैसे जिवंत होते जा रहा थाजैसे जैसे मोहिनी नाच रही थी उसकी आँखों के आगे हर वो पल आ रहा था हर वो पल जो किसी सदी में उसने गुजारे थे अपनी मोहिनी के साथ
मोहिनी का चांदी सा रंग धुप में चमक रहा था वो मंदिर का प्रांगन जो साक्षी था उनके प्रेम का आज फिर उसी नज़ारे को देख रहा था धुप में जैसे इन्द्रधनुष के रंग बिखर गए थे मोहिनी खो सी गयी थी अपने मोहन में ख़ुशी में झूम रही थी
दिल में बस एक तमन्ना की झट से गले लग जाये अपने दिलबर के तो करार आ जाए जैसे जैसे तान चढ़ रही थी शिवाय की आँखों के सामने हर लम्हा गुजर रहा था एक दास्ताँ जो वक़्त की रेत तले कही दब गयी थी
धुल धीरे धीरे हट रही थी और फिर वो लम्हा भी आया जब उसे सब कुछ याद आ गया की कैसे क्या क्या हुआ था सांसे अब भारी होने लगी बंसी की तान टूटने लगी आँखों से आंसू बह चले हाथ जैसे कांपने लगे थे
शिवाय अब मोहन बन गया था उअर मोहन को अब कुछ नहीं दिख रहा था सिवाय अपनी मोहिनी के
“मोहिनी , ” उसे पुकार कर उसने अपनी बाहे फैला दी और आँखों में आंसू लिए वो दौड़ पड़ी अपने दिलबर के पास और समां गयी उसकी बाहों में , वक़्त जैसे एक बार फिर से रुक सा गया था दोनों खामोश थे आंसुओ की नदी बनकर दिल का दर्द बह रहा था
“बस मोहिनी बस , अब कोई ऐसी ताकत नहीं जो हमे जुदा कर सके बहुत हुआ इंतज़ार अब और नहीं ”मोहिनी की पीठ थपथपाते हुए बोला वो
मोहिनी बस मुस्कुरा दी , लेट गयी वो उसकी गोद मे सर रख कर मुद्दतो बाद आज जाके उसकी रूह को करार जो आया था , वो महल जो कल तक खंडर हुआ करता था अज वो किसी दुल्हन की तरह सजा था बिलकुल उसी तरह से जैसे की उस दिन सजा था जब दिव्या और मोहन का विवाह निश्चित हुआ था
वो कर रही थी इंतज़ार अपने मोहन का , उसे आस थी की अब तो मोहन समझेगा उसके प्यार को आज खूस थी वो नाच रही थी गा रही थी बीते वक्त में वो और शक्तिशाली हो गयी थी मायावी हो गयी थी और होती भी क्यों ना
उसको भी तो आश्रय था , हां, उसको आश्रय मिला था महारानी संयुक्ता का वही महरानी संयुक्ता वो बर्दाश्त नहीं कर सकी थी अपनी बेटी की आत्महत्या को पर उसके मन में लालच था इस लोक का अपनी हवस का सो आगे बढ़ ना पाई थी वो भी और अटक कर रह गयी थी दिव्या के साथ
जो अपनी हवस की आग में इन बीते लम्हों में कितनी जिन्दगी को लील गयी थी जो भी भुला भटका उस महल में आ निकला उसे ही खा गयी वो पर उसके होंठो पर आज भी वो ही मुस्कान थी और हो भी क्यों ना
वैसे तो निपट गर्मी का मौसम था पर आज ठण्ड कुछ बढ़ गयी थी भारी दोपहर में भी रामू को जाड़ा सा लग रहा था उसने सोचा की शायद आस पास घने पेड़ है तो इस वजह से ठण्ड है आसमान को देख कर उसे लग रहा था की शाम हो ही गयी है
पर इसी बात पे उसे अचरज सा हो रहा था थोड़ी देर पहले तो धुप खिली हुई थी पर अचानक से कैसे सांझ ढल गयी उसने अपनी बकरियों को हांका आज वो उनको चराते चराते जंगल में कुछ ज्यादा ही आगे हो लिया था
आसमान को काले बादलो ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था रामू समझ गया था की तेज बरसात होने वाली है पर गर्मी में ये बिन मौसम बरसात कहा से टपक पड़ी , रामू ने बड़े बुजुर्गो से कई किस्से कहानिया सुनी थी की जंगल में अक्सर भुत-प्रेत अपनी ऐसी ही लीला रच लेते है
और वो था भी अकेला ही तो उसका जी घबराया प्यास के मारे गले में जलन होने लगी उसने अपनी बोतल देखि एक बूंद भी पानी ना था उसमे ऊपर से बादल कड़क रहे थे रामू ने सोचा की घर निकल लेना चाहिए तो वो अपनी बकरियों को लेकर गाँव की तरफ हुआ
पर बरसात की रफ़्तार उस से ज्यादा तेज थी पर घर पहुचना भी जरुरी अब गाँव की तरफ दो रस्ते जाते थे एक थोडा दूर पड़ता था दूसरा शॉर्टकट था जिस से दुरी आधी हो जाती थी पर रामू डर रहा था छोटा रास्ता लेने से क्योंकि रस्ते में ही वो महल आता था जिसके बारे में वो बचपन से सुनता आ रहा था
पर तेज बरसात में वो और उसकी बकरिया पूरी तरह से भीग चुके थे तो कुछ सोच कर उसने छोटा वाला रास्ता लिया और तेज तेज चल पड़ा जैसे जैसे महल नजदीक आ रहा था उसकी धड़कने बढ़ गयी थी डर सा लगने लगा था और फिर जैसे ही महल के पास आया उसकी आँखे हैरत से फट गयी
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