RE: मेले के रंग सास, बहु, और ननद के संग
तभी एक सांवली सी लड़की ट्रे पर एक शराब की बोतल और दो गिलास लेकर आयी. उम्र कुछ 18-19 की लग रही थी. उसने घुटने तक घाघरा और चोली पहना हुआ था. हाथ मे कांच की चूड़ियाँ, पाँव मे चांदी की पायल, गले मे मंगलसूत्र, और माथे पर सिंदूर था. कद थोड़ा छोटा था और पेट थोड़ा फूला हुआ था, पर देखने मे काफ़ी आकर्शक लग रही थी.
उसने विश्वनाथजी के सामने गिलास रखी और उसमे शराब, सोडा, और बरफ़ मिलाई.
"लो विश्वनाथ, थोड़ा गला तर कर लो." मामाजी बोले, "तुम्हारे पसंद की विस्की है."
विश्वनाथजी उस लड़की को लंपट नज़रों से ऊपर से नीचे तक देखे जा रहे थे. वह एक घूंट लेकर बोले, "गिरिधर, विस्की तो बहुत अच्छी है, पर यह लड़की कौन है?"
"यार, यह मेरे घर की नौकरानी है - गुलाबी." मामाजी बोले, "यह भी तुम्हारे पसंद की ही है."
"मामाजी, तो यही है गुलाबी!" मैं बोल पड़ी, "भाभी के मुंह से बहुत तारीफ़ सुनी है इसकी."
गुलाबी शर्म से सर झुकाकर खड़ी रही.
मामाजी बोले, "गुलाबी, यह वीणा दीदी है. तेरी भाभी की ननद और मेरी भांजी. इससे शरमाने की ज़रूरत नही है. यह तेरे बारे मे सब कुछ जानती है."
गुलाबी ने मुझे नमस्ते किया.
मामाजी बोले, "विश्वनाथ, हाथ लगाकर देखो. लड़की बहुत खेल खायी है."
विश्वनाथजी ने गुलाबी का हाथ पकड़ा और कहा, "इधर आ लड़की. शादी-शुदा है तु?"
"जी, साहेब."
"तेरा मरद कहाँ है?"
"ऊ बाजार गये हैं." गुलाबी ने जवाब दिया.
"बहुत किस्मत वाला है तेरा मरद." विश्वनाथजी ने कहा और गुलाबी के भरे भरे नितंभों को दबाया. "हमे भी चखने देगी न यह सब?"
"साहेब, आपकी इच्छा हो तो ज़रूर देंगे." गुलाबी बोली. उसकी आंखें वासना से चमक रही थी.
विश्वनाथजी हंसे और उन्होने गुलाबी को अपनी गोद मे बिठा लिया. शायद उनका खूंटे जैसा लन्ड पजामे मे खड़ा हो गया था. गुलाबी बैठते ही "उई माँ!" करके उठ गयी.
"क्या हुआ, लड़की? डर गयी क्या?" विश्वनाथजी बोले, "अभी तो तुने देखा नही है. देखेगी तो क्या करेगी?" उन्होने गुलाबी को खींचकर फिर अपने गोद मे बिठा लिया.
गुलाबी उनके लन्ड पर अपने चूतड़ रगड़ने लगी. विश्वनाथजी ने अपना हाथ उसके घाघरे के नीचे डाला और उसकी चूत तक ले गये.
चूत को सहला कर बोले, "गिरिधर, यह तुम्हारे घर की रीत है क्या कि नौकरानियाँ चड्डी नही पहनती?"
मामाजी बोले, "यार, हमारे घर की औरतें कपड़े थोड़े कम ही पहनती हैं."
तभी मामीजी बैठक मे आयी और मुझे देखकर बोली, "वीणा, तु आ गयी बेटी! कितने दिनो बाद देख रही हूँ तुझे! कितनी सुन्दर हो गयी है तु!"
मै जाकर मामीजी से लिपट गयी.
"और मोटी भी हो गयी हूँ, मामी!" मैने कहा, "यह सब विश्वनाथजी और उनके दोस्तों की कृपा है."
"अरे हमने क्या किया, बेटी?" विश्वनाथजी ने पूछा.
"आपने और आपके उन बदमाश दोस्तों ने मेरा गर्भ बना दिया है." मैने कहा.
"विश्वनाथजी, आपने और आपके उन दोस्तों ने मुझे और मेरी बहु को भी गर्भवती कर दिया है." मामीजी ने भी शिकायत की.
"अरे विश्वनाथ, औरतें रंडी की तरह चुदवायेंगी तो गर्भ तो ठहरेगा ही! तुम इसकी चिंता मत करो." मामाजी बोले, "भाग्यवान, तुम भी मेरे दोस्त के साथ क्या दुखड़ा लेकर बैठ गयी! कुछ खाने को लाओ! और घर के बाकी सब कहाँ गये हैं?"
"बलराम और किशन तो खेत मे गये हैं." मामीजी बोली, "बहु रसोई मे है. अभी आ रही है."
तभी मीना भाभी एक प्लेट मे पकोड़े लेकर बैठक मे आयी. मामीजी ने उसके हाथ से प्लेट ले ली और चाय की छोटी मेज पर रख दी.
भाभी ने मुझे गले से लगा लिया. "वीणा! मैं कितनी खुश हूँ तुम आ गयी!" वह बोली.
"भाभी, मैं भी बहुत खुश हूँ आकर!" मैने कहा, "तुम भी मेरी तरह मोटी हो गयी हो!"
"मेरे कोख मे विश्वनाथजी का बच्चा जो पल रहा है!" वो हंसकर बोली.
मैने भाभी को ऊपर से नीचे देखा. उसने सिर्फ़ एक ब्लाउज़ और पेटीकोट पहन रखी थी. ब्लाउज़ के ऊपर के दो हुक खुले हुए थे जिससे उसकी गोरी गोरी चूचियां छलक के बाहर आ रही थी. उसने ब्रा नही पहनी थी और शायद चड्डी भी नही पहनी थी. बहुत ही कामुक लग रही थी भाभी. जाने कैसे घर की बहु इस तरह बेहया होकर सबके सामने चली आयी थी.
विश्वनाथजी भाभी की जवानी को आंखों से ही पीये जा रहे थे.
मैने कहा, "भाभी, आजकल तुम ऐसी ही रहती हो क्या?"
"क्या करुं, वीणा!" भाभी मजबूरी जताकर बोली, "एक तो इतनी गर्मी है. ऊपर से घर के मर्द लोग कपड़े पहने कब देते हैं? इनका बस चले तो हम औरतों को दिन भर नंगी ही रखें!"
विश्वनाथजी गुलाबी की चोली मे हाथ डालकर उसके चूची को दबा रहे थे और भाभी की अध-नंगी जवानी को देख रहे थे. गुलाबी मस्ती मे "आह!! ऊह!" कर रही थी.
मामीजी बोली, "विश्वनाथजी, मन करे तो गुलाबी को अपने कमरे मे ले जाईये और उसे इत्मिनान से लूटिये. लग रहा है वह आपके औज़ार पर फ़िदा हो गयी है."
"नही, भाभीजी." विश्वनाथजी बोले, "शाम को दावत है. इसे मैं तब ही चखूंगा."
"हाँ, कौशल्या." मामाजी बोले, "सब से कह दो कि अपनी उर्जा बचाकर रखे नही तो दावत मे मज़ा नही आयेगा."
"मामाजी, मैं तो सोची थी अमोल के साथ अभी एक बार..." मैं आपत्ती जतायी.
"अरे बेटी, अब तो तु अमोल के साथ रोज़ रात को सोयेगी." मामीजी बोली, "इतनी भी जल्दी क्या है उससे मिलन करने की? बहु, वीणा बिटिया को अमोल के कमरे मे ले जा. थोड़ा हाथ मुंह धोकर ताज़ी हो ले."
भाभी ने मुझे अमोल के कमरे मे धकेल दिया और बोली, "देखो वीणा, अभी अपने यार से चुदवा मत लेना. तुम्हारी चूत मारने के लिये घर पर सब लोग अधीर हो रहे हैं. थक जाओगी तो किसी को मज़ा नही दे पाओगी."
मैने दरवाज़ा बंद किया और अमोल से लिपट गयी. उसने तुरंत मुझे चूमना शुरु कर दिया और मेरे कपड़े उतारने लगा. उसने जल्दी से मेरी सलवार और कमीज़ उतार दी. मैं भी उसे कमरे मे अकेले पाकर मस्ती मे पागल होने लगी.
पर मुझे मामाजी की हिदायत याद आयी. उससे छुटकर बोली, "अमोल, अभी नही. शाम को दावत है, तब जितना चाहे मुझे लूट लेना."
"नही, मेरी जान!" अमोल बोला, "तब तो कोई मुझे तुम्हारे पास भी नही आने देगा! बस एक पानी चोदने दो अभी. मैं कबसे तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ."
"नही, अमोल. तुम्हे भी दावत मे सब औरतों को मज़ा देना है." मैने कहा, "अभी अपनी शक्ति गवांकर सबका मज़ा खराब मत करो."
"तो अभी मैं क्या करूं?" उसने निराश होकर पूछा.
"मै तुम्हारे लिये एक तोहफ़ा लायी हूँ." मैने शरारत से कहा, "अभी तुम उसका स्वाद लो."
"कैसा तोहफ़ा?"
मैने अपनी चड्डी उतारी. चड्डी उन दो गुरु-चेले के वीर्य से पूरी तरह चिपचिपा हो गयी थी और बहुत महक रही थी. अमोल के हाथ मे देकर बोली, "तुम इसे बैठकर सूंघो. मेरे दो यारों ने तुम्हारे लिये भेजी है."
अमोल ने गुस्से से मेरी चड्डी फेंक दी. मैं खिलखिला कर हंसती हुई बाथरूम मे घुस गयी.
मै नहाकर बाहर आयी, और अपने सूटकेस से अपनी साड़ी ब्लाउज़ निकालने लगी.
अमोल बोला, "वीणा, चड्डी, ब्रा, और साड़ी छोड़ो. दीदी तो बस ब्लाउज़ और पेटीकोट मे रहती है. तुम भी वैसी ही रहो. बहुत कामुक लगोगी. मैं चाहता हम तुम घर के मर्दों के सामने अध-नंगी घुमो."
"घर पर कोई आ गया तो?"
"कोई आयेगा तो कुछ लपेट लेना." अमोल बोला.
मैने उसके कहे अनुसर एक पेटीकोट पहनी और एक ब्रा पहन ली. मेरी चूचियां जो अब थोड़ी भारी होती जा रही थी ब्रा के ऊपर से बहुत आकर्शक लग रही थी.
"कैसी लग रही हूँ?" मैने पूछा.
"माल लग रही हो!" अमोल बोला और मुझे बाहों मे लेकर चूमने लगा, "अभी बाहर जाओगी तो लोग तुम्हारा बलात्कार न कर बैठें!"
हम दोनो कमरे से बाहर निकले. बैठक मे सब हंसी मज़ाक कर रहे थे. मुझे इस तरह अध-नंगे आते देखकर मामाजी और विश्वनाथजी कपड़ों के अन्दर अपना लन्ड सम्भालने लगे.
"बहुत सुन्दर लग रही हो, वीणा." विश्वनाथजी पजामे मे हाथ डालकर अपना लन्ड सहालते हुए बोले, "अबसे घर पर ऐसे ही रहा करो."
उनके लन्ड की तरफ़ देखकर मैं बोली, "और आप लोग क्या इतने सारे कपड़े पहने रहेंगे? हम औरतों को भी तो कुछ देखने का मन कर सकता है कि नही?"
"हाँ हाँ, क्यों नही? हम औरतों को भी मर्दों के जिस्म देखने का मन करता है." मामीजी बोली, "अबसे घर के मर्द केवल लुंगी पहनेंगे. कोई चड्डी नही पहनेगा!"
विश्वनाथजी खुश होकर बोले, "गिरिधर, लगता है मेरी यह यात्रा बहुत सुखद होने वाली है."
बलराम भैया और किशन शाम की तरफ़ खेत से लौटे. साथ मे रामु था.
मुझे देखते ही रामु बोला, "परनाम, दीदी!"
"कब आयी, दीदी?" किशन ने पूछा.
"अरे, वीणा रानी!" बलराम भैया ने कहा, "तु आ गयी? घर पर बुआ और फुफाजी ठीक हैं? और नीतु कैसी है?"
तीनो मेरा हाल-चाल पूछ रहे थे और मैं शर्म से लाल हो रही थी. तीनो मेरी ब्रा और पेटीकोट मे आधे ढके शरीर को खुली वासना की नज़रों से देख रहे थे.
"अरे हमरी बहनिया तो सरमा रही है!" बलराम भैया मुझे बाहों मे लेकर चिढ़ाकर बोले, "जैसे कोई अनचुदी कन्या हो."
"जाईये मैं आपसे बात नही करती!" मैं उनके बाहों मे मचलते हुए बोली, "अपनी बहन पर बुरी नज़र डालते आपको शरम नही आती?"
"तुम तो मेरी बुआ की बेटी हो. मेरा साला तो अपनी सगी दीदी के साथ संभोग करता है." बलराम भैया बोले.
"और आप जो अपनी माँ के साथ करते हैं?" मैने चिढ़ाकर कहा.
"तो तुम्हे मीना ने सब कुछ बता दिया है?" बलराम भैया बोले, "चलो तुम आ गयी हो, बहुत अच्छा हुआ. मैं, किशन, और रामु तुम्हारी जवानी को लूटने के लिये बेचैन हैं. अमोल, पिताजी और विश्वनाथजी तो तुम्हे भोग ही चुके हैं."
बलराम भैया के अश्लील बातों से मेरी शर्म जल्दी ही दूर हो गयी. उनकी भूखी नज़रें मेरे शरीर पर पड़ रही थी और मैं चुदास से सिहर रही थी. मैं सोचने लगी, हाय कब शुरु होगी दावत और मैं सब से चुदवा सकूंगी!
शाम को सात बजे दावत शुरु हुई. बैठक के कालीन पर एक बड़ा का गद्दा बिछाया गया था जिस पर सब लोग बैठ गये.
भाभी पेटीकोट और ब्लाउज़ मे थी. मामीजी ने भी एक पेटीकोट और ब्लाउज़ पहनी हुई थी. मैं पेटीकोट और ब्रा मे थी. मर्द लोग सब नंगे-बदन थे और सिर्फ़ लुंगी पहने हुए थे. सबका लौड़ा लुंगी मे खंबे की तरह खड़ा था.
गुलाबी ने चाय की मेज पर पकोड़े, गोश्त और चिकन सजाकर रख दिये और हमारे साथ बैठ गयी. रामु सबको गिलासों मे शराब परोस रहा था.
हम सब शराब के साथ पकोड़े खाने लगे और हंसी मज़ाक करने लगे.
गुलाबी विश्वनाथजी के बगल मे बैठी थी और मजे लेकर विलायती शराब पी रही ही. भाभी, जो अपने भाई के साथ बैठी थी, बोली, "गुलाबी, यह रामु की देसी दारु नही है. आराम से पी."
मै बलराम भैया की गोद मे उनसे सटकर बैठी थी और वह ब्रा के ऊपर से मेरी चूचियों को सहला रहे थे. मेरे पीठ पर उनका खड़ा लन्ड लग रहा था. मैं अपने गिलास से शराब की चुस्की ले रही थी. सोनेपुर से आने के बाद मैने शराब की एक बून्द भी नही पी थी. आज मुझे पीकर टल्ली होने का मन कर रहा था.
अमोल अपनी दीदी के साथ बैठा हुआ था और मुझे बलराम भैया के बाहों मे अठखेलियाँ करते देख रहा था. ईर्ष्या होने की बजाय उसकी आंखों मे एक विक्रित वासना थी.
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