RE: XXX Chudai Kahani चूत के चक्कर में
शाम को रामलाल की नींद लखन सिंह की आवाज से टूटी । रामलाल घर से बाहर निकला तो देखा की लखन सिंह दरवाजे पे खड़े थे।
रामलाल बोला " ताऊ प्रणाम आओ अंदर आओ। "
लखन सिंह " न बेटा अभी नहीं अभी तू जल्दी मेरे साथ चल काम है तुझसे ।"
रामलाल " क्या काम ताऊ ?"
लेखन सिंह " तू तैयार हो जा बड़ी हवेली चलना है जरुरी काम से ।"
रामलाल एक बार के लिए चौंका बड़ी हवेली पर ताऊ की बात मान कर चलने के लिए तैयार हो गया । कुछ देर बाद दोनों बड़ी हवेली को चल पड़े।
रामलाल ने लखन सिंह से पूछा " ताऊ हवेली वालो को मुझसे क्या काम मैं तो अभी गांव आया हु ।"
लखन सिंह " अरे वहां के दीवान जी ने बुलाया है ।"
रामलाल को अब बड़ी हवेली से जुडी बचपन की यादें याद आने लगती हैं की कैसे अगर किसी को बड़ी हवेली से बुलावा आया जाता तो आधे लोगो की जान ही सूख जाती थी । एक जमाना था जब बड़ी हवेली राजा हुकमसिंह की रियासत का केंद्र हुआ करती थी । राजा हुकमसिंह बड़ा ही खूंखार और ऐय्याश किस्म का राजा था इसलिए अगर किसी गाँव वाले को हवेली से बुलावा आया जाता तो इसका मतलब होता की उसने हुकमसिंह की नाराजगी मोल ले ली हो और अब उसकी खैर नहीं । हुकमसिंह की तक़रीबन दस साल पहले शिकार के वक्त घोड़े से गिर कर मौत हो गयी और उसके खौफ के साम्राज्य का अंत हो गया । हुकमसिंह की मृत्यु के बाद अब उसकी विधवा रानी ललिता देवी ने राज पाट संभाला । रानी ललिता स्वाभाव से दयालु थी उन्होंने गाँव वालों की पिछले कुछ वर्षों में बहुत मदद की और इस समय वो विधायक भी हैं यहाँ की । पर अब भी अगर किसी को बड़ी हवेली से बुलावा आ जाता है तो कोई मना नहीं कर सकता ।
कुछ देर चलने के बाद रामलाल और लखन सिंह बड़ी हवेली पहुचते हैं । हवेली अब भी पहले की तरह ही सजी धजी थी बाहर सुरक्षा के लिए लठैतों की पूरी सेना तैनात थी । लखनसिंह ने दरवाजे पे पहुचकर अपने सर से पगड़ी और पैर से जूती निकल के हाथ में लेली। भारत को आजाद हुए 13 साल हो गए थे पर गुलामी की ये परंपरा अभी जिन्दा थी । रामलाल ने भी मन मारते हुए अपना जूता निकल के हाथ में ले लिया और लखन सिंह जे पीछे पीछे हवेली में हो लिया ।
हवेली के अंदर की भव्यता तो बाहर से भी ज्यादा थी । हर जगह सजावट की महँगी महँगी चीज़े लगी हुई थी । कुछ देर बाद लखन सिंह और रामलाल एक कमरे में पहुचे जहाँ बड़े से दीवान पे एक बूढ़ा आदमी बैठा हुआ था ।
लखन सिंह ने उससे कहा " प्रणाम दीवान जी "
उस बूढ़े ने लखन सिंह को देखा और बोला " आओ लखन सिंह आओ "
लखन सिंह आगे बढ़ा और बोला " दीवान जी यही है मेरा भतीजा रामलाल जिसके बारे में मैंने आपको बताया था "
रामलाल ने भी दीवानजी को प्रणाम किया।
दीवान ने कहा " अच्छा तो ये है रामलाल आओ बैठो "
वहां कुर्सियां तो लगी हुई थी पर लखन सिंह ज़मीन पर बैठ गया और रामलाल भी मन मारकर ज़मीन पर बैठ गया । फिर दीवान जी बोले " हाँ तो बेटा रामलाल तुम फ़ौज में थे ?"
रामलाल " जी दिवान जी "
दीवान " अच्छा तो बेटा तुम्हे अंग्रेजी तो आती होगी ।"
रामलाल " बहुत अच्छे से तो नहीं हां पर पढ़ लेता हूं लिख लेता हूं और टूटी फूटी बोल भी लेता हूं ।"
दिवान " बहुत अच्छे बेटा हमे तुमसे ही काम था देखो अब मेरी उम्र में मुझसे सही से देखा नहीं जाता एक चिट्ठी आयी थी विदेश से जो मैं पढ़ नहीं पा रहा था अब ईस रियासत में ज्यादा पढ़ा लिखा तो कोई है नहीं और अंग्रेजी पढ़ना सबके बस की बात नहीं इसलिये मैं बहुत परेशान था । आज सुबह लखन सिंह ने तुम्हारे बारे में बताया तो मैंने ही तुम्हे यहाँ लाने के लिए बोला ।"
रामलाल " ठीक है आप मुझे वो चिट्ठी दीजिये मैं पढ़ देता हूं ।"
फिर दीवान ने एक चिट्ठी निकाल के रामलाल को दी । रामलाल ने वो चिट्ठी पढ़के दीवान को सुना दी ।
दिवान बोला " बस बेटा बहुत धन्यवाद अब तुम जा सकते हो ।"
फिर रामलाल और लखन सिंह दीवानजी को प्रणाम करके हवेली से अपने गाँव लौट आते हैं । गाँव पहुचकर लखन सिंह रामलाल से कहता है " आओ बेटा आज रात का भोजन मेरे घर करो । शांति को भी तुम से मिल कर अच्छा लगेगा ।"
रामलाल " ठीक है चाचा ।"
रामलाल शांति के बारे में सोचने लगता है। शांति और रामलाल की उम्र लगभग एक ही होगी दोनों साथ ही पले बढ़े । लखन सिंह ने शांति का ब्याह बचपन में ही कर दिया था पर उसके ससुराल जाने से पहले ही उसके पति की मौत हो गयी। गाँव वालों ने शांति को अपशकुनी मान किया और लखन सिंह पे बहुत दबाव डाला की वो शांति को काशी छोड़ आए विधवाओं की तरह जीने के लिए । पर लखन सिंह ने किसी की एक न सुनी और शांति को अपने पास ही रखा । लखन सिंह की पत्नी के गुजरने के बाद शांति ही उनका आखिरी सहारा थी ।
कुछ ही देर में दोनों लखन सिंह के घर पहुचते हैं ।
लखन सिंह दरवाजे से आवाज लगाते हैं " शांति ओ शांति देख तो कौन आया है ?"
कुछ देर बाद सफ़ेद साड़ी में एक औरत घर से निकलती है । रामलाल उसको देखता है करीब 30 32 की होगी शांति रंग गोरा पर चेहरे पे एक अजीब सी वीरानी छाई हुई थी । शांति रामलाल को देखती है और कहती है " रामलाल भैया नमस्ते ।"
रमलाल " कैसी हो शांति "
शांति " ठीक ही हु भैया "
लखन सिंह " अब जा दौड़ के रामलाल के लिए पीने के लिए पानी ले आ और जल्दी से खाना बना दे आज रामलाल हमारे साथ ही खाना खायेगा ।"
शांती घर के अंदर चली जाती है और रामलाल और लखन सिंह घर के बाहर बैठ के हुक्का गुड़्गुड़ाने लगते हैं । कुछ ही देर बाद शांति पानी लेके आती है। रामलाल को पानी देने को झुकती है तो उसका पल्लू सरक जाता है और रामलाल को उसकी चूची की घाटियों का दर्शन हो जाता है । शांति रामलाल को नजरों को भांप लेती है और झट से अपना पल्लू सही कर घर के अंदर चली गयी।
कुछ देर तक रामलाल और लखन सिंह इधर उधर की बातें करते हैं । तब तक शांति खाना तैयार कर लेती है और उन्हें खाने के लिये बुलाती । घर के अंदर रसोई में खाने की व्यवस्था रहती है । रामलाल और लखन सिंह खाना खाने लगते हैं । कुछ देर बाद शान्ति रामलाल से कुछ और लेना का पूछती है तो रामलाल सब्जी मांगता है । शान्ति रामलाल के सामने झुक के फिर से उसकी थाली में सब्जी परोसने लगती है। उसका पल्लू फिर नीचे ढुलक जाता है और रामलाल को पुनः एक बार उसकी घाटियों के दर्शन हो जाते हैं पर इस बार शान्ति उन्हें छुपाने की कोशिश नहीं करती । वो धीरे धीरे रामलाल को सब्जी परोसती है और रामलाल मन भर के दर्शन करता है। फिर वो वापस अपनी जगह चली जाती है। कुछ ही देर बाद रामलाल खाना ख़त्म करके घर चला आता है और शान्ति के बारे में सोच के मुट्ठ मार के सो जाता है।
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