RE: Mastram Sex Kahani मस्ती एक्सप्रेस
संगीता अग्रवाल की कहानी
राकेश और रूपेश को चिपकते हुये मिसेज़ अग्रवाल बोलीं:
मैं अपनी कहानी सुनाती हूँ। यह मेरी पहली खराबी की कहानी तो नहीं है लेकिन मेरी प्यार की पहली चुदाई की कहानी है जिससे शरीर और मन को बड़ी संतुष्टि मिली थी। बात उन दिनों की है जब हम लोगों को पैसे की काफी तंगी थी। इन्होंने अपना नया काम शुरू किया था। अमित बेटा करीब 6 साल का था। हम लोग दिल्ली में तीसरे मंजिल की एक बरसाती में रहते थे। कुल एक कमरा था और बस खुली हुई छत जिस पर किचेन और बाथ। सास-सासुर साथ में रहते थे। चुदाई का मौका ही नहीं मिल पाता था। कभी कभार ही चुदाई हो पाती थी वह भी जल्दी-जल्दी।
शरीर में सेक्स की भूख सी भरी रहती थी जिसको अग्रवाल साहब और उभार देते थे। वह सेक्स में माहिर थे और चुदाई में मज़ा करने की उन्होंने आदत डाल दी थी।
मकान मालिक एक बूढ़े दंपति थे जो नीचे की मंजिल पर रहते थे। दूसरी मंजिल काफी हवादार थी। तीन कमरे थे, छत थी। इस मंजिल में एक कम्पनी का बड़ा आफिसर रहता था। जवान मियां बीवी थे, बीवी दूसरे शहर में काम करती थी। छुट्टी में वह आ जाती थी या फिर मियां वहां चला जाता था। वह भी अग्रवाल ही थे, नाम थे शेखर और माया। शेखर सुदर्शन था, कद-काठी से अच्छा, देखने में खूबसूरत, लंबा। माया भी ठीक थी लेकिन ऐसी कोई खास बात नहीं। दोनों ही खुशमिजाज थे।
मकान मालिक और शेखर माया से हम लोगों की अच्छी मेल मुलाकात होती रहती थी। साथ-साथ ताश खेलते थे। एक दूसरे से खुलकर मजाक करते रहते थे।
शेखर मुझे संगीता भाभी और मेरे पति को भाई साहब कहकर बुलाता था। मेरे सास-ससुर का आदर करता था, उन्हें आये दिन घुमाने ले जाता था क्योंकी मेरे पति का काम नया होने से काफी व्यस्त रहते थे। अमित के लिये भी चाकलेट और गिफ्ट लाता था। अमित उससे काफी घुलमिल गया था। मेरे सास-ससुर उसको बड़ा पसंद करते थे। जब भी घर में कोई खास चीज़ बनती थी तो उसको भिजवाते थे। मैं देने जाती थी तो वह काफी हिचक दिखाता था। मैं खाना अच्छा बनाती थी और उसको मेरा खाना बेहद पसंद था।
लेकिन एक बात मैं देखती थी। जब मैं छत पर कपड़े डालने या किसी और काम के लिये होती थी तो शेखर मुझे घूरता रहता था। उसके कमरे की खिड़की से छत एकदम सामने पड़ती थी। उसकी आँखों में वासना साफ नजर आती थी। वह भी भूखा ही रहता था।
मैं जानबूझ कर लापरवाह रहने लगी जैसे मुझे मालूम ही न हो। अपना पल्लू गिरा देती और रस्सी पर कपड़े डालने के लिये पंजों के बल खड़ी होकर दोनों हाथ ऊपर तान देती जिससे मेरी चूचियां उसके सामने एकदम खड़ी हो जातीं। कभी मैं अकेले पेटीकोट में आ जाती और उसकी तरफ चूतड़ करके पैर फैलाकर झुक जाती जिससे मेरी दोनों गोलाइयां और बीच की दरार उसके सामने आ जाये।
इस तरह से खिझाने में तो मुझे हमेशा से मजा आता है। जितनी ही उसकी वासना भड़काती उतना ही ज्यादा मजा आता था। मेरी तबीयत खुश रहती थी। जब कभी इनसे चुदाई कराती थी तो उसमें भी ज्यादा मजा आता था। कई बार तबीयत होती कि नंगी ही छत पर आ जाऊँ या कम से कम ब्रा और पैंटी में चली जाऊँ लेकिन इतनी हिम्मत नहीं पड़ती थी। जब भी मिलते थे तो अब ज्यादा मजाक करने लगे थे। मजाक में सेक्स का पुट भी आने लगा था।
अग्रवाल साहब को भी यह सब कुछ बुरा नहीं लगता था। वह शेखर को पसंद करते थे। मैं भी ज्यादा खुल गई थी। जब तब सेक्स का तीर छोड़ देती थी। जैसे एक शाम मकान मालिक के यहां सब लोग ताश खेल रहे थे। पड़ोस के और भी मियां-बीवी आ जाते थे।
बाजी हारने पर मेरे मुँह से निकल गया- “मैं लूज हो गई…”
शेखर शरारत से बोला- “अरे भाई साहब ने इतनी जल्दी लूज कर दिया…”
मैं भी कहां चूकने वाली थी- “तुम्हारे बस का तो है नहीं किसी को लूज करना…”
और सब हँस दिये जिनमें मेरे पति भी शामिल थे।
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