RE: Mastram Sex Kahani मस्ती एक्सप्रेस
सुनीता की कहानी
अब सुनीता की बारी थी। सुनीता ने कहा:
मेरा पहला और आखिरी सेक्स बस राकेश से ही है। लेकिन मैं अपनी कहानी तब कहूँगी जब राकेश यहां से चले जायेंगे।
राकेश ने जाने से मना कर दिया। सब लोगो के जोर देने पर आखिर राकेश को वहां से जाना ही पड़ा।
सुनीता ने कहना शुरू किया:
राकेश से मेरी मुलाकात की शुरूआत देखने दिखाने के सिलसिले मैं औपचारिक रूप से हुई थी। हम लोग एक ही शहर में रहते थे। बाद में मेरी एक सहेली के जरिये जो उनकी कालोनी में रहती थी हम लोंगों का संपर्क बन गया था। हम लोग मिलते रहते थे लेकिन एक दूसरे को बांहों में लेने या चुंबन लेने से आगे नहीं बढ़े थे। मैंने ही नहीं बढ़ने दिया था।
यह प्रसंग मेरी और राकेश की शादी का ही है। राकेश के रिश्तेदार और दोस्त इकट्ठे हो गये थे। मेरे यहां भी मेरी सहेलियां और मेहमान जमा थे। विवाह के पहले के नेग हो रहे थे।
बारात आने के एक दिन पहले सहेली के जरिये मुझे राकेश का एक गुप्त नोट मिला- “आज रात होटल ताज के इस रूम में जरूर से हमसे मिलो…”
हल्दी बगैरह चढ़ने के बाद मैं घर से कैसे निकल सकती थी लेकिन जरूर मिलो की खबर सुनकर जाना तो था ही। बड़ी मुश्किल से अकेले कमरे में आराम करने का बहाना करके सहेली की सहायता से छुप छुपा कर बाहर निकल पाई। होटल पहुँची तो सिहरन होने लगी। ऐसा लग रहा था कि इस राकेश से मैं पहली बार मिलने जा रही हूँ। मिलन की कामना से शरीर गरम हो गया। कमरे में पहुँची तो शर्म से दुहरी हो रही थी। गहने और शादी के जोड़े के अलावा मैं सब तरह से दुल्हन थी।
कमरे में पहुँचते ही राकेश ने मुझे दबोच लिया और कसकर होंठों पर अपने होंठ रख दिये। मैंने भी उसे कस कर जकड़ लिया। वैसे ही ले जाकर उसने मुझे बेड पर गिरा दिया और खुद मेरे ऊपर गिर गया। ब्लाउज़ के ऊपर से ही दायें उरोज पर उसने मुँह रख दिया और बांयें को मुट्ठी में दबोच लिया। मुझे न करने की इच्छा ही नहीं हुई। वह धीरे-धीरे बात करता रहा और मेरे बटन और हुक खोलता रहा। फिर उसने जो बताया मैं शर्म से गड़ गई।
दो दिन पहले मेरे यहां मेंहदी की रश्म हुई थी। मैं एक चौकी पर बैठी मेंहदी लगवा रही थी घुटनों पर हथेलियां फैलाये, तभी राकेश और उसके दोस्त वहां आ गये थे। उस दिन रिवाज के अनुसार मैंने लहंगा पहना था। आदत न होने के कारण लहंगे का ऊपर का हिस्सा मुड़े हुये घुटनों के ऊपर चढ़ गया था और नीचे का हिस्सा जमीन पर गिर गया था। टांगों के बीच का नजारा साफ दिख रहा था। मैंने गुलाबी सिल्क की पैंटी पहन रखी थी। शायाद मैं आने वाली रंगीनियों को याद करके बहुत गरमा रही थी क्येांकि पैंटी पर चूत के ठीक ऊपर एक बड़ा गीला धब्बा फैला हुआ था।
उसके सब दोस्तों ने उसको देखा। मेंहदी लगाने वाला भी बार-बार वहां देख रहा था। राकेश ने आँखों से इशारा किया लेकिन मैंने ध्यान ही नहीं दिया था। राकेश ने उठे लहंगे को नीचे करने की कोशिश भी की थी लेकिन सबके सामने छू भी नहीं सकता था और सबने देख तो लिया ही था।
यह सही है कि इन दिनों दिमाग में राकेश की याद करके मेरी चूत रिस रही थी और मैं लगवाने के लिये बेकरार थी। मैंने राकेश से कहा- “मुझे माफ कर दो मैं…”
पूरा बोलने के पहले ही राकेश कहने लगा- “डार्लिंग, क्या बात करती हो… तुमने जानबूझ कर थोड़ी किया। चलो उसी बहाने दोस्तों को भी मजा मिल गया, वैसे तो तुम दिखाती नहीं…”
मैंने कहा- “धत्त बेशरम…”
राकेश फिर बोला- “एक बात है कि उस दिन मेरा लण्ड एकदम खड़ा हो गया था और अब रोज खड़ा हो जाता है। उसी का इलाज करने के लिये तुम्हें बुलाया है…”
मैंने कहा- “कल शादी की रश्म तो पूरी हो जाने दो…”
राकेश ने प्रश्न किया- “मान लो मैं तुमको आज करना ही चाहूँ तो?”
मैंने सहज भाव से कहा- “मैं तुम्हारी हूँ, यह शरीर तुम्हारा है, जो चाहे करो। लेकिन रीति निभाने के लिये एक दिन का सब्र रखो न…”
तब राकेश ने कलावती और दोस्तों की सब बात मुझे बता दी और कहा- “मैं तुमसे पहले किसी को नहीं भोगूंगा। सुहागरात तो तुम्हारे साथ ही मनेगी। बोलो क्या कहती हो?”
मैंने बाहें और टांगें फैला दी और कहा- “लो मनाओ अपनी सुहागरात…”
राकेश धीरे-धीरे चूमता हुआ आगे बढ़ने लगा।
मैंने उसके कान में कहा- “मुझे जल्दी से जल्दी वापिस पहुँच जाना चाहिये। मैं तो तैयार ही हूँ। मेरी यह गीली ही बनी रहती है। लगा दो न इसमें…”
राकेश ने एक झटके में पेटीकोट और साड़ी खींच दी। फिर अपने कपड़े उतार फेंके। मैं उसके मजबूत लण्ड से खेलना चाहती थी, वह भी मेरी चूचियों से और चूत से खिलबाड़ करना चाहता था लेकिन समय नहीं था।
मैंने उसका लण्ड पकड़ करके चूत से सटाया और जैसे ही उसने जोर लगाया मैं चिल्ला उठी। मेरी तबीयत हो रही थी, लेकिन लण्ड का घुसना इतना आसान नहीं था जितना मैं समझ रही थी। जब भी वह लगाता मैं चिल्ला उठती और वह हटा लेटा।
मैं कहने लगी- “बस रहने दो लण्ड चूत का मिलना तो हो ही गया है…”
इस बार राकेश ने अपने थूक से लण्ड को गीला किया, अपने हाथ से पकड़कर घुमाकर सुपाड़ा थोड़ा छेद में फँसाया और मेरी कमर पकड़ करके पूरे जोर से पेल दिया। मैं चिल्लाती रही लेकिन वह रुका नहीं… जब तक पूरा लण्ड अंदर तक नहीं घुस गया। मैं रोने लग गई थी।
उसने मेरे आंसू पोंछते हुये कहा- “डार्लिंग तुमको जो सजा देना हो दे लो…”
लण्ड के आगे पीछे होने से अब भी चूत के भीतर छुरी जैसी चल रही थी। मैंने कहा- “अब और मत सताओ…”
वह बोला- “अच्छा…” और घुसे हुये लण्ड पर ही जोर लगाकर अपनी इच्छा शक्ति से उसने पानी छोड़ दिया। पानी निकलने के पहले उसने अपना लण्ड बाहर निकाल लिया।
जब मैं उठी तो बेड पर ख़ून देखकर घबड़ा उठी। राकेश ने समझाया कोई बात नहीं होटल वाले को वह चादर के पैसे दे देगा और उसने वह चादर लपेटकर अपने पास रख ली जो आज भी हमारे पास है। जब मैं होटल से निकली तो शादी के पहले ही लुट चुकी थी।
कुमुद की भावना अब राकेश के बारे में बदल चुकी थी। वह उसे और भी सराहने लगी थी।
सुनीता ने आगे कहा:
जहां तक कलावती का सवाल है, कलावती ने खुद सुनीता को सब बता दिया और कभी अपना हक नहीं जताया। सुनीता उसकी सहायता करती रहती थी। तीज त्योहार पर उसको साड़ी गहने आदि भी देती रहती थी। होली दिवाली वह राकेश के साथ मनाती थी। उस समय वह राकेश से चुदवाती भी थी। एक होली को जब राकेश उसको चोद रहा था तो राकेश का लण्ड फच्च-फच्च कर रहा था।
राकेश ने पूछा- “क्या बात है?”
तो कलावती ने बताया- “यहां आने के पहले उसने अपने मर्द से होली मनाई की जो अंदर ही झड़ गया था…”
राकेश ने कहा- “अगली बार से वह होली दिवाली उसके संग पहले मनाये फिर अपने मर्द के साथ…”
आखिरी बारी मिसेज़ संगीता अग्रवाल की थी।
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