RE: Train Sex Stories रेल यात्रा
गनीमत हुयी की जयपुर स्टेशन आ गया। वरना कई और भेड़िये इंतज़ार में खड़े थे।
अपनी अपनी बारी के।
जयपुर रेलवे स्टेशन पर वो सब ट्रेन से उतर गए। रानी का बुरा हाल था। वो
जानबुझ कर पीछे रह रही थी ताकि किसी को उसकी सलवार पर गिरे सफ़ेद धब्बे न
दिखाई दे जाये।
आशीष बोला- "ताऊ जी,कुछ खा पी लें! बहार चलकर। "
ताऊ पता नहीं किस किस्म का आदमी था- "बोला भाई जाकर तुम खा आओ! हम तो
अपना लेकर आये हैं।
कविता ने उसको दुत्कारा- "आप भी न बापू! जब हम खायेंगे तो ये नहीं खा
सकता। हमारे साथ। "
ताऊ- "बेटी मैंने तो इस लिए कह दिया था कहीं इसको हमारा खाना अच्छा न
लगे। शहर का लौंडा है न। हे राम! पैर दुखने लगे हैं। "
आशीष- "इसीलिए तो कहता हूँ ताऊ जी। किसी होटल में चलते हैं। खा भी लेंगे।
सुस्ता भी लेंगे।"
ताऊ- "बेटा, कहता तो तू ठीक ही है। पर उसके लिए पैसे।"
आशीष- "पैसों की चिंता मत करो ताऊ जी। मेरे पास हैं।" आशीष के ATM में
लाखों रुपैये थे।
ताऊ- "फिर तो चलो बेटा, होटल का ही खाते हैं।"
होटल में बैठते ही तीनो के होश उड़ गए। देखा रानी साथ नहीं थी। ताऊ और
कविता का चेहरा तो जैसा सफ़ेद हो गया।
आशीष ने उनको तसल्ली देते हुए कहा- "ताऊ जी, मैं देखकर आता हूँ। आप यहीं
बैठकर खाना खाईये तब तक।"
कविता- "मैं भी चलती हूँ साथ!"
ताऊ- "नहीं! कविता मैं अकेला यहाँ कैसे रहूँगा। तुम यहीं बैठी रहो। जा
बेटा जल्दी जा। और उसी रस्ते से देखते जाना, जिससे वो आए थे। मेरे तो
पैरों में जान नहीं है। नहीं तो मैं ही चला जाता।"
आशीष उसको ढूँढने निकल गया।
आशीष के मन में कई तरह की बातें आ रही थी।" कही पीछे से उसको किसी ने
अगवा न कर लिया हो! कही वो कालू। " वह स्टेशन के अन्दर घुसा ही था की
पीछे से आवाज आई- "भैया!"
आशीष को आवाज सुनी हुयी लगी तो पलटकर देखा। रानी स्टेशन के प्रवेश द्वार
पर सहमी हुयी सी खड़ी थी।
आशीष जैसे भाग कर गया- "पागल हो क्या? यहाँ क्या कर रही हो? चलो जल्दी। "
रानी को अब शांत सी थी।- "मैं क्या करती भैया। तुम्ही गायब हो गए अचानक!"
"ए सुन! ये मुझे भैया-भैया मत बोल "
"क्यूँ?"
"क्यूँ! क्यूंकि ट्रेन में मैंने "और ट्रेन का वाक्य याद आते ही आशीष के
दिमाग में एक प्लान कौंध गया!
"मेरा नाम आशीष है समझी! और मुझे तू नाम से ही बुलाएगी। चल जल्दी चल!"
आशीष कहकर आगे बढ़ गया और रानी उसके पीछे पीछे चलती रही।
आशीष उसको शहर की और न ले जाकर स्टेशन से बहार निकलते ही रेल की पटरी के
साथ साथ एक सड़क पर चलने लगा। आगे अँधेरा था। वहां काम बन सकता था!
"यहाँ कहाँ ले जा रहे हो, आशीष!" रानी अँधेरा सा देखकर चिंतित सी हो गयी।
"तू चुप चाप मेरे पीछे आ जा। नहीं तो कोई उस कालू जैसा तुम्हारी। समाझ
गयी न।" आशीष ने उसको ट्रेन की बातें याद दिला कर गरम करने की कोशिश की।
"तुमने मुझे बचाया क्यूँ नहीं। इतने तगड़े होकर भी डर गए ", रानी ने
शिकायती लहजे में कहा।
"अच्छा! याद नहीं वो साला क्या बोल रहा था। सबको बता देता। "
रानी चुप हो गयी। आशीष बोला- "और तुम खो कैसे गयी थी। साथ साथ नहीं चल सकती थी? "
रानी को अपनी सलवार याद आ गयी- "वो मैं!" कहते कहते वो चुप हो गयी।
"क्या?" आशीष ने बात पूरी करने को कहा।
"उसने मेरी सलवार गन्दी कर दी। मैं झुक कर उसको साफ़ करने लगी। उठकर देखा तो। "
आशीष ने उसकी सलवार को देखने की कोशिश की पर अँधेरा इतना गहरा था की सफ़ेद
सी सलवार भी उसको दिखाई न दी।
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