RE: Hindi Porn Stories संघर्ष
संघर्ष --5
गतांक से आगे.......... सावित्री भोला पंडित के रूअब्दार कड़क मिज़ाज और तेवर को देखकेर कुछ डर सी जाती. क्योंकि वे कोई ज़्यादे बात चीत नही करते. और उनकी आवाज़ मोटी भी थी, बस दुकान पर आने वाली औरतो को समान बेचने के लालच से कुछ चेहरे पर मीठापन दीखाते. रोजाना दोपहेर को वे एक या दो घंटे के लिए दुकान बंद कर खाना खा कर दुकान के पिछले हिस्से मे बने कमरे मे आराम करते. यह दुकान को ही दो भागो मे बाँट कर बना था जिसके बीच मे केवल एक दीवार थी और दुकान से इस कमरे मे आने के लिए एक छोटा सा दरवाजा था जिस पर एक परदा लटका रहता. अंदर एक चौकी थी और पिछले कोने मे शौचालय और स्नानघर भी था . यह कमरा दुकान के तुलना मे काफ़ी बड़ा था. कमरे मे एक चौकी थी जिसपर पर भोला पंडित सांड की तरह लेट गये और नीचे एक चटाई पर लक्ष्मी लेट कर आराम करने लगी, सावित्री को भी लेटने के लिए कहा पर पंडितजी की चौकी के ठीक सामने ही बिछी चटाई पर लेटने मे काफ़ी शर्म महसूस कर रही थी लक्ष्मी यह भाँप गयी कि सावित्री भोला पंडित से शर्मा रही है इस वजह से चटाई पर लेट नही रही है. लक्ष्मी ने चटाई उठाया और दुकान वाले हिस्से मे जिसमे की बाहर का दरवाजा बंद था, चली गयी. पीछे पीछे सावित्री भी आई और फिर दोनो एक ही चटाई पर लेट गये, लक्ष्मी तो थोड़ी देर के लिए सो गयी पर सावित्री लेट लेट दुकान की छत को निहारती रही और करीब दो घंटे बाद फिर सभी उठे और दुकान फिर से खुल गई. करीब दस ही दीनो मे लक्ष्मी ने सावित्री को बहुत कुछ बता और समझा दिया था आगे उसके पास समय और नही था कि वह सावित्री की सहयता करे. फिर सावित्री को अकेले ही आना पड़ा. पहले दिन आते समय खंडहेर के पास काफ़ी डर लगता मानो जैसे प्राण ही निकल जाए. कब कोई गुंडा खंडहेर मे खेन्च ले जाए कुछ पता नही था. लेकिन मजबूरी थी दुकान पर जाना. जब पहली बार खंडहेर के पास से गुज़री तो सन्नाटा था लेकिन संयोग से कोई आवारा से कोई अश्लील बातें सुनने को नही मिला. किसी तरह दुकान पर पहुँची और भोला पंडित को नमस्कार किया और वो रोज़ की तरह कुछ भी ना बोले और दुकान के अंदर आने का इशारा बस किया. खंडहेर के पास से गुज़रते हुए लग रहा डर मानो अभी भी सावित्री के मन मे था. आज वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी क्योंकि लक्ष्मी अब नही आने वाली थी. दस दिन तो केवल मा के कहने पर आई थी. यही सोच रही थी और दुकान मे एक तरफ भोला पंडित और दूसरी तरफ एक स्टूल पे सावित्री सलवार समीज़ मे बैठी थी. दुकान एक पतली गली मे एकदम किनारे होने के वजह से भीड़ भाड़ बहुत कम होती और जो भी ग्राहक आते वो शाम के समय ही आते. दुकान के दूसरी तरफ एक उँची चहारदीवारी थी जिसके वजह से दुकान मे कही से कोई नही देख सकता था तबतक की वह दुकान के ठीक सामने ना हो. इस पतली गली मे यह अंतिम दुकान थी और इसके ठीक बगल वाली दुकान बहुत दीनो से बंद पड़ी थी. शायद यही बात स्टूल पर बैठी सावित्री के मन मे थी कि दुकान भी तो काफ़ी एकांत मे है, पंडित जी अपने कुर्सी पे बैठे बैठे अख़बार पढ़ रहे थे, करीब एक घंटा बीत गया लेकिन वो सावित्री से कुछ भी नही बोले. सावित्री को पता नही क्यो यह अक्चा नही लग रहा था. उनके कड़क और रोबीले मिज़ाज़ के वजह से उसके पास कहाँ इतनी हिम्मत थी कि भोला पंडित से कुछ बात की शुरुआत करे. दुकान मे एक अज़ीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था, तभी भोला पंडित ने स्टूल पर नज़रे झुकाए बैठी सावित्री के तरफ देखा और बोला " देखो एक कपड़ा स्नानघर मे है उसे धो कर अंदर ही फैला देना" मोटी आवाज़ मे आदेश सुनकर सावित्री लगभग हड़बड़ा सी गयी और उसके हलक के बस जी शब्द ही निकला और वह उठी और स्नानघर मे चल दी. स्नानघर मे पहुँच कर वह पीछे पलट कर देखी कि कहीं पंडित जी तो नही आ रहे क्योंकि सावित्री आज अकेले थी और दुकान भी सन्नाटे मे था और पंडित जी भी एक नये आदमी थे. फिर भी पंडित जी के उपर विश्वास था जैसा कि लक्ष्मी ने बताया था. सावित्री को लगा कि पंडित जी वहीं बैठे अख़बार पढ़ रहे हैं. फिर सावित्री ने स्नानघर मे कपड़े तलाशने लगी तो केवल फर्श पर एक सफेद रंग की लंगोट रखी थी जिसे पहलवान लोग पहनते हैं. यह भोला पंडित का ही था. सावित्री के मन मे अचानक एक घबराहट होने लगी क्योंकि वह किसी मर्द का लंगोट धोना ठीक नही लगता. स्नानघर के दरवाजे पर खड़ी हो कर यही सोच रही थी कि अचानक भोला पंडित की मोटी कड़क दार आवाज़ आई "कपड़ा मिला की नही" वे दुकान मे बैठे ही बोल रहे थे. सावित्री पूरी तरह से डर गयी और तुरंत बोली "जी मिला" सावित्री के पास इतनी हिम्मत नही थी कि भोला पंडित से यह कहे कि वह एक लड़की है और उनकी लंगोट को कैसे धो सकती है. आख़िर हाथ बढाई और लंगोट को ढोने के लिए जैसे ही पकड़ी उसे लगा जैसे ये लंगोट नही बल्कि कोई साँप है. फिर किसी तरह से लंगोट को धोने लगी. फिर जैसे ही लंगोट पर साबुन लगाने के लिए लंगोट को फैलाया उसे लगा कि उसमे कुछ काला काला लगा है फिर ध्यान से देख तो एकद्ूम सकपका कर रह गयी. यह काला कला कुछ और नही बल्कि झांट के बॉल थे जो भोला पंडित के ही थे. जो की काफ़ी मोटे मोटे थे. वह उन्हे छूना बिल्कुल ही नही चाहती थी लेकिन लंगोट साफ कैसे होगी बिना उसे साफ किए. फिर सावित्री ने पानी की धार गिराया कि झांट के बाल लंगोट से बह जाए लेकिन फिर भी कुछ बॉल नही बह सके क्योंकि वो लंगोट के धागो मे बुरी तरह से फँसे थे. यह सावित्री के लिए चुनौती ही थी क्योंकि वह भोला पंडित के झांट के बालो को छूना नही चाहती थी. अचानक बाहर से आवाज़ आई "सॉफ हुआ की नही" और इस मोटे आवाज़ ने मानो सावित्री की हड्डियाँ तक कपा दी और बोल पड़ी "जी कर रही हूँ" और घबराहट मे अपने उंगलिओ से जैसे ही लंगोट मे फँसे झांट के बालो को निकालने के लिए पकड़ी कि सिर से पाव तक गन्गना गयी , उसे ऐसे लगा जैसे ये झांट के बाल नही बल्कि बिजली का कुर्रेंट है, आख़िर किसी तरह एक एक बाल को लंगोट से निकाल कर फर्श पर फेंकी और पानी की धार फेंक कर उसे बहाया जो स्नानघर के नाली के तरफ तैरते हुए जा रहे थे और सावित्री की नज़रे उन्हे देख कर सनसना रही थी. किसी ढंग से लंगोट साफ कर के वह अंदर ही बँधे रस्सी पर फैला कर अपना हाथ धो ली और वापस दुकान मे आई तो चेहरे पर पसीना और लालपान छा गया था. उसने देखा कि भोला पंडित अभी भी बैठे अख़बार पढ़ रहे थे. सावित्री जा कर फिर से स्टूल पर बैठ गयी और नज़रे झुका ली. कुछ देर बाद दोपहर हो चली थी और भोला पंडित के खाना खाने और आराम करने का समय हो चला था. समय देख कर भोला पंडित ने दुकान का बाहरी दरवाजा बंद किया और खाना खाने के लिए अंदर वाले कमरे मे चले आए. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने का सीधा मतलब था कि कोई भी अंदर नही आ सकता था. भोला पंडित खाना खाने लगे और सावित्री तो घर से ही खाना खा कर आती इस लिए उसे बस आराम ही करना होता. सावित्री ने चटाई लेकर दुकान वाले हिस्से मे आ गयी और चटाई बिछा कर लेटने के बजाय बैठ कर आज की घटना के बारे मे सोचने लगी. उसे लगता जैसे भोला पंडित की झांट को छू कर बहुत ग़लत किया, लेकिन डरी सहमी और क्या करती. बार बार उसके मन मे डर लगता. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने के कारण वह अपने आप को सुरक्षित नही महसूस कर रही थी. यही सोचती रही कि अंदर के कमरे से खर्राटे की आवाज़ आने लगी. फिर यह जान कर की भोला पंडित सो गये है वह भी लेट गयी पर उनके लंगोट वाली झांतो की याद बार बार दिमाग़ मे घूमता रहता. यही सब सोचते सोचते करीब एक घंटा बीत गया. फिर भोला पंडित उठे तो उनके उठने के आहट सुन कर सावित्री भी चटाई पर उठ कर बैठ गयी. थोड़ी देर बाद शौचालय से पेशाब करने की आवाज़ आने लगी , वो भोला पंडित कर रहे थे.अभी दुकान खुलने मे लगभग एक घंटे का और समय था और भोला पंडित शायद एक घंटे और आराम करेंगे' यही बात सावित्री सोच रही थी की अंदर से पंडित जी ने सावित्री को पुकारा. "सुनो" सावित्री लगभग घबड़ाई हुई उठी और अपना समीज़ पर दुपट्टे को ठीक कर अंदर आए तो देखी की भोला पंडित चौकी पर बैठे हैं. सावित्री उनके चौकी से कुछ दूर पर खड़ी हो गयी और नज़रे झुका ली और पंडित जी क्या कहने वाले हैं इस बात का इंतज़ार करने लगी. तभी भोला पंडित ने पुचछा "महीना तुम्हारा कब आया था" अचानक ऐसे सवाल को सुन कर सावित्री की आँखे फटी की फटी रह गई वह मानो अगले पल गिरकर मर जाएगी उसे ऐसा लग रहा था. उसका गले मे मानो लकवा मार दिया हो, दिमाग़ की सारी नसे सूख गयी हो. सावित्री के रोवे रोवे को कंपा देने वाले इस सवाल ने सावित्री को इस कदर झकझोर दिया कि मानो उसके आँखो के सामने कुछ दीखाई ही नही दे रहा था. आख़िर वह कुछ बोल ना सकी और एक पत्थेर की तरह खड़ी रह गई. दुबारा भोला पंडित ने वही सवाल दुहरेया "महीना कब बैठी थी" सावित्री के सिर से पाँव तक पसीना छूट गया. उसे कुछ समझ नही आ रहा था कि ये क्या हो रहा है और वह क्या करे लेकिन दूसरी बार पूछने पर वह काफ़ी दबाव मे आ गयी और सूखे गले से काफ़ी धीमी आवाज़ ही निकल पाई "दस दिन प..." और आवाज़ दब्ति चली गयी कि बाद के शब्द सुनाई ही नही पड़े. फिर भोला पंडित ने कुछ और कड़े आवाज़ मे कुछ धमकी भरे लहजे मे आदेश दिया "जाओ पेशाब कर के आओ" इसे सुनते ही सावित्री कांप सी गयी और शौचालय के तरफ चल पड़ी. अंदर जा कर सीत्कनी बंद करने मे लगताथा जैसे उसके हाथ मे जान ही नही है. भोला पंडित का पेशाब कराने का मतलब सावित्री समझ रही थी लेकिन डर के मारे उसे कुछ समझ नही आ रहा था कि वो अब क्या करे . शौचालय के अंदर सावित्री के हाथ जरवंद खोलने मे कांप रहे थे और किसी तरह से जरवंद खोल कर सलवार को नीचे की और फिर चड्धि को सर्काई और पेशाब करने बैठी लेकिन काफ़ी मेहनत के बाद पेशाब की धार निकलना शुरू हुई. पेशाब करने के बाद सावित्री अपने कपड़ो को सही की दुपट्टा से चुचियो को ढाकी फिर उसकी हिम्मत शौचालय से बाहर आने की नही हो रही थी और वह उसी मे चुपचाप खड़ी थी. तभी फिर डरावनी आवाज़ कानो मे बम की तरह फट पड़ा "जल्दी आओ बाहर" बाहर आने के बाद वह नज़ारे झुकाए खड़ी थी और उसका सीना धक धक ऐसे कर रहा था मानो फट कर बाहर आ जाएगा . सावित्री ने देखा की भोला पंडित चौकी पर दोनो पैर नीचे लटका कर बैठे हैं. फिर पंडित जी चौकी पर बैठे ही सावित्री को नीचे से उपर तक घूरा और फिर चौकी पर लेट गये. चौकी पर एक बिस्तर बिछा था और भोला पंडित के सिर के नीचे एक तकिया लगा था. भोला पंडित लेते लेते छत की ओर देख रहे थे और चित लेट कर दोनो पैर सीधा फैला रखा था. वे धोती और बनियान पहने थे. धोती घुटने तक थी और घुटने के नीचे का पैर सॉफ दीख रहा था जो गोरे रंग का काफ़ी मजबूत था जिसपे काफ़ी घने बाल उगे थे. सावित्री चुपचाप अपने जगह पर ऐसे खड़ी थी मानो कोई मूर्ति हो. वह अपने शरीर मे डर के मारे धक धक की आवाज़ साफ महसूस कर रही थी. यह उसके जीवन का बहुत डरावना पल था. शायद अगले पल मे क्या होगा इस बात को सोच कर काँप सी जाती. इतने पॅलो मे उसे महसूस हुआ कि उसका पैर का तलवा जो बिना चप्पल के कमरे के फर्श पर थे, पसीने से भीग गये थे. उसकी साँसे तेज़ चल रही थी. उसे लग रहा था की सांस लेने के लिए उसे काफ़ी ताक़त लगानी पड़ रही थी. ऐसा जैसे उसके फेफड़ों मे हवा जा ही नही रही हो. उसके दिल और दिमाग़ दोनो मे लकवा सा मार दिया था. तभी पंडित जी कमरे के छत के तरफ देखते हुए बोले "पैर दबा" सावित्री जो की इस दयनीय हालत मे थी और शर्म से पानी पानी हो चुकी थी, ठीक अपने सामने नीचे फर्श पर देख रही थी, क्योंकि उसकी भोला पंडित की तरफ देखने की हिम्मत अब ख़त्म हो चुकी थी, आवाज़ सुनकर फिर से कांप सी गयी और अपने नज़रो को बड़ी ताक़त से उठा कर चौकी के तरफ की और भोला पंडित को जब कनखियों से देखी कि वे धोती और बनियान मे सिर के नीचे तकिया लगाए लेते थे और अब सावित्री के तरफ ही देख रहे थे. सावित्री फिर से नज़रे नीचे गढ़ा ली. वह चौकी से कुछ ही दूरी पर ही खड़ी थी उसे लग रहा था कि उसके पैर के दोनो तलवे फर्श से ऐसे चिपक गये हो की अब छूटेंगे ही नही. भोला पंडित को अपनी तरफ देखते हुए वह फिर से घबरा गयी और डर के मारे उनके पैर दबाने के लिए आगे बढ़ी ही थी कि ऐसा महसूस हुआ जैसे उसे चक्केर आ गया हो और अगले पल गिर ना जाए. शायद काफ़ी डर और घबराहट के वजह से ही ऐसा महसूस की. ज्यों ही सावित्री ने अपना पैर फर्श पर आगे बढ़ाई तो पैर के तलवे के पसीना का गीलापन फर्श पर सॉफ दीख रहा था. अब चौकी के ठीक करीब आ गयी और खड़ी खड़ी यही सोच रही थी कि अब उनके पैर को कैसे दबाए. भोला पंडित ने सावित्री से केवल पैर दबाने के लिए बोला था और ये कुछ नही कहा कि चौकी पर बैठ कर दबाए या केवल चौकी के किनारे खड़ी होकर की दबाए. क्योंकि सावित्री यह जानती थी कि पंडित जी को यह मालूम है कि सावित्री एक छ्होटी जात की है और लक्ष्मी ने सावित्री को पहले ही यह बताया था कि दुकान मे केवल अपने काम से काम रखना कभी भी पंडित जी का कोई समान या चौकी को मत छूना क्योंकि वो एक ब्राह्मण जाती के हैं और वो छ्होटी जाती के लोगो से अपने सामानो को छूना बर्दाश्त नही करते, और दुकान मे रखी स्टूल पर ही बैठना और आराम करने के लिए चटाई का इस्तेमाल करना. शायद इसी बात के मन मे आने से वह चौकी से ऐसे खड़ी थी कि कहीं चौकी से सॅट ना जाए. भोला पंडित ने यह देखते ही की वह चौकी से सटना नही चाहती है उन्हे याद आया कि सावित्री एक छोटे जाती की है और अगले ही पल उठकर बैठे और बोले "जा चटाई ला" सावित्री का डर बहुत सही निकला वह यह सोचते हुए कि भला चौकी को उसने छूआ नही. दुकान वाले हिस्से मे जहाँ वो आराम करने के लिए चटाई बिछाई थी, लेने चली गयी. इधेर भोला पंडित चौकी पर फिर से पैर लटका कर बैठ गये, सावित्री ज्यों ही चटाई ले कर आई उन्होने उसे चौकी के बगल मे नीचे बिछाने के लिए उंगली से इशारा किया. सावित्री की डरी हुई आँखे इशारा देखते ही समझ गयी कि कहाँ बिछाना है और बिछा कर एक तरफ खड़ी हो गयी और अपने दुपट्टे को ठीक करने लगी, उसका दुपट्टा पहले से ही काफ़ी ठीक था और उसके दोनो चूचियो को अच्छी तरह से ढके था फिर भी अपने संतुष्टि के लिए उसके हाथ दुपट्टे के किनारों पर चले ही जाते. भोला पंडित चौकी पर से उतर कर नीचे बिछी हुई चटाई पर लेट गये. लेकिन चौकी पर रखे तकिया को सिर के नीचे नही लगाया शायद चटाई का इस्तेमाल छ्होटी जाती के लिए ही था इस लिए ही चौकी के बिस्तर पर रखे तकिया को चटाई पर लाना मुनासिब नही समझे. भोला पंडित लेटने के बाद अपने पैरों को सीधा कर दिया जैसा की चौकी के उपर लेते थे. फिर से धोती उनके घुटनो तक के हिस्से को ढक रखा था. उनके पैर के तरफ सावित्री चुपचाप खड़ी अपने नज़रों को फर्श पर टिकाई थी. सीने का धड़कना अब और तेज हो गया था. तभी पंडित जी के आदेश की आवाज़ सावित्री के कानो मे पड़ी "अब दबा" . सावित्री को ऐसा लग रहा था कि घबराहट से उसे उल्टी हो जायगि. अब सावित्री के सामने यह चुनौती थी कि वह पंडित जी के सामने किस तरह से बैठे की पंडित जी को उसका शरीर कम से कम दीखे. जैसा की वह सलवार समीज़ पहनी और दुपट्टा से अपने उपरी हिस्से को काफ़ी ढंग से ढक रखा था. फिर उसने अपने पैर के घुटने को मोदकर बैठी और यही सोचने लगी कि अब पैर दबाना कहाँ से सुरू करे. उसके मन मे विरोध के भी भाव थे कि ऐसा करने से वो मना कर दे लेकिन गाओं की अट्ठारह साल की सीधी साधी ग़रीब लड़की जिसने अपना ज़्यादा समय घर मे ही बिताया था, और शर्मीली होने के साथ साथ वह एक डरपोक किस्म की भी हो गयी थी. और वह अपने घर से बाहर दूसरे जगह यानी भोला पंडित के दुकान मे थी जिसका दरवाजा बंद था और दोपहर के समय एकांत और शांत माहौल मे उसका मन और डर से भर गया था. उसके उपर से भोला पंडित जो उँची जाती के थे और उनका रोबीला कड़क आवाज़ और उससे बहुत कम बातें करने का स्वाभाव ने सावित्री के मन मे बचे खुचे आत्मविश्वास और मनोबल को तो लगभग ख़त्म ही कर दिया था. वैसे वह पहले से ही काफ़ी डरी हुई थी और आज उसका पहला दिन था जब वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी.
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