प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ
07-04-2017, 12:40 PM,
#69
RE: प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ
जिसके लिए विश्वामित्र और नारद जैसे महा-ऋषियों का मन डोल गया वो पल अब मेरे सामने आने वाला था। पहले सुनहरे रोएँ नज़र आये और फिर दो भागो में बटा बुर का पहला नज़ारा- रक्तिम चीरा बाहरी होंठ मोटे और सुर्ख लाल गुलाबी रंगत लिए छोटे होंठ कुछ श्यामलता लिए दोनों आपस में प्रगाढ़ सहेलियों की तरह चिपके हुए और उसके नीचे सुनहरी रंग का गोल गोल गांड का छेद। आह… मैं तो बस इस दिलकश नजारे को देख कर अपनी सुध बुध ही खो बैठा।

पैंटी निकाल कर दूर फेंक दी। उसकी संगमरमरी जांघे केले के तने की तरह चिकनी और सुडोल जाँघों को मैंने कांपते हाथों से उन्हें सहलाया तो मिक्की की एक सित्कार निकल गई और उसके पैर अपने आप चौड़े होते चले गए। फिर मैंने हौले से उसके सुनहरी बालो पर हाथ लगाया।

उफ़… मक्का के भुट्टे को अगर छील कर उस पर उगे सुनहरी बालो का स्पर्श करें तो आपको मिक्की की बुर पर उगे उन छोटे छोटे रेशम से मुलायम बालों (रोएँ) का अहसास हो जायेगा। बाल ज्यादा नहीं थे सिर्फ थोड़े से उपरी भाग पर और दोनों होंठो के बाहर केवल आधी दूर तक जहां चीरा ख़त्म होता है उससे कोई दो इंच ऊपर तक। बुर जहां ख़त्म होती है उसके ठीक एक इंच नीचे जन्नत का दूसरा दरवाजा। उफ़ एक चवन्नी के आकार का बादामी रंग का गोल घेरा जैसे हंसिका मोटवानी या प्रियंका चोपड़ा ने सीटी बजाने के अंदाज में अपने होंठ सिकोड़ लिए हों।

मैने अपनी दोनों हाथों से उसकी पंखुड़ियों को थोड़ा सा चोड़ा किया। एक हलकी सी ‘पुट’ की आवाज के साथ उसकी बुर थोड़ी सी खुल गई केवल दो इंच रतनार सुर्ख लाल अनार के दाने जितनी बड़ी मदन मणि और बीच में मूत्र छेद माचिस की तिल्ली जितना बड़ा और उसके एक इंच नीचे स्वर्ग गुफा का छोटा सा छेद कम रस से भरा जैसे शहद की कुप्पी हो।

मैं अब कैसे रुक सकता था। मैने बरसों के प्यासे अपने जलते होंठ उन पर रख ही दिए। एक मादक सुगंध से मेरा सारा तन मन भर उठा। मिक्की तो बस मेरा सिर पकड़े अपनी आँखें बंद किये पता नहीं कहाँ खोई हुई थी उसका पूरा शरीर काँप रहा था। और मुंह से बस हौले-हौले सीत्कार ही निक़ल रही थी।

मैने अपनी जीभ की नोक जैसी ही उसकी मदनमणि पर लगाई, मिक्की का शरीर थोड़ा सा अकड़ा और उसकी बुर ने शहद की दो तीन बूँदे मुझे अर्पित कर दी। ओह मेरे प्यार का पहला स्पर्श पाते ही उसका छोटा स्खलन हो गया। उसके हाथ और पैर दोनों अकड़े हुए थे शरीर काँप रहा था। मेरा एक हाथ उसके उरोजों को मसल रहा था और दूसरा हाथ उसके गोल गोल नितम्बों को सहला रहा था।

मैने उसकी बुर को चूसना शुरू कर दिया। मिक्की तो सातवें आसमान पर थी। लगभग दस मिनट तक मैने उसकी बुर चूसी होगी। फिर मैने उसकी बुर चूसते चूसते पास पड़ी डब्बी से थोड़ी सी वैसलीन अपने दायें हाथ की तर्जनी अंगुली पर लगाई और होले से उसकी बुर की सहेली पर फिरा दी। मिक्की ने रोमांच से एक बार और झटका खाया। अब मैने दो चीजें एक साथ की उसकी शहद की कुप्पी को जोर से चूसने के बाद उसके अनार दाने को दांतों से होले से दबाया और अपने दायें हाथ की वैसलीन से भरी अंगुली का पोर उसके प्रेम द्वार की प्यारी पड़ोसिन के सुनहरी छेद में डाल दिया।

“ऊईई… मम्म्मीईइ…जीज्जू…ऊ आह्ह्ह मुझे कुछ हो रहा है मैं मर गई… आह्ह्ह… ऊओईईइ…इ ह्हीईइ… य्याआया… !!”

मिक्की का शरीर अकड़ गया, उसने मेरे सिर के बालों को नोच लिया, और अपनी जाँघों को जोर से भींच लिया और जोर की किलकारी के साथ वो ढीली पड़ती चली गई और उसके साथ ही उसकी बुर ने कोई तीन-चार चम्मच शहद (कामरस) उंडेल दिया जिसे मैं भला कैसे व्यर्थ जाने देता, गटागट पी गया। ये उसके जीवन का पहला ओर्ग्जाम था।

कुछ पलों के बाद जब मिक्की कुछ सामान्य हुई तो मैने होले से उसे पुकारा,”मेरी मोनिका ! मेरे प्रेम की देवी ! कैसा लग रहा है ?”

“उन्ह !! कुछ मत पूछो मेरे प्रेम देव ! आज की रात बस मुझे अपनी बाहों में लेकर बस प्यार बस प्यार ही करते रहो मेरे प्रथम पुरुष !”

मैने एक बार फिर उसे अपनी बाहों में भर लिया। अब बस उन पलों की प्रतीक्षा थी जिसे मधुर मिलन कहते है। मैं अच्छी तरह जानता था भले ही मिक्की अब अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार है पर है तो अभी कमसिन कच्ची मासूम कली ही ? वो भले ही इस समय सपनो के रहस्यमई संसार में गोते लगा रही है पर मधुर मिलन के उस प्रथम कठिन चरण से अभी अपरिचित है। मैं मिक्की से प्यार करता था और भला उसे कोई कष्ट हो मैं कैसे सहन कर सकता था।

शायद आप रहे कि मैंने अपना इरादा बदल लिया होगा और उसे चोदने का विचार छोड़ दिया होगा तो आप गलत सोच रहे है। मैं तो कब से उसे चोदना चाहता था। पर उसकी उम्र और किसी गड़बड़ की आशंका से डर रहा था। हाँ उसकी बातें सुनकर एक बदलाव जरूर आ गया। मुझे लगा कि मैं सचमुच उसे प्यार करने लगा हूँ। जैसे वो मेरी कोई सदियों की बिछुड़ी प्रेमिका है जिसे मैं जन्मि-जन्मानंतर तक प्यार करता रहूँगा।

फिर सब कुछ सोच विचार करने के बाद मैंने एक जोर की सांस छोड़ते हुए उसे समझाना शुरू किया,”देखो मेरी प्रियतमा ! अब हमारे मधुर मिलन का अंतिम पड़ाव आने वाला है। ये वो परम आनंद है जिसके रस में ये सारी कायनात डूबी है !”

“मैं जानती हूँ मेरे कामदेव !”

“तुम अभी नासमझ हो ! प्रथम मिलन में तुम्हें बहुत कष्ट हो सकता है !”

“तुम चिंता मत करो मेरे प्रियतम ! मैं सब सह लूंगी मैं सब जानती हूँ !”

अब मेरे चौंकने की बारी थी मैंने पुछा “तुम ये सब ??”

“मैंने मम्मी और पापा को कई बार रति-क्रीड़ा और सम्भोग करते देखा है और अपनी सहेलियों से भी बहुत कुछ सुना है।”

“अरे कऽ कऽऽ क्या बात करती हो… तुमने ?” मेरे आश्चर्य कि सीमा नहीं रही “क्या देखा है तुमने और क्या जानती हो तुम ?”

“वोही जो एक पुरुष एक स्त्री के साथ करता एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ करता एक भंवरा किसी कली के साथ करता है, सदियों से चले आ रहे इस जीवन चक्र में नया क्या है जो आप मेरे मुंह से सुनना चाहते हैं … मैं… मैं… रसकूप, प्रेम द्वार, काम-दंड, रति-क्रीड़ा और मधुर मिलन जैसे शब्दों का नाम लेकर तुम्हें कैसे बताऊँ… मुझे क्षमा कर दो मेरे प्रियतम ! मुझे लाज आती है !!!”

मैं हक्का बक्का सा उसे देखता ही रह गया। आज तो ये मासूम सी दिखनेवाली लड़की न होकर अचानक एक प्रेम रस में डूबी नवयौवना और कामातुर प्रेयसी नज़र आ रही है।

बस अब बाकी क्या बचा था ??? मैंने एक बार फिर उसे अपनी बाहों में भर लिया…और…।

हमारे इस मधुर (प्रेम) मिलन (इसे चुदाई का नाम देकर लज्जित न करें) के बारे में मैं विस्तार से नहीं लिख पाऊंगा। सदियों से चले आ रहे इस नैसर्गिक सुख का वर्णन जितना भी किया जाए कम है। रोमांटिक भाषा में तो पूरे ग्रन्थ भरे पड़े हैं। वात्स्यायन का कामसूत्र या फिर देशी भाषा में मस्तराम की कोई किताब पढ़ लें।

मैंने मिक्की से उसके रजोदर्शन (मासिक) के बारे में पूछा था (मैं उसे गलती से भी गर्भवती नहीं करना चाहता था) तो उसने बताया था कि उसकी अगली तारीख एक जून के आस पास है और आज तो २८ मई है ! और फिर ! दिल्ली लुट गई……………………!!!

हमें कोई दस-पन्द्रह मिनट लगे होंगे। ऐसा नहीं है कि सब कुछ किसी कुशल खिलाड़ियों के खेल की भाँति हो गया हो। मिक्की जिसे खेल समझ रही थी वास्तव में थोड़ा सा कष्ट कारक भी था। वो थोड़ा रोई-चिल्लाई भी ! पर प्रथम-मिलन के उन पलों में उसने पूरा साथ दिया। आज वो कली से फूल बनकर तृप्त हो गई थी। हम दोनों साथ साथ स्खलित हुए। उसे थोड़ा खून भी निकला था। मैंने अपने कुरते की जेब से वोही रेशमी रुमाल निकाला जो मिक्की ने मुझे बाज़ार में गिफ्ट दिया था और उसके प्रेम द्वार से चूते मेरे प्रेम-रस, मिक्की के काम-राज और रक्त का मिलाजुला मिश्रण उस अनमोल भेंट में डुबो कर साफ़ कर दिया और उसे अमूल्य निधि की तरह संभाल कर अपने पास रख लिया।

फिर हम दोनों ने बाथरूम में जाकर सफाई की। मिक्की की मुनिया पाव रोटी की तरह सूज गई थी, उसके निचले होंठ बहुत मोटे हो गए थे जैसे ऊपर वाले होंठों का डबल रोल हो। मैंने उसकी पिक्की ? बुर ? चूत ? (अरे नहीं यार मैं तो उसे मुनिया कहूँगा) पर एक चुम्बन ले लिया और मिक्की ने भी मेरे सोये पप्पू को निराश नहीं किया उसने भी एक चुम्बन उस पर ले लिया।

मैंने खिड़की का पर्दा हटा दिया। चाँद की दूधिया रोशनी से कमरा जगमगा उठा। दूर आसमान में एकम का चाँद अपनी चांदनी बरसाता हुआ हमारे इस मधुर मिलन का साक्षी बना मुस्कुरा रहा था। मिक्की मेरी गोद में सिर रखे अपनी पलकें बंद किये सो रही थी।

मैंने उदास स्वर में कहा “मिक्की मेरी जान, मेरे प्राण, मेरी आत्मा, मेरी प्रेयसी कैसी हो ?”

उस से बिछुड़ने की वेदना मेरे चहरे पर साफ़ झलक रही थी। कल मिक्की वापस चली जायेगी।

“अब मैं कली से फूल, किशोरी से युवती, मिक्की और मोना से मोनिका बन गई हूँ और मेरी पिक्की अब भोस नहीं… प्रेम रस भरा स्वर्ग द्वार बन गई है कहने को और क्या शेष रह गया है मेरे प्रेम दीवाने, मेरे प्रेम देव, मेरे प्रथम पुरुष !” मिक्की ने रस घोलती आवाज में कहा।

आप जरूर सोच रहे होंगे अजीब बात है ये बित्ते भर की +२ में पढ़ने वाली नादान अंगूठा चूसने वाली नासमझ सी लोंडिया इतनी रोमांटिक और साहित्यिक भाषा में कैसे बात कर रही है ? मैंने (लेखक ने) जरूर कहीं से ये संवाद व्ही शांता राम की किसी पौराणिक फिल्म या किसी रोमांटिक उपन्यास से उठाया होगा ?

आप सरासर गलत हैं। मैंने भी मिक्की (सॉरी अब मोनिका) से उस समय पूछा था तो उसने जो जवाब दिया था आप भी सुन लीजिये :

“क्यों मेरे पागल प्रेम दीवाने जब आप अपने आप को बहुत बड़ा ‘प्रेम गुरु’ समझते हैं, अपने कंप्यूटर पर ‘जंगली छिपकलियों’ के फोल्डर और फाइल्स को लोक और अन्लोक कर सकते है तो क्या मैं आपकी उस काले जिल्द वाली डायरी, जिसे आपने परसों स्टडी रूम में भूल से या जानबूझ कर छोड़ दिया था, नहीं पढ़ सकती ? “

हे भगवान् ? मैं हक्का बक्का आँखें फाड़े उसे देखता ही रह गया। मुझे ऐसा लगा जैसे हजारों वाट की बिजलियाँ एक साथ टूट पड़ी हैं। मैंने कथा के शुरू में आपको बताया था कि मैं उन दिनों डायरी लिखता था और ये वोही डायरी थी जिसके शुरू में मैंने अपनी सुहागरात और मधुर मिलन के अन्तरंग क्षणों को बड़े प्यार से संजोया था और उसके प्रथम पृष्ठ पर ‘मधुर प्रेम मिलन’ लिखा था। मैंने इसे बहुत ही संभाल कर रखा था और मधु को तो अब तक इसकी हवा भी नहीं लगने दी थी, न जाने कैसे उस दिन आजकल के अनुभवों के नोट्स लिखते हुए स्टडी रूम में रह गई थी।

ओह ! अब तो सब कुछ शीशे की तरह साफ़ था।

“आपको तो मेरा धन्यवाद करना चाहिए कि वो डायरी मैंने बुआजी के हाथ नहीं पड़ने दी और अपने पास रख ली नहीं तो इतना बड़ा हंगामा खड़ा होता कि आपका सारा का सारा साहित्यिक ज्ञान और प्रेम-गुरुता धरी की धरी रह जाती ?” मिक्की ने जैसे मेरे ताबूत में एक कील और ठोक दी।

“ओह थैंक यू … मिक्की ओह बा मोनिका कहाँ है वो ड़ायरी ?? लाओ प्लीज मुझे वापस दे दो !”

“ना ! कभी नहीं वो तो मैं जन्म-जन्मान्तर तक भी किसी को नहीं दूँगी, मेरे पास भी तो हमारे प्रथम मधुर मिलन के इन अनमोल क्षणों की कुछ निशानी रहनी चाहिए ना ?”

मैं क्या बोलता ?

मिक्की फिर बोली “मधुर मिलन की इस रात्रि में उदासी का क्या काम है ! आओ ! सपनों के इस संसार में इन पलों को ऐसे व्यर्थ न गंवाओ मेरे प्रियतम ! ये पल फिर मुड़ कर नहीं आयेंगे !”

और मिक्की ने एक बार फिर मेरे गले में अपनी नाज़ुक बाहें डाल दी। इस से पहले कि मैं कुछ बोलता मिक्की के जलते होंठ मेरे होंठों पर टिक गए और मैंने भी कस कर उन्हें चूमना शुरू कर दिया।

बाहर मिक्की के मामाजी (अरे यार चन्दा मामा) खिड़की और रोशनदान से झांकते हुए मुस्कुरा रहे थे।

अगली सुबह-

मिक्की के पास तो लंगड़ाकर चलने का बहाना था (टांगों के बीच में दर्द का नहीं एड़ी में दर्द का) पर मेरे पास तो सिवाए सिर दर्द के और क्या बहाना हो सकता था। मैंने इसी बहाने ऑफिस से बंक मार लिया। आज मेरी मिक्की मुझ से बिछुड़ कर वापस जा रही थी। शाम की ट्रेन थी। मेरा मन किसी चीज में नहीं लग रहा था। एक बार तो जी में आया कि मैं रो ही पडूं ताकि मन कुछ हल्का हो जाए पर मैंने अपने आप को रोके रखा। दिन भर अनमना सा रहा। मैं ही जानता हूँ मैंने वो पूरा दिन कैसे बिताया।
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RE: प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ - by sexstories - 07-04-2017, 12:40 PM

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