प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ
07-04-2017, 12:33 PM,
#35
RE: प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ
मंदिर आ गया था। बाहर लम्बा चौड़ा प्रांगण सा बना था। थोड़ी दूर एक काले रंग के पत्थर की आदमकद मूर्ति बनी थी। हाथ में खांडा पकड़े हुए और शक्ल से तो यह कोई दैत्य जैसा सैनिक लग रहा था। उसकी मुंडी नीचे लटकी थी जैसे किसी ने काट दी हो पर धड़ से अलग नहीं हुई थी। ओह … इसकी शक्ल तो उस कालू हब्शी से मिल रही थी जो उस फिरंगन के पीछे लट्टू की तरह घूम रहा था। उसके निकट ही एक चोकोर सी वेदी बनी थी जिसके पास पत्थर की एक मोटी सी शिला पड़ी थी जो बीच में से अंग्रेजी के यू आकार की बनी थी। वीरभान ने बताया कि यह वध स्थल है। अपराधियों और राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों को यहीं मृत्यु दंड दिया जाता था। "ओह …" मेरे मुँह से तो बस इतना ही निकला। "और वो सामने थोड़ी ऊंचाई पर रंगमहल बना है मैंने आपको बताया था ना ?" वीर भान ने उस गढ़ी की ओर इशारा करते हुए कहा। "हूँ …" मैंने कहा। सामने ही कुछ सीढ़ियां सी बनी थी जो नीचे जा रही थी। मुझे उसकी ओर देखता पाकर वीरभान बोला "श्रीमान यह नीचे बने कारागृह की सीढियां हैं।" बाकी सभी तो आगे मंदिर में चले गए थे मैं उन सीढियों की ओर बढ़ गया। नीचे खंडहर सा बना था। घास फूस और झाड झंखाड़ से उगे थे। मैं अपने आप को नहीं रोक पाया और सीढ़ियों से नीचे उतर गया। सामने कारागृह का मुख्य द्वार बना था। अन्दर छोटे छोटे कक्ष बने थे जिन में लोहे के जंगले लगे थे। मुझे लगा कुछ अँधेरा सा होने लगा है। पर अभी तो दिन के 2 ही बजे हैं दोपहर के समय इतना अँधेरा कैसे हो सकता है ? विचित्र सा सन्नाटा पसरा है यहाँ। मैंने वीरभान को आवाज दी "वीरभान ?" मैं सोच रहा था वो भी मेरे पीछे पीछे नीचे आ गया होगा पर उसका तो कोई अता पता ही नहीं था। मैंने उसे इधर उधर देखा। वो तो नहीं मिला पर सामने से सैनिकों जैसी वेश भूषा पहने एक व्यक्ति कमर पर तलवार बांधे आता दिखाई दिया। उसने सिर पर पगड़ी सी पहन रखी थी। हो सकता है यहाँ का चौकीदार या सेवक हो। वो मेरे पास आ गया और उसने 3 बार झुक कर हाथ से कोर्निश की। मैं हैरान हुआ उसे देखते ही रह गया। अरे इसकी शक्ल तो उस होटल वाले चश्मू क्लर्क से मिलती जुलती लग रही थी ! इसका चश्मा कहाँ गया ? यह यहाँ कैसे पहुँच गया ? इससे पहले कि मैं उसे कुछ पूछता वो उसी तरह सिर झुकाए बोला "कुमार आपको महारानी कनिष्क ने स्मरण किया है !" पहले तो मैं कुछ समझा नहीं। मैंने इधर उधर देखा शायद यह किसी और को बुला रहा होगा पर वहाँ तो मेरे अलावा कोई नहीं था। "महारानी बड़ी देर से आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं आप शीघ्रता पूर्वक चलें !" वो तो मुझे ही पुनः संबोधित कर रहा था। मैं बिना कुछ समझे और बोले उसके पीछे चल पड़ा। वो मेरे आगे चल कर रास्ता दिखा रहा था। थोड़ी दूर चलने पर देखा तो सामने रंगमहल दूधिया रोशनी में जगमगा रहा था। दिन में इतनी रोशनी ? ओह… यह तो रात का समय हो चला है। दो गलियारे पार करने के उपरान्त रंगमहल का मुख्य द्वार दृष्टिगोचर हुआ। इस से पहले कि मैं उस सेवक से कुछ पूछूं वह मुख्य द्वार की सांकल (कुण्डी) खटखटाने लगा। "प्रतिहारी कुमार चन्द्र रंगमहल में प्रवेश की अनुमति चाहते हैं !" "उदय सिंह तुम इन्हें छोड़ कर जा सकते हो !" अन्दर से कोई नारी स्वर सुनाई दिया। उदय सिंह मुझे वहीं छोड़ कर चला गया। अब मैंने आस पास अपनी दृष्टि दौड़ाई, वहाँ कोई नहीं था। अब मेरी दृष्टि अपने पहने वस्त्रों पर पड़ी। वो तो अब राजसी लग रहे थे। सिर पर पगड़ी पता नहीं कहाँ से आ गई थी। गले में मोतियों की माला। अँगुलियों में रत्नजडित अंगूठियाँ। बड़े विस्मय की बात थी। अचानक मुख्य द्वार के एक किवाड़ में बना एक झरोखा सा आधा खुला और उसी युवती का मधुर स्वर पुनः सुनाई पड़ा,"कुमार चन्द्र आपका स्वागत है ! आप अन्दर आ सकते हैं !" मैं अचंभित हुआ अपना सिर झुका कर अन्दर प्रवेश कर गया। गुलाब और चमेली की भीनी सुगंध मेरे नथुनों में समा गई। अन्दर घुंघरुओं की झंकार के साथ मधुर संगीत गूँज रहा था। फर्श कालीन बिछे थे और उन पर गुलाब की पत्तियां बिखरी थी। सामने एक प्रतिहारी नग्न अवस्था में खड़ी थी। इसका चहरे को देख कर तो इस कि आयु 14-15 साल ही लग रही थी पर उसके उन्नत और पुष्ट वक्ष और नितम्बों को देख कर तो लगता था यह किशोरी नहीं पूर्ण युवती है। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि यह नग्न अवस्था में क्यों खड़ी है। प्रतिहारी मुझे महारानी के शयन कक्ष की ओर ले आई। उसने बाहर से कक्ष का द्वार खटखटाते हुए कहा,"कुमार चन्द्र आ गए हैं ! द्वार खोलिए !" अन्दर का दृश्य तो और भी चकित कर देने वाला ही था। महारानी कनिष्क मात्र एक झीना और ढीला सा रेशमी चोगा (गाउन) पहने खड़ी थी जिसमें उसके सारे अंग प्रत्यंग स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। उन्होंने अन्दर कोई अधोवस्त्र नहीं पहना था पर कमर में नाभि के थोड़ा नीचे सोने का एक भारी कमरबंद पहना था जिसकी लटकती झालरों ने उसके गुप्तांग को मात्र ढक रखा था वर्ना तो वो नितांत नग्नावस्था में ही थी। सिर पर मुकुट, गले में रत्नजड़ित हार, सभी अँगुलियों में अंगूठियाँ और पैरों में पायल पहनी थी। उनके निकट ही 4-5 शोडषियाँ अपना सिर झुकाए नग्न अवस्था में चुप खड़ी थीं। थोड़ी दूरी पर ही राजशी वस्त्र पहने एक कृषकाय सा एक व्यक्ति खड़ा था जिसे दो सैनिकों ने बाजुओं से पकड़ रखा था। अरे ... इसका चेहरा तो प्रोफ़ेसर नील चन्द्र राणा से मिलता जुलता लग रहा था। "सत्यव्रत ! महाराज चित्रसेन को इनके शयन कक्ष में ले जाओ। आज से ये राज बंदी हैं !" महारानी ने कड़कते स्वर में कहा। पास में एक घुटनों तक लम्बे जूते और सैनिकों जैसी पोशाक पहने एक और सैनिक खड़ा था जो इनका प्रमुख लग रहा था उसने सिर झुकाए ही कहा,"जो आज्ञा महारानी !" उसकी बोली सुनकर मैं चोंका ? अरे... यह सत्यजीत यहाँ कैसे आ गया ? उसका चेहरा तो सत्यजीत से हूबहू मिल रहा था। इससे पहले कि मैं कुछ पूछता, सैनिक महाराज को ले गए। महारानी ने अपने हाथों से ताली बजाई और एक बार पुनः कड़कते स्वर में कहा,"एकांत …!" जब सभी सेविकाएं सिर झुकाए कक्ष से बाहर चली गईं तो महारानी मेरी ओर मुखातिब हुई। मैं तो अचंभित खड़ा या सब देखता ही रह गया। मेरे मुँह से अस्फुट सा स्वर निकला "अ ... अरे … कनिका ... तुम ?" आज यह मोटी कुछ पतली सी लग रही थी। "कुमार आप राजकीय शिष्टाचार भूल रहे हैं ! और आप यह उज्जड़ और गंवारु भाषा कैसे बोल रहे हैं ?" "ओह … म ... …" "चलिए आप इन व्यर्थ बातों को छोड़ें … आइये … कुमार चन्द्र। अपनी इस प्रेयसी को अपनी बाहों में भर लीजिए। मैं कब से आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ !" उसने अपनी बाहें मेरी ओर बढ़ा दी। "ओह... पर आ... आप …?" "कुमार चन्द्र व्यर्थ समय मत गंवाओ ! मैं जन्म-जन्मान्तर की तुम्हारे प्रेम की प्यासी हूँ। मुझे अपनी बाहों में भर लो मेरे चन्द्र ! मैं सदियों से पत्थर की मूर्ति बनी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ … आओ मेरे प्रेम … देव …!" उसकी आँखों में तो जैसे काम का ज्वार ही आया था। उसकी साँसें तेज हो रही थी और अधर काँप रहे थे।
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